वर्ष - 29
अंक - 28
15-07-2020

लाॅकडाउन के 98वें दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक बार फिर राष्ट्र को सम्बोधित किया. कोविड-19 के शुरू होने के बाद से उनका यह छठा “कोरोना स्पेशल” भाषण था. मगर पहले दिये गये अपने पिछले पांच भाषणों की ही तरह इस बार भी उन्होंने देश में कोविड-19 की स्थिति के बारे में कुछ नहीं कहा और इस वैश्विक महामारी से निपटने के लिये उनकी सरकार क्या कर रही है इसके बारे में तो कत्तई एक शब्द भी नहीं कहा. लाॅकडाउन के प्रथम चरण में अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी के लोगों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई की तुलना महाभारत के युद्ध से की थी. प्रधानमंत्री मोदी ने बड़े विश्वासपूर्वक कहा था कि जहां महाभारत का युद्ध 18 दिनों में जीत लिया गया था, वहीं कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई भी 21 दिनों के अंदर जीत ली जायेगी.

21 दिनों की वह अंतिम तिथि बीत जाने के सतहत्तर दिनों बाद भारत अब कोविड-19 से संक्रमित लोगों की संख्या के लिहाज से दुनिया के देशों में चौथे स्थान पर पहुंच गया है (जो अब रूस को पछाड़ते हुए अमरीका और ब्राजील के बाद तीसरे स्थान पर पहुंच गया है) और संक्रमित लोगों की तादाद सात लाख के आंकड़े को पार कर चुकी है. कोरोना संक्रमण से हुई मौतों के लिहाज से भारत 18,000 से अधिक संख्या के साथ दुनिया में आठवें स्थान पर पहुंच गया है. अगर मोदी ने कोविड-19 के बारे में कोई बात कही तो वह थी भारत के नागरिकों को याद दिलाना कि उन्हें क्या सावधानी बरतनी चाहिये और स्वास्थ्य रक्षा के नियमों को आदत बना लेनी चाहिये, और उन्होंने अपेक्षाकृत कम संख्या में हुई मौतों का कारण लाॅकडाउन को बताते हुए इसके श्रेय का दावा किया. सरकार का अब यह आम प्रचार कौशल बन गया है कि वह यूरोप और अमरीका की तुलना में भारत में कोरोना से मौतें कम होने का हवाला देकर लाॅकडाउन की सफलता का दावा करती है.

कई विशेषज्ञ हमें शुरूआत से ही यह बताते रहे हैं कि भारत में भाग्यवश कोरोना से मौतें कम होने की आशंका है क्योंकि औसत भारतीय की फ्लू से लड़ने की प्रतिरोध क्षमता (इम्युनिटी) ज्यादा है और दुनिया के इस हिस्से में जो वायरस स्ट्रेन मौजूद है उसकी घातक क्षमता भी कम है. सरकार भारत में अपेक्षाकृत बड़ी सांख्यिकीय सफलता का दावा करने के लिये उदाहरण भी चुन-चुन कर पेश करती है. अगर हम जनसंख्या के लिहाज से देखें तो हमारे आंकड़े चीन से बहुत ज्यादा बदतर हैं, जबकि चीन दुनिया का सबसे बड़ी आबादी वाला देश है, और कोविड-संक्रमित लोगों की तादाद के हिसाब से वह अब दुनिया के देशों में 22वें स्थान पर है. अगर हम अपने पश्चिमी और पूर्वी पड़ोसी देशों से अपनी तुलना करें तो पाकिस्तान और बांग्लादेश, दोनों जगह संक्रमण से हुई मौतों की दर भारत (3 प्रतिशत) की तुलना में उल्लेखनीय रूप से कम है (2 प्रतिशत से भी कम). यूरोप में भी, संक्रमण से हुई मौतों की संख्या में काफी भिन्नता है – जहां इटली, स्पेन, फ्रांस और ब्रिटेन में जरूर 10-20 प्रतिशत मामलों में मौतें हुई हैं, वहीं जर्मनी में इन मौतों की दर 5 प्रतिशत से कम है और रूस में तो 2 प्रतिशत से काफी कम है.

प्रधानमंत्री मोदी ने जो तथ्य कभी स्वीकार नहीं किया वह यह है कि भारत में लाॅकडाउन का रिकार्ड सबसे बदतरीन किस्म का था. दुनिया के किसी भी अन्य देश में लोगों को लाॅकडाउन से पैदा इस किस्म के और इतने विराट स्तर के संकट को नहीं झेलना पड़ा, जिसके बोझ से अब भी भारत लड़खड़ा रहा है. दुनिया के किसी भी अन्य देश में प्रवासी मजदूरों की इतनी विशाल संख्या को शहर छोड़कर गांव वापसी की तकलीफ नहीं झेलनी पड़ी जितनी कि भारत में और यकीनन किसी भी अन्य देश में लाॅकडाउन के चलते इस कदर सैकड़ों लोगों की अनावश्यक मौतें नहीं हुई हैं जिनसे सम्पूर्णतः बचा जा सकता था. मोदी भारत में संक्रमण से होने वाली मौतों की संख्या अपेक्षाकृत कम दिखलाकर इन तमाम तथ्यों पर पर्दा डालना चाहते हैं. वे चाहते हैं कि हम उनकी सरकार को उसके चरम निर्दयी और पूरी तरह से अनियोजित किस्म के और बिल्कुल ही अव्यवस्थित लाॅकडाउन के लिये धन्यवाद दें, महज इसलिये कि भारत में संक्रमण से होने वाली मौतों की संख्या सर्वोच्च सात देशों यानी अमरीका, ब्राजील, ब्रिटेन, इटली, फ्रांस, स्पेन और मेक्सिको में हुई मौतों से कम है. यह अपने शरारत भरे और धोखेबाज प्रचार के लिये वैश्विक महामारी का इस्तेमाल करने के सिवाय और कुछ नहीं है.

मोदी ने 30 जून के भाषण में जो अपनी पीठ ठोकने वाला प्रचार किया, उसका सबसे बुरा और सदमा पहुंचाने वाला पहलू रहा सरकार द्वारा प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना की घोषणा. मोदी ने उसी कार्यक्रम को इस साल के नवम्बर तक विस्तारित करने की घोषणा की, जिसके तहत हर परिवार को प्रति माह एक किलोग्राम दाल और प्रति व्यक्ति पांच किलोग्राम अनाज (चावल या गेहूं) के हिसाब से मुफ्त बांटा जा रहा है. उन्होंने इस योजना को एक ऐसी चीज बताया जिसने “समूचे विश्व को आश्चर्य में डाल दिया है”, और इसके लिये एक बार फिर इस योजना के लाभुकों को दुनिया के अपेक्षाकृत छोटे देशों की आबादी के गुणक के रूप में दिखलाया (जैसा कि प्रधानमंत्री ने बताया, इस योजना से लाभ पाने वालों की संख्या अमरीका की आबादी का 2.5 गुणा है, ब्रिटेन की आबादी का 12 गुणा है और यूरोपीय संघ के देशों की आबादी का दुगना है). प्रधानमंत्री ने यह भी घोषित किया कि इस योजना का विस्तार त्यौहारों के मौसम को ध्यान में रखकर किया गया है, जिसमें उन्होंने दीवाली और छठ का उल्लेख किया (चूंकि अक्टूबर और नवम्बर में बिहार में चुनाव होने जा रहे हैं).

लाॅकडाउन की शुरूआत से ही लाॅकडाउन पैकेज की मांग बड़े पैमाने पर उठ रही है, जिसमें अन्य चीजों के अलावा, ऐसे सभी परिवारों को जो आयकर भुगतान की सीमा के अंदर नहीं आते, 10 किलोग्राम मुफ्त राशन (गेहूं या चावल) तथा अन्य आवश्यक सामग्री शामिल है, तथा साथ ही रोजगार के अभाव में आमदनी के सहारे के बतौर मासिक कैश ट्रांसफर 7,500 की मांग शामिल है. सरकार ने इस मांग के जवाब में महज प्रतीकी तौर पर थोड़ा सा राशन देने की बात कही है, किसी भी नकदी आमदनी के बगैर जिसका जरूरतमंद परिवारों के लिये कोई मायने-मतलब नहीं रह जाता, क्योंकि वे इसके बिना खाना पकाने के लिये अन्य आवश्यक सामग्री तक को खरीद नहीं सकते. दसियों लाख मजदूर वर्ग और गरीब परिवारों के लिये आमदनी के स्रोत सूख चुके हैं, जिसके फलस्वरूप कई परिवारों को मजबूरी में अब तक जो कुछ उनकी जमा-पूंजी थी उसे भी खर्च कर देना पड़ा है. अब प्रधानमंत्री द्वारा घोषित इस मुफ्त राशन का मतलब यही होगा कि हर परिवार को सहायता के बतौर हद से हद मात्र 600-700 रुपये की सामग्री दी जायेगी, और इतनी तो इनमें से कई परिवारों की दैनिक आमदनी रही थी, जिसे वे लाॅकडाउन में गंवा बैठे हैं.

प्रधानमंत्री ने भारत के किसानों और ईमानदार करदाताओं का शुक्रिया अदा किया है कि उन्होंने सरकार को यह राशन स्कीम चलाने में मदद की है. जहां प्रधानमंत्री किसानों का शुक्रिया अदा कर रहे हैं वहीं उनकी सरकार ने भारत के किसानों द्वारा लम्बे अरसे से की जा रही किसी भी मांग पर जरा भी ध्यान देने से इन्कार कर दिया है. वास्तव में सरकार ने अब राज्य द्वारा संरक्षित एपीएमसी (एग्रिकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी) के नेटवर्क में कारगर ढंग से तोड़फोड़ करने तथा उसे खत्म कर देने के जरिये उचित मूल्य पर फसलों की खरीद की गारंटी करने की अपनी जिम्मेदार का भी परित्याग करना शुरू कर दिया है. और भारत के ईमानदार करदाताओं में उन अति-धनाढ्यों का कोई उल्लेख नहीं है जिन पर आरोपित कर की दर को न सिर्फ भारी पैमाने पर घटा दिया गया है बल्कि जिन्होंने बहुतेरे तरीकों से कर चोरी की कला में महारत भी हासिल कर रखी है. वास्तव में ये आम आदमी ही हैं जो सरकार द्वारा मनमाने ढंग से आरोपित जीएसटी और उत्पाद कर को अदा करके सरकार को प्राप्त कर के बड़े हिस्से का निर्माण करते हैं. भारत में उत्पाद कर के जबरन ऐंठकर वसूली करने के चरित्र को दर्शाने के लिये बस एक ही उदाहरण काफी है: नोट करें कि प्रति लीटर पेट्रोल पर उत्पाद कर 9.20 रुपये (मई 2014 में) से बढ़कर 32.98 रुपये (जून 2020 में) हो गया है, और डीजल पर उत्पाद कर इसी अवधि में 3.46 रुपये प्रति लीटर से बढ़कर 31.83 रुपये हो गया है. पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद कर में महज लाॅकडाउन के तीन महीनों के अंदर ही प्रति लीटर क्रमशः 10 रुपये और 13 रुपये की वृद्धि कर दी गई है. (आश्चर्यजनक रूप से इतिहास में पहली बार डीजल का प्रति लीटर दाम पेट्रोल से भी अधिक हो गया है).

जब हम लाॅकडाउन के चैथे महीने में प्रवेश कर रहे हैं (सरकार इसे आधिकारिक तौर पर अनलाॅक-2 बता रही है यद्यपि सबर्बन (उपनगरीय) ट्रेनें बिल्कुल बंद हैं और लम्बी दूरी की ट्रेनें भी नाम मात्र को चल रही हैं), और एक ओर हम कोविड-19 का बढ़ता हुआ हमला झेल रहे हैं तथा दूसरी ओर आर्थिक बदहाली को और तीखा होता देख रहे हैं. इस संकटपूर्ण परिस्थिति में कोई सुधार करने के उपाय अपनाने के बजाय सरकार इस संकट को अवसर के बतौर भुनाकर सार्वजनिक उपक्रमों व सेवाओं का निजीकरण करने में लगी हुई है. भारत की मेहनतकश जनता के पास इसके खिलाफ अपनी पूरी ताकत से डटकर मुकाबला करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. 30 जून का दिन, जो महान संथाल विद्रोह (हूल) की 165वीं वर्षगांठ थी, वह मोदी के लिये झूठ पर झूठ बोलने का एक दिन हो सकता है, मगर भारत के मेहनतकश और आदिवासी-मूलवासी लोगों के लिये यह दिन कारपोरेट लूट का प्रतिरोध करने, पर्यावरण की हिफाजत करने और जनता के अधिकारों की रक्षा करने की शपथ को नये सिरे से दुहराने का दिन था. और जुलाई के महीने की शुरूआत संघर्ष के जोशीले सुर से होगी, जिसमें 2 से 4 जुलाई को कोयला मजदूरों की निजीकरण विरोधी हड़ताल है और 3 जुलाई को केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा सम्मिलित रूप से प्रतिवाद दिवस मनाया जाना है.