वर्ष - 31
अंक - 43
22-10-2022

वैश्विक भूख सूचकांक (जीएचआई) पर भारत लगातार नीचे खिसकता जा रहा है. 2020 में सर्वेक्षण किए गए 107 देशों के बीच भारत का स्थान 94 था; 2021 में 116 देशों के बीच सात पायदान नीचे गिरकर उसका स्थान 101 हो गया; और 2022 के नवीनतम सूचकांक में 121 देशों के बीच फिर छह स्थान नीचे खिसक कर भारत 107 वें पायदान पर चला गया. युद्ध जर्जर अफगानिस्तान को छोड़कर, हमारे तमाम पड़ोसी मुल्क भी इस सूचकांक में भारत से काफी ऊपर हैं. दुनिया की सबसे बड़ी आबादी के अर्थ में भारत से अभी भी थोड़ा आगे रहनेवाले चीन का स्थान इस सूचकांक में शीर्षतम 1 से 17वें दायरे में मौजूद रहता रहा है. दूसरे शब्दों में, जहां चीन में भूख की विपदा काफी कम है, वहीं भारत में इस समस्या को काफी गंभीर माना जा रहा है. भारत में ‘चाइल्ड वेस्टिंग’ (अर्थात् ऊंचाई के अनुपात में वजन काफी कम होना – जो 5 वर्ष की आयु सीमा के बच्चों के बीच चरम कुपोषण को दर्शाता है) की दर दुनिया में सबसे ज्यादा है.

मोदी सरकार इस भूख की समस्या से निपटने के लिये इसे सार्वजनिक विमर्श से ही हटा देती है और जीएचआई को पश्चिमी मुल्कों की साजिश बताती है. एक दशक पूर्व, संघ ब्रिगेड और मीडिया का प्रभुत्वशाली हिस्सा बढ़ती कीमतों और रुपया के अवमूल्यन को लेकर आसमान सर पर उठा लेता था, आज पेट्रोल, रसोई गैस और जन उपभोग की हर आवश्यक वस्तु की कीमतें आकाश छू रही हैं और डॉलर के मुकाबले रुपये का अबाध अवमूल्यन जारी है – बस चंद लुघड़न में ही वह सौ की सीमा पार कर जा सकता है! दस वर्ष पहले, गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी रूपये को विनिमय मूल्य में गिरावट को कमजोर सरकार और आर्थिक कु-प्रबंधन का सबसे बड़ा चिन्ह बताते थे. आज भारत के प्रधान मंत्री के बतौर मोदी रूपये की इस बेरोक गिरावट पर पूरी तरह चुप्पी साधे बैठे हैं, और वित्त मंत्री डॉलर की मजबूती को इसकी वजह बता रही हैं. चरम भूख, आसमान छूती कीमतों, लुढ़कते रूपये और लुप्त होते रोजगार की सच्चाई का सामना करने के बजाय मोदी अभी भी अपने श्रोताओं के कानों में ‘व्यवसाय को आसान बनाने’ जो एक ऐसा सूचकांक है जिसे विश्व बैंक ने सितंबर 2021 से ही खारिज कर दिया है, जब एक स्वतंत्रा ऑडिट ने यह खुलासा किया कि रैंकिंग में कैसी छोड़खानियां की गई हैं, की परी कथा की घुट्टी डाल रहे हैं.

संघ ब्रिगेड अच्छी तरह वाकिफ है कि वह झूठ फैलाकर और नफरत की फसल उगाकर ही चुनाव जीत सकता है. इसीलिये, हिमाचल प्रदेश और गुजरात में आसन्न चुनावों के ठीक पहले हम देख रहे हैं कि नफरत मुहिम पर सबसे ज्यादा जोर दिया जा रहा है. उत्तर प्रदेश चुनाव के पहले हमने भाजपा को अपनी कर्नाटक प्रयोगशाला में हिजाब प्रतिबंध के प्रयोग को दुरूस्त करते देखा था. अभी, जब हिजाब प्रतिबंध का मसला सर्वोच्च न्यायालय में लटका पड़ा है, दिल्ली और एनसीआर में संघ ब्रिगेड के नेतागण फिर से जहर उगलने तथा मुस्लिमों के बहिष्कार और उनके सीघे-साधे जनसंहार तक कर डालने में मशगूल हो गये हैं और गुजरात के अंदर भारत की आजादी की 75वीं सालगिरह के दिन ही जो ध्रुवीकरण शुरू हुआ, उसे नवरात्रि उत्सव और उससे जुड़े गरबा समारोहों के दौरान धारदार बनाया गया – मुस्लिमों को चुन-चुन कर बहिष्कृत किया गया, उन्हें सरेआम बेईज्जत किया गया और कोड़ों से पीटा गया. अब तो इसके लिखित साक्ष्य हैं कि 15 अगस्त के दिन बिलकिस बानो बलात्कार-हत्या मामले के अभियुक्तों की रिहाई को केंद्रीय गृह मंत्रालय की स्वीकृति हासिल थी, जो सीबीआई और एक विशेष न्यायाधीश की सलाह के विरोध में दी गई थी और जो खुद गृह मंत्रालय द्वारा घोषित क्षमा नीति के विपरीत थी जिसमें बलात्कार व हत्या जैसे जघन्य अपराधों कें अभियुक्तों की रिहाई को स्पष्टतः खारिज किया गया है.

सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की इस मुहिम को कई गुना बढ़ा दे रहा है उन्माद और प्रतिशोध का सिद्धांत जिसे राज्य नीति के बतौर अपना लिया गया है. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने तो नागरिक समाज को युद्ध का नवीनतम मोर्चा ही घोषित कर दिया है. और अब प्रतिरक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने इस सिद्धांत को एक बिल्कुल नए स्तर पर ले जाकर हरेक संस्थान – चाहे वह मीडिया हो अथवा सोशल मीडिया, न्यायपालिका, एनजीओ या राजनीतिक दल हों – की स्वतंत्रता के विचार को ही राष्ट्र की एकता व सुरक्षा पर मंडराता खतरा बता दिया. यही उन्माद कार्यपालिका को असहमति रखने वाले नागरिकों पर साजिश रचने का मुकदमा लादने तथा उनके खिलाफ काले कानूनों का इस्तेमाल करने और उन्हें सालों-साल जेल में बंद रखने के लिए प्रवृत्त करता है. सर्वोच्च न्यायालय ने 90% विकलांगता के शिकार और व्हील चेयर पड़े रहने वाले प्रोफेसर की रिहाई के आदेश को यह कहकर खारिज कर दिया कि आतंकवाद या माओवाद के आरोपों से संबंधित मामलों में मस्तिष्क सबसे खतरनराक अंग के बतौर काम करता है. जहां नफरत के पेशेवर पैरोकार छुट्टा घूम रहे हैं, वहीं नफरत के खिलाफ अभियान चलाने वाले उमर खालिद जैसे आंदोलनकारी कार्यकर्ताओं की जमानत याचिकायें यह कहकर खारिज कर दी जाती हैं कि उनमें ‘कोई दम नहीं है’.

क्या हम नफरत, फूट और भय से भरे ऐसे माहौल में स्वतंत्रा और निष्पक्ष चुनाव की आशा कर सकते हैं? ऐसा लगता है कि निर्वाचन आयोग भी यही चाहता है कि हम स्वतंत्रा और निष्पक्ष चुनाव के बारे में और ज्यादा न सोचें. जमीनी स्तर पर मतदाता सूची को प्रणालीगत ढंग से आधार कार्ड के साथ जोड़ा जा रहा है, हालांकि निर्वाचन आयोग हमसे लगातार कह रहा है कि यह जुड़ाव बिल्कुल स्वैच्छिक है; और जो भी वोटर हैं अथवा होने वाले हैं उन्हें ‘आधार’ विवरण प्रस्तुत न करने की वजह से वोट देने के अधिकार से वंचित नहीं किया जायेगा. जहां भाजपा गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव के पहले एक के बाद दूसरी परियोजनाएं शुरू करने और टैक्स में कटौतियां घोषित करने में मशगूल है, वहीं निर्वाचन आयोग आदर्श चुनाव आचार संहिता में ऐसे संशोधनों का प्रस्ताव ला रहा है जिससे राजनीतिक दलों के चुनाव घोषणापत्रों की आर्थिक व्यावहार्यता (वायबिलिटी) की जांच की जा सके – इस प्रकार यह धृष्टतापूर्वक अपने हाथों में राजनीतिक सेंसरशिप की शक्ति लेना चाहती है जिससे बहुदलीय संसदीय लोकतंत्र में राजनीतिक स्वतंत्रता की मूल भावना ही नष्ट हो जाएगी.

इसके अलावा, गुजरात में निर्वाचन आयोग अलग-अलग फर्मों और औद्योगिक निकायों के साथ समझौता-पत्रों पर दस्तखत करके उन्हें अपने यहां काम करने वाले श्रमिकों की चुनाव में भागीदारी पर नजर रखने, और साथ ही जो कामगार वोट न दे पायें, उनका नाम सामने लाने और उनकी लानत-सलामत करने का अधिकार सौंप रहा है! भय या पक्षपात से रहित स्वतंत्र चुनावों की जगह अब हम एक ऐसी प्रणाली बनती देख रहे हैं जो ‘आधार’-मतदाता सूची जुड़ाव तथा चुनावी भागीदारी की कारपोरेट निगरानी के जरिये वोटरों को डराने-धमकाने और जासूसी के खौफ के माहौल में डाल देगी. अब इसके बाद यह कहने की जरूरत नहीं है कि ‘भागीदारी पर निगरानी’ से आगे मतदाताओं की पसंद को प्रभावित व निर्देशित करने तथा चुनावी नतीजों को निर्धारित करने तक पहुंचने के लिए बस एक छोटा कदम ही उठाना शेष है. इस प्रकार, जब राज्य संसदीय लोकतंत्र को पूरा माखौल बना देने का खतरा पैदा कर रहा हो तो यह नागरिकों का काम हो जाता है कि वे चौकस रहें और चुनाव अखाड़े की स्वतंत्रता व शुद्धता की रक्षा करके तथा इसे जनता के मुद्दों, संघर्षों व अधिकारों के साथ जीवंत बना कर फासीवादी मंसूबे को ध्वस्त कर दें.