वर्ष - 32
अंक - 27
02-07-2023

“यह एक व्यक्ति का शासन है, बाकी सब कठपुतलियां हैं. जनता और सरकार के ऊपर और नीचे के अफसर मूक और लकवाग्रस्त हो गए हैं.” इन पंक्तियों को पढ़ कर यह आज की जैसी बात मालूम पड़ती है. लेकिन यह उस आपातकाल की बात है, जो 1975 में 26 जून को इस देश पर थोप दी गयी थी. और यह इकलौता वाक्य नहीं है, जो आज के जैसा प्रतीत होता है. प्रख्यात पत्रकार कुलदीप नैयर की आपातकाल पर लिखी पुस्तक “द जजमेंट : इनसाइड स्टोरी ऑफ इमरजेंसी” को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि आज के हालात का ही ब्यौरा है, बस कुछ पात्र बदल दिये गए हैं. बदले हुए पात्रों को भी वर्तमान किरदारों से मिलता-जुलता पा सकते हैं.

आज के हिंदुस्तान में जो राजनीति की प्रचलित शब्दावली है, वह तो ऐसा लगता है कि आपातकाल से उठा कर सीधे आज के भारत में उतार दी गयी हो.

इस पर नजर डालिए. “वह अट्ठारह घंटे काम करता है” यह वाक्य हम गाहे-बगाहे इस देश में 2014 से निरंतर सुनते रहे हैं. इस देश में एक बड़ा हिस्सा समझता है कि वर्तमान प्रधानमंत्री का यह चमत्कारिक गुण है कि वे 18 घंटे काम करते हैं. लेकिन यह वाक्य जो ऊपर लिखा गया है, यह वर्तमान प्रधानमंत्री के संदर्भ में नहीं लिखा गया है. पूरा वाक्य देखिये “वह देख सकती थी कि वह दिन में अट्ठारह घंटे काम कर रहा है.” यूं कहने वाले इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि वह यानि भारत माता देख सकती थी कि वह अट्ठारह घंटे काम कर रहा है. लेकिन यहां भारत माता नहीं संजय की माता (इमरजेंसी की माता भी) देखती थी कि वह यानि संजय अट्ठारह घंटे काम कर रहा है. तो भक्त जनों यह अट्ठारह घंटे काम इस देश में पहले भी किया जा चुका है और वह इमरजेंसी के बदनाम नायक ने किया था. काम के घंटे ही नहीं, काम की दिशा भी वही वाली है!

“वे गद्दार हैं, यह कह कर विपक्षी नेताओं पर हमला किया जाता.” यह आज की बात है और यह 1975 के आपातकाल की बात भी है. आज भी सरकार की गलतियों पर सवाल उठाने वाले को गद्दार और देशद्रोही कहने का चलन वर्तमान हुकूमत की राज में खूब फल-फूल रहा है और कुलदीप नैयर के लिखे से पता चलता है कि ऐसा इस देश में उस काल में भी हो चुका, जिस काल को हम आपातकाल के नाम से जानते हैं. नैयर साहब लिखते हैं “वह विपक्षी पार्टियों पर अपने हर भाषण में हमला करती और सरकार की नीतियों से जो भी गड़बड़ होती, उसका दोषारोपण उन पर (विपक्षियों) पर करती.” आज का चलन इससे अलहदा तो नहीं है. उस जमाने में भी विपक्ष संसद में उनकी यानि सत्ता की पार्टी के मुक़ाबले छठवें भाग से भी कम था! उस समय भी कहा गया कि विपक्ष अस्थिरता फैलाना चाहता है.

वर्तमान हुकूमत और उनके वैचारिक सहोदर जिन बुद्धिजीवियों और इतिहासकारों से बेहद चिढ़ते हैं, उनमें रोमिला थापर भी एक हैं. रोचक यह है कि इमरजेंसी के समय इन्दिरा गांधी के पक्ष में निकाले जाने वाले पर्चे पर दस्तखत करने से इंकार करने के लिए प्रो. रोमिला थापर उस हुकूमत के कोप का भाजन बनी और उनके विरुद्ध आयकर और ऐसी ही जांचें चलायी गयी.

“आयकर के मामले खोल देना और सीबीआई व इन्फार्समेंट विंग की रेड करना उन व्यापारियों और अफसरों को अनुशासित करने का सरकार का तरीका था, जो आज्ञा मानने से इंकार करते थे.” आज भी सीबीआई, ईडी लोगों को अपनी ‘लाइन’ पर लाने के हुकूमत के सबसे ताकतवर व प्रिय हथियार हैं.

कुलदीप नैयर लिखते हैं कि “गिरफ्तारी और जेल का भय दिखा कर केरल कांग्रेस को मार्क्सवादी मोर्चे से तोड़ कर सत्ताधारी मोर्चे में शामिल किया गया..... उनसे कहा गया कि वे सत्ताधारी मोर्चे में शामिल हों और इस स्थिति में वे स्वयं को मंत्रालय में पाएंगे या फिर जेल जाने को तैयार रहें.” आज भी तो यह लगभग नारा है कि भ्रष्टाचारियों के दो ही ठिकाने, भाजपा में जाये या जाए जेलखाने!

आपातकाल की प्रेस के बारे में कुलदीप नैयर ने लिखा कि वे सरकारी गजट जैसे हैं. आज का प्रेस देख लीजिये और उन्हें सरकारी गजट की उपमा के आइने में तौल कर देखिये तो पाएंगे कि आज वाले भी आपातकाल के विस्तारित संस्करण मात्र हैं.

वर्तमान गृह मंत्री ने कहा कि वे पचास साल सत्ता में रहेंगे. आपातकाल के समय में बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष सीताराम केसरी ने कहा था, “संजय गांधी राजनीति के आकाश में उदित होते नए सितारे हैं और उनकी वजह से कांग्रेस व देश अगले पचास सालों के लिए सुरक्षित है.”

सभी वाणिज्य परिसंघों (चैंबर ऑफ कॉमर्स) ने आपातकाल का समर्थन किया और आपातकाल के बाद हुए पहले चुनाव में कांग्रेस को सभी प्रमुख उद्योगपतियों ने चंदा दिया. आज क्या वे इससे कुछ जुदा करते हैं?

और इस किस्से में प्रधानमंत्री का भी चर्चा हो जाये. उस जमाने की प्रधानमंत्री ने कहा कि विपक्ष का एक सूत्रीय कार्यक्रम है – उन्हें हटाना. आज इसी तर्क को वर्तमान प्रधानमंत्री के पक्ष में भुनाने के लिए तर्कों-कुतर्कों की नित नयी शृंखलाएं विकसित की जा रही हैं. आपातकाल के बाद जब 1977 में चुनाव हुए तो तत्कालीन प्रधानमंत्री ने कहा कि “मैं स्वयं को जनता की प्रथम सेविका समझती हूं और कुछ नहीं.” वर्तमान प्रधानमंत्री ने कार्यकाल शुरू करते हुए स्वयं को प्रथम सेवक घोषित किया.

तत्कालीन प्रधानमंत्री जहां जातीं,वहां के जैसी वेषभूषा पहनती, वहां के साथ अपना संबंध जोड़तीं. कश्मीर गयीं तो कश्मीरी वेषभूषा पहनी, पंजाब गयी तो अपनी पुत्रवधू के पंजाबी होने का हवाला देते हुए पंजाब से संबंध जोड़ा, गुजरात गयी तो पति के गुजराती होने के हवाले से स्वयं को गुजरात की बहू बताया. वर्तमान प्रधानमंत्री इस नुस्खे को बखूबी आजमाते हुए बांग्लादेश जा कर कह आए कि वे उनके स्वतंत्रता संग्राम में जेल गए हैं!

तत्कालीन प्रधानमंत्री भी चाहती थीं कि राष्ट्रपति प्रणाली अपनाई जाये. वर्तमान सत्ताधारी पार्टी का भी यह पुराना एजेंडा है.

उस आपातकाल में मंत्रालयों को कमजोर करके प्रधानमंत्री सचिवालय का मजबूत किया गया, इस काल में भी यही हो रहा है.

“कोई विपक्ष नहीं था, कोई आलोचना नहीं थी, उनकी इच्छा ही कानून थी.” आज भी लगभग यही तो कहा जाता है.

आपातकाल लगाते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री के पक्ष में जो प्रस्ताव पास किया गया, उसमें कहा गया कि प्रधानमंत्री के तौर पर उनके नेतृत्व की निरंतरता देश के लिए अमूल्य है. बेहद चमकदार भाषा में प्रधानमंत्री की तानाशाही को जायज ठहराने वाले इस प्रस्ताव को आज हम बेहद भदेस भाषा में हर घड़ी वर्तमान प्रधानमंत्री के पक्ष में टीवी चौनलों से लेकर आईटी सेल के व्हाट्स ऐप फारवर्डों में देख सकते हैं.

लेकिन आपातकाल का ही सबक है कि कोई नेतृत्व न तो देश और उसकी जनता से बड़ा है और ना ही मूल्यवान!

जब आपातकाल लगा तो यह एकदम कानूनी था, संविधान के दायरे में. कानून को कानून के दायरे में लोकतंत्र का गला घोटने के लिए कैसे इस्तेमाल किया जाता है, इसका उदाहरण है आपातकाल. आज उस आपातकाल का विरोध करने वाले, विरोध की भंगिमा बनाते हुए जो देश पर थोप रहे हैं, वह आपातकाल नहीं तो उससे कम भी नहीं हैं! इस अघोषित आपातकाल की विडंबना यह है कि यह इतना दिमागी दिवलियेपन के साथ उपस्थित हुआ है कि जुमले तक जस-के-तस पिछले घोषित आपातकाल के कॉपी-पेस्ट करके काम चला रहा है!

– इन्द्रेश मैखुरी