वर्ष - 33
अंक - 29
13-07-2024

राजनीतिक पर्यवेक्षकों ने मोदी सरकार के पहले दस वर्षों को प्रायः अघोषित आपातकाल के बतौर चित्रित किया है. तीन नई दंड संहिताओं के लागू होने के बाद आपातकाल की वह स्थिति संस्थाबद्ध हो गई है. भारतीय दंड संहिता 1860, दंड प्रक्रिया संहिता 1973 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की जगह इन तीन नई संहिताओं को संसद में 20-21 दिसंबर 2023 को कोई गंभीर बहस अथवा संसदीय जांच के बगैर ही आनन-फानन में पारित कर दिया गया, जब स्पीकर ने लगभग समूचे विपक्ष को निलंबित कर दिया थानवंबर 2016  में मोदी सरकार ने 500 और 1000 रुपये के नोटों को यह कहकर प्रतिंधित कर दिया था कि काला धन खत्म करने और डिजिटल कारोबार को बढ़ावा देने के लिए वैसा करना जरूरी था. इसी तरह, इन नई संहिताओं को ‘वि-औपनिवेशीकरण’ और दंड न्याय प्रणाली के डिजिटल आधुनिकीकरण के नाम पर जायज ठहराया जा रहा है.

अनुभव ने हर भारतीय को यह सिखाया है कि नोटबंदी से काले धन की शक्ति और मजबूत हुई है. उसी तरह, करीब से देखने पर पता चलेगा कि ये नई दंड संहिताएं औपनिवेशक काल के उन कानूनों से कहीं ज्यादा कठोर हैं. स्पष्टतः वि-औपनिवेशीकरण का दावा भ्रामक और गलत है. हम देख सकते हैं कि जिस सीआरपीसी को हटाया गया है, उसे वर्षों के सलाह-मशविरे और काफी मशक्कत के बाद 1973 में सूत्रबद्ध किया गया था. अन्य दो संहिताओं में भी विधि आयोगों की सिफारिशों पर अनेकानेक संशोधन किए गए थे ताकि उन्हें औपनिवेशिक काल की विसंगतियों से मुक्त किया जा सके और उनमें समय-समय पर सुधार व बचावों को शामिल किया जा सके. नई वि-औपनिवेशीकृत संहिताओं में शामिल 90 प्रतिशत प्रावधानों को तथाकथित औपनिवेशिक काल की संहिताओं से शब्दशः उठा लिया गया है.

बहुभाषाई भारत पर हिंदी में इनके जो नाम थोपे गए हैं, वे भी काफी कपटपूर्ण और अनुपयुक्त हैं : दंड संहिता को ‘न्याय संहिता’ बना दिया गया है और पहले के दंड प्रक्रिया संहिता का नाम बदलकर ‘नागरिक सुरक्षा संहिता’ कर दिया गया है. दंड के बदले न्याय शब्द का इस्तेमाल इंसाफ को आम लोगों के लिए ज्यादा सहज और सुनिश्चित नहीं बना देता है; और न तो नागरिक शब्द के इस्तेमाल से वह आम नागरिकों के हक में हो गया है. वस्तुतः, इन दो संस्करणों के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि नई संहिताएं पुलिस को और ज्यादा शक्ति तथा मनमानी कार्रवाई करने के लिए ज्यादा गुंजाइश दे देती हैं. कई मामलों में तो न्याय-प्राप्ति के पहले कदम के बतौर एफआइआर दर्ज कराने के लिए भी पुलिस अधिकारियों द्वारा प्राथमिक जांच और विचार को पूर्वशर्त बना दिया गया है.

पुलिस हाजत में रखने की समय सीमा अभी के 15 दिन से बढ़ाकर 60 से 90 दिन तक कर दी गई है (बहरहाल, अमित शाह कहते हैं कि कुल अवधि 15 दिन से अधिक नहीं होगी, लेकिन वह दो से तीन माह तक के बीच फैली होगी). इससे जमानत लेना, जो सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार अभी ही काफी मुश्किल होता है, और ज्यादा दुश्वार हो जाएगा. नई संहिता हथकड़ी लगाने और एकांत कारावास जैसी कार्रवाइयों की इजाजत देकर अभियुक्त के भयावह अपमान और खुल्लमखुल्ला उत्पीड़न को जायज बना देती है. इन नई संहिताओं के अंतर्गत इंसाफ चाहने वाले नागरिक एवं राज्य के बीच का संतुलन नागरिक के खिलाफ और राज्य के पक्ष में पहले से भी अधिक झुक जाएगा. नागरिकों के हक में पारदर्शिता व जवाबदेही के दुहरे सिद्धांत को बुलंद करने के बजाय ये नए कानून भारत को एक वास्तविक पुलिस राज में बदल देंगे.

औपनिवेशिक काल के राजद्रोह कानून के चिंताजनक रूप से बढ़ते इस्तेमाल को देखकर ही सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि ‘राजद्रोह’ का खाका स्वतंत्र लोकतांत्रिक गणतंत्र के विचार से मेल नहीं खाता है. तब मोदी सरकार को बाध्य होकर विरोधियों के खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा लादना बंद करना पड़ा था. अब सरकार ने राजद्रोह की जगह पर देशद्रोह रख दिया है जो और भी ज्यादा मनमाना अभियोग है. मोदी समर्थक निरंतर विरोधी आवाज को ‘राष्ट्र-विरोधी’ बताते रहते हैं और उन्हें पाकिस्तान भेजने की चीख-पुकार मचाते रहते हैं. अब इस तरह के आरोपों को इस नए देशद्रोह कानून से बल मिल जाएगा, और सरकार व उसकी नीतियों का विरोध करने वालों को भारत की संप्रभुता तथा एकता व अखंडता पर खतरा उत्पन्न करने के आरोप में जेल में डाल दिए जाने की जोखिम उठानी होगी.

हम जानते हैं कि किसान आन्दोलन को किस तरह खलिस्तान-समर्थक अथवा खालिस्तान-समर्थित आन्दोलन बताकर उसे अवैध करार देने की कोशिश की गई थी. विदेशों में रहने वाले अनेक भारतीयों को सीएए-विरोधी आन्दोलन, किसान आन्दोलन का समर्थन करने अथवा भारत में संवैधानिक मूल्यां पर बढ़ते हमले और लोकतंत्र के क्षरण का विरोध करने के लिए अपनी ओसीआई (भारत के प्रवासी नागरिक) की है. सियत से हाथ धोना पड़ा था. सत्य और असहमति को दबाने के लिए समय-समय पर लागू किए जाने वाले औपनिवेशिक काल के एक अन्य कानून – मानहानि कानून – को नई संहिता में बिल्कुल उसी रूप में शामिल कर लिया गया है. यूएपीए और पीएमएलए जैसे ‘आपवादिक’ कठोर कानूनों, जिसके तहत अभियुक्तों की ही जिम्मेदारी होती है कि वे खुद को निर्दोष साबित करें, को इस संहिता में नए रूप में शामिल किया गया है. इन नई संहिताओं में आधुनिक न्याय प्रणाली के मूलाधार – यथार्थता, निष्पक्षता और स्पष्टता – की जगह अस्पष्टता, संदिग्धता और स्वेच्छाचारिता ने ले ली है.

भारत के आम लोग लंबे समय से संस्थाबद्ध अन्याय झेलते रहे हैं. हाशिये पर पड़े विभिन्न पहचानों और अल्पसंख्यकों के गरीब व उत्पीड़ित लोगों के लिए आम तौर पर इंसाफ ऐसी चीज है जिसके बारे में वे सोच भी नहीं सकते, गारंटीशुदा अधिकार के बतौर उसे हासिल करना तो दूर की बात है. मोदी शासन लोगों की इस दुरवस्था का इस्तेमाल कर कानूनों को और ज्यादा अन्यायपूर्ण तथा व्यवस्था को और अधिक अंधा-बहरा तथा अ-लोकतांत्रिक बना दे रहा है. लेकिन कॉरपोरेट-परस्त कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का विजयी संघर्ष तथा ट्रांसपोर्ट कामगारों की हड़ताल – जो नई दंड संहिताओं के खिलाफ पहला सार्वजनिक प्रतिवाद था और जिसने सरकार को सड़क दुर्घटनाओं के मामले में चालकों के लिए कठोर दंड के मुद्दे पर पीछे हटने को बाध्य कर दिया – हमें बताते हैं कि किसी नए कानून के नुकसानदेह निहितार्थ को एक बार समझ लेने के बाद जनता हमेशा ही उसे धूल चटा सकती है.

लोकसभा चुनाव के नतीजों ने भारत के संविधान की रक्षा करने की जनता की इच्छा शक्ति को भली-भांति प्रदर्शित कर दिया है. नई दंड संहिताएं न्याय व स्वतंत्रता, जो संविधान की प्रस्तावना में सन्निहित दो सर्वप्रमुख और सबसे बुनियादी प्रतिबद्धताएं हैं, के विरुद्ध खड़ी हैं. हमें इन नई संहिताओं के पीछे छिपी कुटिल मंशा को उजागर करने तथा यह दिखलाने के लिए कि कैसे वे संविधान के बुनियादी मूल्यों को नष्ट करती हैं, लगातार जोरदार मुहिम चलानी होगी. हमें यह स्मरण करना होगा कि आरएसएस ने संविधान को बदलने की अपनी चीख-पुकार ठीक उसी तर्ज पर यह कहते हुए शुरू किया था कि यह संविधान विदेश-प्रेरित औपनिवेशिक दस्तावेज है जिसमें ‘भारतीयता’ का अभाव है, जिस तर्ज पर ‘वि-औपनिवेशीकरण’ के नाम पर दंड संहिताओं को बदला गया है. सामाजिक व आर्थिक न्याय के लिए आन्दोलन को राजनीतिक न्याय के लिए शक्तिशाली आन्दोलन से संपूरित करना होगा, और इस संघर्ष में हमें भारत के नागरिक स्वतंत्रता आन्दोलन तथा भारत की प्रगतिशील कानूनी सक्रियता की लंबी परंपरा की पूरी शक्ति को एकजुट व दिशाबद्ध करना होगा.