– मैत्रोयी कृष्णन
सितंबर के पहले दो हफ्तों में बंगलोर में मूसलाधार बारिश के तजुर्बे से यह पता चला कि मजदूर वर्ग के हजारों परिवार अपने घरों के जलमग्न होने के कारण मुसीबत में पड़ गए, जबकि टेलीविजन चैनल इन खबरों से भरे हुए थे कि कैसे सीईओ को उनके घरों से नावों से ले जाया गया और किस तरह से आईटी पार्कों में पानी भर गया था.
हालांकि, सबसे ज्यादा प्रभावित मजदूर वर्ग के हजारों परिवारों को खबरों में भूला दिया गया जिन्हें बारिश में डूबे घरों के कारण भारी तबाही झेलनी पड़ी और जिसके कारण उनलोगों ने तन पर के कपड़े को छोड़कर सारा सामान खो दिया.
समाचारों में उपेक्षित इन मजदूर वर्ग के परिवारों ने खुद को सरकार द्वारा भी उपेक्षित पाया, जबतक कि ट्रेड यूनियनों ने उनकी स्थितियों को उजागर नहीं किया और सरकार को राहत के साथ कदम उठाने के लिए मजबूर नहीं किया.
बारिश के कारण जलप्लावन से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले श्रमिकों में सफाईकर्मी, ऑटो चालक/सहायक, कचरा बीनने वाले, निर्माण मजदूर, घरेलू कामगार और शहर में निर्माण का काम करने वाले दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी हैं जो शहर को साफ-सुथरा कर स्वास्थ्य को सुनिश्चित करते हैं. इससे जो सबसे अधिक प्रभावित हैं वे सबसे कमजोर और समाज के ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़ित दलित समुदाय से जुड़े हैं.
हालांकि, सीईओ को नाव से बाहर निकाला गया और आईटी कंपनियों को नुकसान हुआ, पर मजदूर वर्ग के परिवारों ने प्रभावी रूप से अपनी पूरी जिंदगी की कमाई खो दी. उनके राशन, कपड़े और सामान सभी कुछ डूब गए. बच्चों ने स्कूल जाने के लिए जरूरी अपने कपड़े, पोशाक, किताबें, बैग खो दिए और परिवारों को अपने घरों का पुनर्निर्माण स्वयं करना पड़ा.
बारिश और जीवन की तबाही ने दो महत्वपूर्ण मुद्दों को सामने ला दिया है – एक, संसाधनों का असमान वितरण जिसके परिणामस्वरूप आज लाखों लोग पूरी तरह से असुरक्षित स्थिति में टिन शेड में रह रहे हैं, और दूसरा किस तरह से जलवायु परिवर्तन मजदूर वर्ग के लोगों को सबसे अधिक घातक और असमान रूप से प्रभावित कर रहा है.
बेंगलुरु में आयी बाढ़ के अध्ययनों से यह पता चलता है कि किस तरह से रियल एस्टेट पूंजीवाद ने ऐतिहासिक रूप से कृषि जाति व वर्ग संबंधों के साथ उभर कर भ्रष्टाचार के साथ तालमेल कर सार्वजनिक भूमि, खेत और वेटलैंड को शहरी रियल एस्टेट में परिवर्तित कर दिया, जिसकी वजह से जलप्रबंधन और जलप्रवाह के लिए बनी सभी झीलें, जलमार्ग और पानी निकासी के भूगर्भीय नाले सभी रियल एस्टेट में तब्दील हो गए.
बाढ़ से निजात पाने के लिए बृहत बेंगलुरु महानगर पालिका ने अतिक्रमण हटाओ अभियान चलाने की घोषणा की है. देखना यह है कि बीबीएमपी इस तरह के अभियान को कैसे अंजाम देगा और किन अतिक्रमणों को चिन्हित किया जाएगा. ‘झुग्गी बस्तियों’ को तो तुरन्त ही अतिक्रमण के रूप में चिन्हित किया जाता है, पर यह देखने मे आता है कि अमीर और शक्तिशाली लोगों द्वारा किए गए वास्तविक अतिक्रमणों की तरफ से अक्सर आंखें मूंद ली जाती हैं. शहर के वैसे ‘झुग्गी बस्तियों’ वाले इलाकों को जहां शहरी वंचित समुदाय रहते हैं, अतिक्रमण के रूप में देखा जाता है, जबकि यह वास्तव में मुनासिब आवास को मुहैया कराने के मौलिक दायित्व को पूरा करने में राज्य की विफलता का उदाहरण है. माकूल आवास को मुहैया कराना एक संवैधानिक दायित्व है जिसे पूरा करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को स्पष्ट अधिकार दिया है. बीबीएमपी द्वारा पहचाने गए अतिक्रमणकारियों की सूची में विप्रो, प्रेस्टीज, इको स्पेस, बागमने टेक , कोलंबिया एशिया अस्पताल और दिव्यश्री विला शामिल हैं, जबकि अतिक्रमण हटाओ अभियान गरीबों के छोटे घरों तक सीमित है और इन बड़े अतिक्रमणकारी कंपनियों पर कारवाई किया जाना बाकी है.
जलवायु परिवर्तन की चुनौती का सामना
अत्यधिक बारिश और बाढ़ के साथ हमने जो मुसीबत देखी वह उस बड़े पारिस्थितिकी संकट का संकेत है जिसका आज दुनिया सामना कर रही है. पाकिस्तान में हाल के इतिहास में आये सबसे भीषण सैलाब में 1000 से अधिक लोग मारे गए हैं और 32 करोड़ से ज्यादा लोग विस्थापित हुए हैं. इस साल की शुरुआत में पूर्वात्तर भारत, खासकर असम और मेघालय ने अब तक के सबसे भीषण बाढ़ का सामना किया, जिसमें हजारों गांव जलमग्न हो गए और सैकड़ों-हजारों लोग अपने घरों से विस्थापित हो गए.
हम जलवायु परिवर्तन को सिर्फ तापमान में बढ़ोतरी तक सीमित नही कर सकते. प्रभावी रूप से यह सभी भौतिक स्थितियों पर निर्भर है – यह उत्पादन और उपभोग के ढर्रे में वृद्धि, संसाधनों का असमान वितरण और हम कैसे रहते हैं, खाते हैं, चलते हैं और हम क्या करते हैं, इस पर निर्भर करता है.
इस तथ्य के बारे में कोई दो राय नहीं है कि जलवायु परिवर्तन का प्राकृतिक संसाधनों और पारिस्थितिक स्वरूप पर दूरगामी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है. बारिश का स्वरूप और अधिक विषम हो गया है. जंगल और जल स्रोत कम होते जा रहे हैं और जिसे ‘असामान्य’ जलवायु घटनाओं के रूप में समझा जाता है, वही तेजी से प्रकृति का कायदा बनता जा रहा है.
ये तब्दीली कई कारकों का परिणाम हैं, जिनमें अपनाए गए ‘विकास’ मॉडल की प्रकृति, उत्पादन का पूंजीवादी तरीका, बढ़ता उपभोक्तावाद, संसाधनों का असमान वितरण, बेकायदा शासन और नियम तथा गलत नीतिगत प्राथमिकताएं शामिल है. इस संकट को नवउदारवादी ढांचागत नीतियों ने कायदा-कानून की परवाह किये बिना बढ़ती मांगों का सारा बोझ पर्यावरण पर डाल कर और तेजी से बढ़ाया है.
चूंकि इस संकट के कारण व्यवस्थागत हैं जो आर्थिक और राजनीतिक संरचनाओं में निहित हैं, इसलिए इसका समाधान भी व्यवस्थागत होना चाहिए. जलवायु परिवर्तन की चुनौती का सामना व्यक्ति के ‘नैतिक’ अंतःकरण को अपील कर और व्यक्तिगत उपभोग और जीवन शैली के स्वरूप को बदलने के लिए प्रोत्साहित करके नहीं किया जा सकता है.
बड़ी वैश्विक कम्पनियां जलवायु परिवर्तन के लिये आनुपातिक रूप से सबसे अधिक जिम्मेदार हैं. 2017 के कार्बन उत्सर्जन के प्रमुख डेटाबेस रिपोर्ट के अनुसार 1988 के बाद से सिर्फ 100 कंपनियां ही दुनिया के 70% से अधिक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का स्रोत रही हैं और 1988 के बाद से वैश्विक औद्योगिक उत्सर्जन के आधे से अधिक के जिम्मेदार सिर्फ 25 कॉरपोरेट और राज्य के स्वामित्व वाली संस्थाएं हैं.
यह स्वीकार करना जरूरी है कि पूंजीवाद और पूंजीवाद की मांगों के परिणामस्वरूप ही विनाशकारी जलवायु परिवर्तन हो रहा है, और जब तक उत्पादन के पूंजीवादी तरीके को बदला नही जायगा, तब तक जलवायु परिवर्तन की चुनौती का सामना करना संभव नही है.
जैसा कि हमने बाढ़ में देखा और जैसा कि हम किसी भी जलवायु आपदा में देखते हैं कि कमजोर, ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़ित और हाशिए पर रह रहे श्रमिक वर्ग, मछुआरे, भूमिहीन कृषि श्रमिक, भूमि पर निर्भर आदिवासी, ग्रामीण महिलाएं, भीड़भाड़ वाले शहरों में झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले ही पारिस्थितीकीय संतुलन में हो रहे इन तब्दीलियों के कारण आनुपातिक रूप से पड़ने वाले बोझ का सबसे ज्यादा झेलते हैं. एक तरफ संसाधनों का असमान वितरण और दूसरी तरफ बुनियादी अधिकारों से वंचित रहना उन्हें अत्यधिक अनिश्चितता की स्थिति में डाल देता है, और अनिश्चितता की यह स्थिति उनके लिए ऐसी परिस्थिति पैदा करती है जहां वे जलवायु की तब्दीलियों से आसमान रूप से पीड़ित होते हैं.
सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक न्याय आंतरिक और संघटित रूप से पर्यावरणीय न्याय से जुड़ा हुआ है. जलवायु परिवर्तन की चुनौती का सामना करने के लिए यह समझना जरूरी है कि यह एक राजनीतिक मुद्दा है जो सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को दूर करे.
अमेजॅन का संघर्ष : पर्यावरणवाद और वर्ग संघर्ष
चिको मेंडेस का एक सर्वविदित कथन है – ‘पर्यावरणवाद बिना वर्ग संघर्ष के सिर्फ बागवानी है’.
एक क्रन्तिकारी ट्रेड यूनियनिस्ट और पर्यावरणविद् चिको मेंडेस की हत्या 22 दिसंबर 1988 को भूस्वामियों द्वारा कर दी गयी जो अमेजॅन के एक इलाके में वनों की कटाई करना चाह रहे थे. 1980 के दशक के अंत में अमेजॅन के रबर टैपर्स यूनियन आंदोलन का संघर्ष और चिको मेंडेस के योगदान से पता चलता है कि कैसे पर्यावरण के मुद्दों, वर्ग संघर्ष के मुद्दों और साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्षों को एक साथ लड़ा जाना चाहिए.
रबर टैपर श्रमिक एक अत्यधिक शोषित समूह है जो अमेजॅन के वर्षा वन में पेड़ों से तरल रबर को ‘टैप’ करते हैं. 19वीं शताब्दी के अंत से हवा वाले टायर के आविष्कार के बाद विश्व अर्थव्यवस्था में रबड़ तेजी से महत्वपूर्ण हो गया.
पारंपरिक रबर जागीरदारों द्वारा इन श्रमिकों को बंधुआ मजदूर बना कर रखा जाता था. इस प्रथा के खिलाफ रबर ट्रैपर्स ट्रेड यूनियन आंदोलन और चिको मेंडेस एक महत्वपूर्ण चुनौती के रूप में उभरे और उनके द्वारा छेड़े गए संघर्ष के केंद्र में पर्यावरणीय मुद्दे, श्रमिकों के अधिकार और व्यापक राजनीतिक उद्देश्य थे.
उन्होंने यह समझा कि अमेजॅन को पूरी तरह से नहीं काटा जा सकता है और भूमि के निजी शोषण के परिणामस्वरूप इसका विनाश हो रहा है. इस पर चिको मेंडेस ने कहा :
‘हमने महसूस किया कि अमेजॅन के भविष्य की गारंटी के लिए हमें इलाके की अर्थव्यवस्था को विकसित करने के साथ-साथ जंगल को संरक्षित करने का एक तरीका खोजना होगा ... हमने यह स्वीकार किया कि अमेजॅन को वैसे अभयारण्य में नहीं बदला जा सकता जहां कोई नहीं आ सके. साथ ही, हम जानते थे कि वनों की कटाई को रोकना महत्वपूर्ण है जिससे अमेजॅन और धरती पर सभी मानव जीवन को खतरा है ... इसलिए हम एक्स्ट्रेक्टिव रिजर्व के विचार के साथ आए ... हमारा मतलब है कि भूमि को सार्वजनिक स्वामित्व के तहत होना चाहिए, लेकिन रबर टैपर और अन्य श्रमिकों को... वहां रहने और काम करने का अधिकार होना चाहिए…’
उन्होंने वहां के मूल निवासियों के आंदोलन के साथ गठबंधन भी किया ताकि अमेजॅन पर सार्वजनिक नियंत्रण को आगे बढ़ाया जा सके और पूरे अमेजॅन में एक्स्ट्रेक्टिव रिजर्व बनाया जा सके.
रबर टैपर्स आंदोलन का संघर्ष पर्यावरण न्याय को समग्रता से देखने की आवश्यकता को दर्शाता है.
बढ़ती असमानता, धन और प्राकृतिक संसाधनों का संकेंद्रण और उत्पादन के पूंजीवादी तरीके की चुनौती को हल करना ही होगा.
आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय न्याय की मांग
विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 से पता चलता है कि शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों की कुल राष्ट्रीय आय में हिस्सेदारी 57 प्रतिशत है, जबकि नीचे के 50 प्रतिशत लोगों की हिस्सेदारी 2021 में सिर्फ 13 प्रतिशत थी. असमानता पर हुए शोधों से यह भी पता चलता है कि प्रभुत्वशाली जातियों के पास सबसे ज्यादा भूमि का स्वामित्व होने के साथ उनकी आय और उपभोग का स्तर भी ज्यादा है और इसके बाद अन्य पिछड़ा वर्ग और दलित हैं.
जो लोग अनिश्चित जीवन जीने को मजबूर हैं वे जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों को ज्यादा झेलने को भी मजबूर हैं और वे ऐतिहासिक रूप से भी हाशिए पर रहने वाले वर्ग और जातियां हैं.
हम आर्थिक और सामाजिक न्याय के बारे में बात किए बिना पर्यावरणीय न्याय के बारे में बात नहीं कर सकते. बढ़ती आय असमानता और जिस तरह से जाति पदानुक्रम की व्यवस्था को कायम रखा गया है, उससे निपटे बिना और संसाधनों पर लोकतांत्रिक नियंत्रण और लोकतांत्रिक निर्णय लेने के बड़े सवाल के बिना जलवायु परिवर्तन की चुनौती का सामना नही किया जा सकता है. लोगों को इस तरह के अनिश्चित जीवन की ओर धकेलने वाली राज्य की नव-उदारवादी श्रम, आर्थिक और पर्यावरणीय नीतियों को चुनौती देनी होगी. जलवायु परिवर्तन के खिलाफ संघर्ष एक राजनीतिक संघर्ष है जिसमें अनिवार्य रूप से वर्ग संघर्ष, जाति के विनाश के संघर्ष और साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष को शामिल करना होगा.