वर्ष - 31
अंक - 52
24-12-2022

हाल के अतीत में हमने सर्वोच्च न्यायालय पर मोदी सरकार के कई संगठित हमले देखे हैं. उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड और केंद्रीय विधि मंत्री किरन रिजिजू को बारी-बारी से सार्वजनिक तौर पवर जजों की नियुक्ति की काॅलेजियम प्रणाली की भत्र्सना करते सुना गया है, तबकि उपराष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय को इस बात के लिये बुरा-भला कहा कि उसने 2015 में पारित ‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम’ को निरस्त कर दिया. उपराष्ट्रपति ने इस फैसले को ‘जनता के जनादेश’ का अपमान बताया है. इसके जवाब में, सर्वोच्च न्यायालय ने इसपर अपनी नाराजगी जताई और महाधिवक्ता आर. वेंकटरमानी को फटकार सुनाते हुए निर्देश दिया कि वे केंद्रीय मंत्रियों को ऐसी टिप्पणियां करने से रोकें.

न्यायपालिका पर इस हमले के लिये जिस समय को चुना गया, उसे समझना मुश्किल नहीं है. 2014 में सत्ता संभालने के बाद सर्वोच्च न्यायालय से सुरक्षित रह जाने वाली मोदी सरकार भारत के नए मुख्य न्यायाधीश के पद पर न्यायमूर्ति डीवाइ चंद्रचूड की नियुक्ति से सतर्क हो गई है – जस्टिस चंद्रचूड दो वर्ष तक इस पद पर बने रहेंगे और इस पद पर बने रहेंगे और इस अवधि में सर्वोच्च न्यायालय के लिये कम-से-कम 19 जजों की बहालियां की जाएंगी. एक दूसरा कारण रिजिजू के थेड़े ढंके-छुपे हमले से भी स्पष्ट होता है, जिसमें उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय को आगाह किया है कि वह जमानत की याचिकाओं और लोक हित याचिकाओं पर सुनवाई न चलाए. संयोगवश, लोकहित याचिकाएं संविधान की धारा 32 के तहत दायर की जाती हैं जिसे अंबेडकर ने ‘6संविधान की मूलात्मा और उसका हृदय’’ घेषित किया है. रिजिजू की यह चेतावनी ऐसे समय में आई है, जब सर्वोच्च न्यायालय ने मोहम्मद जुबैर, सिद्दिक कप्पन, बरबरा राव और आनंद तेलतुंबडे जैसे पत्रकारों, लेखकों और असहमति प्रकट करने वाले नागरिकों की जमानतें मंजूर की हैं.

बहरहाल, जजों की नियुक्ति में प्रमुख भूमिका के लिये कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच की यह खींचतान कोई आज की बात नहीं है. आजादी के बाद कार्यपालिका ही फैसला करती थी कि जज कौन बनेंगे. थोड़ी बहुत कहासुनी भी होती रहती थी, लेकिन यह टकराव 1973 में बहुत बढ़ गया, जब इंदिरा गांधी ने स्थापित परंपरा को तोड़ते हुए मुख्य न्यायाधीश के पद पर तीन सीनियर जजों को लांघकर चौथे पायदान पर खड़े न्यायाधीश को नियुक्त कर दिया था. इसके बाद जस्टिस एचआर खन्ना को भी ऐसे अतिक्रमण का शिकार बनाया गया, क्योंकि उन्होंने जबलपुर के एडीएम के मुकदमे में विरोधी मत जाहिर किया था.

न्यायपालिका की यह प्रमुख भूमिका 1993 तक चलती रही, जिसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने एक फैसला में काॅलेजियम प्रणाली के तहत जजों की नियुक्ति का प्रावधान बनाकर कार्यपालिका की बरतरी को खत्म कर दिया. सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) बनाकर इस बरतरी को फिर से झटक लेने के प्रयास किए, लेकिन सरकार का यह प्रयास निष्फल हो गया, क्योंकि सर्वोचच न्यायालय ने इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया. अबतक दब्बू न्यायपालिका का आनंद लेने वाली मोदी सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के खिलाफ अपना निशाना साधते हुए काॅलेजियम द्वारा चयनित जजों की नियुक्ति की अधिघोषणा से इन्कार कर दिया.

मार्क्स ने एक बार यह उद्धृत किया था कि “स्वतंत्र जज न तो मेरे होते हैं और न सरकार के”. निस्संदेह, जजों की वर्ग उत्पत्ति में कोई खास बदलाव नहीं आया है, फिर भी विभिन्न अधिकारों के बारे में व्याख्यायें स्पष्ट रूप से बदली हैं – कभी यह बदलाव शासक निजाम के अनुकूल हुआ है, तो कभी उसके प्रतिकूल भी गया है. इस सब के बावजूद इस तर्क के खिलाफ शायद ही कोई विवाद हो सकता है कि स्वतंत्र न्यायपालिका सर्वसत्तावादी शासनों को कांटे की तरह चुभ सकती है. यहां तक कि आपात्काल के दौरान भी, जब सर्वोच्च न्यायालय के अधिकांश जज कार्यपालिका के सामने घुटने टेक चुके थे, न्यायमूर्ति एचआर खन्ना और उच्च न्यायालयों कई अन्य जजों ने संविधान के पक्ष में फैसले सुनाए थे.

बहरहाल, वर्तमान कालखंड में न्यायपालिका के सामने जैसी चुनौतियां उठ खड़ी हुई हैं, वैसी पहले कभी नहीं आई थीं. 2014 में सत्ता में आने के बाद से न्यायपालिका ने शायद ही मोदी सरकार से कभी कोई गंभीर सवाल पूछा होगा, हालांकि इस सरकार ने खुलेआम कानून में हिंदुत्ववादी तत्वों का समावेश करा दिया है. नोटबंदी को दी गई चुनौतियां, धारा 370 को खत्म करना तथा जम्मू-कश्मीर का पुनर्गठन, सीएए तथा चुनावी बौंड के साथ कई अन्य मसले आज की तिथि तक सुनवाई के बिना ही पड़े हुए हैं. विधि विशेषज्ञ गौतम भाटिया तर्क करते हैं कि यह तो ‘न्यायिक टालमटोल’ है, जिसमें न्यायालय चुभने वाले, किंतु समय-संवेदनशील प्रश्न पर फैसला देने से कतरा रहें हैं, जो वस्तुतः सरकार के पक्ष में ही जाने वाला फैसला है, क्योंकि यथास्थिति के बरकरीार रहने से सरकार को ही फायदा मिल रहा है. इससे स्वतंत्र न्यायपालिका की सार्वजनिक अवधारणा पर चोट पहुंचती है.

मुख्य न्यायाधीश का पद छोड़ने के तुरंत बाद रंजन गोगोई को मोदी सरकार द्वारा राज्य सभा की सदस्यता के लिए नामित कर दिया गया, जिसने अरुण मिश्रा को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पर नियुक्त करने के लिए कानून संशोधन तक कर दिया. सर्वोच्च न्यायालय ने बाबरी मस्जिद, धन शोधन निवारण अधिनियम और अभी हाल में ईडब्ल्यूएस समेत कई महत्वपूर्ण मामलों में ऐसे फैसले दिये हैं जो शासक निजाम के अनुकूल हैं.

शायद इसका सबसे अच्छा उदाहरण कोविड से संबंधित मामले हैं, जहां सर्वोच्च न्यायालय ने प्रवासी मजदूरों के लिये राहत-मुआवजा की मांग करने वाली लोकहित याचिकाओं को खारिज कर दिया और सरकार के सतही दावों को स्वीकार कर लिया. सर्वोच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त जज गोपाल गौडा ने कहा कि “जबलपुर के एडीएम को जब सर्वोच्च न्यायालय के सबसे अंधकारपूर्ण क्षण के बतौर कभी याद नहीं किया जाएगा. (बल्कि) यह बदनामी अब कोविड-19 महामारी के दौरान रोके जा सकने वाले प्रवासी संकट को लेकर कोर्ट की प्रतिक्रिया के साथ जुड़ जा रही है. नियुक्तियों के मामले में भी, सर्वोच्च न्यायालय के जज के पद पर न्यायमूर्ति कुरैशी को पदोन्नति की अनुमति न देने के कार्यपालिका के निर्णय के सामने सर्वोच्च घुटने टेक दिये थे.

इन सब बातों से काॅलेजियम के जरिये जजों की नियुक्ति की औचित्यपूर्ण आलोचना – खासकर भाई-भतीजावाद तथा दलितों, आदिवासियों, धार्मिक अल्पसंख्यकों व समाज के ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़ित समुदायों के प्रतिनिधित्व के अभाव को लेकर होने वाली आलोचना – कम नहीं हो जाती है. मोदी सरकार के इस हमले के सम्मुख यह सर्वोच्च न्यायालय की ही जिम्मेदारी बनती है कि वह नियुक्तियों के मामले में प्रतिनिधित्व और पारदर्शिता की गारंटी करे.

न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान की बुनियादी विशेषता है और वह किसी क्रियाशील लोकतंत्र के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण शर्त भी है. संविधान सभा में अंबेडकर ने कहा था कि न्यायपालिका को उतनी स्वतंत्रता तो मिलना ही चाहिए, जिससे कि “भय अथवा भेदभाव किये बगैर न्याय प्रदान करने का मकसद पूरा हो सके.” हम तो यही आशा कर सकते हैं कि राजनीतिक कार्यपालिक और न्याय के प्रहरी के बीच फर्क खत्म हो जाने की हद तक धुंधला न पड़ जाए.