– केबी
इस लेख के पहले भाग में हमने दैनिक मजदूरों, खेत मजदूरों और बेरोजगारों की आत्महत्याओं पर गौर किया था. एनसीआरबी द्वारा प्रकाशित आंकड़ों (2021) के अनुसार तमाम पेशों में दैनिक श्रमिकों के बी बीच आत्महत्या करने की प्रवृत्ति सबसे ज्यादा देखी गई है. कृषि क्षेत्र में खेत मजदूर सबसे ज्यादा मर रहे हैं. छात्रों का स्थान छठा है, जबकि गृहणियां दूसरे स्थान पर हैं. मौत को गले लगाने वालों की सूची में बेरोजगारों का नंबर पांचवां है. 64.2 प्रतिशत आत्महत्या करने वाले लोगों की आमदनी 1 लाख रुपये सालाना से कम है, जबकि 31.6 प्रतिशत लोगों की सालाना आय एक से पांच लाख रुपये के बीच है.
ज्यादातर आत्महत्या वे लोग कर रहे हैं जिनकी कुछ न कछ पहुंच शिक्षा तक है. दरअसल, 25 प्रतिशत आत्महत्याएं करने वाले लोग मैट्रिक या सेकंड्री स्तर तक शिक्षित होते हैं. स्नातकों (और उच्च शिक्षा स्तरों) के बीच आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. पूंजीवाद के अंतगत प्रचार किया जाता है कि शिक्षा से लोगों की गत्यात्मकता बढ़ती है, वे ज्यादा आमदनी वाले रोजगार पा सकते हैं और उनकी कुशलता व उत्पादकता में वृद्धि होती है. इस प्रकार, श्रम शक्ति के शिक्षित विक्रेताओं के बारे में माना जाता है कि पूंजीवादी व्यवस्था में श्रम शक्ति के अशिक्षित विक्रेताओं की बनिस्पत उनमें जिंदा रहने की ज्यादा संभावना होती है. लेकिन शिक्षा प्रणाली में रहने वालों के द्वारा आत्महत्या करने के आंकड़े और बार-बार आने वाली रिपोर्ट निराशाजनक तस्वीर पेश करते हैं –
अगर हम अपने देश में शिक्षा की अत्यंत बहिष्कार-मूलक इतिहास को देखना चाहें, तो हमें अपने महाकाव्यों पर नजर दौड़ा लेना चाहिए. ब्रह्मणवादी गुरुकुल व्यवस्था के अत्यंत कड़े नियम थे कि कौन लोग शिक्षा ले सकते थे. इसके किसी भी उल्लंघन पर कठोर नतीजा भुगतना पड़ता था. एकलव्य का अंगूठा काटने का मामला हो, या फिर शूद्रों के कान में पिघला शीशा डालने का, महाकाव्यों और धर्मग्रंथों में वर्णित व्यवस्थागत हिंसा के विस्तृत वर्णन हमें मिल जाते हैं. प्राचीन भारत से लेकर आधुनिक भारत तक, इसी परंपरा का पक्का निर्वहन हम देखते हैं. उपनिवेशवाद, शुरूआती पूंजीवाद और समाजवाद के क्रांतिकारी संघर्षों की बदौलत ज्ञान उत्पादन व पुनरुत्पादन पर यह वर्चस्व कुछ हद तक टूटा. जीवन-विकास के धर्मशास्त्रीय विमर्श के खंडन करने वाले डार्विन के वैज्ञानिक विचार से लेकर यथास्थितिवाद की मार्क्स की आलोचना तक, रूढ़िवाद को चुनौती देने वाले समाज सुधारकों से लेकर पुनर्जागरण और आधुनिक शिक्षा प्रणाली तक, धर्मशासित ज्ञान प्रणाली का एकाधिकार प्रचंड दबाव में आ गया. इसने उत्पीड़ितों के लिए शिक्षा हासिल करने के लिए माहौल को बुनियादी तौर पर बदल दिया; और ऐसे गंभीर बदलाव के अनेक लाभुकों में से एक थे डा. अंबेडकर. उन्होंने स्वतंत्र भारत की एक नींव के बतौर सकारात्मक कार्रवाई के जरिये शिक्षा तक संवैधानिक पहुंच की परिकल्पना की. दुख है, संवैधानिक मूल्यों को लिख देना जितना आान था, उसे अमल में लाना उतना ही मुश्किल साबित हो रहा है.
आजाद भारत में शिक्षा के बारे में वैज्ञानिक रुख अपनाया गया और उम्मीद की गई कि इससे प्रगतिशील राष्ट्र का निर्माण हो सकेगा. बहरहाल, शिक्षा प्रणाली पर प्रभुत्वशाली जातियों की मजबूत पकड़ बनी रही. समाज में धंसी असमानता शिक्षा प्रणाली के अंदर भी साफ-साफ झलकती रही. सकारात्मक कार्रवाई ने एकलव्यों के लिए भी ज्ञान उत्पादन के मंदिरों में पहुंचना संभव बना दिया, लेकिन इसकी प्रतिक्रिया और भी तीखी रही. अलग-अलग बैठने की व्यवस्था से लेकर अलग-अलग पानी पीने के बर्तन और अलग-अलग भोजनालयों व छात्रावासों तक –‘मेध’ के बारे में अधिकांश सवर्ण गुरुओं और उनके छात्रों के अनर्गल प्रलापों की तो बात ही मत पूछिये – समाज में हाशिये पा पड़े लोगों द्वारा झेला जा रहा बहिष्करण शिक्षालयों तक में पहुंच गया.
आजाद भारत में शैक्षिक संस्थानों ने व्यवहार में इस बहिष्करण को सुनिश्चित किया, क्योंकि प्रवेश के स्तर पर वे बहिष्करण को लागू नहीं कर सकते थे. इसने निश्चित तौर पर हाशिये के समुदायों से आनेवाले छात्रों के बीच गहरे अलगाव-बोध और निराशा को जन्म दिया, और इसका नतीजा ड्राॅप-आउट की ऊंची दर के रूप में सामने आया. और, बदतरीन नतीजा आत्महत्या के रूप में. मोहल्लों के प्राथमिक विद्यालयों से लेकर कुलीन इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलाॅजी अथवा यहां तक कि प्रगतिशील हैदराबाद सेंट्रल युनिवर्सिटी या जेएनयू या दिल्ली विश्वविद्यालय तक, कोई भी संस्थान भेदभाव के मामले में अलग नहीं है. इस सबसे ऊपर, जब इन समुदायों के छात्र स्नातक बन जाते हैं तो जरूरी नहीं कि वे अपने मनोनुकूल रोजगार पा लें, क्योंकि पूंजीवाद के अंतर्गत श्रम बाजार म्यूजिकल चेयर खेल जैसा है. रोजगार की संख्या आवेदकों की संख्या से काफी कम होती है जो कि मार्क्स के ‘श्रम की आरक्षित सेना’ वाली बात को ही संपुष्ट करती है. जो रोजगार में आ गए, उन्हें अनुशासित रहना होगा, क्योंकि उन्हें बेरोजगारों की विशाल फौज से कभी भी बदला जा सकता है. इसीलिए, रोजगार पाए लोग कभी भी बेरोजगारों अथवा मुश्किल से रोजगार पाए लोगों के साथ एकजुटता में खड़े नहीं होंगे.
ठीक यही स्थिति शिक्षकों की भी है –भारत के विश्वविद्यालयों और काॅलेजों में वे सुरक्षित अनुबंध के बगैर ही काम करते हैं और तदर्थ शिक्षक कहलाते हैं. अगर कोई छात्र शिक्षक बनना चाहता है, तो उसके रास्ते में अनेक जोखिम हैं. भारत में युनिवर्सिटी या काॅलेेेेज शिक्षक प्रणाली हमारे समाज में गहरे धंसे श्रेणीक्रम की जहरीली प्रणाली का एक शास्त्रीय नमूना है. यह ढांचा कमोबेश एक पिरामिड से काफी मिलता-जुलता है जिसमें शीर्ष पर चंद प्रोफेसर होते हैं, उनके नीचे थोड़ी ज्यादा संख्या में एशोसिएट प्रोफेसर होते हैं और सबसे नीचे असिस्टेंट प्रोफेसरों की विशाल तादाद होती है. असिस्टेंट प्रोफेसरों के अंदर तीन ग्रेड चढ़ने के बाद एशोसिएट बना जा सकता है, फिर एक और ग्रेड ऊपर जाने पर प्रोफेसर बना जा सकता है. असिस्टेंट से एशोसिएट बनने में तकरीबन 12 वर्ष लग जाते हैं और एशोसिएट से प्रोफेसर बनने में कम से कम 3 साल लगते हैं. अधिकांश काॅलजों और विश्वविद्यालयों में बहुत ही कम लोग प्रोफेसर बन पाते हैं, क्योंकि पिरामिड के सबसे निचले हिस्से को प्रोन्नति का लोभ दिखाकर काम के बोझ से लाद दिया जाता है. तदर्थ की श्रेणी सारतः इसलिए बनाई गई है कि असिस्टेंट प्रोफेसर के स्तर पर विशाल सेना तैयार रखा जाए, क्योंकि यह व्यवस्था सभी श्रेणियों में सुरक्षित अनुबंध वाले शिक्षकों को नहीं रखना चाहती है. इस वजह से निचले पायदान पर खड़े शिक्षकों के बीच होड़ मची रहती है और वे जोखिमभरे अनुबंध के तहत सस्ते श्रम की आपूर्ति का माध्यम बन जाते हैं.
पूंजीवाद ने जिस श्रेणी असमानता को लाद दिया है, उसे कम करने के बजाय यह शिक्षा प्रणाली उसे बनाए रखने में ही मदद पहुंचाती है. उच्च शिक्षा संस्थानों में लगातार होने वाली आत्महत्याएं मूलतः इन्हीं असमानताओं की उपज हैं.