- इन्द्रेश मैखुरी
उत्तराखंड में बरसात का सीजन इस बार काफी लंबा हो चला है. लगभग अप्रैल से ही बारिश शुरू हो गयी थी, जो मध्य अगस्त के बाद भी जारी है. एक तरह से यह कहा जा सकता है कि इस बार उत्तराखंड ने गर्मी का मौसम देखा ही नहीं, खास तौर पर पहाड़ी इलाकों में तो ना के बराबर गर्मी पड़ी. यह भी जांच और अध्ययन का विषय है कि यह अत्यधिक बारिश भी मौसम परिवर्तन का नतीजा है क्या? क्यूंकि देश के कुछ हिस्सों में बारिश एकदम न्यूनतम है! कुछ जगहों पर बारिश का प्रचंड रूप में होना और कुछ जगहों पर बेहद कम होना, ये संकेत तो चिंताजनक हैं.
उत्तराखंड के साथ ही पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश भी अतिवृष्टि से हुई तबाही का बड़े पैमाने पर शिकार हुआ है. बल्कि यह कहना ज्यादा बेहतर होगा कि जानमाल का नुकसान हिमाचल प्रदेश में उत्तराखंड की अपेक्षा अधिक हुआ है. हिंदी दैनिक अमर उजाला में 18 अगस्त को प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में जून से मध्य अगस्त तक भारी बारिश के चलते हुई तबाही में मरने वालों की संख्या 230 से अधिक है. इन पंक्तियों के लिखे जाने के पहले के एक हफ्रते में ही जहां हिमाचल प्रदेश में 68 लोगों की मौत हुई, वहीं 15 लोग लापता हो गए. इसी अवधि के दौरान उत्तराखंड में 16 लोगों की जान गयी और 15 लापता हो गए.
उत्तराखंड में बड़े पैमाने पर सड़कों के पूरी तरह बह जाने, पुलों के टूटने और भवनों के गिरने की घटनाएं र्हुइं. विभिन्न स्थानों पर लोगों के मलबे में दबकर मरने की खबरें भी लगातार आती रही हैं. 3 अगस्त को केदारनाथ यात्रा मार्ग पर गौरीकुंड में भूस्खलन के मलबे में दुकानों में सोये 25 से अधिक लोग लापता हो गए. इनमें बड़ी संख्या में नेपाली मजदूर थे. 11 अगस्त को केदारनाथ हाइवे पर कार के ऊपर मलबा आने और उस में दबने से 5 यात्रियों की मौत हो गयी. ये सभी यात्री गुजरात के थे. 14 अगस्त को पौड़ी जिले के यमकेश्वर ब्लाॅक के एक गांव में एक टूरिस्ट कैंप भूस्खलन के मलबे में दफन हो गया, जिसमें हरियाणा से आए 5 यात्रियों का परिवार दफन हो गया. ये सिपर्फ चंद उदाहरण हैं, ऐसी खबरें आए दिन उत्तराखंड के विभिन्न कोनों से भारी बारिश के बीच आ रही हैं. भूस्खलन के मलबे में घरों, व्यावसायिक प्रतिष्ठानों एवं सार्वजनिक सम्पत्तियों के दबने की खबरें भी निरंतर आ रही हैं.
रिपोर्टों के अनुसार मानसून सीजन में अब तक उत्तराखंड में 83 पुल क्षतिग्रस्त हो चुके हैं. इनमें से ज्यादातर पुल ऐसे थे, जिनको बने हुए 10 वर्ष के आसपास ही हुए थे और उनकी अवधि 50-60 साल निर्धारित थी, लेकिन वे एक दशक में ही भरभरा कर गिर पड़े. इन पुलों के गिरने की वजह घटिया निर्माण कार्यों के अलावा इनके आसपास बड़े पैमाने पर अवैध खनन भी बना. कोटद्वार में मालन नदी पर बना पुल, इसमें से प्रमुख है. 13 जुलाई को यह पुल ढह गया. यह पुल 2010 में 12.35 करोड़ रुपए की लागत से बना था और 13 साल भी न चल सका. इस पुल के टूटने पर कोटद्वार विधायक और विधानसभा अध्यक्ष ऋतु खंडूड़ी भूषण का वीडियो काफी वायरल हुआ, जिसमें वे आधी हिन्दी-आधी अंग्रेजी में पुल टूटने के लिए खनन को जिम्मेदार बताते हुए, आपदा प्रबंधन सचिव से कह रही हैं कि lot of खनन has happened in the इलाका! बाद में मालूम पड़ा कि जिस समय वे इलाके में खनन के मामले में फोन पर बरस रही थी, उस वक्त भी फोटो फ्रेम में खनन वाले उनके साथ खड़े थे.
पुलों के टूटने के साथ ही अवैध खनन की बात बार-बार सामने आ रही है और यह बात उभर रही है कि पुलों के बहने में बरसात से अधिक अवैध खनन का योगदान है. लेकिन उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को तो लगता है कि खनन गतिविधियों से अत्यधिक प्रेम है. हाल ही में रिपोर्टेर्स कलेक्टिव द्वारा जारी एक रिपोर्ट बताती है कि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी बीती फरवरी के बाद से निरंतर इसलिए दिल्ली जाते रहे ताकि वे केंद्र सरकार से जून के महीने में भी खनन की अनुमति पा सकें. आम तौर पर नदियों में खनन की अवधि 1 अक्टूबर से 31 मई तक होती है. बरसात के महीनों में खनन पर रोक रहती है. लेकिन मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी, केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से खनन की अनुमति लाने में कामयाब रहे जबकि केंद्र का यह मत था कि उत्तराखंड में खनन के लिए आवश्यक पर्यावर्णीय मानकों का ठीक से पालन नहीं हो रहा है. लेकिन इसके बावजूद भी डबल इंजन का कमाल था कि मानसून के महीने में भी नदियों के खनन की अनुमति मिल गयी.
उत्तराखंड सरकार का आकलन था कि जून में खनन से उसे 50 करोड़ रुपए की आमदनी होगी. पुलों के क्षतिग्रस्त होने के बाद उन्हें पुरानी अवस्था में लाने पर ही 92.47 करोड़ रूपया खर्च होने का अनुमान है. लेकिन सरकार खनन प्रेमी हो तो ऐसे खर्च की परवाह वो क्यूं करने लगी भला!
इस बरसात में उत्तराखंड में स्मार्ट सिटी नाम के केंद्र की महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट की पोल खुलती भी दिखी. जरा-सी बारिश के बाद स्मार्ट बनाए जा रहे देहरादून जैसे शहर भारी जल जमाव के शिकार होते रहे. देहरादून के कुछ इलाकों में ज्यादा बारिश होने पर नाव में एसएसपी की तस्वीर सोशल मीडिया में नजर आई तो शहरी विकास के मंत्री प्रेमचन्द्र अग्रवाल अपने विधानसभा ऋषिकेश की गलियों में नाव में घूमते नजर आए.
आठ महीनों से जोशीमठ में लोग भू धंसाव से राहत और पुनर्वास की मांग कर रहे हैं. लेकिन केंद्र और राज्य की डबल इंजन सरकार फरवरी 2023 में सौंपी गयी आठ केंद्रीय वैज्ञानिक संस्थानों की रिपोर्ट भी अब तक सार्वजनिक नहीं कर सकी है. इस बीच बारिश ने जोशीमठ के लोगों के लिए मुश्किलों में इजाफा किया है क्यूंकि जमीन में दरारों का सिलसिला कई जगह बढ़ गया है. दरारों का यह सिलसिला सिर्फ जोशीमठ तक ही सीमित नहीं है. उत्तरकाशी का मस्ताड़ी गांव भी इसका शिकार बना है. इस बरसात के मौसम में देहरादून जिले के विकासनगर तहसील के बिन्हार क्षेत्र में स्थित जाखन गांव इसका ताजा शिकार हुआ है. यहां कुछ घर ढह गए हैं और पूरे गांव को खाली करा दिया गया है.
2016 में विधानसभा चुनावों से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देहरादून आए और उन्होंने घोषणा की कि उत्तराखंड स्थित चार धामों तक जाने वली सड़क को चैड़ा करते हुए ऑल वेदर रोड बनाया जाएगा. प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद 12 हजार करोड़ रुपये से यह काम शुरू हुआ. यह कोई नयी सड़क बनाने की परियोजना नहीं थी बल्कि पहले से मौजूद सड़क को काट कर 12 मीटर तक चैड़ा करने की योजना है. इस परियोजना को लागू करने के लिए हजारों की तादाद में पेड़ों को काटा गया और बेतरतीबी से पहाड़ों का कटान किया गया. पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) की अनिवार्यता को धता बताने का चोर दरवाजा भी उसी केंद्र सरकार ने निकाला, जिसका पर्यावरण प्रभाव आकलन का कानून है. उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित कमेटी ने इस परियोजना के लिए की गयी हिल कटिंग को अवैज्ञानिक करार दिया और बताया कि इस तरह से पहाड़ों को काटने से 145 से अधिक नए भूस्खलन के जोन बन गए हैं. जिसे ऑल वेदर रोड प्रधानमंत्री ने कहा, उसे कब चुपके से चार धाम परियोजना कर दिया गया, पता ही नहीं चला. रोड तो यह ऑल वेदर नहीं बन सकी, यह ऑल वेदर स्लाइडिंग रोड बन कर रह गयी है, जिसपर किसी भी मौसम में भूस्खलन का मलबा आ जाता है और सड़क बंद हो जाती है. बरसात के इस मौसम में तो यह सड़क सर्वाधिक बाधित होने वाली सड़क बन गयी है. ऋषिकेश-बद्रीनाथ और ऋषिकेश-गंगोत्री जाने वाला यह राष्ट्रीय राजमार्ग कई दिनों तक बंद रह रहा है. कई जगह सड़क पूरी तरह धंस गयी है तो कई जगह चौड़ा किया हुआ हिस्सा ही नहीं, उससे पहले की सड़क भी पूरी तरह साफ (वाॅश आउट) हो गयी है.
पर्यावरण पर इस सड़क योजना का क्या प्रभाव होगा, इसका आकलन किए बगैर चंद बड़े ठेकेदारों को लाभ पहुंचाने के लिए सड़क को बेतरतीब और अवैज्ञानिक तरीके से काटने की यह परियोजना है तो केंद्र सरकार की, लेकिन इसकी कीमत उत्तराखंड के आम लोगों को चुकानी पड़ रही है. यह बात सिर्फ सड़क चौड़ा किए जाने के इस प्रोजेक्ट पर ही लागू नहीं होती है बल्कि उत्तराखंड के पहाड़ों की नाजुक स्थिति को समझे बगैर किए जा रहे तमाम भारी ढांचागत निर्माणों और बड़ी परियोजनाओं पर लागू होती है. बारिश व भूकंप जैसे घटनाएं प्राकृतिक हैं, लेकिन बिना पहाड़ों की नाज़ुक परिस्थितिकी और पर्यावरण को समझे हुए किया जा रहा भारी-भरकम, अंधाधुंध निर्माण प्राकृतिक घटनाओं से होने वाली तबाही को कई गुना ज्यादा बढ़ा रहा है. लेकिन विकास के नाम पर अकूत चांदी काटने वाली सरकारें और उनके बड़े ठेकेदारों की जमात यह समझने को तैयार नहीं है कि उनके विकास की यह सनक पहाड़ों के लिए तो भीषण विनाश का सबब बन रही है.