वर्ष - 32
अंक - 13
25-03-2023

- मनोज भक्त

हेमंत सरकार चाहे तो अपने औसत और नकारा बजट पर मोदी की तरह अपनी पीठ थपथपा सकती है. लेकिन, झारखंड की वास्तविक चुनौतियों के मद्देनजर वह बहुत जरूरी मौका खोती हुई दिख रही है. रोजगार का सवाल झारखंड का मुख्य राजनीतिक सवाल के रूप में उभर चुका है. रोजगार के सवाल पर कठघरे में मोदी सरकार को होना चाहिए. केंद्र सरकार, राज्यपाल और कोर्ट के जरिए भाजपा कठघरे में हेमंत सरकार को खड़ा कर रही है. 2019 में झारखंड की जनता ने स्पष्ट रूप से जल, जंगल और जमीन पर कारपोरेट कब्जा पांचवीं अनुसूची के उल्लंघन और स्थानीय युवाओं के रोजगार के सवाल पर भाजपा के खिलाफ खड़ी हुई. इसके लिए ही जनता ने विधानसभा चुनावों में संयुक्त विपक्ष को जनादेश दिया था. मोदी सरकार के खिलाफ समझौताहीन संघर्ष का स्पष्ट संदेश इस जनादेश में था. हेमंत सरकार इस कसौटी पर कितनी खरी है?

राज्य के वित्त मंत्री कांग्रेस के श्री रामेश्वर उरांव बजट वक्तव्य में हर्ष व्यक्त करते हैं कि स्थापना मद में कमी आयी है. स्थापना व्यय और योजना व्यय के दो साल के अनुपातों में योजना के हिस्से में बढ़ोत्तरी हुई है. वे बड़े उत्साह के साथ कहते हैं कि राजकोषीय घाटा भी नियंत्रण में है. क्या उनका वक्तव्य खुद उनके ही नकारापन को उजागर नहीं कर रहा है? हेमंत सरकार की क्या इतनी समझ नहीं है कि इस तरह के बजट का मतलब नकारात्मक रोजगार की दिशा में बढ़ना है? हालात देखिए, झारखंड में 4.66 लाख स्वीकृत पदों में केवल 1.79 लाख पर नियुक्ति, 2.87 लाख पद रिक्त (स्रोत – प्रभात खबर, 17 मार्च 2023, रांची). सरकार का काम है  पिछड़े क्षेत्रों और अल्प विकसित मानव एवं पूंजी संसाधनों के लिए अपनी व्यय क्षमता में बढ़ोत्तरी करना और इसके लिए आय के स्रोत को ढूंढना. इस स्रोत में केंद्र से अनुदान के साथ-साथ उधार हासिल करना भी शामिल है.

प्रसंगवश याद करिये, झारखंड के पहली सरकार-भाजपानीत बाबूलाल मरांडी सरकार ने बचत का बजट पेश किया था. उस समय गोदी मीडिया का जन्म नहीं हुआ था लेकिन मीडिया में सरकारी दलाल तो थे ही. सरकार को भरपूर वाहवाही मिल रही थी. 2001 में मरांडी सरकार ने 7.52 करोड़ बचत वाला बजट पेश किया था. झारखंड बनने के तुरंत बाद जब झारखंडियों के दिल में विस्थापन और लूट से मुक्ति का उछाह जोर मार रहा था, बाबूलाल मरांडी सरकार ने बंदूकों को विस्थापन और लूट के खिलाफ लड़नेवाले आंदोलनकारियों की ओर मोड़ दिया था और नये झारखंड को अपने लोगों के खून में डुबो दिया था.

सवाल हेमंत सरकार के इस साल या उस साल के बजट का नहीं है. हालांकि बजट का भोथरापन सरकार की राजनीतिक स्थिति को भी दर्शा रहा है. क्या हेमंत सरकार को सामने नाच रहा संकट नहीं दिख रहा है? झारखंड में बेरोजगारी दर (16.8%, फरवरी 2023) देश में शीर्ष पर लगातार तीसरे या दूसरे नंबर पर बना रह रहा है. प्रति व्यक्ति आय में यह आखिरी के दूसरे-तीसरे स्थान पर स्थिर है. काम के लिए पलायन के लिहाज से देश का अव्वल राज्य है (प्रति 10 हजार व्यक्ति के लिहाज से झारखंड - 35, बिहार - 18, उत्तर प्रदेश - 29). इसमें मौसमी पलायन की संख्या जोड़ दी जाये तो यह और भी कई गुना बढ़ जाती है. खाद्य सुरक्षा में झारखंड 10वें स्थान पर है. लेकिन सिंहभूम व संताल परगना के सुदूरवर्ती गांवों में भुखमरी, कुपोषण और संक्रामक मलेरिया अभी भी काबू के बाहर है. राशन-चोरी जिसमें मंत्री से लेकर पंचायत के पदाधिकारी तक संलिप्त रहते हैं, झारखंड़ की वास्तविक परिस्थिति की जिद्दी सच्चाई बनी हुई है. यह सच है कि राज्य की इस स्थिति के लिए भाजपा अपनी डबल इंजन सरकारों की जिम्मेवारी से बच नहीं सकती.

विभिन्न खनिजों के लिहाज से राज्य देश में पहले से पांचवें स्थान पर है. उद्योग के लिहाज से यह 10वें स्थान पर है. विभिन्न फैक्टरियों की संख्या और इनमें काम कर रहे कर्मचारियों के लिहाज से देखा जाये तो झारखंड 20वें स्थान पर है. कोयला के बढ़ते निजीकरण से राॅयल्टी की राशि तेजी से सिकुड़ रही है. वैसे भी राॅयल्टी के वितरण में केंद्र द्वारा भारी भेदभाव है. लेकिन राॅयल्टी की बात अभी छोड़ दी जाये. निजीकरण और इसके लिए बड़ी संख्या में एमओयूज के जरिए भूमि-अधिग्रहण से कितनी नौकरियां मिलीं और कितने लोगों की आजीविका छिनी – इसकी तस्वीर हेमंत सरकार ने अभी तक पेश नहीं की है.

राज्य के अनुबंधकर्मियों के जरूरी प्रसंग को इस लेख में छोड़ देते हैं. यह इससे जुड़ी अभिन्न संघर्ष भरी कहानी है कि कैसे भाजपा की एक के बाद दूसरी सरकारों ने पारा शिक्षकों, रसोइयों, आंगनबाड़ी सहियाओं, स्वास्थ्य सहियाओं को ठगा है और उनके आंदोलनों का दमन किया है. हम इस पर भी नहीं जाएंगे कि हेमंत सरकार ने भी सिवाय जब-तब उन्हें मिलनेवाली राशियों में कुछ नगण्य बढ़ोत्तरियों के अतिरिक्त उनकी समस्याओं को हल करने के लिए कोई बड़ा कदम नहीं उठाया है. इस संबंध में केवल एक बात यहां कही जा सकती है कि तमाम अनुबंध और स्कीम कर्मियों की संख्या का राजनीतिक महत्व है और इनके पास धीमे ही सही, लेकिन मोल-तोल की क्षमता विकसित हो रही है. अपर्याप्त मजदूरी या अनुग्रह राशि या वेतन का मुद्दा और नियमितीकरण राज्य के रोजगार आंदोलन का अविच्छिन्न हिस्सा है.

भाषा का सवाल हो या रोजगार का सवाल – भाजपा बड़ी धूर्तता से युवाओं की आकांक्षा से खेलती रही है. आजसू का वह इसके लिए हथियार की तरह इस्तेमाल करती है. हमने भाषा के सवाल पर देखा और अब ‘60-40 नाय चलतो’ का ट्वीटर शोर पैदा कर रोजगार के मुद्दा को भटकाने की साजिश भाजपा कर रही है. पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास ने 1985 आधारित स्थानीयता नीति घोषित की थी. झारखंड की जनता ने इसे आंदोलनों और वोटों के जरिए खारिज कर दिया था. इसे छोड़ कर भाजपा के पास कोई दूसरी वैकल्पिक नीति है? भाजपा के पास इसका कोई जवाब नहीं है. रोजगार का सवाल हो या भाषा का, भाजपा हमेशा झारखंड विरोधी ध्रुवीकरण की राजनीति करती है.1932 आधारित स्थानीयता नीति और आरक्षण सीमा को बढ़ाने के प्रस्ताव को विधानसभा में पारित करवाकर केंद्र के पाले में डालने से हेमंत सरकार राजनीतिक बरतरी हासिल हुई थी. लेकिन अमित शाह की एक सार्वजनिक सभा में 1932 खतियान के खिलाफ बयान और अंततः राज्यपाल और कोर्ट की अस्वीकृति ने भाजपा की साजिश को सफल कर दिया. हेमंत सरकार को राजनीतिक रूप से पीछे हटना पड़ा और झारखंड के युवाओं को एकबार फिर धक्का लगा.

रोजगार के नाम पर भाजपा के आक्रामक छल-प्रपंच का जवाब केवल मुख्यमंत्री की राजनीतिक बयानबाजी या सरकार द्वारा विधानसभा में अपनी वाहवाही तलाशना कतई नहीं हो सकता है. राज्य सरकार को रोजगार की तमाम संभावनाओं के लिए बढ़ना होगा. केंद्र सरकार की राज्य के प्रति निरंकुश भेदभावपूर्ण नीतियों के खिलाफ झारखंड विधानसभा को संघर्ष का मंच बनाना होगा. नियुक्तियां हों, कोयला या अन्य खनिजों के खनन कंपनियों में स्थानीयों के लिए रोजगार को बढ़ाया जाये, इनसे संबंधित फैक्ट्रियों में स्थानीयों को रोजगार मिले, राज्य के जल-जंगल-जमीन पर काबिज कारपोरेटों को स्थानीयों के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोजगार के लिए शर्तें तैयार कर लागू करने के लिए बाध्य किया जाये – यह उम्मीद राज्य के छात्र-युवा भी कर रहे हैं या कम से कम कर रहे थे. 

एक और बड़ा एवं सबसे जरूरी काम बचा रह जाता है. यह सबसे फौरी जिम्मेवारी के रूप हमारे सामने है. यह काम है रोजगार की आकांक्षा को संपूर्ण आंदोलन के रूप में मूर्त करने का. मनरेगा की मजदूरी का सवाल हो, शिक्षित बेरोजगारों के लिए नौकरी का सवाल हो, स्कीम वर्कर्स के नियमितीकरण का मुद्दा हो या स्थानीयों को प्राथमिकता देने का सवाल हो – इन्हें मिलाकर हमें सड़क पर संपूर्ण आंदोलन का स्वरूप देना होगा – ऐसा आंदोलन जो राज्य कीराजनीति का भविष्य तय करे. इस तरह के आंदोलन की अनुपस्थिति ही वजह है कि रोजगार के मामले में धोखा देनेवाली मोदी सरकार के गृह मंत्री अमित शाह अपनी सरकार की ओर से माफी मांगने के बजाय बेरोजगारों का मजाक उड़ाकर चाईबासा से दिल्ली लौट जाते हैं. झारखंड में रोजगार के सवाल को मोदी सरकार केवल राज्य की जिम्मेवारी कहकर नहीं टाल सकती है. केंद्र सरकार को राज्य में चल रहे केंद्रीय एवं सार्वजनिक प्रतिष्ठानों और सरकार की सहायता से स्थापित अडाणी जैसे प्रतिष्ठानों में नियुक्तियों का हिसाब देना होगा. झारखंड का सत्ताधारी गठबंधन इसे सदन और सड़क का मुद्दा बना पाए या नहीं, भाकपा(माले) को इस दिशा में तेज पहल लेना होगा और गांव से लेकर शहर तक रोजगार के लिए संघर्ष को राजनीतिक गोलबंदी में बदलना होगा.