वर्ष - 32
अंक - 12
23-03-2023

जन संस्कृति मंच, लखनऊ का वार्षिक आयोजन विगत 25 फरवरी 2023 को कैफी आजमी एकेडमी, निशातगंज में आयोजित हुआ. आयोजन के पहले सत्र में प्रसिद्ध कथाकार शिवमूर्ति की अध्यक्षता में संपन्न हुए अनिल सिन्हा स्मृति व्याख्यान के तहत ‘भारतीय फासीवाद और सांस्कृतिक प्रतिरोध’ विषय पर मुख्य वक्ता के बतौर बोलते हुए जाने माने आलोचक और ‘आलोचना’ पत्रिका के संपादक आशुतोष कुमार ने आज के हालात और फासीवाद के बुनियादी लक्षणों की चर्चा की. उनहोंने कहा कि यह दमन और उत्पीड़न का दौर है. इसमें सच के पक्ष में खड़ा होना और सत्ता की आलोचना करना जोखिम का काम हो गया है. गांधी जी ने चरखे को आजादी का प्रतीक बनाया था. वहीं आज बुलडोजर लोकतंत्र का प्रतीक बन गया है. लिखने बोलने की आजादी पर एक अदृश्य तलवार लटक रही है. कोई कह सकता है कि हम यहां गोष्ठी कर रहे हैं और लोकतंत्र है तभी तो यह संभव है, पर हमारी आवाज जैसे ही व्यापकता ग्रहण करती है, वह अदृश्य तलवार अदृश्य नहीं रह जाती है. सरकारों द्वारा दमन ढाया जाना एक प्रवृत्ति है और इसी से तानाशाही का उदय होता है. लेकिन दमन पर खुशी मनाई जाए, हत्या का जश्न हो, यह फासीवाद का बुनियादी लक्षण है. यह विभीषिका आज की सच्चाई है. जो लोकतंत्र दिख रहा है, वह एक ओर जहां सत्ता के अधीन है या उसके रहमो-करम पर है तो दूसरी ओर वह जन पहलकदमी और जनप्रतिरोध की वजह से है.

भारतीय फासीवाद की विशिष्टता पर विचार रखते हुए आशुतोष कुमार ने कहा कि हर एक देश में फासीवाद का एक ही चेहरा हो, यह जरूरी नहीं है. यह भी जरूरी नहीं कि वह भारत में गैस चेंबर बनाए. फासिस्टों ने भी अपने अनुभव से सीखा है कि गैस चेंबर बनाकर बड़ी संख्या को अनुकूलित नहीं किया जा सकता है. यदि उसे बड़े अवाम के बीच रहना है तो लोकतंत्र के भ्रम को बनाए रखना है. उन्हें भरोसा है कि सांस्कृतिक मनोवैज्ञानिक गैस चेंबर बना कर लोगों के संस्कार को अपने प्रभाव में ले आना ज्यादा कारगर है. भारत में फासीवाद का मुख्य संगठन राष्ट्रीय सेवक संघ है. इसने भारत की विशिष्टता को पहचान लिया था कि यहां सांस्कृतिक वर्चस्व प्राथमिक है और राजनीति उसके पीछे है. उनके लिए सांस्कृतिक पर्यावरण पर वर्चस्व स्थापित करना मकसद है. हिटलर व अन्य के लिए राजनीति प्रधान रही है. वहीं संघ की समझ है कि लोगों के संस्कार और संस्कृति पर वर्चस्व स्थापित होने के बाद सत्ता उनके पास होगी. इस बारे में उनकी दृष्टि बिल्कुल साफ है. वहीं, वामपंथियों की पारंपरिक सोच इससे भिन्न रही है जहां राजनीति प्राथमिक और संस्कृति सहयोगी भूमिका में रही है.

आरएसएस प्रमुख द्वारा हाल में जात-पांत मिटाने को लेकर की गई टिप्पणी पर बोलते हुए आशुतोष कुमार ने कहा कि वे दलितों के साथ सहभोज भी करते हैं. इसके द्वारा वे हिंदुओं की एकता स्थापित करने और वंचित समुदाय के अंदर अपनी पैठ बनाने की कोशिश में लगे हैं. यहां मूल बात वर्ण व्यवस्था की है. उनके यहां जाति भेद पर बात होती रहती है, पर वर्णाश्रम व्यवस्था को खत्म करने की बात वे नहीं करते हैं. हमने देखा भी कि सत्ताएं बदलती रही हैं लेकिन वर्णाश्रम व्यवस्था नहीं बदलती है.

आशुतोष कुमार ने भारतीय फासीवाद के गतिपथ पर चर्चा करते हुए कहा कि इसके चार प्रस्थान बिन्दू हैं, खिलाफत आंदोलन के जरिए गांधी का राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित होना, भारत की आजादी और विभाजन के बाद देश को एकता के रास्ते पर बढ़ाने की गांधी की कोशिश, मंडल कमीशन और नवउदारीकरण से उपजी विषमता. इन चारों मौकों पर संघ ने अपनी राजनीति को एक नया मोड़ दिया और उसका विस्तार किया.

उनका कहना था कि आरएसएस का निर्माण 1925 में हुआ. भारतीय राजनीति में गांधी का एक राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरना और उनका खिलाफत के साथ जुड़ाव – यह सब हिंदू महासभा और आरएसएस के जन्म के पीछे का कारण है. गांधी भारत की आजादी के संघर्ष का आधार हिन्दू-मुस्लिम एकता में देखते थे और इसलिए वे आरएसएस के निशाने पर थे. उन पर अनेक हमले और अंततः उनकी हत्या इसी मंसूबे का हिस्सा था. संघ द्वारा हिंदू-मुसलमानों के बीच के संघर्ष के एक हजार साल के इतिहास की बात प्रचारित है जबकि ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि इनके बीच अंग्रेजी शासन में ही दंगे की शुरुआत हुई. हम गौर करें तो पाते हैं कि भारत का इतिहास सहजीवन, सहमेल और मिली-जुली संस्कृति का है. मंडल राजनीति ने वर्णाश्रम के लिए चुनौती पेश की थी. मंदिर आंदोलन उसी को बचाने का संघर्ष रहा है. नवदारवादी अर्थव्यवस्था से समाज में असमानता और असंतोष बढ़ा. बेरोजगारों की बड़ी फौज खड़ी हो गई जिसे हिन्दू राष्ट्र के सपने के तहत ही संभाला जा सकता था.

आशुतोष कुमार का कहना था कि भारतीय फासीवाद के मूल में है सांस्कृतिक पर्यावरण पर वर्णाश्रम के संस्कारों का प्रभुत्व कायम करना. हमसे हमारी स्मृतियां छीनी जा रही है और स्मृतिहीन, भविष्यहीन देश बनाया जा रहा है. हम कबीर-रैदास को और उन्होंने क्या कहा था को भूल जाएं. बस याद रखें कि इतिहास हिन्दुओं और मुसलमानों के संघर्ष का है. यह अश्लील, हिंसक, वर्णाश्रमी राष्ट्रवाद है जो सांस्कृतिक राष्ट्रीय संहार में लगा है. ऐसे में सरकारों के बदलने से मूल नहीं बदलने वाला है. संस्कारों और संस्कृति के बदलने का प्रश्न प्रधान है, इसलिए लेखकों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों की भूमिका बढ़ जाती है. यह लड़ाई कैसे लड़ी जाएगी इस पर विचार हो, इसके लिए संयुक्त मोर्चा बने और हम इस दिशा में एकजुट हों, लेकिन इस संकट को समझना पहले जरूरी है.

इस मौके पर प्रो. रमेश दीक्षित ने भी अपने विचार रखे. भगवान स्वरूप कटियार के अनिल सिन्हा पर लिखी कविता के पाठ से सत्र का समापन हुआ.

‘जुल्मतों के दौर में गीत गाए जाएंगे

आयोजन का दूसरा सत्र कविता पाठ और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का था. इसकी अध्यक्षता करते हुए जाने-माने कवि मिथिलेश श्रीवास्तव (दिल्ली) ने कहा कि दमन के समय हमें कविता याद आती है. यह अंधेरा एक दिन में नहीं फैला है. कविता अंधेरे के विरुद्ध संघर्ष के लिए तैयार करती है. वह जीवन और मनुष्यता को बचाने और समझने की प्रेरणा देती है. आज जैसे-जैसे संघर्ष बढ़ेगा समाज में कविता की जरूरत भी बढ़ेगी. उन्होंने अनेक उदाहरणों और अपने जीवन के अनुभवों व प्रसंगों के माध्यम से आज के समय की विभीषिका और संस्कृति और संवेदना के स्तर पर आ रहे बदलाव और ऐसे में रचना और रचनाकार की भूमिका को रेखांकित किया और ‘मरने की कला’ कविता भी सुनाई.

‘जुल्मतों के दौर में गीत गाए जाएंगे’ शीर्षक से आयोजित इस सत्र में किई कवियों ने हंदी, हिंदुस्तानी और अवधी जबान में विविध रूपों में अनेक रंग और छटा की कविताएं सुनाईं. इनमें प्रतिरोध का स्वर था तो समाज की रुढ़ियों पर प्रहार भी था.

कविता पाठ की शुरुआत चन्द्रेश्वर से हुई. डॉ. पिफदा हुसैन ने हालात की परतों को बेपर्दा करते हुए अपनी नज्म व गजल भी सुनाई. नाजिश अंसारी ने मुस्लिम समाज की रूढ़ियों पर चोट करते हुए बेबाक अंदाज में दो नज्म पेश किए . कल्पना पंत (उतराखंड) ने भी तीन कविताओं का पाठ किया. आशाराम जागरथ ने अवधी में लिखी अपनी चर्चित काव्य गाथा ‘पाहीमाफी’ के आगे के खंड से रचना पाठ किया जिसमें नई दुनिया की कल्पना और स्वप्न है. अशोक श्रीवास्तव ने ‘संकट मे शब्द’ कविता के माध्यम से शब्द, भाषा, संस्कृति के संकट को व्यक्त किया और अपनी कविता ‘गीता’ के माध्यम से आज के दौर को उकेरा जहां जनतंत्र एकतंत्र में समाहित हो गया है.

कार्यक्रम का समापन जनकवि व लोकगायक ब्रजेश यादव के गायन से हुआ. कार्यक्रम का संचालन फ़रजाना महदी ने किया. इस अवसर पर श्रोताओं की अच्छी-खासी उपस्थिति थी. उन्होंने कविता पाठ और ब्रजेश यादव की प्रस्तुति का आस्वादन किया. जसम लखनऊ की ओर से कलीम खान ने बाहर से आए मेहमानों तथा स्थानीय श्रोताओं और समाज का हार्दिक धन्यवाद दिया.

जसम, लखनऊ की नई कार्यकारिणी का गठन

इस सालाना आयोजन के मौके पर जसम की 25 सदस्यीय लखनऊ इकाई की घोषणा की गई. चन्द्रेश्वर को अध्यक्ष, अशोक चन्द्र, अशोक श्रीवास्तव, आरके सिन्हा, आलोक कुमार, तस्वीर नक़वी, धर्मेंद्र कुमार, बंधु कुशावर्ती और विमल किशोर को उपाध्यक्ष, फ़रजाना महदी को सचिव तथा कलीम खान, नगीना निशा और राकेश कुमार को सह सचिव की जिम्मेवारियां दी गई हैं.

– कौशल किशोर

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