वर्ष - 33
अंक - 30
20-07-2024

2024 के लोकसभा चुनावों में ‘बीजेपी हराओ, संविधान बचाओ’ अभियान से बुरी तरह से त्रस्त भाजपा अब खुद को भारत के संविधान के ‘रक्षक’ और ‘चैंपियन’ के बतौर पेश करने के लिए बेताब है. भारत पहले से ही 26 नवंबर को संविधान दिवस के बतौर मनाता रहा है, जिस दिन 1949 में संविधान सभा द्वारा संविधान को अपनाया गया था. मोदी सरकार ने अब 25 जून को ‘संविधान हत्या दिवस’ के बतौर नामित किया है – 1975 में आपातकाल की घोषणा को संविधान की हत्या की कोशिश की बजाय सीधे हत्त्या के बतौर याद करने का दिन. किसी भी देश के लिए अपने ही संविधान की हत्या का दिन मनाना अभूतपूर्व है. साथ ही, ऐसा लगता है कि मोदी सरकार ने हाल ही 1 जुलाई से थोपी गई आपराधिक संहिताओं के चलन का अनुसरण करते हुए विभिन्न घटनाओं और कानूनों के लिए रोमन लिपि में लिखे गए हिंदी नामों का उपयोग करना चुना है.

‘संविधान हत्या दिवस’ का ऐलान 18वीं लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण के बाद की गई जिसमें 1975 के आपातकाल को ‘संविधान पर सीधे हमले का सबसे अहम और काला अध्याय’ बताया गया. लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति ने भी इसी तरह की टिप्पणी की, यहां तक कि अध्यक्ष ने लोकसभा द्वारा एक प्रस्ताव भी पारित करवाया. आपातकाल की 50वीं सालगिरह यकीनन लोकतंत्र और नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों और स्वतंत्रता के सरपरस्तों के लिए आपातकाल के दौर में राज्य दमन की याददिहानी है. हालांकि 1975 की हर चर्चा हमेशा तब और अब के आपातकाल के दौर की तुलना की ओर ले जाएगी. फिर भी मोदी सरकार का मानना है कि वह 1975 की याददिहानी का इस्तेमाल आज चल रहे आपातकाल के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों का दमन करने के लिए कर सकती है.

सामूहिक नसबंदी अभियान को छोड़कर 1975 के आपातकाल की हर भयावहता अब मौजूदा दौर में कई गुना दोहराई और बढ़ाई जा रही है. प्रेस सेंसरशिप बेशक निरर्थक हो गई है, क्योंकि प्रमुख मीडिया लगभग पूरी तरह से आधिकारिक प्रचार के रजामंद हथियार में तब्दील हो गए हैं. आपातकाल के दौरान गिरफ्तार किए गए अधिकांश विपक्षी नेताओं को 1977 के चुनावों से पहले रिहा कर दिया गया था, जबकि मोदी सरकार ने 2024 के चुनावों के दौरान दो मुख्यमंत्रियों को गिरफ्तार करके और कई नेताओं की वफादारी या दलबदल को पुख्ता करने के लिए उत्पीड़न, धमकी और प्रलोभन का उपयोग कर एक अलग नजरिया अपनाया है. असहमति की आवाजों को कैद करने और घरों और दुकानों को ध्वस्त करने के मामले में मोदी युग के स्थायी आपातकाल की रोजमर्रा की हिंसा के बरक्स इंदिरा गांधी का घोषित आपातकाल फीका पड़ जाता है. भीड़ द्वारा हत्या, मुसलमानों और अन्य हाशिए के समूहों के खिलाफ अत्यन्त जहरीला नफरती अभियान, साथ ही विभिन्न विचारधाराओं के असहमति रखने वालों और विरोध आंदोलनों का दमन, मोदी युग के आपातकाल की खासियत है.

हमें यह बिलकुल नहीं भूलना चाहिए कि गुजरात और बिहार में आपातकाल से पहले छात्रों और युवाओं के आंदोलन में शामिल होने के बाद आरएसएस ने आवाम पर आपातकाल थोपने वाली निजाम के साथ जल्दी ही दोस्ती कर ली थी. उस दौर में आरएसएस प्रमुख बाबासाहेब देवरस के जरिये आरएसएस स्वयंसेवकों की ओर से समर्थन जाहिर करते हुए इंदिरा गांधी को लिखा गया खत सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध हैं. संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आपातकाल ने मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया था और इसके तहत प्राकृतिक न्याय की भी अवहेलना की थी. यह बेहद चिंताजनक है कि मोदी सरकार ने अनुच्छेद 352 को निरस्त करने के बारे चर्चा न कर इसके बजाय यूएपीए और पिछले 1 जुलाई से लागू नये आपराधिक संहिताओं जैसे कानूनों के जरिये बिना मुकदमे के हिरासत में रखने की कठोर प्रथा को आम बना दिया है.

2024 के लोकसभा चुनावों में संविधान रातोंरात मुद्दा नहीं बन गया. ऐसा नहीं है कि 2014 में मोदी के सत्तासीन होने के बाद से संविधान के बुनियादी वसूलों और अहम खासियतों पर हो रहे सिलसिलेवार हमले किसी की नजर में नहीं आए हों. इस हकीकत को सभी जानते हैं कि आरएसएस ने संविधान को अपनाने के समय इसे खारिज कर दिया था और हर अवसर पर वह भारतीय लोगों के लिए आदर्श कानून के बतौर मनुस्मृति का समर्थन करता रहा है. अनेक भाषाओं, संस्कृतियों और बहुधार्मिक भारत को एक अखंड हिंदू राष्ट्र में बदलना शुरुआत से ही आरएसएस का सबसे बड़ा सपना रहा है, जो बाबासाहेब अंबेडकर के नेतृत्व में बने  संविधान के बुनियादी वसूलों को पूरी तरह से ध्वस्त किए बिना कभी पूरा नहीं हो सकता. 2024 के चुनावों में 400 से ज्यादा सीटें जीतने के लक्ष्य के पीछे सिर्फ भाजपा के बड़बोले नेताओं ने ही नए संविधान लाने को इसकी वजह नहीं बताया, बल्कि प्रधानमंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार ने भी भारत की आजादी की 75वीं सालगिरह के मौके पर एक अखबार में छपे लेख में नए संविधान की खुलेआम वकालत की.

निस्संदेह, तीन साल पहले मोदी सरकार के जरिये 14 अगस्त को ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ मनाने का ऐलान, और अब 25 जून को ‘संविधान हत्या दिवस’ के बतौर नामित करना संघ ब्रिगेड के छुपे विघटनकारी कारगुजारियों को मजबूत करने की जबरदस्त कोशिश है. विभाजन की भयावहता और त्रासदियों के जख्मों को फिर ताजा करने, और आपातकाल के ज्यादतियों के लिए मौजूदा दौर में इन शब्दों का प्रयोग करना संघ ब्रिगेड के विभाजनकारी एजेंडे को आगे बढ़ाने और संविधान को कमजोर करने के उनके इरादे के बारे बहुत कुछ कह जाता है. चाहे वह भेदभावपूर्ण नागरिकता कानूनों के खिलाफ शाहीन बाग का विरोध-प्रदर्शन हो, सामाजिक समानता और हाशिए के समुदायों के अधिकारों की लड़ाई हो या कृषि में काॅर्पाेरेट वर्चस्व के खिलाफ अटूट प्रतिरोध हो, ‘हम, भारत के लोग’, अपने अधिकारों की हिफाजत करने और हर फासीवादी साजिश को नाकाम करने के लिए बार-बार संविधान के बैनर तले लामबंद होते रहे हैं. 2024 के चुनावों ने दुनिया को बता दिया है कि भारत में संविधान एक अहम ताकत के बतौर मौजूद है, क्योंकि भारत की जनता स्वतंत्रता आंदोलन की इस उपलब्धि को पूरी ताकत से हिफाजत करने और स्वतंत्र भारत को एक संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य में बदलने के लिए इसे दृढ़ता से बनाए रखने और हर चुनौती का मुकाबला करने को तैयार है.