21 अगस्त 2024, भारत बंद के समर्थन में दोपहर 1 बजे आजाद मैदान, मुंबई में अंबेडकरवादी भारत मिशन के बैनर तले श्यामदादा गायकवाड़, शरद कांबले, राहुल गायकवाड, सुरेश माने, सुरेश खोबरागड़े, सुरेश केदारे, श्याम गोहिल और कई महत्वपूर्ण नेता के साथ सैकडों कार्यकर्ता उपस्थित थे. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ उत्तर भारत के कई दलित और आदिवासी संगठनों के 21 अगस्त 2024 के ‘भारत बंद’ का आह्वान को महाराष्ट्र के दलित और आदिवासी समुदायों ने भी समर्थन दिया. इसी के तहत पूरे राज्य में आंदोलन और देश की आर्थिक राजधानी मुंबई के आजाद मैदान में दलित एकजुटता विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया गया था.
विभिन्न नेताओं ने अपनी बात रखते हुए कहा कि पिछड़ी जातियां के प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति का आरक्षण एक संवैधानिक अधिकार है. लेकिन सरकार इसे बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है. निजीकरण, ठेकेदारी के तरीकों, आउटसोर्सिंग को प्राथमिकता देने पर मोदी का विशेष जोर ह. पिछड़ों की पदोन्नति में आरक्षण बंद कर दिया गया है. छात्रवृत्ति और फेलोशिप रोककर दलित छात्रों की शैक्षिक सुविधा को अवरुद्ध किया जा रहा है. दलित अपने संघर्ष में खड़े भी न हों पाये, इसके लिए अनुसूचित जातियों को बांटने की कुत्सित नीति अपनाई गई है. वह नीति सुप्रीम कोर्ट के नवीनतम उप-वर्गीकरण फैसले में परिलक्षित होती है.
उन्होंने कहा कि आरक्षण के लिए अनुसूचित जातियों को ए, बी, सी, डी के रूप में उप-वर्गीरकरण को मंजूरी देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 1 अगस्त 2024 को यह अधिकार राज्य सरकारों को देने का फैसला सुनाया है. सरकार से अनुसूचित जाति के लिए भी क्रीमीलेयर लागू करने की सिफारिश की है. सुप्रीम कोर्ट के नए फैसले को आरक्षण के लाभ से वंचित कई अनुसूचित जातियों के लिए चिंता का विषय माना जा सकता है. लेकिन वास्तव में, इससे अनुसूचित जातियों में आपसी ईर्ष्या, द्वेष और आक्रोश बढ़ गया है और उनके बीच ही संघर्ष का खतरा पैदा हो गया है. यह संभव है कि राज्यों के शासक वर्ग केवल यह गिनकर उपवर्गीकरण करेंगे कि कौन उनके समर्थक हैं और कौन उनके विरोधी. हाल ही में मणिपुर में जो हुआ वह सबने देखा है. इस चेतावनी को ध्यान में रखते हुए, उप-वर्गीकरण का समर्थन करने वाली अनुसूचित जातियों को इस भ्रम से सावधान रहने की जरूरत है. ऐसे ही एक फैसले के खिलाफ 2 अप्रेल 2018 को भारत बंद कर दिया गया था. हालांकि, इस बार के फैसले से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के बीच दो सीमाएं बन गईं. विशेषकर अनुसूचित जाति पर क्रीमीलेयर लागू करने का संविधान में कोई प्रावधान न होने पर भी कुछ दलितों ने क्रीमी लेयर का समर्थन करना शुरू कर दिया है! दूसरी ओर, उप-वर्गीकरण कुछ छोटी-छोटी जातियों और अन्य जातियों में विभाजन बन गया है जो उप-वर्गीकरण को स्वीकार नहीं करते हैं. संविधान द्वारा अनुसूचित जाति एवं जनजाति को राष्ट्रीय जीवन में एक ‘‘स्वतंत्र वर्ग’ के रूप में दिये गये अस्तित्व को ही कमजोर कर दिया गया है. यह उनकी वर्ग एकता को नष्ट करने के कगार पर है, भले ही अनुसूचित जातियां चार जनजातियों से परे एक स्वतंत्र और प्रमुख तत्व हैं. डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर ने इसे सरल साबित किया और अनुसूचित जाति को एक अलग वर्ग के रूप में मान्यता दिलाने की लड़ाई जीती.
फिर उन्हें शिक्षा, नौकरियों और संसदीय राजनीति में सुनिश्चित भागीदारी/प्रतिनिधित्व पाने के लिए अनुसूचित जाति के लिए आरक्षण का संवैधानिक अधिकार मिल गया! यह जनसंख्या के आकार पर आधारित है. देश की 108 जातियां उस संवैधानिक अधिकार की ‘हकदार’ बन गईं, देश में उनकी आबादी 21 करोड़ है. इसमें महाराष्ट्र की 59 जातियां शामिल हैं और इनकी आबादी 1 करोड़ 32 लाख है. देश में अनुसूचित जाति को 13 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति को 7.5 प्रतिशत आरक्षण मिला हुआ है. महिलाएं, जो देश की आधी आबादी हैं, बिना किसी दबाव के बराबर की हिस्सेदारी हासिल नहीं कर सकतीं. वहां आरक्षण के बिना अनुसूचित जाति का क्या होता? बेशक, आरक्षण का लाभ पाने के लिए अनुसूचित जाति का शैक्षिक और आर्थिक स्तर बढ़ाने की जरूरत है. 1949-50 में संविधान लागू हुआ. लेकिन आरक्षण के अधिकार से लाभान्वित होने वाली एक सक्षम शिक्षित पीढ़ी तैयार करने के लिए 1971 के बाद अगले दो दशक बीतने थे. लेकिन इसके बाद भी पिछले 50 वर्षों में आरक्षण का लाभ उन तक नहीं पहुंचने पर दो-चार अनुसूचित जातियों ने शिकायत का स्वर उठाया. उन्होंने आरोप लगाया गया कि केवल कुछ बड़ी अनुसूचित जातियों को ही आरक्षण का लाभ मिल रहा है और अन्य छोटी जातियाँ आरक्षण के अधिकार से वंचित हैं. आरक्षण के उप-वर्गीकरण की मांग यहीं से जन्मी. लेकिन जो सरकार नीति और आचरण में आरक्षण विरोधी थी और जाति-आधारित अस्तित्व के खिलाफ थी, उसने फैसले से पहले ही उप-वर्गीकरण के लिए तत्काल कदम कैसे उठाया? अचानक अनुसूचित जाति को लेकर इतनी चिंता होने लगी है?
यह कहां से आया था? यदि कुछ छोटी जातियां वास्तविक आरक्षण का लाभ पाने के लिए वास्तव में कमजोर थीं, तो गहराई में जाना आवश्यक था. मराठा आरक्षण के मुद्दे पर इसके पीछे के कारणों का ‘अनुभवजन्य डेटा’ पेश करने को कहा गया है तो कोर्ट ने फैसले से पहले आरक्षण लाभ का लेखा-जोखा पेश करने पर जोर क्यों नहीं दिया? बिना ठोस आंकड़ों के दो-चार अनुसूचित जातियां आरक्षण से वंचित के सुर पर एकाध अनुसुचित जाति को चुनाव पूर्व प्रधानमंत्री का वादा उप-वर्गीकरण परिणामों के लिए ‘आधार’ कैसे हो सकता है? इसका कारण साफ है. अनुसूचित जातियों के उप-वर्गीकरण के मुद्दे पर केंद्र सरकार और महाराष्ट्र सरकार पहले ही समितियां बनाकर काम कर चुकी हैं. उसके बाद सुप्रीम कोर्ट का उप-वर्गीकरण का फैसला आया है. कोर्ट ने सरकार के एजेंडे पर मुहर लगा दी है.
नेताओं ने कहा कि उपवर्गीकरण एक प्यारा शब्द है. अनुसूचित जातियों का विभाजन इसका सीधा अर्थ है और यही सरकार का उद्देश्य है. इसके पीछे अंतर्जातीय संघर्ष की आग को भड़काते हुए सत्ता को चुनौती देने वाली शक्तिशाली अनुसूचित जातियों को अलग-थलग करने का एक दुष्ट मास्टर प्लान है. हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में संविधान की रक्षा का मुद्दा खुलकर सामने आया. उससे दलित और मुस्लिम दोनों समुदायों ने एकजुट होकर बीजेपी को रोकने के लिए भारत अघाड़ी और महराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी का समर्थन किया. हम यह कैसे भूल सकते हैं कि उस चुनाव के नतीजों के बाद उप-वर्गीकरण के नतीजे आए, जिसने दलितों को विभाजित कर दिया और अनुसूचित जातियों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया?
– श्याम गोहिल