वर्ष - 32
अंक - 28
08-07-2023

[ उत्तराखंड सरकार द्वारा समान नागरिक संहिता के लिए गठित कमेटी द्वारा राजनीतिक पार्टियों के साथ चर्चा के क्रम में 25 मई 2023 को भाकपा(माले) को भी पक्ष रखने के लिए बुलाया गया था. बैठक में शामिल भाकपा(माले) राज्य सचिव का. इंद्रेश मैखुरी ने ‘समान नागरिक संहिता समिति’ के अध्यक्ष महोदया व अन्य सदस्यगण को जो पत्र सौंपा और अपनी बात रखी.]

प्रति,
अध्यक्ष महोदया,एवं अन्य सदस्य गण,
समान नागरिक संहिता समिती,
उत्तराखंड.

महोदया / महोदय भारत के संविधान के भाग चार में राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के अंतर्गत अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता का उल्लेख है. संविधान के इस भाग की वैधानिक स्थिति से सभी अवगत हैं.

भारत के संविधान के अनुच्छेद 44 कहता है कि “The State shall endeavour to secure for the citizens a uniform civil code throughout the territory of India.”

इसका आशय स्पष्ट है कि यदि समान नागरिक संहिता बनाने की आवश्यकता महसूस की जाती है तो वह पूरे देश के लिए होगी. इसमें जो राज्य (स्टेट) शब्द है, उसका आशय भी प्रांत या प्रदेश नहीं है, राष्ट्र राज्य (नेशन स्टेट) है.

लिहाजा एक प्रदेश के स्तर पर समान नागरिक संहिता बनाने की कवायद अर्थ हीन है, यह संविधान सम्मत भी नहीं है. अतः यह पूरी कवायद एक खास राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए सार्वजनिक धन के उपव्यय से अधिक कुछ भी नहीं है.

इस समिति के गठन के लिए जारी उत्तराखंड सरकार की अधिसूचना से ज्ञात होता है कि कमेटी “........सभी नागरिकों के व्यक्तिगत नागरिक मामलों को नियंत्रित करने वाले सभी प्रासंगिक कानूनों की जांच करने और मसौदा कानून या मौजूदा कानून में संशोधन के साथ उस पर रिपोर्ट करने के लिए विवाह, तलाक, संपत्ति के अधिकार, उत्तराधिकार से संबंधित लागू कानून और विरासत, गोद लेने और रख-रखाव और संरक्षता इत्यादि एवं समान नागरिक संहिता के परीक्षण एवं क्रियान्वयन...” के लिए है.

चूंकि साल भर पहले इस कमेटी की गठन हो गया था. इसलिए चर्चा के लिहाज से तो यह बेहतर होता कि कमेटी चर्चा के लिए कोई प्रस्ताव रखती. ऐसे किसी प्रस्ताव के अभाव में टिप्पणी कर पाना मुश्किल है. समाचार माध्यमों से जो सामने आ रहा है, उससे लगता है कि किसी ठोस प्रस्ताव के अभाव में जो टिप्पणियां सामने आ भी रही हैं, वे कल्पना की उड़ाने अधिक हैं.

व्यक्तिगत कानूनों (पर्सनल लाॅ) में बदलाव को समान नागरिक संहिता लागू करने से जोड़ना पूर्णतया अनुचित है. समान नागरिक संहिता को पर्सनल लाॅ में सुधार के एकमात्र तरीके के तौर पर प्रस्तुत करना, अस्वीकार्य है और यह धारणा उन तमाम आधिकारिक रिपोर्टों के विरुद्ध है, जो स्पष्ट करती हैं कि समान नागरिक संहिता, पर्सनल लाॅ की दिक्कतों का समाधान नहीं है.

किसी एक धर्म के नहीं बल्कि सभी धर्मों के व्यक्तिगत कानूनों में ऐसे प्रावधान हैं जो महिलाओं के प्रति भेदभावकारी हैं और भारत के संविधान में उल्लिखित समानता के मौलिक सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं. परंतु समान नागरिक संहिता को इसका हल समझना पूरी तरह गलत है. यह समझना जरूरी है कि असमानता का मूल कारण भिन्नता नहीं, भेदभाव है. व्यक्तिगत कानूनों में संशोधन करने की किसी कोशिश के केंद्र में यह सुनिश्चित करना होना चाहिए कि संविधान प्रदत्त समानता सुनिश्चित करने के लिए वह असमानता पर केन्द्रित करे न कि एकरूपता थोपने पर जोर दे.

भारत में महिलाओं की दशा पर उच्च स्तरीय कमेटी ने महिलाओं की स्थिति पर व्यापक अध्ययन किया और जून 2015 में अपनी रिपोर्ट सौंपी. व्यक्तिगत क़ानूनों में महिलाओं के प्रति भेदभाव के मामले को किस तरह देखा जाना चाहिए, इस मामले यह रिपोर्ट मार्गदर्शक है, जो कहती है कि ‘ .....नज़रिया यह नहीं होना चाहिए कि सबके लिए एक कानून हो, बल्कि सभी महिलाएं चाहे वे धर्मनिरपेक्ष कानूनों से संचालित होना चुनें या फिर व्यक्तिगत कानूनों से, सभी को वह समानता हासिल होनी चाहिए, जिसका वायदा भारत का संविधान उनसे करता है. इसके लिए ‘एकरूपता’ का फरमान, जिसकी कल्पना  कट्टरवादी / बहुसंख्यावादी तरीके से ही की जाती है, थोपने के बजाय, कानूनी दायरे में विभिन्न पहलुओं को विशिष्ट तरीके से संबोधित किया जाये.’

इसी तरह जून 2016 में विधि आयोग को भारत सरकार ने समान नागरिक संहिता से जुड़े मसलों के परीक्षण की जिम्मेदारी सौंपी. 31 अगस्त 2018 को अपने अध्यक्ष न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) बीएस चौहान की अध्यक्षता में सौंपे गए अपने परामर्श पत्र में आयोग ने लिखा कि वर्तमान व्यक्तिगत कानूनों के विभिन्न पहलू महिलाओं को वंचित करते हैं’, ‘असमानता का मूल कारण भिन्नता नहीं भेदभाव है’. विधि आयोग ने लिखा कि ‘भारतीय संस्कृति की विभिन्नता की ख्याति है और बनी रहनी चाहिए, कतिपय विशिष्ट समूह या समाज के कमजोर तबकों को इस प्रक्रिया में वंचित नहीं होना चाहिए. इस द्वंद का निवारण करने का मतलब भिन्नता को समाप्त करना नहीं है. इसलिए इस आयोग ने भेदभावपूर्ण कानूनों के निदान पर जोर रखा है, समान नागरिक संहिता उपलब्ध करवाने पर नहीं, जो कि इस वक्त न जरूरी है और ना ही वांछित.’

विधि आयोग ने इसके पश्चात विवाह और तलाक, संरक्षता, गोद लेने और रख-रखाव और उत्तराधिकार के मामले में विभिन्न संस्तुतियां की हैं.

इस तरह देखें तो भारत सरकार के उक्त सभी आयोगों और कमेटियों ने भी इस बात को पुष्ट किया है कि एकरूपता का मतलब समानता और न्यायसंगतता नहीं होता है. विधि आयोग की रिपोर्ट तो स्पष्ट ही कहती है कि ‘यह जरूरी नहीं कि ‘एकताबद्ध राष्ट्र’ अनिवार्य रूप से ‘एकरूप’ हो, यह दरअसल मानवाधिकार के कई सार्वत्रिक और निर्विवाद तर्कों के साथ विभिन्नता का तादात्म्य स्थापित करना है.’

हम समानता के पक्षधर हैं, एकरूपता के नहीं, इसलिए एकरूप बनाने की किसी कवायद और किसी भी संहिता को हम सिरे से खारिज करते हैं.