वर्ष - 33
अंक - 29
13-07-2024

कमजोर हो चुकी सरकार फिर सत्ता में वापस आ गयी है, साथ ही एक मजबूत, ऊर्जावान विपक्ष भी संसद में उसका मुक़ाबला करने के लिए आ चुका है. 2024 के चुनावों का कुल हासिल यदि देखा जाये तो वो है शक्तियों के संतुलन का सामान्य तौर पर विपक्ष की ओर झुकाव. एक क्रियाशील लोकतंत्र में इसका मतलब होना चाहिए कि अंकुश में कार्यपालिका और क्रमबद्ध रूप से समाज एवं शासन में पुनर्स्थापित राजनीतिक संतुलन. लेकिन 2024 में भारत में संसदीय लोकतंत्र क्रियाशील होने के अलावा सब कुछ है. 2014 से मोदी के भारत में लोकतंत्र का क्षरण बेहद सामान्य बात है. और यह 2024 के जनादेश के द्वारा दिये झटके के बावजूद ऐसा ही है.

18वें लोकसभा चुनाव में जाते वक्त मोदी सरकार को जमीनी हकीकत का ठीक-ठाक अंदाज रहा होगा. एक बेहद लंबा चुनावी कार्यक्रम संभवतः इसीलिए था ताकि संसाधनविहीन विपक्ष को थका कर इस अत्याधिक अनुचित और असमान चुनावी युद्ध में अपनी पराजयों को वह जितना मुमकिन हो कम कर सके. हुकूमत ने वो हर मुमकिन काम किया जिससे चुनाव अभियान महत्वाकांक्षी और आत्मविश्वास से लबरेज दिख सके और जिसमें किसी तरह की कमजोरी के चिन्ह नजर न आएं.  लेकिन इसी दौरान पर्दे के पीछे वह गठबंधनों को मजबूत करने, वोटों का इंतजाम करने और मशीनरी को अपने पक्ष में मोड़ने में लगी रही, जिससे कि वोटों की तालिका को एक स्तर से नीचे गिरने से रोका जा सके.

अंतिम क्षणों में बिहार में जदयू, आंध्र प्रदेश में टीडीपी और राष्ट्रीय लोकदल से किए गए गठबंधनों के बगैर इन चुनाव में मोदी हुकूमत का क्या हश्र होता, यह कल्पना करना मुश्किल नहीं है. अंतिम तौर पर भाजपा की 240 सीटें और एनडीए की 293 सीटें, जिनमें वो तीस सीटें भी शामिल हैं, जो चालीस हज़ार से कम वोटों के अंतर से जीती हुई हैं, कुल मिलाकर सब इस व्यापक सूक्ष्म—प्रबंधन और हस्तक्षेप का परिणाम है. सिवाय पहले चरण का फीडबैक मिलने के बाद मोदी की भाषा और भावभंगिमा में जो तनाव और हड़बड़ी दिखाई दी, उसके अलावा जैसे भाजपा ने चुनाव से पहले अपनी घबराहट प्रकट नहीं की, उसी तरह नयी सरकार बनने के बाद उसकी शुरुआती कार्यवाहियाँ भी “सब चंगा सी” का संदेश देने की कोशिश है.

पूर्ववर्ती सरकार वाले सभी प्रमुख मंत्रियों और प्रधानमंत्री के सलाहकारों को बनाए रखा गया है ताकि बिना बदलाव वाली निरंतरता का संकेत दिया जा सके. 14 साल पुराने मामले में दिल्ली के उपराज्यपाल द्वारा अरुंधति रॉय और शेख शौकत हुसैन के खिलाफ यूएपीए के तहत मुकदमा चलाने की अनुमति देना, दरअसल दुनिया को यह बताने की कोशिश है कि चीजें अभी भी मोदी के नियंत्रण में हैं और डर व उत्पीड़न उनके शासन के सबसे बड़े औज़ार बने रहेंगे.

लोगों का गुस्सा जो कि मोदी सरकार के मंत्रियों की अच्छी ख़ासी संख्या में हार और उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान जैसे राज्यों में भारी नुकसान में जो हुआ, भाजपा और खासतौर पर मोदी खेमा तो इसे या किसी वास्तविक गिरावट को स्वीकार नहीं कर रहा, लेकिन हाल में मोहन भागवत समेत आरएसएस के पदाधिकारियों ने जरूर कुछ चेतावनी भरी टिप्पणियां जारी की हैं. यह संभवतः जिसमें व्यक्ति पूजा को मान्यता न देने वाले सामूहिक और अनुशासित संगठन के रूप में आरएसएस की छवि को बनाये रखने की कोशिश अधिक है, भाजपा पर कोई वास्तविक लगाम लगाने की उसमें कोई मंशा नहीं है. यह संभवतः उस तथ्य को भी प्रतिबिंबित करता है कि हाल के दिनों में संघ परिवार के भीतर आरएसएस और भाजपा दोनों ही, अपने कार्य विभाजन को पुनः स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं- नड्डा भाजपा के लिए राजनीतिक स्वायतत्ता का दावा कर रहे हैं और आरएसएस अपने नैतिक अभिभावकत्व पर पुनः ज़ोर दे रहा है.

दो दशक पहले, 2002 में गुजरात में हुए मुस्लिम कत्लेआम के आलोक में “राजधर्म” के पालन की जरूरत वाला प्रसिद्ध वाक्य अटल बिहारी वाजपेयी ने बोला था और तब मोदी ने कहा था कि वही तो वह कर रहे हैं. यह उनका सबको बताने का तरीका था कि एक कत्लेआम की निगरानी करने का उनका विचार सिद्ध करता है कि उनसे किस तरह के “राजधर्म” की अपेक्षा की जानी चाहिए. उससे उन्होंने ‘हिंदू हृदय सम्राट’ की उपाधि हासिल की. भाजपा के सत्ता में होने के चलते आरएसएस ने बहुत लाभ हासिल किया है, न केवल अपने वैचारिक एजेंडा के प्रसार में बल्कि अपने सांगठनिक प्रसार में भी और इसलिए भाजपा के निरंतर सत्ता में रहने को आरएसएस द्वारा अस्थिर किए जाने की कोई संभावना नहीं है.

मोदी सरकार के कुशासन के पुराने रिकॉर्ड के अनुसार ही उनका तीसरा कार्यकाल भी एक विनाशकारी बिंदु पर शुरू हुआ- एक भीषण रेल हादसे और नीट व नेट की परीक्षाओं के आयोजन में भयानक घोटाले के साथ. और हमेशा की तरह सरकार नकारने की मुद्रा में रही, उसने नीतिगत और शासन की विफलताओं की ज़िम्मेदारी लेने से इंकार कर दिया.

इस बीच मुस्लिम विरोधी हिंसा का अभियान नए सिरे से शुरू कर दिया गया है- भीड़ हिंसा, दुकानों की लूट से लेकर सांप्रदायिक हिंसा और घरों व पूजा स्थलों को ढहाने तक- पूरे देश में भाजपा को वोट न देने के लिए मुसलमानों को सबक सिखाने के लिए हिंसा का यह नया दौर चल रहा है. यहाँ तक अयोध्या के “कृतघ्न” हिंदुओं को सबक सिखाने के लिए उनके आर्थिक बहिष्कार का तक आह्वान किया जा रहा है क्यूंकि उन्होंने नए संविधान के निर्माण की मांग करने वाले भाजपा के प्रत्याशी को हरा दिया और समाजवादी पार्टी के एक वरिष्ठ दलित नेता को फ़ैज़ाबाद की सामान्य सीट से जिता दिया.

राज्य प्रदत्त छूट के साथ सड़कों पर फासीवादी क्रूरता और हिंसा तेज हो रही है, दूसरी ओर नए फ़ौजदारी कानून एक जुलाई से अस्तित्व में आने वाले हैं जो भारत के कानूनी ढांचे को “उपनिवेशवाद से मुक्त” करने की आड़ में, राजसत्ता को और अधिक अतिरंजित और क्रूर शक्तियों से लैस करने वाले हैं. अतः अगर मोदी 3.0 तीव्र फासीवादी आक्रामकता के साथ शुरू हो रहा है तो विपक्ष को अपनी बढ़ी हुई ताकत का भरपूर इस्तेमाल हुकूमत को संसद के भीतर और बाहर तीखे लोकप्रिय प्रतिरोधों के जरिये घेरने में करना चाहिए. एकजुट और जागरूक जन की सजगता और हस्तक्षेप ही तानाशाही को पराजित करेगा और लोकतंत्र के लिए निर्णायक जीत हासिल करेगा.