वर्ष - 31
अंक - 44
29-10-2022

- आकाश भट्टाचार्य

फासीवाद का स्थानिक भूगोल

बेनिटो मुसोलिनी और उनकी नेशनल फासिस्ट पार्टी (पीएनएफ) ने अक्टूबर 1922 में रोम में एक मार्च निकाला था. इस मार्च के जरिये मुसोलिनी ने इटली की सत्ता पर काबिज होकर दुनिया की पहली स्व-घोषित फासीवादी सरकार का आगाज किया था जिसके दूरगामी परिणाम हुए. इतालवी फासीवाद ने एडॉल्फ हिटलर के हौसले को बढ़ाया और दोनों फासीवादी लीडरों ने दुनिया में तबाही मचा दी, जंग छेड़ा और खासतौर से यहूदियों और कम्युनिस्टों को निशाना बनाया.

उस मार्च को हुए ठीक सौ साल बीत रहे हैं और बदकिस्मती से हम फासीवाद को मरा और दफनाया नही पा रहे हैं. इसके उलटए पूरी दुनिया में फासीवादी रुझान लोकलुभावन सर्वसत्तावाद[1] पर हावी होता जा रहा है, जबकि इसके बाद के भारतीय संस्करण का फासीवादी चरित्र साफ तौर से स्पष्ट है, भारतीय इतिहास के इस मोड़ से गुजरते हुए इतालवी और जर्मन फासीवाद को याद करना जरूरी है, ताकि इतिहास से सबक लेने के साथ-साथ इनकी वंशावली की तलाश की जा सके. भारतीय फासीवाद की नुमाइंदगी आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) सहित उसके सहयोगी संगठनों द्वारा की जा रही है, जो इतालवी और जर्मन संस्करण से गहराई से प्रेरित था.[2]

20 वीं सदी पूर्वार्द्ध के दौरान हिंदू वर्चस्ववादी विचारधारा का समर्थन करने वाले नेताओं और संगठनों तथा यूरोप में उनके फासीवादी समकक्षों के बीच साफ तौर से ऐतिहासिक रिश्तों का पता लगाया जा सकता है. सबसे खास बात यह है कि 1931 में मुसोलिनी और हिंदू महासभा के नेता डॉ. बी. एस. मुंजे के बीच हुई मीटिंगों की हकीकत के बारे में दस्तावेज हैं. इस लेख में हम मुंजे-मुसोलिनी के बीच के रिश्तों पर नजर डालेंगे और इस बात की छान-बीन करेंगे कि इन मीटिंगों के पहले और बाद में भारतीय राजनीति में क्या-क्या हुआ. इससे हमें भारतीय फासीवाद के यूरोपियन रिश्तों की स्पष्ट समझ हासिल करने में मदद मिलेगी.

मेरी सलाह है कि हिंदू वर्चस्ववाद की पूरी ऐतिहासिक और सैद्धांतिक समझ विकसित करने के लिए तीन बिंदुओं को पकड़ना होगा. सबसे पहलेए उन वजहों को समझने की जरूरत है जिसने ब्राह्मणों के उस वर्ग को पैदा किया जिन्होंने औपनिवेशिक भारत में हिंदू वर्चस्ववादी राजनीति की रहनुमाई की. वे कौन थे, और किन वजहों से उन्होंने इस राजनीतिक प्रवृत्ति को बढ़ाने के लिए इतनी शिद्दत के साथ निवेश किया?

दूसरा, औपनिवेशिक काल के उत्तरार्द्ध में भारतीय और वैश्विक राजनीतिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक धाराओं के स्रोत की तलाश और उनके अन्दर फासीवादी विचारों की बुनियाद तथा उसकी बढ़ोतरी को ढूंढने की जरूरत है. दूसरे लफ्जां में अगर कहें तो वे कौन से विचार थे जिनके बारे में पहले के हिंदू नेताओं ने अपने सूत्रीकरण पर पहुंचने की प्रक्रिया में सोचा था? तीसरा, 1947 के बाद से हिंदू वर्चस्ववादी राजनीति के भीतर वैचारिक, रणनीतिक और नीतिगत बदलावों की तलाश करने की जरूरत है, जो आखिरकार हिंदू वर्चस्ववादियों को भारतीय राजनीति में प्रमुख ताकत के रूप में उभरने की इजाजत देते हैं. यह लेख दूसरे सवाल से जूझने के प्रयास को चिन्हित करता है.

मुसोलिनी से संबंध [3]

मार्जिया कासोलारी ने ठीक ही प्रस्तावित किया है कि भारतीय हिंदू राष्ट्रवादियों की फासीवाद और मुसोलिनी में दिलचस्पी को महज इतेफाक से कुछ व्यक्तियों की जिज्ञासा तक सीमाबद्ध करके निर्धारित नही किया जा सकता है, बल्कि इसे खासकर महाराष्ट्र के हिन्दू राष्ट्रवादियों की इतालवी तानाशाही और इसके लीडर के विचारों से आकर्षित होने का अंतिम परिणाम माना जाना चाहिए. उनके लिए फासीवाद दक्षिणपंथी क्रांति का एक उदाहरण प्रतीत होता है. इस अवधारणा पर मराठी प्रेस द्वारा इतालवी शासन के शुरुआती दौर से ही विस्तार से चर्चा की गई थी.

इतालवी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता अंतोनियो ग्राम्शी जिन्होंने मुसोलिनी की जेलों में कैदी जीवन बिताते हुए ‘प्रिजन नोटबुक’ और अन्य मशहूर लेखों को लिखा था, एक नामचीन कम्युनिस्ट नेता थे जो इटली में फासीवाद के उदय का अनुमान लगा सके थे. रोम मार्च के दौरान वह एक कॉमिन्टर्न प्रतिनिधि के रूप में मास्को में थे और उन्होंने प्रावदा के पांचवें नवंबर क्रांति वर्षगांठ अंक में एक छोटा सा लेख लिखा था. बेशक, ग्राम्शी ने शुरू में यह उम्मीद नहीं की थी कि इतालवी पूंजीपति मुसोलिनी के इर्द-गिर्द पूरी तरह से इकठ्ठे हो जाएंगे और उसे लोकतंत्र का इतनी क्रूरता से खात्मा करने देंगें, लेकिन उन्होंने कम्युनिस्ट आंदोलन को फासीवाद को हराने की चुनौती की विशालता और तात्कालिकता की जरूरत को लेकर साफ तौर से सचेत कर दिया था.
'यदि इस नए दौर में कम्युनिस्ट पार्टी की सेंट्रल कमिटी इतालवी समाज की असलियत से वाकिफ हो पर्याप्त रणनीति विकसित करने और फासीवादी तख्तापलट से पैदा अंतर्विरोधों को तेज करने में सक्षम साबित होती है तो, (संभवतः अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के अनुभव को ध्यान में रखते हुए) सर्वहारा जल्द ही फिर से अपनी ऐतिहासिक मुकाम पर काबिज हो जाएगा, जो सितंबर 1920 में फैक्ट्री-कब्जा अभियान की असफलता के बाद खो गया था.
– अंतोनियो ग्राम्शीए प्रावदाए 7 नवंबरए 1922

मराठी अखबार ‘केसरी’ में 1924 से लेकर 1935 तक नियमित रूप से इटलीए फासीवाद और मुसोलिनी के बारे में संपादकीय और लेख प्रकाशित किए गए थे. ये भारतीय प्रेक्षक इस बात से आश्वस्त थे कि फासीवाद ने पहले से राजनीतिक तनाव के कारण बदहाल देश में व्यवस्था बहाल कर दी थी.

‘केसरी’ ने संपादकीय की कई कड़ियों में उदार लोकतंत्र को तानाशाही के रास्ते पर जाने को अराजकता से सुव्यवस्थित स्थिति में बदलाव के रूप में वर्णित किया, जहां सामाजिक संघर्षों के अस्तित्व की कोई जरूरत नही थी. मराठी अखबार ने मुसोलिनी द्वारा किए गए राजनीतिक सुधारों को काफी जगह दी, खासतौर से 1928 में संसद के सदस्यों के चुनाव को जनमत संग्रह में बदल एकल पार्टी बन जाने को. केसरी ने ‘राज्य की रक्षा के लिए हाल के लाये गए कानूनों’ से विस्तार में उद्धृत किया, जिसमें राष्ट्रीय मिलिशिया के महत्व पर जोर देते हुए उसे ‘क्रांति के पहरेदार’ के रूप में परिभाषित किया गया था. पुस्तिका शासन द्वारा राष्ट्रविरोधी पार्टियों पर प्रतिबंध, प्रेस पर पाबंदी, असंतुष्ट व्यक्तियों का सार्वजनिक पद से निष्कासन, और अंततः सजा-ए-मौत जैसे अपनाए गए प्रतिबंधात्मक उपायों के विवरण के साथ जारी रही.

फासीवादी निजाम और इसके तानाशाह के संपर्क में आने वाले पहले हिंदू राष्ट्रवादी बी. एस. मुंजे थे, जो खालिस आरएसएस से जुड़े नेता थे. दरअसलए मुंजे हेडगेवार के गुरु थे और दोनों जिगरी दोस्त थे. आरएसएस को मजबूत करने और इसे एक राष्ट्रव्यापी संगठन के रूप में विस्तारित करने की मुंजे की घोषित मंशा सर्वविदित है. मुंजे ने 1931 के फरवरी और मार्च महीने के दौरान इंग्लैंड में गोलमेज सम्मेलन से वापस लौटते हुए यूरोप का दौरा किया था, जिसमें इटली में एक लंबा पड़ाव शामिल था.

इटली में मुंजे

भारतीय नेता 1931 में 15 से 24 मार्च के दौरान रोम में थे. 19 मार्च को उन्होंने रोम में मिलिट्री कॉलेज, सेंट्रल मिलिट्री स्कूल ऑफ फिजिकल एजुकेशन, फासस्ट अकादमी ऑफ फिजिकल एजुकेशन, तथा सबसे महत्वपूर्ण बालिला और अवांगार्दर्स्ती संस्थाओं का दौरा किया. ये दो संगठन, जिनका वर्णन उन्होंने अपनी डायरी के दो से अधिक पन्नों में किया है, युवाओं को शिक्षित करने के बजाय फासीवादी शिक्षा प्रणाली की आधार शिला थे. उनका स्वरूप काफी हद तक आरएसएस के समान था. वे छह साल की उम्र से 18 साल तक के लड़कों की भर्ती करते थे. इन युवाओं को साप्ताहिक बैठकों में भाग लेना पड़ता था, जिसमे वे शारीरिक व्यायाम करने, अर्धसैनिक प्रशिक्षण प्राप्त करने के साथ फौजी कवायद और परेड करते थे.

फासीवादी संगठन के नजरिये का मुंजे पर पड़े गहरे प्रभाव की पुष्टि उनकी डायरी से होता है जिसमें मुसोलिनी के साथ हुई मुलाकात को याद करते हुए हुए लिखते हैंः

‘मैंने उनसे हाथ मिलाते हुए कहा कि मैं डॉ. मुंजे हूं. वह मेरे बारे में सब कुछ जानते थे और भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष की घटनाओं पर बारीकी से निगाह रखते थे ... उन्होंने मुझसे गांधी और उनके आंदोलन के बारे में पूछा और मुझे इंगित करते एक सवाल पूछा कि क्या गोलमेज सम्मेलन भारत और इंग्लैंड के बीच शांति लाएगा’ मैंने कहा कि अगर अंग्रेज ईमानदारी से हमें साम्राज्य के अन्य स्वतंत्रा उपनिवेशों के साथ समान दर्जा देना चाहते हैं तो हमें साम्राज्य के भीतर शांति और वफादारी से रहने में कोई आपत्ति नहीं होगी, अन्यथा संघर्ष नए सिरे से जारी रहेगा. मेरी इस टिप्पणी से श्री मुसोलिनी प्रभावित हुए. फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैंने विश्वविद्यालय का दौरा किया है.[4]

भारत वापस आकर उन्होंने उन सभी लोगों से संपर्क करना शुरू किया जो उनके हिंदू समाज के सैन्यीकरण के विचार का समर्थन कर सकते थे. मुंजे ने 1934 में अपने संस्थान भोंसला मिलिट्री स्कूल की नींव डालने के लिए काम करना शुरू किया. इस उद्देश्य के लिए उसी वर्ष उन्होंने सेंट्रल हिंदू मिलिट्री एजुकेशन सोसाइटी की स्थापना पर काम करना शुरू किया, जिसका उद्देश्य हिंदुओं का सैन्य उत्थान करना और हिंदू युवाओं को अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए पूरी जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार करने के साथ, उन्हें ‘सनातन धर्म’ में शिक्षित करना और उन्हें ‘व्यक्तिगत और राष्ट्रीय रक्षा की कला और विज्ञान’ में प्रशिक्षित करना था.

कासोलारी लिखती हैं कि एक दस्तावेज में फासीवादी इटली और नाजी जर्मनी का एक स्पष्ट संदर्भ है जिसे मुंजे ने उन रसूखदार शख्सियतों के बीच जारी किया था जिनसे स्कूल की नींव रखने का समर्थन करने की उम्मीद की गई थी. वह भारत और इटली में ऐसे स्कूलों के बीच संगठनात्मक संबंधों के साक्ष्य का भी हवाला देती है.[5] उनका कहना है कि मुंजे द्वारा शुरू की गई ये प्रक्रियाएं धीरे-धीरे आरएसएस मॉडल का मुख्य हिस्सा बन गईं

हिटलर की जय-जयकार [6]

हिटलर के फासीवाद के बचाव का सबसे जोरदार एलान वीडी सावरकर ने किया था जो मुंजे के समय सक्रिय थे. सावरकर के राजनीतिक परिदृश्य पर आने के साथ 1930 के दशक के उत्तरार्ध से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध तक हिंदू महासभा / आरएसएस द्वारा फासीवादी शासकों के साथ नए संपर्कों की खोज करने का प्रयास किया गया था. खासकर जर्मनी. सावरकर ने सार्वजनिक रूप से जर्मनी के लिये अपनी श्रद्धा को जाहिर किया था. उदाहरण के लिए सावरकर द्वारा ‘भारत की विदेश नीति’ पर पुणे में 1 अगस्त 1938 को 20,000 लोगों के बीच दिया गया भाषण है.

अपने भाषण में उन्होंने कहा कि भारत की विदेश नीति को ‘वाद’ पर निर्भर नहीं होना चाहिए. जर्मनी को नाजीवाद और इटली को फासीवाद का सहारा लेने का पूरा अधिकार था और घटनाओं ने इसे वाजिब ठहराया था. जो परिस्थितियां वहां थी, उनमें वह वाद और सरकार का प्रारूप उनके लिए जरूरी और फायदेमंद था. कासोलारी ने ठीक ही सुझाव दिया है कि सावरकर ने सोचा था कि राजनीतिक प्रणाली संबंधित आबादी की प्रकृति से मेल खाती है. यह सिद्धांत साफ तौर से नस्ल की नियतिवाद की अवधारणा से प्रेरित था, जो उस समय यूरोप में प्रचलित नस्ल की अवधारणा के समान था.

नेहरू के साथ शुरू हुई बहस में सावरकर ने खुल्लम-खुल्ला उस दौर की तानाशाही हुकूमतों का बचाव किया, खास तौर से इटली और इससे भी ज्यादा जर्मनी का : हम हिदायत देने कहने वाले कौन होते हैं कि जर्मनी, जापान या रूस या इटली को कौन सी नीतियों वाली सरकार चुननी चाहिए, सिर्फ इसलिए कि ये हमें अकादमिक तौर से आकर्षित करते हैं? निश्चित तौर पर हिटलर पंडित नेहरू से बेहतर जानता है कि विदेशी ताकतों में जर्मनी के विभिन्न सहयोगियों के लिए क्या उपयुक्त है.’[7]

सावरकर ने 11 अक्टूबर 1938 को पुणे में लगभग 4,000 लोगों की उपस्थिति में एक भाषण में जोर देते हुए कहा था कि अगर भारत में जनमत संग्रह होता तो मुसलमान मुसलमानों के साथ और हिन्दू हिंदुओं के साथ एकजुट होना चुनते. सावरकर की अध्यक्षता के दौरान मुस्लिम विरोधी बयानबाजी अधिक से अधिक कट्टरपंथी और नागवार हो उठी. यह एक बयानबाजी थी जिसमें जर्मनी द्वारा यहूदी समस्या से निपटने के तरीके का लगातार संदर्भ दिया गया था. दरअसल, सावरकर ने भाषण दर भाषण हिटलर की यहूदी विरोधी नीति का समर्थन किया और 14 अक्टूबर 1938 को भारत में ‘मुस्लिम समस्या’ के लिए समाधान सुझाया कि एक राष्ट्र का निर्माण वहां रहने वाले बहुसंख्यकों द्वारा किया जाता है. जर्मनी ने यहूदियों का क्या किया? अल्पमत में होने के कारण उन्हें जर्मनी से खदेड़ दिया गया.[8]

साल के अंत मे ठाणे में आरएसएस के उग्र और स्थानीय हमदर्दों के सामने, ठीक उसी वक्त जब कांग्रेस ने जर्मनी के खिलाफ अपना प्रस्ताव पारित किया, सावरकर ने कहा कि जर्मनी में जर्मनों का आंदोलन राष्ट्रीय आंदोलन है, लेकिन यहूदियों का सांप्रदायिक है. और फिर, अगले साल 29 जुलाई को पुणे में उन्होंने कहा कि राष्ट्रीयता एक सामान्य भौगोलिक क्षेत्र पर इतनी निर्भर नहीं करती, जितनी की विचार, धर्म, भाषा और संस्कृति की एकता पर. इस कारण से जर्मनों और यहूदियों को एक राष्ट्र के रूप में नहीं माना जा सकता था.

आरएसएस की स्थिति

इन इंडो-यूरोपीय रिश्तों और तालुक्कातों के इतिहास से हमें भारतीय और वैश्विक राजनीति के भीतर आरएसएस की स्थिति को समझने में मदद मिलती है. भारत के हिंदू वर्चस्ववादियों ने यूरोपीय फासीवादियों से वैचारिक प्रेरणा ली थी. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिंदू महासभा और आरएसएस ने खास तौर से नस्ल पर आधारित अंध-राष्ट्रवाद का समर्थनए राष्ट्रीय संप्रभुता स्थापित करने की अपनी प्रतिबद्धता में झिझक, और ब्राह्मणवादी सिद्धांतों को बनाये रखने में अपना यकीन बरकरार रखा. जब भारत उपनिवेश विरोधी संघर्ष के जरिये एक राष्ट्र के रूप में उभर रहा था, जहां सभी सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई पहचान के लोग अंग्रेजों के शासन को खत्म करने के लिए एकजुट हो रहे थे, वहीं आरएसएस और हिंदू महासभा धर्म पर आधारित राष्ट्र के अपने विचार के साथ उल्टी तरफ खड़े हो कर औपनिवेशिक शासकों के खिलाफ जनता की एकता को तोड़ने का काम कर रहे थे और उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष करने की बजाय औपनिवेशिक शासकों की मदद कर रहे थे. ये वो राष्ट्रवाद था जो खास तौर से एक धार्मिक पहचान की विशिष्टता और वर्चस्व पर आधारित था. राष्ट्र का यह विचार ही भारतीय फासीवाद के शुरुआती दिनों को यूरोप के साथ जोड़ता है.

आज आरएसएस और भाजपा ने खुद को पूरी दुनिया में भारतीय राष्ट्रीय हितों के चौंपियन के रूप में पेश किया हैउसके कथनों को उन समाजों में भी वैधता मिली है जिनका फासीवाद-विरोधी संघर्ष का समृद्ध इतिहास रहा है. हिंदू वर्चस्ववादी धीरे-धीरे विदेशी धरती पर भी अपना असली रंग दिखा रहे हैं. हाल ही में इंग्लैंड में लीसेस्टर की सड़कों पर हिंदुत्व समर्थकों का आक्रामक मार्च इसका एक उदाहरण है. लेकिनए हम अभी भी पूरी दुनिया को मौजूदा हुकूमत के फासीवादी मिजाज के बारे में समझाने और खासतौर से एक ताकतवर फासीवाद विरोधी गठबंधन बनाने से काफी दूर हैं जो वैश्विक हिंदुत्व के प्रसार को रोक सके. हिंदू वर्चस्ववाद की वंशावली को पहले की तुलना में और भी अधिक मजबूती से उजागर करना ऐसे गठबंधनों को कायम करने में मदद कर सकता है.

फासीवाद और समाजवाद

अंत मेए पर कम महत्वपूर्ण नही. इटली और जर्मनी में फासीवाद के इतिहास पर दोबारा गौर करें तो इसका समाजवाद के साथ सीधा संघर्ष सामने आता है. एंटोनियो ग्राम्शी ने 1920 में लिखे गए एक नोट ‘फॉर ए रिन्यूवल ऑफ द सोशलिस्ट पार्टी’ में प्रतिक्रियावादी ताकतों के उदय के बारे में जो चेतावनी दी थी, वह1922 में इतालवी फासीवाद के रूप में ऐसी परिस्थितियों में उभरी जब सोशलिस्ट पार्टी सर्वहारा वर्ग की सत्ता को लाने में विफल रही थी. उन्होंने उल्लेख किया हैः

‘इटली में वर्ग संघर्ष का वर्तमान दौर उस चरण के पहले का दौर है, जब क्रांतिकारी सर्वहारा द्वारा राजनीतिक सत्ता पर अधिकार, उत्पादन तथा वितरण की नई प्रणाली कायम कर रहा होता है जिससे उत्पादकता बढ़ती है, या फिर धनी वर्ग और शासक वर्ग में जबरदस्त प्रतिक्रिया पैदा होती है. औद्योगिक और कृषक सर्वहारा वर्ग को दास श्रम में तब्दील करने के लिए सभी प्रकार की हिंसा का इस्तेमाल किया जाएगा. मजदूर वर्ग के राजनीतिक संघर्ष का प्रतिनिधित्व करने वाली सोशलिस्ट पार्टी का सख्ती से खात्मा करने और मजदूर वर्ग के आर्थिक प्रतिरोध को खड़ा करने वाले ट्रेड यूनियनों और सहकारी समितियों को बुर्जुआ राज्य के तंत्र में समाहित करने का प्रयास किया जाएगा.’

इटली के तूरिन में मजदूरों का नरसंहार

रोम मार्च और मुसोलिनी के सत्ता में आने के बाद जल्द ही इतालवी फासीवादियों ने ट्रेड यूनियनों और कम्युनिस्टों के खिलाफ जंग छेड़ दिया. औद्योगिक शहर टयूरिन फासीवाद-विरोधी ट्रेड यूनियन गतिविधि का एक मुख्य केंद्र था और एंटोनियो ग्राम्शी द्वारा प्रकाशित कम्युनिस्ट अखबार ‘द न्यू ऑर्डर’ का दफ्तर भी वहीं था. 18 दिसंबर 1922 को इटालियन फासिस्ट मिलिशिया ‘स्क्वाड्रे डीश्जियोन’ के लड़ाकों ने ट्रेड यूनियन कार्यालयों और कम्युनिस्ट गतिविधियों का केंद्र ‘द न्यू ऑर्डर’ अखबार के दफ्तर पर हमला कर दिया. फासीवादी जमात ने शहर में कम्युनिस्टों और ट्रेड यूनियनिस्टों को घेर लिया और उनमें से कइयों को खाफैनाक तरीके से मार डाला. इस नरसंहार में 22 से अधिक ट्रेड यूनियनिस्ट और कार्यकर्ता मारे गए थे.

दरअसल, यूरोप में फासीवाद का उदय समाजवाद के खतरे के प्रति राष्ट्रीय अभिजात वर्ग की प्रतिक्रिया थी. युद्धों के बीच यूरोप में समाजवादी धाराएं इतनी ताकतवर थीं कि फासीवाद ने ट्रेड यूनियनोंए समाजवादियों और कम्युनिस्ट ताकतों को बेरहमी से कुचलने से पहलेए जनता को प्रलोभित करने के लिए समाजवाद का चोला धारण कर लिया था. यह टकराव ‘मुक्त व्यापार’ और ‘अ-हस्तक्षेप’ की नीति पर आधारित पतनशील पूंजीवादी व्यवस्था के संदर्भ में हुआ था. इटली और जर्मनी में हार के बावजूद वामपंथी ताकतें यूरोप में फासीवाद के मुकाबले सबसे ताकतवर विरोधियों के रूप में उभरीं. कोई आश्चर्य नहीं कि यूरोपीयन फासीवाद की हार ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के दशक के दौरान वामपंथी जीत की लहर का मार्ग प्रशस्त कर दिया था.

भारत में हिंदू वर्चस्ववाद औपनिवेशिक काल में ऐसी परिस्थितियों में उभरा जब वामपंथ को अपने आप में एक मजबूत ताकत के बतौर उभरना बाकी था. पिछले कुछ दशकों में हिन्दू वर्चस्ववाद का उभार वामपंथियों की तुलना में कांग्रेस की कीमत पर ज्यादा हुआ है.

लेकिनए काबिल ए गौर है कि वामपंथ इस समय सामाजिक और चुनावी रूप से इतना ताकतवर नही है कि भाजपा/आरएसएस की बराबरी कर सकेए पर इसके बावजूद उन्हें वामपंथ के वैचारिक खतरे का अहसास है. जहां कहीं भी असहमति की वामपंथी आवाजों का अस्तित्व है, उसे येह सरकार कुचलने के लिए प्रयत्नशील है, और कुछ साल पहले त्रिपुरा में वामपंथियों पर अपनी चुनावी जीत को इसने बहुत ही महत्वपूर्ण बना दिया था. जब वामपंथ मौजूदा हुकूमत के खिलाफ एक लोकतांत्रिक विपक्ष को मजबूत करने की कोशिश कर रहा है तो इतिहास में फासीवाद और समाजवाद के बीच यह संघर्ष हमारे लिए अहम सबक है.

टिप्पणियां

1. आज हम जब लोकलुभावन सर्वसत्तावाद को देखते हैं तो उसके विभिन्न रूपों के बीच सावधानी से फर्क करने की आवश्यकता है. जबकि वे कई विशेषताओं को साझा करते हैं, और कभी-कभी एक भावनात्मक आत्मीयता को, जैसा कि मोदी समर्थकों की ट्रम्प-पूजा में स्पष्ट है. उनकी वंशावली राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और स्थानीय इतिहास में गहराई से निहित है जो उनके बीच के अंतर को भी परिभाषित करती है. उनके खास चरित्र की समझ हमें स्थानीय और वैश्विक स्तरों पर प्रतिरोध के साथ-साथ एकजुटता की रणनीति बनाने में मदद करती है. हालांकि इस बिंदु पर सैद्धान्तिक बहस वर्तमान लेख के दायरे से बाहर है.

2. दिलचस्प बात यह है कि इंडियन नेशनल कांग्रेस ने बहुत पहले ही आरएसएस की फासीवादी प्रवृत्तियों की पहचान कर ली थी. गांधी की हत्या के बादए संभवतः आरएसएस के पहले प्रतिबंध के समय कांग्रेस के भीतर प्रसारित एक गोपनीय रिपोर्ट में आरएसएस और फासीवादी संगठनों के चरित्र के बीच कई समानताओं का जिक्र था. (भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार (एनएआई), सरदार पटेल पत्राचार, माइक्रोफिल्म, रील नंबर 3, ‘आरएसएस पर एक नो’ अदिनांकित.)

3. यह खंड और निम्नलिखित खंड मार्जिया कासोलारी के काम से महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित है. मार्जिया कासोलारी, ‘हिन्दुत्व फॉरेन टाई-अप इन द 1930, ‘आर्काइवल एविडेंस’, इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली, 22 जनवरी 2000, पृष्ठ – 218-229

4. वहीए पेज 220.
5. वहीए पेज 221.
6. वहीए पेज 222-225.
7. वही
8. वही