वर्ष - 32
अंक - 10
04-03-2023

– आकाश भट्टाचार्य

भगवा का भेद खोलना

जुलाई 2022 के बाद से ही 64 पृष्ठों की एक किताब प्रसारित की जा रही है, जिसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पर मुकम्मल दृष्टि डाली गई है. तीन खंडों में विभक्त इस पुस्तक में आरएसएस की संपूर्ण आलोचना प्रस्तुत की गई है तथा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और श्रीराम सेना, बजरंग दल व अन्य तमाम ‘स्वायत्त’ गिरोहों की भगवा राजनीति के साथ संघ के समग्र राजनीतिक-वैचारिक कार्यक्रम के जुड़ाव को उजागर किया गया है.

मूलतः कन्नड में प्रकाशित इस पुस्तक की 40,000 प्रतियां हाथों-हाथ बिक गईं. धीरे-धीरे अनेक भारतीय भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ. आरएसएस के प्रमुख विचारकों, विशेषतः एमएस गोलवरकर के वक्तव्यों के उद्धरणों से भरी यह पुस्तक प्रतिरोध का शक्तिशाली घोषणापत्र है. यह किताब उनलोगों के लिए लिखी गई है जो कदाचित आरएसएस के सर्वव्यापी विश्व-दृष्टिकोण से जूझ रहे हैं – यानि, आप, हम और आज के भारत में रहने वाला हर व्यक्ति; कट्टर फासीवादी लोग ही शायद इसका अपवाद होंगे.

शुरू में ही महादेवा ने आरएसएस के मूल एजेंडा की रूपरेखा खींची है: हर नागरिक को समानता का वादा करने वाले संविधान की जगह मनुस्मृति को स्थापित करना, जो ‘चतुर्वर्ण’ के श्रेणीक्रम पर आधारित है. उसके बाद वे इस एजेंडा के मूल तत्वों की चर्चा करते हैं: हमारे सामंती ढांचे का एकाश्म इकाई में रूपांतरण, अल्पसंख्यकों और उत्पीड़ितों का मताधिकार हरण, जन भाषाओं पर संस्कृत (और संस्कृतनिष्ठ हिंदी) को थोपना, और आर्य नस्ली श्रेष्ठता को स्थापित करना – और ये तमाम चीजें नाजी जर्मनी से अत्यधिक प्रेरित हैं.

हाल के वर्षों में खास-खास नीतियों (जैसे कि पक्षपातपूर्ण नागरिकता कानून, कृषि कानून, धर्म परिवर्तन विरोधी कानून, राष्ट्रीय शिक्षा नीति वगैरह) और घटनाओं (जैसे कि जातीय अत्याचार, सांप्रदायिक हिंसा, आदि, आदि) के खिलाफ देश भर में एकताबद्ध प्रतिरोध देखे गए हैं. लेकिन ये सब आन्दोलन आरएसएस और उससे संबद्ध गिराहों के खिलाफ जन प्रतिरोध के बतौर एकजुट नहीं हो सके हैं. मजबूत एकजुटता हासिल करने और सफल शासन-परिवर्तनकारी आन्दोलन संगठित करने के लिए इन अलग-अलग प्रतिरोधें को जोड़ना पड़ेगा. उतना ही जरूरी यह भी है कि आरएसएस की परियोजना में निहित जाति के केंद्रीय तत्व को समझा जाए, क्योंकि विपक्षी राजनीति में अभी तक इसे पूरी तरह आत्मसात नहीं किया गया है. प्रस्तुत पुस्तक में इस बात को भी समझाया गया है.

लेखक के नाम से भी इस पुस्तक को वजन और अहमियत मिलती है. दलित लेखक देवानुरु महादेवा 1970-दशक के ‘बंडाया’ साहित्यिक आन्दोलन के एक सर्वप्रमुख शख्सियत रहे थे, जिस आन्दोलन ने दलित लेखकों और कार्यकर्ताओं की एक पूरी पीढ़ी को तैयार किया था. ‘कुसुमबाले’ और ‘ओडालाला’ जैसे लीक से हटकर लिखे गए उनके उपन्यासों ने उन्हें आधुनिक कन्नड साहित्य में भारी विध्वंसकारी लेखक के बतौर स्थापित कर दिया है. हाल के वर्षों में जब कर्नाटक लगातार हिंदुत्ववादी ताकतों की गिरफ्त में फंसता चला गया है, इस मुखर और सक्रिय लेखक-कार्यकर्ता ने अतीत और वर्तमान के बीच ऐसा रिश्ता कायम किया है जिसकी बहुत जरूरत थी.

संविधान बनाम जाति

महादेवा वर्तमान समय को डा. बीआर अंबेडकर के नेतृत्व में रचित भारतीय संविधान और जातीय प्रणाली, जिसे यह संविधान खत्म करना चाहता है, के बीच की लड़ाई के दौर के बतौर चिन्हित करते हैं. वे औपनिवेशिक अवधि के अंतिम काल के ऐतिहासिक हालात में इस टकराव को शुरू होते देखते हैं, जिस परिस्थिति ने आरएसएस को, और साथ ही इस संविधान को जन्म देने वाली लोकतांत्रिक शक्तियों को पैदा किया था.

स्वतंत्रता संग्राम के निर्णायक दशकों में ब्राह्मणों के एक प्रभावशाली तबके ने दलित बहुजनों और महिलाओं की दावेदारी को सुगम बनाने वाले आधुनिक लोकतांत्रिक विचारों और संस्थाओं के खिलाफ अपने निहित स्वार्थ की हिफाजत करने के लिए खुद को संगठित किया था. उस तबके ने यूरोपीय फसीवाद को अपने लिए उपयोगी रोल माॅडल समझा, और जल्द ही उन्होंने जाति व्यवस्था को बरकरार रखने के लिए हिंदू वर्चस्ववादी वैचारिक खाका विकसित कर लिया.

जब आरएसएस ने 1950 के दशक में भारतीय जनसंघ (बीजेएस), और फिर 1980 के बाद से भाजपा के जरिये राजनीति में प्रवेश किया, तो उसकी विचारधारा का राजनीतिक तात्पर्य खुलकर सामने आ गया. महादेवा लिखते हैं कि जाति व्यवस्था के निरंतर वर्चस्व को सुनिश्चित करने की अपनी आकांक्षा के चलते उन्होंने भारत में जन्मे अन्य धर्मों – जैसे कि जैन, बौद्ध, लिंगायत आदि – को मिटा देने का प्रयत्न किया, जो मूलतः वर्ण व्यवस्था से नफरत करते हैं.

स्वाभाविक उपपत्ति के बतौर आरएसएस के लिए  “बहुलता एक किस्म की फूट है, एक अलगाववादी जहरीला बीज है” (महादेवा, पृष्ठ 19). भारतीय संविधान भी उसी तरह की चीज है, जो जाति-आधारित कानूनों और आचार-शास्त्र की जगह लोकतांत्रिक नागरिकता की अवधारणा को स्थापित करता है. यह संविधान इतना शक्तिशाली है कि आरएसएस को मूलभूत रूप से एक वैकल्पिक राजनीतिक खाके की जरूरत पड़ गई ताकि वे अपने एजेंडा को सामने ला सकें. फासिस्ट “एक झंडा, एक राष्ट्र विचारधारा और हिटलर के एक नस्ल, एक नेता के सर्वशक्तिशाली सर्वसत्तावादी शासन” ने उन्हें उपयोगी संदर्भ बिंदु मुहैया करा दिया (महादेवा, पृष्ठ 19).

आर्य वर्चस्व और नस्ली शुद्धता की अवधारणा उनकी आस्था प्रणली का मूल संघटक है. महादेवा बताते हैं कि यहां भी हिटलर का आर्य वर्चस्ववादी नस्लवादी विचार आरएसएस के लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहा है. वे कहते हैं कि विभिन्न पहचानों के विलोपन की राजनीति और मूलवासी जनता के अधिकारों पर हमले, जो आज हम देख रहे हैं, इसी आर्य वर्चस्ववादी आस्था की सीधी उपज हैं.

इतिहास में हेराफेरी आरएसएस की प्रमुख विवादी रणनीति है. महादेवा इस बात की व्याख्या करने के लिए सिंधु घाटी सभ्यता पर विवाद को एक उदाहरण के बतौर इस्तेमाल करते हैं.

राखीगढ़ी में प्राचीन जीवाश्म डीएनए के बारे में हालिया डीएनए अध्ययन से यह खुलासा हुआ है कि सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों की जीनियोलाॅजी के अंदर कोई आर्य अथवा वैदिक लीनिएज मौजूद नहीं है. इस अध्ययन से धक्का खाने के बाद आरएसएस ने अब ‘सिंधु घाटी सभ्यता’ को ‘सरस्वती घाटी सभ्यता’ का नाम देने का अभियान चला रखा है. (महादेवा, पृष्ठ 35).

जहा तक कि नीतियों का सवाल है, तो इस पुस्तक में विभिन्न समकालीन घटनाओं – जीएसटी से निजीकरण तक, हिजाब पर प्रतिबंध से लेकर नागरिकता (संशोधन) अधिनियम और धर्म-परिवर्तन विरोधी कानूनों के पारित किए जाने तक – को आरएसएस की आस्था प्रणाली का ही सीध नतीजा कहा गया है. धार्मिक ध्रुवीकरण, मुस्लिम और इसाई समुदायों के खिलाफ प्रणालीगत भेदभाव, संघीय ढांचे का विध्वंस तथा शिक्षा जैसी सार्वजनिक प्रणालियों, जो दलित बहुजनों और महिलाओं की सामाजिक समानता व उनके ऊपर उठने की गति को सुगम बनाती हैं, की जानबूझकर की गई क्षति – इनमें से हर चीज आरसएस को उसके अपने एजेंडा को लागू करने में मदद पहुंचाती है.

फासीवाद-विरोधी घोषणापत्र

महादेवा आरएसएस को ‘फासिस्ट’ नाम देने से बचते हैं, हालांकि वे उसके फासिस्ट कारनामों की खुलकर चर्चा करते हैं. संभवतः वे उन भिन्न ऐतिहासिक संदर्भों को ध्यान में रखते होंगे, जिनमें यूरोपीय फासीवाद और भारतीय भगवा ब्रिगेड विकसित हुए हैं. और शायद ‘संघ’ की उस अनूठी कार्य प्रणाली के चलते भी वे इसे फासिस्ट कहने से बचते हैं जिसे वे सही तौर पर “असंवैधानिक संघ / संगठन नियंत्रित पार्टी राजनीति” के रूप में परिभाषित करते हैं. ऊपर से दिखने वाले इस फर्क के बावजूद आरएसएस के चरित्र और उद्देश्य के बारे में महादेवा की सही शिनाख्त और इसके प्रतिरोध के लिए उनका ओजपूर्ण आह्वान उनकी किताब को शक्तिशाली फासीवाद-विरोधी घोषणापत्र बना देते हैं.

इस किताब में फासीवाद-विरोधी राजनीति में जाति के प्रश्न को केंद्रीय महत्व दिया गया है. हिंदू समुदाय से उनकी अपील भी काफी महत्वपूर्ण है. महादेवा ‘हिंदुत्व’ शब्द का भी इस्तेमाल नहीं करना चाहते हैं, शायद इसलिए कि व्यापक हिंदू तबकों के बीच इस शब्द का सकारात्मक अवबोध मौजूद है. इसी के साथ, वे हिंदुओं से निवेदन करते हैं कि वे भगवा परियोजना की जांच-परख करें और सभी हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करने के आरएसएस के दावे को खारिज करें. वे स्वामी विवेकानंद, जिन्हें संघ ने चटपट हथिया लिया है, के वक्तव्यों का उद्धरण देकर यह दिखलाते हैं कि भगवा शिक्षण कार्यक्रम के अंतर्गत प्रमुख पाठ्यपुस्तक भागवत गीता को दरअसल ‘महाभारत’ में बाद में समाविष्ट किया गया है.

महादेवा “हिंदू वर्चस्ववाद के खिलाफ हिंदू” वैचारिक खाके के अंदर मौजूद दो प्रमुख प्रवृत्तियों से अलग हटते हैं. वे हिंदुवाद को बचाने का आह्वान नहीं करते हैं, वे न तो औसत हिंदुओं को अपनी धार्मिक मान्यताओं को नीची निगाह से देखने की बात कहते हैं, और न भगवा राजनीति को सिर्पफ इस कारण से खारिज करने की बात कहते हैं कि उसके चलते आर्थिक नुकसान हो रहा है. इससे हिंदूवाद बनाम हिंदुत्व पहेली के आमूलगामी समाधन की संभावना पैदा होती है. “हिंदूवाद को बचाने” के बजाय हमलोग एक नई लोकतांत्रित संस्कृति – एक ‘प्रबुद्ध’ चेतना – की रचना के लिए काम कर सकते हैं जो पूर्व-आधुनिक असहमतिपूर्ण परंपराओं (दलित बहुजन, नारीवादी और अन्य परंपराओं) तथा आधुनिक लोकतांत्रिक व मानवतावादी आदर्शों पर आधारित होगी. महादेवा इस बात को साफ-साफ तो नहीं कहते हैं, लेकिन “हिंदूवाद को बचाओ” खाके में फंसने से उनके इन्कार से यह संभावना पैदा होती है.

महादेवा की यह प्रस्तुति कुछ परेशान करने वाले सवालात भी उठाती है, जिनके बारे में पाठक इस पुस्तक से जवाब पाने की इच्छा करता है. स्पष्ट फासिस्ट उद्देश्यों को लेकर चलने वाला कोई संगठन भारत की संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत इतने समय तक आगे बढ़ने का रास्ता पाने में कैसे सफल हो सकता है? मोदी-नीत गुजरात जनसंहार के ठीक बाद वाजपेई के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को चुनाव में सत्ता से बेदखल करने वाला देश एक दशक के अंदर ही कैसे उसी मोदी को राष्ट्रीय नेता के बतौर स्वीकार कर लेता है?

आरएसएस की विशिष्टताओं और उससे उत्पन्न होने वाले संभावित खतरों का जिक्र करते हुए महादेवा पूर्व के अन्यायपूर्ण शासनों के प्रति कभी-कभी नरमी दखाते प्रतीत होते हैं, आपात्काल के भयावने दिनों को किंचित नजरअंदाज करते दिखते हैं. पाठक यह भी चाहता है कि लेखक को इस पुस्तक में पूंजी का ज्यादा धारदार विश्लेषण पेश करना चाहिए था. मोदी शासन के प्रति बड़े काॅरपोरेटों के समर्थन पर विचार किए बिना मोदी के तहत भाजपा के उत्थान की पूरी तरह से व्याख्या नहीं की जा सकती है.

इन सरोकारों के बावजूद, यह ऐसी पुस्तक है जिसे बहुलता व समानता के लिए संघर्ष करने वाले तमाम वामपंथी कार्यकर्ताओं को अवश्य पढ़नी चाहिए. जो लोग महादेवा के साहित्यिक कार्यों से परिचित नहीं हैं, उनके लिए यह किताब हमारे समय के एक असाधारण बुद्धिजीवी और कार्यकर्ता को जानने-समझने के लिए शुरूआती संदर्भ होना चाहिए.

जातीय अत्याचार का तेज होना फासीवाद की एक प्रमुख विशेषता है, और जाति उन्मूलन फासीवाद-विरोधी राजनीति का एक प्रमुख उद्देश्य अवश्य होना चाहिए. मार्क्सवाद के साथ अंतःक्रिया करते हुए सामाजिक आलोचना की देशी परंपराएं – जैसे कि दलित बहुजन और आदिवासी परंपराएं – भी हमारे लिए महत्वपूर्ण संसाधन हैं. महादेवा आपस में खंडन-मंडन करने वाली इन परंपराओं का एक जीवंत समुच्चय हैं, और यह पुस्तक उनके जीवन-पर्यंत राजनीतिक सक्रियता का परिणाम है.