वर्ष - 28
14-06-2024

( एमएल अपडेट संपादकीय, 11 जून- 17 जून 2024 )

2024 के जनादेश की भावना के विपरीत भाजपा-नीत एनडीए गठबंधन सत्ता में बना हुआ है, दो मुख्य घटक दलों- आंध्र प्रदेश से टीडीपी और बिहार से जेडीयू के महती समर्थन की इसमें विशेष कृपा है. नरेंद्र मोदी निरंतर तीसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री के रूप में लौट आए हैं. उनके साथ ही नंबर दो के तौर पर अमित शाह की वापसी भी हो गयी है. मोदी 2.0 के अन्य प्रमुख सदस्यों की भी, उनके पहले वाले मंत्रिमण्डलीय पदों के साथ वापसी हो गयी है. बिहार में नितीश कुमार की पार्टी उन्हें “किंगमेकर” की तरह पेश कर रही है लेकिन हाल-फिलहाल तो जदयू या टीडीपी का “किंगमेकर प्रभाव” मंत्रालयों के बंटवारे में तो नहीं नज़र आया. यह देखा जाना अभी बाकी है कि क्या टीडीपी नयी लोकसभा में गैर भाजपा अध्यक्ष सुनिश्चित कर पाती या नहीं.  

मोदी इस बात से वाकिफ हैं कि उन्हें एक गठबंधन सरकार चलानी है और इसीलिए एनडीए का नेता चुने जाने के बाद अपने उद्घाटन भाषण में वे बहुत सचेत थे कि मोदी केंद्रित दंभपूर्ण भाषण न दें. पर प्रकट रूप में एनडीए की तरफ से बोलते हुए भी, उन्होंने लगभग वही सब बातें कही जो वे चुनाव के दौरान कॉंग्रेस और इंडिया गठबंधन के बारे में कह रहे थे. यही सही है कि वो अपने 400 पार का जुमला नहीं दोहरा सके और ना ही कॉंग्रेस के राहुल गांधी की उम्र से कम सीटें जीतने की अपनी दंभी भविष्यवाणी को दोहरा सके पर अपने अहंकार को प्रदर्शित करने का नया तरीका निकालते हुए उन्होंने कहा कि भाजपा ने अब भी कॉंग्रेस द्वारा 2014 के बाद जीती गयी सीटों से अधिक सीटें जीती हैं. अभी तक के सारे संकेतों के अनुसार मोदी और उनकी मंडली नयी हुकूमत को स्थिर रखने के लिए एनडीए के नाम पर जुबानी जमाखर्च करते रहेंगे और एनडीए के घटकों को समाहित करने के लिए कुछ नाम मात्र के समायोजन भी करते रहेंगे पर साथ ही अपने आक्रामक फासिस्ट एजेंडा और अभियान को जारी रखेंगे, चाहे शुरू में उसकी गति थोड़ा धीमी ही क्यूं ना रखनी पड़े.

‘कॉंग्रेस मुक्त भारत’ का मोदी का आक्रामक नारा और ‘विपक्ष मुक्त लोकतंत्र’ बनाने की उनकी कुटिल चाल स्पष्ट तौर पर विफल हो चुकी है. कॉंग्रेस ने अपनी सीटों की संख्या लगभग दोगुनी कर ली है और लोकसभा में लगभग 40 प्रतिशत सीटें हासिल करके इंडिया एक मजबूत विपक्ष के तौर पर उभरा है. जो अभी कायम है, वो है भाजपा और एनडीए का “अल्पसंख्यक मुक्त” खाका. न केवल भाजपा बल्कि पूरे एनडीए में ही एक भी मुस्लिम, ईसाई या सिख सांसद नहीं है. भाजपा ने एक भी मुस्लिम प्रत्याशी खड़ा नहीं किया और अब मोदी 3.0 मंत्रिमंडल में एक भी मुस्लिम चेहरा नहीं है. मुस्लिम सांसदों की संख्या इस समय सबसे निचले स्तर पर पहुँच चुकी है, 543  के सदन में केवल 24 मुस्लिम सांसद हैं जो कि भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय का मात्र 5 प्रतिशत से भी कम है. जबकि भारत की आबादी में इस समुदाय की आबादी 14 प्रतिशत से अधिक है. भारतीय संसदीय लोकतंत्र में मुस्लिमों का बेहद अल्प प्रतिनिधित्व, मोदी काल में मुसलमानों के गहरे और व्यवस्थित हाशियाकरण का चुनावी प्रतिबिंब मात्र है.

2024 के लोकसभा चुनावों के परिणाम का एक बेहद महत्वपूर्ण और आश्वस्तकारी संकेतक है मुस्लिम विरोधी ध्रुवीकरण का खारिज होना, विशेष तौर पर उत्तर प्रदेश में अयोध्या के इलाके में ऐसा होना बेहद महत्वपूर्ण है. हालांकि फिर भी चुनाव परिणाम की गलत व्याख्या करने का एक ठोस शरारतपूर्ण प्रयास निरंतर जारी है और इसके जरिये मुसलमानों के खिलाफ घृणा फैलाने की भी कोशिशें की जा रही हैं. अत्याधिक बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किए गए चुनाव विश्लेषक प्रशांत किशोर, जिन्होंने 2019 से भी ज्यादा सीटों के साथ भाजपा के सत्ता में लौटने की अक्खड़ भविष्यवाणी की थी और जो अब खिसियानी हालत में हैं, वो अब विपक्ष और खास तौर पर कॉंग्रेस के वोटों को ‘अल्पसंख्यक वोट बैंक’ के तौर पर व्याख्यायित करने की कोशिश कर रहे हैं. बीबीसी भारत के साथ एक साक्षात्कार में उन्होंने लगातार मुस्लिम आबादी को बढ़ा-चढ़ा कर 18 प्रतिशत से अधिक बताने की कोशिश की (जबकि वर्तमान जनसंख्या के अनुमान के हिसाब से यह 14 प्रतिशत से थोड़ा ही अधिक है) और कहा कि कॉंग्रेस/ इंडिया को 20 प्रतिशत से अधिक ‘मुफ्त अल्पसंख्यक वोट बैंक’ से फायदा हुआ है. घोषित तौर पर भाजपा इस झूठ को पकड़ कर और अधिक हिंदू एकीकरण के पक्ष में तर्क गढ़ना चाहती है कि जब मुसलमानों ने एक समूह के तौर पर भाजपा के खिलाफ वोट दिया है तो हिंदुओं को एक समूह के तौर पर भाजपा को वोट देना चाहिए !  

निश्चित ही 2024 के परिणाम की इससे ज्यादा शरारतपूर्ण गलत व्याख्या और कुछ नहीं हो सकती कि यह दावा किया जाये कि विपक्ष का वोट तो सांप्रदायिक वोट है. किसान आंदोलन, संविधान की रक्षा के लिए दलित-आदिवासी-बहुजन अभियान, रोजगार के लिए युवाओं का आंदोलन, पुरानी पेंशन स्कीम की बहाली के लिए कर्मचारियों का आंदोलन विविधता और संघीयता के लिए अभियान, आजादी और लोकतंत्र के लिए सिविल सोसाइटी की पहलकदमियां- ये सभी प्रमुख कारक थे, जिन्होंने वर्तमान चुनाव परिणाम में योगदान किया और इन परिणामों की जड़ें भारतीय जनता की एकता में हैं ना कि किसी प्रकार के हिंदू-मुस्लिम विभाजन में. चुनाव परिणामों की यह शरारतपूर्ण व्याख्या मुसलमानों के कम प्रतिनिधित्व की ज़िम्मेदारी भी भारतीय मुसलमानों की राजनीतिक चयन पर ही थोप देना चाहती है.

यह भाजपा है जिसकी भारतीय मुसलमानों से व्यवस्थित और घोषित किनाराकशी के लिए लानत-मलामत की जानी चाहिए. यह राजनीतिक नस्लभेद का भारतीय संस्करण है. यह चयन नहीं बल्कि भारतीय मुसलमानों की विवशता है कि वे भाजपा के खिलाफ वोट दें और इसका मुख्य कारक भाजपा की इस्लाम का भय पैदा करने वाली विषैली राजनीति है ना कि कोई धार्मिक आग्रह. मुसलमानों को भाजपा को वोट देने के लिए कहने का मतलब है उन्हें स्थायी तौर पर संस्थाबद्ध उत्पीड़न और दमन के सामने समर्पण करने को कहना.  मुस्लिम अधिकारों और प्रतिनिधित्व को नकारना भारतीय फासीवाद का प्रमुख लक्षण है और फासीवाद विरोधी ताकतों की लंबी शृंखला से हाथ मिला कर फासीवाद को हराने की कोशिश करना, मुस्लिमों का सही कदम है.

हाशिये पर धकेल दिये गए समुदाय ज्यादा व्यापक एकजुटता और अधिक दृढ़ संकल्पित व एकताबद्ध अभियानों के जरिये ही लड़ाई जीत सकते हैं. भारतीय समाज के हर हिस्से की संघर्षशील ताकतों के प्रतिनिधित्व वाली राजनीतिक ताकत बनाने की परियोजना के लिए भाजपा विरोधी पार्टियों के लिए यह बाध्यकारी है कि वे ऐसे सभी तबकों को उचित स्थान एवं मान्यता दें जिसमें कि राजनीति से मुसलमानों के हाशियाकरण का प्रत्यक्ष और सचेत निषेध भी शामिल है. जैसे कि शक्तिशाली जन आंदोलनों ने विपक्ष के उत्साहजनक परिणामों को संभव बनाया, उसी तरह उन्हें विपक्षी ताकतों को जवाबदेह भी बनाते रहना होगा और साथ ही फासीवादी ताकतों के नए हमलों के प्रति भी सचेत रहना होगा, जिनसे निसंदेह ही हम आने वाले महीनों में मुक़ाबिल होंगे.