17 जनवरी के दिन बीबीसी ने दो खंडों के डाक्युमेंटरी ‘इंडिया: द मोदी क्योश्चन’ का पहला एपिसोड प्रसारित किया. इस डाक्युमेंट्री में गोधरा ट्रेन अगलगी के ठीक बाद गुजरात में हुए भयावह जनसंहार के समय वहां के तत्कालीन मुख्यमंत्री के बतौर मोदी की भूमिका को मुख्य विषयवस्तु बनाया गया है. इस फिल्म को भारत में प्रसारित नहीं करने दिया गया, और मोदी सरकार ने पफौरन ही ट्वीटर को इस वीडियो से जुड़े सभी ट्वीट और लिंक को हटाने का निर्देश दिया और यूट्यूब से कहा कि वह इस वीडियो अथवा इसके क्लिप्स को अपलोड न करे. भारत के विदेश मंत्रालय के एक प्रवक्ता ने इस फिल्म को साख खो चुके विमर्श को पैफलाने वाला और औपनिवेशिक सोच से संचालित दुश्मनागत प्रचार बताया है. आइटी कानून 2021 के नियम 16 के तहत आपात्कालीन शक्तियों का इस्तेमाल करके सोशल मीडिया मंचों पर इस फिल्म के खिलाफ रोक का आदेश जारी किया गया.
2002 में जब गुजरात में जनसंहार हुआ था, तो पूरी दुनिया मर्माहत हो गई थी. मर्माहत भारत ने 2004 में भाजपा को सत्ता से हटा दिया, और 2002 का गुजरात जनसंहार 2004 के चुनाव परिणामों पर निर्णायक असर डालने वाला एक बड़ा कारक बन गया था. 2014 में नरेंद्र मोदी के भारत का प्रधानमंत्री बन जाने के पहले तक दुनिया के अनेक देश उनको वीजा देने से भी इन्कार करते रहे थे, और इसकी वजह गुजरात के मुख्यमंत्री के बतौर उनकी उस समय की भूमिका ही थी जब उस राज्य में स्वतंत्र भारत का एक सबसे संत्रासपूर्ण और भयावना जन संहार घटित हुआ था. यह सच है कि सर्वोच्च न्यायालय ने अब गुजरात जनसंहार से संबंधित तमाम मुकदमों को बंद कर दिया है और कि उसे प्रकटतः नरेंद्र मोदी को सजा देने लायक कोई साक्ष्य नहीं मिल पाया. यह भी सच है कि मोदी मई 2014 के बाद अब तक भारत के प्रधानमंत्री बने हुए हैं. लेकिन क्या इसका यह मतलब निकलता है कि दुनिया अब गुजरात 2002 के बारे में कोई चर्चा ही न करे ?
वस्तुतः भाजपा ने यह साफ-साफ बता दिया है कि 2002 का गुजरात जनसंहार उनके गुजरात माॅडल का मूलतत्व है – 2022 में अमित शाह ने कहा कि कैसे उस जनसंहार ने गुजरात में ‘स्थायी शंति’ की गारंटी की है, और भाजपा ने बिलकिस बानो के अभियुक्त बलात्कारियों तथा उसके परिजनों के हत्यारों को जेल से उनकी रिहाई और नायकों के बतौर उनके स्वागत का तोहफा देने के लिए भारतीय स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ का मौका ही चुना. लेकिन यह जरूरी है कि हम गुजरात 2002 को उसके सभी घृणित पहलुओं के साथ याद रखें. बीबीसी के डाक्युमेंट्री में ठीक ऐसा ही किया गया है और उसमें बताया गया है कि कैसे ब्रिटिश उच्चायोग द्वारा 2002 में कराई गई एक आंतरिक जांच की रिपोर्ट में नस्ली सफाया के सारे प्रमुख चिन्ह पाए गए थे और उसमें नरेंद्र मोदी को सीधे-सीधे जिम्मेवार ठहराया गया था. इस बीबीसी डाक्युमेंट्री पर मोदी सरकार की आक्रोशपूर्ण प्रतिक्रिया के बाद करन थापर के साथ एक इंटरव्यू के दौरान तत्कालीन ब्रिटिश विदेश मंत्री जैक स्ट्राॅ ने पुनः इस रिपोर्ट की पुष्टि की है. वस्तुतः, ‘कारवां’ पत्रिका द्वारा अब संपूर्णता में प्रकाशित इस रिपोर्ट में गुजरात जनसंहार को एक पूर्व-नियोजित हमला बताया गया है जिसके लिए गोधरा को एक बहाना के बतौर इस्तेमाल किया गया था.
इस फिल्म का एक मजबूत पक्ष यह है कि इसमें नरेंद्र मोदी का एक इंटरव्यू भी शामिल किया गया है जिसमें वे इंटरव्यू लेने वाली महिला पत्रकार को खतरनाक निगाहों से देखते हैं और हिकारत के साथ उसे बताते हैं कि पुलिस ने स्थिति को नियंत्रण में लाने के लिए उत्कृष्ट कार्य किया था. वे मोदी के शुरूआती दिन थे जब उन्होंने मीडिया साक्षात्कारों से बचने की कला पर महारत हासिल नहीं की थी. वस्तुतः, मोदी ने उस इंटरव्यू में जो एकमात्र ‘आत्म-आलोचना’ की थी, वह यह कि मीडिया के साथ उस समय सरकार अच्छी तरह से नहीं निपट सकी थी. उस समय तक मीडिया पर भाजपा का पूर्ण नियंत्रण नहीं हो सका था, और इसीलिए गुजरात जनसंहार के सच को दबाया नहीं जा सका. हम यह अच्छी तरह देख सकते हैं कि केंद्र की मोदी सरकार ने प्रण कर लिया है कि वह अब किसी भी जागरूक मीडिया के सामने नहीं आएगी. मुख्यधारा मीडिया का मोदी सरकार का भोंपू बन जाना और जो पत्रकार आलोचनात्मक सवाल उठा सकते हैं, उनसे पूरी तरह कतराकर रहना – ये दो ‘सुधारात्मक सबक’ हैं जो नरेंद्र मोदी ने गुजरात 2002 के दौरान मीडिया से निपटने में अपनी स्वीकृत असफलता से सीखे हैं.
कुछ ही दिन पहले हमने देखा है कि किस तरह मोदी सरकार ने कश्मीर फाइल्स फिल्म को आगे बढ़ाने और प्रचार के हथियार के बतौर उसका इस्तेमाल करने का भरपूर प्रयास किया. और अब, वह बीबीसी डाक्युमेंट्री को कचरा प्रचार सामग्री बता रही है और भारत में सोशल मीडिया मंचों पर इस फिल्म को ब्लाॅक करने के लिए आपात्कालीन शक्तियों को इस्तेमाल कर रही है! अगर लोग अभी भी इसे इंटरनेट पर अथवा अपने डिजिटल उपकरणों पर इसे देख रहे हैं तो यह सरकार बलपूर्वक उन्हें रोक देना चाहती है. जेएनयू में छात्रों को इस फिल्म को देखने से रोकने के लिए बिजली कनेक्शन काट दिया गया और विद्यार्थी परिषद ने हिंसा शुरू दी. और सिर्फ इसलिए, कि यह डाक्युमेंट्री बीबीसी द्वारा प्रसारित किया गया है, मोदी सरकार इसे औपनिवेशिक सोच से प्रेरित बता रही है; जबकि यह सरकार खुद उसी तरह से हुकूमत कर रही है जैसे कि औपनिवेशिक ताकतें करती रही थीं – सरकार असहमति की हर आवाज को दबाने तथा नागरिकों की हर आजादी को कुचलने के लिए काले कानूनों को इस्तेमाल कर रही है.
जनसंहार के अपराधें पर कभी भी लीपापोती नहीं की जा सकती है. उसका सच बारबार सामने आकर हत्यारों को आतंकित करता रहेगा. सेंसरशिप की ‘आपात्कालीन शक्तियां’ किसी फिल्म को ब्लाॅक तो कर सकती हैं, लेकिन सत्य को हमेशा के लए नहीं दबा सकती हैं.