– प्रो. ओ. पी. जायसवाल
बिहार विरोध, असहमति और अनास्तिकों की एक अनूठी भूमि रही है. इस क्षेत्र में आर्यों का आगमन काफी विलंब से हुआ था, इसीलिए वैदिक साहित्य में मगध की चर्चा नहीं मिलती है. सत्पथ ब्राह्मण में वर्णित विदेह माधव की कथा बताती है कि सरस्वती की भूमि से आए ब्राह्मणों ने मिथिला वंश की स्थापना की थी. अथर्ववेद से हमें जानकारी मिलती है कि व्रात्य लोग आर्य ब्राह्मणवाद के दायरे से बाहर ही रहते थे. मगध् में बहुतेरे घुमक्कड़ भौतिकवादी कट्टर वैदिक जीवन शैली के विरोधी थे – वे सभी अनास्तिक थे.
विशालकाय दीवारों के निर्माण का श्रेय व्रात्यों को जाता है, जो राजगृह की पांच पहाड़ियों को घेरती हैं. ईसा पूर्व छठी शताब्दी में हम जैन भगवती सूत्र और बौद्ध साहित्य अनुगुत्तर निकाय में सोलह महाजनपदों की चर्चा पाते हैं. मगध उस समय का सबसे बड़ा राजतंत्रीय शासन था. ईसा पूर्व छठी सदी का अंत होते-होते मगध सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य बन गया था और उसने अनेक छोटे राजतंत्रों व गणतंत्रों को अपने अधीन कर लिया था.
मगध के आसपास की भूमि में लोहा की उपलब्ध्ता के चलते ही बिंबसार और उसके पुत्र अजातशत्रु के शासनकाल में अंग (भागलपुर व मुंगेर) मगध का हिस्सा बन गया. लिच्छवियों का महान गणतंत्र वैशाली भी मगध साम्राज्य के अधीन कर लिया गया. शुरू में मगध की राजधानी गिरिव्रज (राजगृह) था. राजगृह से भगवान बुद्ध के जुड़ाव की चर्चा जरूरी है. दुनियाबी जिंदगी का परित्याग करने के बाद भगवान बुद्ध पहले वैशाली और बाद में राजगृह आए. यही बिंबसार से उनकी मुलाकात हुई, वे कुछ समय यहां रुके और फिर गया और वहां से बोधगया की ओर प्रस्थान कर गए. बोधगया में बोधिवृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ जो अभी तक वहां मौजूद है. ज्ञान प्राप्ति के बाद वे सबसे पहले सारनाथ गए; फिर गया, राजगुह और वैशाली चले आए. वैशाली में आकर ही उन्होंने संघ में महिलाओं के प्रवेश की अनुमति दी, जो लिच्छवियों की गणतंत्रीय व्यवस्था के आधार पर संगठित होते थे. वैशाली में ही भगवान महावीर का जन्म हुआ था जिन्होंने जैन धर्म की स्थापना की और उसका प्रचार-प्रसार किया. बुद्ध की मृत्यु के बाद पहली बौद्ध परिषद राजगृह में अजातशत्रु के काल में आयोजित की गई. बिंबसार के प्रख्यात राजवैद्य जीवक को मालवा के राजा के उपचार हेतु वहां भेजा गया था. बुद्ध को समर्पित जीवक के मठ के भग्नावशेष राजगृह में मिले हैं.
अजातशत्रु के उत्तराधिकारी उदयभद्र ने अपनी राजधानी राजगृह से हटाकर पाटलिपुत्र में स्थापित कर ली जिसके कई सामरिक और आर्थिक कारण थे, क्योंकि पाटलिपुत्र गंगा और सोन के मिलन-स्थल पर अवस्थित था. उदयभद्र की मृत्यु के बाद मगध का इतिहास निश्चितता और अंधेरे से आच्छादित हो गया. उसके बाद हम शिशुनाग का उदय देखते हैं जिन्होंने अवंती के प्रद्योत का मुकाबला किया और उसके अंतर्गत के भूभाग को मगध् में मिला लिया. उनके पुत्र कालाशेक के शासनकाल में बौद्धों की दूसरी परिषद वैशाली में आयोजित की गई.
उसके बाद मगध की सत्ता दूसरे महत्वपूर्ण राजा महापद्म नंद के हाथ में चली गई, जिसने समूचे उत्तर भारत में मगध साम्राज्य का विस्तार किया, और ‘एकराट’ (एकमात्र सम्राट) बन गया. उसके पास विशाल सेना मौजूद थी, क्योंकि जैसा कि प्रो. आरएस शर्मा बतााते हैं, लौह उपकरणों से जंगलों की विस्तृत भूमि को साफ कर दिया गया और विशाल सेना को टिकाये रखने के लिए पर्याप्त उत्पादन किया जाने लगा. उन्होंने क्षत्रियों को उखाड़ फेंका और पूरब में उड़ीसा, दक्षिण में मध्य भारत, पश्चिम में महाराष्ट्र और उत्तर-पश्चिम में पंजाब तक अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया. इस वंश का अंतिम राजा धन नंद था जिसके सामर्थ्य और ख्याति ने सिंकदर को पंजाब से ही वापस लौटने पर मजबूर कर दिया था. सिंकदर के लौटने के बाद ही नंद वंश का अंत हो गया.
महान राजनीतिज्ञ चाणक्य की मदद से चंद्रगुप्त मौर्य ने ईसा पूर्व 323 में मौर्य राजवंश की स्थापना की. इसी समय से हमें मगध का कुछ हद तक सही इतिहास प्राप्त होता है. चंद्रगुप्त मौर्य ने सुदूर दक्षिण को छोड़कर व्यवहारतः समस्त भारत पर अपना कब्जा जमा लिया था. उसने ग्रीक सेल्युकस से अफगानिस्तान का भी एक हिस्सा छीन लिया था.
चंद्रगुप्त मौर्य के बाद उसका पुत्र बिंदुसार गद्दी पर बैठा जिसने दक्कन में विद्रोह का दमन किया और सीरिया तथा इजिप्ट के ग्रीक शासकों के साथ दोस्ताना रिश्ते बरकरार रखे. ईसा पूर्व 269 में अशोक महान बिंदुसार के उत्तराधिकारी बने, और अपने पूर्वजों की भांति उन्होंने भी पहले तो विस्तारवादी नीति ही अनपाई. उन्होंने कलिंग के खिलाफ युद्ध छेड़ा. उस युद्ध में हजारों हजार लोग मारे गए. विनाश के दृश्य ने उनके अंदर करुणा का भाव पैदा किया और उन्होंने युद्ध बंद करने का आदेश दिया. विश्व इतिहास की गाथा में वे एकमात्र ऐसे सम्राट हैं जिन्होंने अपनी जोरदार विजय के बीच सैन्य कार्रवाई रोक दी और फिर कभी युद्ध न छेड़ने की प्रतिज्ञा की.
इस प्रकार, कलिंग युद्ध अशोक के जीवन में अथवा भारत के इतिहास में एक मोड़ का बिंदु बन गया. कलिंग युद्ध के बाद बौद्ध धर्म के प्रति उनका उत्साह काफी बढ़ गया, क्योंकि कुछ समय पहले से ही वे व्यक्तिगत रूप से इस धर्म को अपना चुके थे. तीसरी बौद्ध परिषद उनके संरक्षण में पाटलिपुत्र में आयोजित की गई. दुनिया भर में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए उन्होंने अपने पुत्र व पुत्री – महेंद्र व संघमित्रा – को श्रीलंका भेजा. वे भारत के पहले राजा थे जिन्होंने अपना संदेश पत्थरों पर खुदवाया.
उनके खुदवाए शिला-लेख देश के विभिन्न हिस्सों में पाए गए हैं. उनकी धार्मिक व कल्याणकारी गतिविधियां न केवल इस देश के विभिन्न हिस्सों, बल्कि पश्चिम एशिया के कई राज्यों तक फैली हुई थीं. इसके अलावा, उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए नेपाल, मध्य एशिया के देशों और बर्मा, श्रीलंका और दक्षिण एशिया में भी प्रतिनिधिमंडल और प्रचार दल भेजे. वे अंतरराष्ट्रीय शंति व सहयोग के सबसे प्राचीन मसीहा थे. दुर्भाग्यवश उनके उत्तराधिकारी कमजोर शासक साबित हुए जो इतने विशाल भूभाग पर नियंत्रण नहीं रख सके. बहरहाल, दशरथ और वृहद्रथ का उल्लेख करना उचित होगा. अशोक के पोते दशरथ ने बौद्ध धर्म के एक प्रतिद्वंद्वी पंथ आजीवक के लिए बाराबर पहाड़ियों (जहानाबाद जिला) में गुफाएं खुदवाईं. वृहद्रथ मौर्य राजवंश का अंतिम शासक था जो उसके ही प्रधान सेनापति पुष्यमित्र शुंग के हाथों मारा गया. इस प्रकार, मौर्य वंश का राज खत्म हुआ और ब्राह्मण शासन शुरू हुआ.
पुष्यमित्र शुंग के काल में पश्चिम के इंडो-ग्रीक राजाओं ने देश पर हमले किए, लेकिन उन्हें पीछे खदेड़ दिया गया. पुष्यमित्र शुंग के बाद उसका पुत्र अंगमित्र शुंग राजा बना. उसके बाद शुंग वंश का शासन काफी कम समय तक चल पाया. शुंगों के बाद मगध के रंगमंच पर कण्व वंश सामने आया, लेकिन वह भी अल्प काल तक ही चला और उसे दक्कन के सतवाहनों ने उखाड़ फेंका. इंडो-ग्रीक शासकों और बाद में कुषाणों और मुरुंडों ने मगध के कुछ हिस्सों पर शासन किया. कुषाणों के बाद लगभग दो सदियों तक – तीसरी सदी में गुप्त साम्राज्य के उदय के पहले तक – मगध के इतिहास पर अंधेरा छाया रहा.
गुप्त वंश की स्थापना श्रीगुप्त (300 ई.) ने की थी. उसका उत्तराधिकारी था घटोत्कच गुप्त, जिसके बाद चुद्रगुप्त-1 ने गद्दी संभाली. चंद्रगुप्त-1 के उत्थान के साथ ही गुप्त वंश प्रख्यात हुआ. उसने लिच्छवी की राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह किया, जो उसकी भाग्यलक्ष्मी बनी. चंद्रगुप्त-1 के बाद उसका पुत्र समुद्रगुप्त राजा बना. अपने साहस और शौर्य से उसने समूचे उत्तर भारत को और दक्षिण पूर्व भारत में कांची तक के हिस्से को विजित कर लिया. इलाहाबाद के स्तंभ-लेख में उसकी कीर्ति और सैन्य उपलब्धियों के उल्लेख मिलते हैं. उसने ‘अश्वमेध’ कराया था और माना जाता है कि उसी ने सबसे पहले भारत में स्वर्ण मुद्रा का प्रचलन कराया. इसके बाद 380 ई. में चंद्रगुप्त-2 ने गद्दी संभाली. वह योग्य पिता का योग्य पुत्र था. उसने सैन्य मुहिम भी संचालित किए और मध्य तथा पश्चिमी भारत से विदेशी शक शासन को मिटा दिया. वांगला मे विद्रोह को कुचलने, उत्तर-पश्चिम में बैक्ट्रिया तक अपना प्रभाव विस्तार करने और दक्षिण सागर तक अपनी ख्याति फैलाने का श्रेय उसे जाता है. उसके दरबार में ‘नवरत्न’ को संरक्षण मिला था जिनमें कालीदास भी शामिल थे, जिन्होंने अभिज्ञान शाकुंतलम् और कुमारसंभवम् की रचना की थी. वह कला और ज्ञान का महान संरक्षक था. चीनी यात्री फाहियान उसके शासन काल में ही भारत आया था. उसने ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की. उसका पुत्र कुमारगुप्त-1 उसका उत्तराधिकारी बना. उसने गुप्त साम्राज्य को बरकरार रखा. प्रसिद्ध नालंदा महावीर उसने ही बनवाया था. उसके शासन के अंतिम वर्षों में हूणों और पुष्यमित्रों ने पश्चिम और मध्य भारत में उसके साम्राज्य पर हमले किए थे, लेकिन उन्हें उसके पुत्र ने पराजित कर दिया. उत्तराधिकार के युद्ध के बाद संकट के समय में स्कंदगुप्त गद्दी पर बैठा. वह एक साहसी और शौर्यवान राष्ट्रीय नायक था. उसने पुष्यमित्रों के गंभीर विद्रोह का दमन किया. जब मध्य एशिया में रहने वाले हूणों ने देश के पश्चिमी हिस्से पर आक्रमण किया तो स्कंदगुप्त ने अपने सामर्थ्य से उन्हें पूरी तरह पीछे खदेड़ दिया, और इस प्रकार देश को बर्बर विदेशियों से बचा लिया. यह तथ्य भितारी स्तंभ और जूनागढ़ शिलालेखों से प्रमाणित होता है. स्कंदगुप्त से लेकर बुद्धगुप्त तक गुप्त साम्राज्य लगभग अक्षुण्ण रहा.
लेकिन बुद्धगुप्त की मृत्यु के बाद इस साम्राज्य पर अंधकार के बादल घिर आए. हूण टाॅरमन ने गुप्त भूभाग पर हमला किया और पंजाब व मालवा के हिस्से छीन लिए; और टाॅरमन के पुत्र मिहिरकुल ने नरसिंहगुप्त बालादित्य को करारी शिकस्त दी जो मगध से भागकर समुद्रतटीय बंगाल चला गया. मिहिरकुल ने वहां भी उसका पीछा किया. बाद में मालवा के यशोधर्मन ने और बालादित्य ने भी मिहिरकुल को पराजित किया और बालादित्य ने मगध को पुनः हासिल कर लिया. इसके बाद विष्णुगुप्त के समय तक गुप्त राजाओं ने सम्राट की पूर्ण उपाधियों के साथ मगध पर शासन करना जारी रखा. लेकिन साम्राज्य सिर्फ नाम भर का था, और स्थानीय राजाओं की शक्ति बढ़ती जा रही थी.
गुप्त शासकों ने कला, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्रों में नए युग का सूत्रपात किया. विभिन्न दिशाओं में कईगुना प्रगति हुई. नालंदा का महान विश्वविद्यालय गुप्त काल में ही स्थापित हुआ था जिसे 11वीं सदी में ब्राह्मणों ने खाक में मिला दिया – बख्तियार खिलजी द्वारा उसे नष्ट करने की बात तो एक अफवाह ही है. बख्तियार खिलजी तो नालंदा आया ही नहीं था. महान गणितज्ञ और दशमलव प्रणाली के अन्वेषक आर्यभट्ट उसी अवधि में पाटलिपुत्र में पैदा हुए थे. गणित, दशमलव प्रणाली और खगोलशास्त्र के क्षेत्र में उनके योगदान सुविख्यात हैं. कला के क्षेत्र में भी स्थिति ऐसी ही थी. उस काल में कला के अनेक विद्यालय खोले गए थे. संस्कृत साहित्य बड़ी ऊंचाइयां छू रहा था. उस पूरे राज्य में धार्मिक सहिष्णुता का पालन किया जाता था. प्रशासन कल्याणकारी था. गुप्त काल को भारतीय इतिहास और संस्कृति का फूलता-फलता युग माना जाता है.
हर्षवर्धन के उत्थान के पहले तक मगध का इतिहास मौखारियों, गौड़ों और मगध के परवर्ती गुप्तों के बीच संघर्षों का इतिहास रहा है. मौखारियों ने परवर्ती गुप्तों से मगध विजित कर लिया था, लेकिन उन्हें सशंक के नेतृत्व में गौड़ों ने उखाड़ फेंका. सशंक ने बौद्ध मंदिर और बोधिवृक्ष को नष्ट कर डाला. अंततः स्थायित्व तो स्थापित कर लिया गया, किंतु मगध का गौरव खत्म हो गया, क्योंकि मगध हर्ष के कब्जे में चला गया था, और उसके उत्थान के साथ राजनीतिक सत्ता मगध से हटकर कन्नौज में स्थानांतरित हो गई. चीनी यात्री ह्वेनसंग उसके ही समय में नालंदा आया था. हर्ष की मृत्यु के बाद मगध में अफरातफरी मची रही. 7वीं सदी के अंत में परवर्ती गुप्त राजा आदित्यसेन ने गद्दी पर कब्जा जमा लिया. उसने कुछ हद तक मगध की समृद्धि वापस लाई. लेकिन यह कुछ समय तक ही टिक पाया. बाद में गुप्त वंश का अंत हो गया, जब जीवित गुप्त-2 को 725 ई. में कन्नौज के यशोवर्मन ने मार डाला.
8वीं सदी में बंगाल के राजा के बतौर गोपाल के निर्वाचन के साथ राजनीतिक अराजकता खत्म हुई. गोपाल ने मगध को जीत लिया और आज के बिहारशरीफ में ओदंतपुरी विहार की स्थापना की, जिसके ही माॅडल पर तिब्बत में साम-ये मठ स्थापित किया गया. गोपाल का पुत्र धर्मपाल महान राजा था. उसने गुर्जर प्रतिहारों और राष्ट्रकूटों से युद्ध किए, और इस प्रकार उसके समय में दक्कन के राष्ट्रकूटों, कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारों तथा बंगाल के पालों के बीच त्रिपक्षीय संघर्ष शुरू हुआ. कुछ समय के लिए धर्मपाल कन्नौज का मालिक बना था, जहां उसने राज दरबार आयोजित किया और पश्चिमी भारत, पंजाब और मध्य भारत के शासकों की निष्ठा हासिल की. दक्कन के कुछ हिस्से भी उसके शासन के अंतर्गत चले आए, और उसे ‘उत्तरापथस्वामी’ (समूचे उत्तर का शासक) कहा जाने लगा. धर्मपाल ने विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना की, जिसका स्थान पटना विश्वविद्यालय द्वारा भागलपुर जिले में कहलगांव के निकट अंतिचक में चिन्हित किया गया है.
8वीं से 12वीं सदी के बीच 84 बौद्ध सिद्धों के बारे में चर्चा जरूरी है जिन्होंने इस क्षेत्रा में वर्गविहीन समाज बनाने की कोशिशें की थीं, और इसके विरोध में ‘अद्वैत वेदांत’ के जनक आदि शंकराचार्य के उदय पर भी विचार कर लेना उचित होगा.
मध्य काल (16वीं सदी के प्रथमार्ध) में अफगानी मूल के शेर शाह सूरी का जिक्र प्रासंगिक होगा. शेर शाह को भारत के सबसे समर्थ बादशाहों में शुमार किया जाता है. उसने 1541 में गंगा और गंडक के मिलन-स्थल पर पटना शहर बसाया और इसे राजधानी नगरी बनाया. प्राचीन नगर-राज्य पाटलिपुत्र गुप्तों के अवसान के बाद नष्ट हो गया था, इसे शेर शाह ने पटना नाम से पुनर्जीवन प्रदान किया.
शेर शाह के नाम अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धियां भी जाती हैं, जैसे कि कृषि भूमि की पैमाइश और गुणों के आधार पर उसका वर्गीकरण, राजस्व का निर्धारण, पट्टा प्रणाली का चलन आदि. उसने चांदी के सिक्के का प्रचलन करवाया, व्यापार गतिविधियों को विकास किया, सड़कों का जीर्णोद्धार कराया और नई सड़क (ग्रैंड ट्रंक) बनवाई जो पेशावर (अब पाकिस्तान में) से सोनारगांव (अब बंगला देश में) तक जाती थी. वह अपनी हिंदू प्रजा के प्रति सहिष्णु और उदार था, उसने बड़ी संख्या में हिंदू राजस्व अधिकारियों को नियुक्त किया, आम लोगों के लिए सरायों (लगभग 1700) का निर्माण कराया तथा यात्रा और दूर-दराज तक त्वरित संचार की व्यवस्था कराई.
आधुनिक काल में बिहार पहले बंगाल का हिस्सा था. लेकिन पटना का अपना व्यापारिक आकर्षण था; इसीलिए जाॅब चैरनाॅक ने पटना में 1621 और 1625 में फैक्टरी लगाया. अंगरेजों का दमन चरम पर था जिससे 1857 में महान विद्रोह फूट पड़ा. जगदीशपुुर के कुंवर सिंह इस विद्रोह के शीर्ष नेता के बतौर उभरे. पटना के पीर अली सरीखे आम लोगों ने भी इस विद्रोह में प्रमुख भूमिका निभाई.
22 मार्च 1912 को बंगाल से बिहार को अलग कर दिया गया. महात्मा गांधी ने चंपारण में अप्रैल 1917 में अपने सत्याग्रह का पहला प्रयोग किया. ‘बंग भंग’ और स्वदेशी आन्दोलन के साथ ही क्रांतिकारी संघर्ष शुरू हो गए. 1908 में खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने जज डीएच किंग्सफोर्ड को मारने के लिए बम विस्फोट किए, लेकिन संयोग से वह बच निकला. खुदीराम बोस को मुजफ्फरपुर में मृत्युदंड दिया गया.
किसान और ट्रेड यूनियन आन्दोलनों की झड़ी लग गई थी. 17 मई 1934 को पटना के अंजुमन इस्लामिया हाॅल में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया गया. अखिल भारतीय स्तर पर बंबई में सोशलिस्ट पार्टी बनाई गई. सीएसपी के साथ मतविरोध बढ़ने पर कामरेडों ने मुंगेर में 29 अक्टूबर 1939 को विजयादशमी के दिन एक अलग पार्टी बनाने का निर्णय लिया. कामरेड सुनील मुखर्जी, राहुल सांकृत्यायन, अली अशरफ और कई अन्य क्रांतिकारी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य बने. 1964 में सीपीआई में विभाजन हुआ और सीपीआई(एम) अस्तित्व में आया. 1967 में पुनः एक विभाजन हुआ और सीपीआई(एम) से अलग होकर एक नई पार्टी सीपीआई(एमएल) का गठन किया गया.