- मीना तिवारी
बिहार विधानसभा के जारी सत्र में 24 जुलाई को जब आरक्षण पर हाईकोर्ट के रोक पर सरकार से विपक्ष सवाल कर रहा था तब नीतीश कुमार जवाब देने को उठे. नीतीश कुमार जब इस विषय पर बोल रहे थे तो एक महिला विधायक रेखा पासवान ने कुछ सवाल उठाया. इस पर नीतीश कुमार फट पड़े और कहा ‘महिला हो, कुछ जानती नहीं हो’. उनकी इस टिप्पणी पर जब विपक्ष का हंगामा बढ़ गया तो डैमेज कंट्रोल करने में और भी अहंकार से नीतीश कुमार ने कहा ‘2005 के बाद हमने ही महिलाओं को आगे बढ़ाया है.’
महिलाओं को आगे बढ़ाने के उनके अहंकारी दावे पर बाद में, पहले महिला कुछ जानती नहीं है - की बात की जाए तो यह समझ भारतीय समाज को घुट्टी में पिलाया जाता है. हमारे तमाम धार्मिक आख्यान यही समझाते हैं कि औरतें कुछ नहीं जानती हैं. उनमें अक्ल कम होती है. गांव समाज में आपको कितनी ही कहावतें, मुहावरे मिल जाएंगे जो औरतों को कमअक्ली दिखाते हैं.
यद्यपि पिछले 20-25 वर्षों में नई पीढ़ी के लड़के लड़कियों ने खासतौर पर आत्मनिर्भर शहरी लड़कियों ने इन धारणाओं को तोड़ा है और सार्वजनिक रूप से किसी महिला को बेवकूफ कहना अब अशिष्टता मानी जाती है. लेकिन, इन कहावतों को ग्रामीण समाज में सरेआम महिलाओं को उनके मुंह पर सुनाया जाता है और शहरी पढ़ा-लिखा सभ्य समाज कहा जाने वाला पुरुष वर्ग अपने पुरुष दोस्तों के समूह में औरतों पर हंसता है या व्हाट्सएप पर औरतों की बेअक्ली के चुटकुले शेयर करता है. अगर राजनीति की बात करें तो वामपंथियों को छोड़ दें तो बुर्जुआ पुरुष राजनेताओं की निजी महफिल में विरोधी खेमे की ही नहीं, अपने खेमे की महिलाओं की यौनिकता और अक्ल को लेकर भी हंसी मजाक चलता रहता है. ये राजनीतिज्ञ सार्वजनिक रूप से महिलाओं के सम्मान की बात करते हैं लेकिन महिलाओं की तरफ से कभी इनकी सत्ता को चुनौती मिल जाए तो खीज या गुस्से में उनके भीतर का सच मुंह से निकल ही जाता है.
नीतीश कुमार के बयान की खबर को पढ़ते हुए सामान्य लोगों से जुड़ी दो घटनाएं याद आ रही हैं. साल याद नहीं संभवत 1988 के आसपास की बात होगी. आइपीएफ के कार्यक्रम में पहली बार दिल्ली जाना हुआ. कार्यक्रम के बाद कई साथी दिल्ली घूमने निकले तो मैं भी उनके साथ हो ली. इंदिरा गांधी के समाधि स्थल पर मैं और सरिता (एक बहादुर लड़की, बाद में वह एक एनजीओ के लिए काम कर रही थी, उसकी अपराधियों ने हत्या कर दी) घूम रही थी. सरिता ने जिज्ञासावश मुझसे पूछा जिसका अर्थ था कि क्या इंदिरा गांधी को यहां दफनाया गया है? यह सुनते ही पास में काम कर रहा माली ठेठ हरियाणवी अंदाज में बड़बड़ाया – ‘औरत की जात अक्ल ही कितनी होगी.’ सुनकर मुझे रहा ना गया और मैं गुस्से से बोली –और आप किसकी घास छील रहे हैं पता है ना.
दूसरी घटना एक जिले में काम के दौरान हुई जब गांव की एक बैठक में एक साथी ने शिकायत की कि उनकी पत्नी उन्हें पार्टी का काम करने नहीं देना चाहती. पार्टी में जाने से कोई फायदा नहीं है – कहकर हमेशा झगड़ा करती है. मैंने उन्हें सहज ढंग से कहा कि उन्हें अपनी पत्नी को पार्टी के बारे में बताना चाहिए. मेरी बात खत्म नहीं हुई थी कि वह तपाक से बोले उठे – अरे जानती नहीं हैं, औरतों की बुद्धि बंद होती है, उन्हें कुछ समझाया नहीं जा सकता. उनकी बात सुनकर स्थानीय नेता घबराए और उन्हें टोका - नहीं कामरेड, ऐसा कैसे कह सकते हैं? तब तक उन्हें अपनी गलती समझ में आई और उन्होंने कहा - नहीं, नहीं, हम तो सिर्फ अपनी पत्नी के बारे में बोल रहे थे. मैंने इन दो घटनाओं की चर्चा इसलिए की कि धनी हों या गरीब, सब की सोच इस मामले में एक जैसी है और प्रगतिशील विचार वाले पुरुषों के भीतर भी यह गाहे-बगाहे यह प्रकट होती रहती है.
राजनीतिक क्षेत्र की बात करें तो महिलाओं की जानकारी और समझदारी पर शंका ही तो थी कि कई देशों में लोकतंत्र स्थापना के बहुत बाद में वोट देने या प्रतिनिधि चुने जाने का अधिकार महिलाओं को हासिल हुआ.
20वीं शताब्दी के महिला आंदोलन का शुरुआती 50-60 साल इसी धारणा को तोड़ने में खप गया कि महिलाएं कुदरती तौर पर पुरुषों से कम समझ रखती हैं. वैज्ञानिक शोधों के हवाले से बताया कि औरतों के दिमाग की बनावट ऐसी नहीं है कि उनके भीतर अक्ल न अटें. महिलाओं का दिमाग भी वैसा ही है जैसा पुरुषों का. हां कुछ खास हार्माेन का स्त्राव जरूर पुरुषों और महिलाओं में अलग होता है. लेकिन यह अक्ल कम नहीं करता. अगर औरतों की जानकारी कम है तो इसलिए कि पुरुष प्रधान समाज ने उन्हें ऐसा ही बनाकर रखा है.
अगर भारत की बात करें तो यहां वोट के संवैधानिक अधिकार के लिए महिलाओं को अलग से लड़ना नहीं पड़ा है लेकिन इस अधिकार को जमीन पर उतारने के लिए महिलाओं को कदम-कदम पर लड़ना पड़ा है. महिलाओं को आगे बढ़ाने में प्रगतिशील पुरुषों की भी भूमिका है. लेकिन जो इस व्यवस्था के शीर्ष पर हैं वे दाता होने का ढोंग करते हैं. औरतों ने उनसे अधिकार छीना है और उन्हें पीछे हटने को मजबूर किया है, यह स्वीकार करने का साहस उनमें नहीं है. इसलिए वे दंभ से कहते हैं कि हमने औरतों को अधिकार दिया है, हमने औरतों को आगे बढ़ाया है. सच तो यह है कि ये महिलाओं की राह में जितने रोड़े अटका सकते हैं, अटकाने की कोशिश करते हैं. उदाहरण के लिए महिला आरक्षण कानून का हश्र ही देख लीजिए. हां, जब उन्हें यह लगता है कि औरतों को पीछे रखने में वे खुद भी पीछे रह जाएंगे तब वे ‘दरियादिली’ दिखाते हैं, महिला पक्षधर होने का दिखावा करते हैं.
यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि 70 के दशक में भाकपा(माले) ने गरीबों और महिलाओं के लिए जमीन, मजदूरी, सम्मान और बराबरी के लिए जो संघर्ष शुरू किया, उसमें गरीब महिलाएं अगली कतार में खड़ी हुईं. उससे सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की दावेदारी बढ़ने लगी और अंतिम दशक में राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं की बढ़ी हुई भागीदारी साफ दिखने लगी. समय के साथ महिलाएं हर क्षेत्र में सामने आने लगीं और तब नीतीश कुमार को लगा कि महिलाएं एक वोट बैंक हो सकती हैं. इस वोट बैंक को भुनाने के लिए पंचायतों में या नौकरियों में महिला आरक्षण का कोटा बढ़ाया गया. अब नीतीश कुमार को लगता है कि इसके लिए महिलाओं को उनके अहसान तले दब कर रहना चाहिए. लेकिन इस बार चुनाव में तो महिलाओं ने उनके गठबंधन को बहुत तवज्जो ही नहीं दिया और अब एक औरत खड़ी होकर सवाल उठा रही है! इसलिए नीतीश कुमार बौखला रहे हैं.