वर्ष - 31
अंक - 51
17-12-2022

- एन साई बालाजी

( पिछले अंक से जारी )

इसी तरह, 18 नवंबर-2022 यानी कि सम्मेलन के आखिरी दिन जिस औपचारिक मसौदे पर चर्चा हुई, उसमें सभी जीवाश्म ईंधनों को चरणबद्ध तरीके से कम करने के प्रस्ताव को शामिल करने में विफलता हाथ लगी. इस प्रस्ताव पर भारत द्वारा पहलकदमी की गई थी जिसे कोप 27 सम्मेलन में शामिल कई देशों और यूरोपियन यूनियन का समर्थन प्राप्त था. अतिविषम चरम मौसम की घटनाओं की बढ़ती बारंबारता व असर के साथ, दुनिया के लिए इस सच को स्वीकार करना महत्वपूर्ण है कि जीवाश्म ईंधन में शामिल तेल और कोयला ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार रहे हैं और अभी भी उत्सर्जन कर रहे हैं. कोप 27 सम्मेलन में जिस अंतिम मसौदे पर बातचीत की गई, उसमें ग्लासगो जलवायु समझौते के कई उद्धरणों को दोहराया गया – ‘कोयले का अन्धाधुंध उपयोग कर बनाये जाने वाली ऊर्जा और अपर्याप्त जीवाश्म ईंधन पर मिल रही सब्सिडी को चरणबद्ध तरीके से युक्तिकरण की दिशा में तेजी लायी जाये’. इसका उद्देश्य जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन से निपटने का बोझ विकासशील और गरीब देशों पर फिर से डालना है.

इस नाकामी की वजह से नये कोप 27 के साथ यूएनएफसीसीसी वार्ताओं की  प्रवृत्ति केवल इस धारणा को पुष्ट कर रही है कि निराकरण और इसे अपनाने का सारा बोझ फिर से गरीब देशों को उठाना पड़ेगा.

जलवायु फंड की राजनीति और फंडिंग के निजीकरण की अमेरिकी कोशिश

2009 में कोपेनहेगन में संपन्न कोप 15 सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए विकासशील और गरीब देशों की सहायता की जरूरत पूरी करने के लिए 100 बिलियन डाॅलर का लक्ष्य ‘जलवायु वित्त’ के लिए रखा गया था. इस फंड में विकसित देशों द्वारा योगदान दिया जाएगा जो ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में सबसे अधिक हिस्सेदारी करने के लिए ऐतिहासिक रूप से जिम्मेदार रहे हैं. हालांकि, इस जलवायु फंड के लिए मौजूदा हालात निराशाजनक है क्योंकि अधिकांश देशों ने अपनी हिस्से का योगदान देने के आश्वासन से पीछे हट गए हैं या इससे बच रहे हैं.

विकसित देश जलवायु कोष में अपना योगदान करने में विफल रहे हैं और अभी तक सबसे ज्यादा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जित कर रहे और ऐतिहासिक रूप से इसमें सबसे अधिक योगदान करने वाला अमेरिका जलवायु कोष के निजीकरण की बात कर रहा है. अमेरिकी राष्ट्रपति बिडेन ने कोप 27 को संबोधित करते हुए अपने भाषण में निजी क्षेत्र को ‘जलवायु वित्त’ में निवेश करने की जिम्मेदारी देने की चाहत को जाहिर किया है. यह एक विनाशकारी प्रस्ताव है क्योंकि यह साफ तौर से दिखाता है कि विकसित देश किसी भी तरह की जवाबदेही से बचना चाहते हैं और पहले के आम ढर्रे पर कारोबार जारी रखना चाहते हैं. इसके अलावा, निजी संस्थाओं को अंतरराष्ट्रीय समझौतों के तहत जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता है और ‘जलवायु वित्त’ लाभ कमाने की परियोजना नहीं है, बल्कि इसके वित्तपोषण, निराकरण और अपनाने के जरिये गरीब देशों के साथ हुई ऐतिहासिक नाइंसाफी को दूर करने की जरूरत है.

सूखा, चक्रवात, बाढ़ और अन्य चरम मौसम की घटनाएं न केवल बढ़ी हैं, बल्कि विनाशकारी साबित हो रही हैं और धरती की जलवायु के लिए एक स्थायी घटना बन गई हैं. यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि जलवायु परिवर्तन के भीषण संकट को स्वीकार नही करने वाले और जलवायु को नुकसान पहुंचाने वाली नीतियों के हिमायती अमेरिकी के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प, ब्राजील के पूर्व राष्ट्रपति बोल्सनारो और अन्य नेताओं को जनता द्वारा पराजित कर सत्ता से बेदखल कर दिया गया है. हालांकि, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एलानिया यह घोषणा की थी कि यह जलवायु परिवर्तन नहीं है, बल्कि लोगों की ठंड को सहन करने की क्षमता है जो बदल गई है और केंद्र और राज्यों में उनकी भाजपा सरकारें उन नीतियों का खुलेआम पालन कर रही है जो पर्यावरण और जलवायु को नुकसान पहुंचा रहे हैं. उदाहरणार्थ, मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार ने आदित्य बिड़ला समूह के स्वामित्व वाली एस्सेल माइनिंग को बक्सवाहा में हीरा-खनन परियोजना के लिए दो लाख से अधिक पेड़ों को काटने की अनुमति देने जा रही है. इसी तरह, राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड (एनबीडब्ल्यूबी) की स्टैंडिंग कमेटी ने कोयला-खनन परियोजना के लिए असम में हाथियों के लिए सुरक्षित देहिंग पटकाई राष्ट्रीय उद्यान से 98.59 हेक्टेयर भूमि का उपयोग करने की योजना बनायी है. इसी का हिस्सा रहे प्रस्तावित सालेकी आरक्षित वन में 57.20 हेक्टेयर वन भूमि के खनन की स्वीकृति पहले ही दे दी गई है.

जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए ऐतिहासिक रूप से जिम्मेदार ऊत्सर्जकों की जिम्मेदारी तय करने और अतीत की नकल न करने वाली नीतियों को बनाने की अक्षमता ने दुनिया के नेताओं की संजीदगी का बार-बार पर्दाफाश किया है. हालांकि, जलवायु परिवर्तन की चुनौती का सामना करने के लिए टुकड़े-टुकड़े में देखने वाला  नजरिया इस मुद्दे के समाधान में मदद नहीं करेगा, बल्कि दुनिया भर में गरीबों, हाशिए पर और कमजोर लोगों के जीवन को जटिल कर देगा.