मोदी सरकार वीडी सावरकर को मरणोपरांत भारत रत्न (भारत का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार) से नवाजने जा रही है. मोदी और भाजपा दावा कर रहे हैं कि सावरकर “वीर” थे और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक नायक थे.
वास्तव में यह एक सुविदित तथ्य है कि सावरकर ने ब्रिटिश सरकार से दया की याचना की थी और तब अपनी रिहाई का इस्तेमाल मुस्लिम-विरोधी और बौद्ध-विरोधी नफरत फैलाने, हिटलर द्वारा यहूदियों के जनसंहार तथा अफ्रीकी अमरीकियों के उत्पीड़न की तारीफ करने में इस्तेमाल किया था और इस विचार का समर्थन किया था कि हिंदू और मुसलमान एक ही राष्ट्र में नहीं रह सकते. इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि उन्होंने ही गांधी की हत्या करने की योजना बनाई थी.
जरूर मोदी सरकार सावरकर को पुरस्कार देने को आजाद है. उनकी पसंद जितना सावरकर के बारे में बताती है उससे कहीं ज्यादा मोदी सरकार की अपनी हिंदू श्रेष्ठतावादी और फासिस्ट विचारधारा के बारे में बताती है.
इस आलेख में सावरकर – और मोदी सरकार भाजपा, जो उनको प्रतिबिम्बित करते हैं – का असली चेहरा दिखलाने वाले तथ्यों को संग्रहित किया गया है.
हम इतिहासकार शम्सुल इस्लाम द्वारा किये गये अनथक दस्तावेजीकरण और उनकी रचनाओं के आभारी हैं जिनके बिना यह कार्य सम्भव नहीं हो सकता था.
सावरकर को गिरफ्तार करके ब्रिटिश सरकार ने अंडमन केन्द्रीय कारागार (जिसे कुख्यात ‘काला पानी’ के नाम से जाना जाता है) में कैद कर रखा था, जिस तरह से उन्होंने और भी सैकड़ों स्वतंत्रता सेनानियों को कैद में रखा था. सावरकर ने कम से कम तीन बार ब्रिटिश राज से दया याचना की थी जिसमें उन्होंने अपनी स्वामिभक्ति की शपथ ली थी और रिहा किये जाने की भीख मांगी थी.
क्या ये दया याचनाएं अपनी आजादी पाने के लिये अपनाई गई महज चाल थी, कि रिहा होने के बाद वे इस आजादी का इस्तेमाल देश की आजादी के लिये लड़ने में करेंगे? सावरकर की पैरवी करने वाले यही दावा किया करते हैं.
इस दावे पर दो आपत्तियां हैं. पहला, किसी भी अन्य स्वतंत्रता सेनानी ने, जिन्होंने बरसों तक और यहां तक कि कई दशक तक अंडमन जेल एवं देश के अन्य कारागारों में कैद की सजा भोगी और यातनाएं सहीं, कभी ब्रिटिश राज से दया याचना नहीं की. सावरकर दया याचना करने वाले एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं.
दूसरा, सावरकर ने जेल से रिहा होने के बाद खुलेआम ब्रिटिश से सहयोग करने की वकालत शुरू कर दी, और अपने समूचे राजनीतिक जीवन में हमेशा यही किया. हम इसका सबूत नीचे दे रहे हैं.
1942 में कानपुर में हिंदू महासभा के 24वें अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए सावरकर ने हिंदू महासभा की ब्रिटिश राज के साथ सहयोग करने की रणनीति की रूपरेखा इन शब्दों में प्रस्तुत की थी –
“हिंदू महासभा मानती है कि तमाम व्यावहारिक राजनीति का मुख्य सिद्धांत होता है जवाबी सहयोग की नीति. और इसी कारण वह यकीन रखती है कि वे तमाम हिंदू संगठनवादी जो पार्षदों, मंत्रियों, विधायकों के बतौर कार्यरत हैं और किसी नगर निगम अथवा किसी सार्वजनिक संस्था का सरकारी सत्ता के केन्द्रों के बतौर इस्तेमाल करने के नजरिये से संचालन कर रहे हैं, निश्चय ही दूसरे किसी के वैध हितों का उल्लंघन किये बिना हिंदुओं के वैध हितों की रक्षा कर रहे हैं और उनको प्रोन्नत कर रहे हैं, वे हमारे राष्ट्र की अत्यंत उच्च देशभक्तिपूर्ण सेवा कर रहे हैं ... जवाबी सहयोग की नीति, जिसमें बिना शर्त सहयोग से लेकर सक्रिय और यहां तक कि सशस्त्र प्रतिरोध की देशभक्तिपूर्ण गतिविधियां समग्र रूप से शामिल हैं, स्वयं को समय, हमारे पास मौजूद संसाधन और हमारे राष्ट्रीय हित के निर्देशों की तत्काल आवश्यकताओं के अनुसार बदलती रहेगी.” (जोर मूल पाठ में)
– वीडी सावरकर, समग्र सावरकर वांग्मय: हिंदू राष्ट्र दर्शन खंड 6, महाराष्ट्र प्रांतिक हिंदू सभा, पूना, 1963 पृ. 474 में उद्धृत
जब द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नेताजी सुभाष चंद्र बोस देश को मुक्त कराने के लिये विदेशों से मदद हासिल करने की कोशिश कर रहे थे और देश के उत्तर-पूर्वी हिस्से पर सैनिक आक्रमण संगठित करने की कोशिश कर रहे थे, जिसका अंत ‘आजाद हिंद फौज’ के गठन में साकार हुआ, उस समय सावरकर ने ब्रिटिश मालिकों को अपना पूरा सैनिक सहयोग देने की पेशकश की थी. 1941 में भागलपुर में आयोजित हिंदू महासभा के 23वें अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा था:
“वह युद्ध जो अब हमारी सीमाओं पर आ पहुंचा है, प्रत्यक्ष रूप से एक ही साथ खतरा भी है और मौका भी, और ये दोनों चीजें इसको आवश्यक बना देती हैं कि सैन्य आंदोलन को तीव्र किया जाये और हिंदू महासभा की हर कस्बे और गांव में सारी शाखाएं सक्रिय रूप से हिंदू लोगों को थल सेना, जल सेना और वायु सेना में तथा युद्ध कला के विभिन्न उत्पादन-स्थलों में भर्ती होने के लिये उत्प्रेरित करने में जुट जायें.”
ब्रिटिश सरकार की मदद करने के लिये सावरकर किस हद तक इच्छुक थे यह उनके निम्नलिखित शब्दों से स्पष्ट हो जाता है:
“जहां तक भारत की रक्षा की बात है, हिंदू समाज को बिना किसी हिचकिचाहट के, भारत सरकार की युद्ध-प्रस्तुति के साथ जवाबी सहयोग की भावना से गठजोड़ बनाना होगा क्योंकि यह हिंदू हितों के साथ सम्पूर्णतः मेल खाता है कि वे जितनी बड़ी तादाद में संभव हो थल सेना, जल सेना और वायु सेना में भर्ती हो जायें और तमाम युद्ध सामग्री, गोला-बारूद तथा युद्ध कला के कारखानों में किसी तरह से घुस जायें... साथ ही इस बात को भी नोट करना होगा कि युद्ध में जापान के उतरने के फलस्वरूप हम ब्रिटेन के दुश्मनों के प्रत्यक्ष रूप से और फौरन आक्रमण के शिकार बन सकते हैं. परिणामस्वरूप, चाहे हम पसंद करें या नापसंद, हमें युद्ध के विनाशकारी नतीजे से अपने घर-बार की रक्षा करनी ही होगी और ऐसा केवल भारत की रक्षा करने के लिये सरकार द्वारा किये जा रहे युद्ध प्रयासों में मदद तीव्र करने के जरिये ही किया जा सकता है. इसलिये हिंदू महासभा को हिंदुओं को, खासकर बंगाल और असम प्रांतों के हिंदुओं को प्रेरित करना होगा कि वे जितनी हद तक कारगर हो, बिना एक भी क्षण गंवाये तमाम किस्म के सैनिक बलों में घुस जायें.”
– सावरकर, वीडीऋ समग्र सावरकर वांग्मय: हिंदू राष्ट्र दर्शन, खंड 6, महाराष्ट्र प्रांतिक हिंदू सभा, पूना, 1963, पृ. 460-61 सेें उद्धृत
सावरकर ने इस तथ्य को बिल्कुल नहीं छिपाया कि वे भारत में ब्रिटिश शासन की जगह पर नेपाल के हिंदू राजा का शासन चाहते थे.
गांधी-मुस्लिम षड्यंत्र (आरडी घनेकर द्वारा पूना से 1941 में प्रकाशित) में सावरकर ने “ए हिंदू नेशनलिस्ट” के छद्मनाम से लिखते हुए कहा था कि नेपाल का हिंदू राज्य “हिंदुस्तानी साम्राज्य के सिंहासन पर अपना दावा ठोकने के मौके को अपने हाथ से नहीं निकलने दे सकता.” वास्तव में इससे दो वर्ष पहले ही सावरकर ने यह उम्मीद जाहिर कर दी थी कि ब्रिटिश शासक नेपाल द्वारा दिये गये सहयोग के प्रतिदान स्वरूप भारत को नेपाल नरेश के हाथों सौंप दे सकते हैं!
हिंदू महासभा के 20वें अधिवेशन (नागपुर, 1938) में अध्यक्षीय भाषण देते हुए सावरकर ने कहा था, “वीरता भरी हिंदू प्रजाति के अपने घर नेपाल के हिंदू राज्य की स्वाधीनता हिंदुओं के लिये गर्व की बात है और साथ ही हिंदू आशाओं का केन्द्र भी है. तथापि हमारी ओर से ब्रिटिश भारतीय क्षेत्र की शक्ल बिगाड़ने वाली नारेबाजी भरी राजनीति के दलदल में नेपाल को खींच लाने के लिये कुछ करना मूर्खता ही होगी ... इसलिये मैं बिना किसी हिचकिचाहट के नेपाल सरकार द्वारा ब्रिटिश सरकार के साथ दोस्ताना सम्बंध बनाये रखने की वर्तमान नीति को जायज ठहरा रहा हूं ... ऐसा असम्भव नहीं है कि (ब्रिटिश द्वारा) नेपाल को खुद भारत के भाग्य का नियंत्रण करने के लिये निमंत्रित किया जाये.”
और कुछ नहीं तो सावरकर ने यही तर्क दिया है कि ब्रिटिश सरकार को बिहार और पंजाब के कुछेक सीमावर्ती क्षेत्रों को सौंप कर नेपाल ने जो वफादारी दिखाई है उसके लिये ब्रिटिश द्वारा नेपाल को पुरस्कार दिया जाना चाहिये. “मैं समग्र हिंदू समाज की ओर से महामहिम नेपाल नरेश के प्रति अपनी सर्वाधिक वफादारी सहित श्रद्धा निवेदन करता हूं ... हिंदू पुनरुत्थान के अंतिम लक्ष्य को पूर्णतः ध्यान में रखते हुए इसमें संदेह नहीं कि वर्तमान स्थितियों में नेपाल के हिंदू राज्य ने इस युद्ध के दौरान जो ब्रिटिश सरकार के साथ गठजोड़ किया है और हमारी बहादुर गोरखा सेनाओं को भारतीय सीमाओं तथा अन्यान्य युद्ध क्षेत्रों में नये विदेशी आक्रमणकारियों को रोकने के लिये भेजा है, वही बुद्धिमत्तापूर्ण नीति है. ब्रिटिश सरकार के लिये भी यही उचित होगा कि वह महामहिम नेपाल नरेश द्वारा प्राप्त महत्वपूर्ण सहायता के प्रतिदान स्वरूप नेपाल को कम से कम बिहार के उन जिलों और पंजाब के उस सीमावर्ती क्षेत्र को, जो केवल एक शताब्दी पहले नेपाल शाही राज्य का हिस्सा था, और बाद में ब्रिटिश सरकार ने कब्जा करके भारत में मिला लिया था, नेपाल को वापस कर दें.” (सावरकर, हिंदू महासभा के भागलपुर में 1941 में आयोजित 23वें अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण)
क्या आरएसएस हमें बतायेगा कि सावरकर ने (जिन्ना के साथ मिलकर) पृथक “त्रावणकोर के हिंदू राज्य” के लक्ष्य का क्यों समर्थन किया था? क्या यह भारत को टुकड़े-टुकड़े में विभाजित करने की कोशिश नहीं थी, बशर्ते कि ये टुकड़े-टुकड़े हिंदू राष्ट्र हों?! दूसरे शब्दों में, सावरकर और आरएसएस जैसे हिंदू श्रेष्ठतावादियों ने भारत को धर्मनिरपेक्ष, एकताबद्ध, लोकतांत्रिक भारत के विकल्प के बजाय हिंदू शासकों के अधीन टुकड़े-टुकड़े राज्यों में बांटे रखना पसंद किया था.
वही आरएसएस जो आत्मनिर्णय के अधिकार की दावेदारी करने के चलते कश्मीर को अपने हमले का निशाना बनाता है, त्रावणकोर को भारत से स्वाधीन बनाये रखने के इच्छुक सावरकर को अपना नायक बनाने में बड़ी खुशी महसूस करता है.
ए.जी. नूरानी (‘ए नेशनल हीरो?’ शीर्षक से लिखित फ्रंटलाइन के 23 अक्टूबर-5 नवम्बर 2004 के अंक में) लिखते हैं:
“जब हमारी स्वाधीनता निकट थी तो माउंटबैटन ने एक बार निजी तौर पर नेहरू के सामने (10 मई 1947 को) एक योजना रखी थी कि ब्रिटिश भारत के हर प्रांत को प्रत्यक्ष रूप से सत्ता हस्तांतरित कर दी जाये और उन पर ही छोड़ दिया जाये कि वे किसी संघ का निर्माण करेंगे या नहीं. यह निस्संदेह रूप से भारत के बाल्कनीकरण (किसी देश को टुकड़ों-टुकड़ों में बांट देने) का नुस्खा था. नेहरू ने तीखे अंदाज में इस योजना का विरोध किया. नेहरू ने मांग की कि सत्ता का हस्तांतरण सीधे भारतीय संघ के हाथों हो और ऐसा ही हुआ.” (द ट्रान्सफर आॅफ पावर इन इंडिया, वी.पी. मेनन, 157, पृ. 361)
“उस समय, त्रावणकोर राज्य के अत्याचारी दीवान सी.पी. रामास्वामी अय्यर, जिनसे त्रावणकोर की जनता घृणा करती थी, ने त्रावणकोर को भारत से स्वाधीन राज्य घोषित करने की गुप्त रूप से योजना बनाई. 11 जून 1947 को उन्होंने त्रावणकोर राज्य के फैसले की घोषणा कर दी कि जैसे ही ब्रिटिश भारत का शासन छोड़ेंगे तो त्रावणकोर खुद को स्वतंत्र राज्य घोषित कर देगा. (“सी.पी. एंड इंडिपेंडेंट त्रावणकोर”, फ्रंटलाइन, 4 जुलाई 2003). जिस जनता पर उन्होंने बर्बर दमन ढाया था वह इस घोषणा के सख्त खिलाफ थी. यहां नोट करना रोचक होगा कि जिन्ना और सावरकर दोनों ने दीवान के कदम का स्वागत किया था. जिन्ना ने इस कदम का समर्थन करते हुए 20 जून 1947 को एक केबल (तार) भेजा था. उसी दिन सी.पी. रामास्वामी को सावरकर का भेजा तार भी मिला जिसमें उन्होंने बड़े उत्साहपूर्वक “हमारे त्रावणकोर के हिंदू राज्य की स्वतंत्रता की घोषणा करने की दूरदृष्टि-सम्पन्न और साहसपूर्ण संकल्पबद्धता” का समर्थन किया था. यह कल्पना से परे है कि “अगर अन्य राजाओं ने भी इसी रास्ते को अपनाया होता तो भारत की एकता का क्या हुआ होता. भाग्यवश त्रावणकोर भारत में शामिल कर लिया गया और सी.पी. रामास्वामी को राज्य छोड़ना पड़ा था.”
आरएसएस के प्रतीक-पुरुष सावरकर ने जोर देकर कहा था कि तिरंगे को कभी “हिंदुस्थान” (सावरकर और आरएसएस ने हिंदू राष्ट्र के लिये इसी नाम का इस्तेमाल किया था, ताकि फारसी भाषा से लिये गये शब्द “हिंदुस्तान” से, जिसका इस्तेमाल व्यापक रूप से भारत के बतौर किया जाता है, इसका फर्क दिखाया जा सके) के राष्ट्रीय ध्वज के बतौर स्वीकृति नहीं दी जा सकती है.
“इसको (तिरंगे को) कभी हिंदुस्थान के राष्ट्रीय ध्वज के बतौर स्वीकार नहीं किया जा सकता है ... हमारी मातृभूमि और पुण्यभूमि हिंदुस्थान ... का प्रामाणिक ध्वज ... भगवा ध्वज के अलावा और कुछ नहीं हो सकता है ... इस अखिल हिंदू ध्वज के अलावा हिंदू समाज किसी भी कीमत पर किसी अन्य ध्वज के प्रति वफादारी दिखाकर सलाम नहीं कर सकता, यही भगवा ध्वज उसका राष्ट्रीय झंडा है.” (एस.एस. सावरकर द्वारा सम्पादित, वीर सावरकर के ऐतिहासिक वक्तव्य 1967, पृ. 127).
आरएसएस की तरह सावरकर ने भी महिला-विरोधी, दलित-विरोधी मनुस्मृति को हिंदू विधान के बतौर प्रतिष्ठित करने की मांग की थी.
“मनुस्मृति वही धर्मग्रंथ है जो हमारे हिंदू राष्ट्र के लिये वेदों के बाद सर्वाधिक पूजनीय ग्रंथ है और जो प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति और रिवाजों, विचारों और व्यवहार का आधार बन चुका है. इस किताब ने सदियों से हमारे राष्ट्र के आध्यात्मिक और दैवी गतिपथ को नियमब( किया है. यहां तक कि आज भी करोड़ों हिंदुओं द्वारा अपने जीवन और व्यवहार में जिन नियमों का पालन किया जाता है वे मनुस्मृति पर आधारित हैं. आज मनुस्मृति ही हिंदू विधान है.” (सावरकर, वी.डी., “मनुस्मृति में महिलाएं”, [सावरकर समागार खंड 4 (हिंदी में लिखित सावरकर की रचनाओं का संग्रह), नई दिल्ली, प्रभात, पृ. 416)].
भाजपा का यह दावा, कि सावरकर ने दलित मुक्ति का समर्थन किया था और जाति प्रथा का विरोध किया था, कितना खोखला है यह दर्शाने के लिये उपरोक्त उद्धरण काफी है!
सावरकर द्विराष्ट्र सिद्धांत के पक्के पैरोकार थे. मुस्लिम लीग द्वारा 1940 में पाकिस्तान की मांग किये जाने से तीन साल पहले ही, सावरकर ने 1937 में अहमदाबाद में आयोजित हिंदू महासभा के 19वें अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए द्विराष्ट्र सिद्धांत का समर्थन किया था:
“यह सच्चाई है कि भारत में दो परस्पर विरोधी राष्ट्र साथ-साथ निवास कर रहे हैं. कई बचकाने राजनीतिज्ञ एक गंभीर गलती करते हुए इस बात का समर्थन करते हैं कि भारत जुड़कर इसी बीच एकरूप (होमोजीनियस) राष्ट्र बन चुका है, या फिर महज आकांक्षा रखते हैं कि उसको जोड़कर एकरूप बनाया जा सकता है... आज भारत की एकत्ववादी और एकरूप राष्ट्र के बतौर कल्पना नहीं की जा सकती, बल्कि इसके विपरीत मुख्य तौर पर भारत में दो राष्ट्र मौजूद हैं – हिंदू और मुसलमान.” (सावरकर की संग्रहित रचनाएं, हिंदू महासभा, पूना, 1963, पृ. 296).
सावरकर ने 15 अगस्त 1943 को नागपुर में हुए एक सम्मेलन में जिन्ना का समर्थन करते हुए कहा था:
“द्विराष्ट्र सिद्धांत पर मेरी जिन्ना के साथ कोई लड़ाई नहीं है. हम हिंदू अपने आपमें एक राष्ट्र हैं और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हिंदू और मुसलमान अलग-अलग दो राष्ट्र हैं.” (इंडियन एनुअल रजिस्टर, 1943, खंड 2, पृ. 10).
सावरकर ने हिटलर के फासीवाद को भारत के लिये “सर्वाधिक अनुकूल टाॅनिक” बताया है:
“ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है कि चूंकि हिटलर को नाजी बता दिया जाता है इसलिये वह कोई दैत्य-दानव होगा... जर्मनी और इटली नाजीवादी या फासीवादी जादू की छड़ी के स्पर्श से इस कदर आश्चर्यजनक रूप से तरोताजा हो गये हैं और इतने शक्तिशाली हो गये हैं जितना वे पहले कभी न थे – यही तथ्य यह साबित करने को काफी है कि ये राजनीतिक ‘वाद’ उन दोनों देशों के स्वास्थ्य लाभ के लिये सर्वाधिक अनुकूल टाॅनिक थे.” (सावरकर: 1940 में मदुरै में हुए हिंदू महासभा के 22वें अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण देते हुए)
1944 में सुविख्यात अमरीकी युद्ध संवाददाता टाॅम ट्रीनर ने सावरकर का साक्षात्कार लिया था. उन्होंने इस साक्षात्कार के बारे में अपनी किताब ‘वन डैम थिंग आफ्टर एनाॅदर: द एडवेंचर्स आॅफ एन इन्नोसेंट मैन ट्रैप्ड बिटवीन पब्लिक रिलेशंस एंड द एक्सिस’ में लिखा है. (यह किताब डबलडे, डोरान एंड कम्पनी, न्यूयार्क, 1944 द्वारा प्रकाशित है)
ट्रीनर ने सावरकर से पूछा, “आप मुसलमानों से किस तरह पेश आने की योजना बना रहे हैं?”. सावरकर ने जवाब दिया, “अल्पसंख्यकों की तरह – ठीक जैसे आपके यहां नीग्रो लोगों के साथ पेश आया जाता है.”
साम्प्रदायिकता के हथियार के बतौर बलात्कार के पैरवीकार अपने सर्वप्रमुख कृति ‘भारतीय इतिहास के छह गौरवमय युग’ (1966 के मूल मराठी संस्करण से एसटी गोडबोले द्वारा अंग्रेजी में अनूदित और सम्पादित, राजधानी ग्रंथागार, नई दिल्ली से 1971 में प्रकाशित) में सावरकर ने कई पेज यह मिथक सृष्टि करने में खर्च किये हैं कि कैसे मुसलमानों ने हिंदू महिलाओं के साथ बलात्कार किया था, और तर्क देते हुए इस बात की पैरवी की है कि क्यों हिंदू पुरुषों को अपनी “दुराग्रही, विकृत” हिचकिचाहट को त्याग करके मुसलमान औरतों के साथ बलात्कार करने को तैयार रहना चाहिये. उन्होंने इस बात पर खेद व्यक्त किया है कि “उस दौर में प्रचलित महिलाओं के प्रति वीरोचित आचरण के आत्मघाती विचारों, जो अंततः हिंदू समुदाय के हितों के प्रति अत्यंत नुकसानदेह साबित हुए”, के चलते शिवाजी अथवा चिन्नाजी अप्पा जैसे हिंदू शासक “मुस्लिम महिलाओं के साथ बलात्कार नहीं कर सके.”
“राष्ट्र के अंदर दुश्मनों” की सृष्टि करने की फासीवादी परियोजना में सावरकर के निशाने पर केवल मुसलमान ही नहीं थे. निस्संदेह रूप से दलित मुक्तिदाता बी.आर. अम्बेडकर के नेतृत्व में बौद्ध धर्म में धर्मांतरण के अभियान से उत्तेजित होकर सावरकर ने अपनी किताब ‘भारतीय इतिहास के छह गौरवमय युग’ में बौद्धों को भी अपना निशाना बनाया है. वह “बौद्धों के पूर्वजों द्वारा किये गये विश्वासघात” का हवाला देते हैं और व्याख्या करते हैं कि “पुष्यमित्र (शुंग) और उनके सरदारों को राज-विरोधी गतिविधियों के चलते बौद्धों को फांसी पर लटकाना पड़ा था और उनके संघों का विध्वंस करना पड़ा था, जो राज-विरोधी गतिविधियों का केन्द्र बन गये थे. यह विश्वासघात और दुश्मनों के साथ हाथ मिलाने की उचित सजा थी, जिसकी जरूरत भारतीय साम्राज्य को तथा उसकी स्वतंत्रता को बरकरार रखने के लिये आ पड़ी थी. यह कोई धार्मिक अत्याचार नहीं था.”
जाहिर है कि भगवा फासिस्टों द्वारा गैर-हिंदू अल्पसंख्यक समुदायों को “राष्ट्र-विरोधी” ठहराने तथा उनकी मदरसा आदि संस्थाओं को ... “राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों के अड्डे” बताने के जरिये साम्प्रदायिक दंगों को जायज ठहराने की आदत केवल आधुनिक भारत तक ही सीमित नहीं है. सावरकर का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सिद्धांत, जिसे आरएसएस-भाजपा ने आत्मसात कर लिया है, उनको प्राचीन भारत में भी “आईएसआई” के एजेंटों के समकक्ष लोगों को खोजने की इजाजत देता है, और पुष्यमित्र शुंग द्वारा बौद्धों पर जुल्म ढाये जाने की पैरवी के तर्क से ही संघ गुजरात के जनसंहार और आज के पोटा को जायज ठहराता है.
बौद्धों के प्रति मनमाना जहर उगलने के साथ ही दूसरी ओर सावरकर हिंदुत्व के लिये बुद्ध को हड़पने की कोशिश भी करते हैं! वे कुटिलतापूर्वक कहते हैं , “लेकिन अंततः खुद भारत में बौद्ध पंथ और भगवान बुद्ध का क्या हुआ? ठीक जैसे भागीरथी नदी से निकली एक धारा कुछ मील तक अलग बहते हुए एक बार फिर सहायक नदी के रूप में उसी भागीरथी में मिल जाती हो, वैसे ही वैदिक हिंदू धर्म से निकला बौद्ध पंथ अंततः उसी हिंदू धर्म में मिल गया और खुद भगवान बुद्ध को दसवें अवतार के रूप में प्रतिष्ठित करके हिंदू बना लिया गया.”
उसी किताब में वे अम्बेदकर का उल्लेख “हिंदू-विद्वेषी” के बतौर करते हैं और इस बात पर जोर देते हैं कि बौद्धों ने अस्पृश्यता को कमजोर करने के बजाय प्रोत्साहित ही किया है.
हिंदू महासभा को नियमित रूप से हथियार बेचने वाला अस्त्र-शस्त्र व्यापारी दिगम्बर बाडगे, जो गांधी की हत्या के षड्यंत्र में साझीदार था और अदालत में सरकारी गवाह बन गया, ने बयान दिया था कि सावरकर ने ही गांधी की हत्या के लिये हरी झंडी दिखाई थी. गांधी की हत्या के प्रथम प्रयास के पहले उसने सावरकर को नारायण आप्टे एवं नाथूराम गोडसे को गांधी की हत्या के लिये प्रेरित करते देखा था और अपने घर पर उन्हें आशीर्वाद देकर विदा किया था: “यशस्वी होउण या (सफल होकर आओ)”. आप्टे ने बाडगे से कहा था कि सावरकर ने गांधी की हत्या की मंजूरी दे दी थी.
सरदार वल्लभभाई पटेल, जो तत्कालीन उप प्रधानमंत्री एवं केन्द्रीय गृहमंत्री थे तथा गांधी हत्याकांड के मुकदमे में प्रधान सरकारी पक्ष थे, ने 27 पफरवरी 1948 को नेहरू को लिखी एक चिट्ठी में कहा था कि उनको पूर्ण विश्वास है कि हत्या के षड्यंत्र के रचयिता सावरकर हैं:
“यह सावरकर के प्रत्यक्ष निर्देशन में हिंदू महासभा की एक उन्मत्त शाखा ही थी जिसने हत्या का षड्यंत्र रचा था और उसे अंजाम तक पहुंचाया था.”
बाडगे के बयान पर अपना बचाव करते हुए सावरकर ने जो वक्तव्य दिया था वह बेईमानी भरा था. राॅबर्ट पेन ने अपनी पुस्तक ‘द लाइफ एंड डेथ आॅफ महात्मा गांधी’ में सावरकर की पैरवी का सारांश इस प्रकार लिखा था:
“उन्होंने (सावरकर ने) षड्यंत्रकारियों से कभी मुलाकात नहीं की; अगर की थी तो उस बैठक का षड्यंत्र से कोई लेना-देना नहीं था; वे अपने घर की सीढ़ियों से कभी नहीं उतरे; अगर उतरे थे, और अगर उन्होंने ‘सफल होकर वापस लौटो’ के रूप में विदाई के शब्द कहे थे, तो इसका अर्थ यही समझा जाना चाहिये कि वे षड्यंत्र से कहीं बिल्कुल दूर की किसी बात पर ऐसा कह रहे थे … सावरकर ने (बाडगे के) हर वाक्य को उसके संदर्भ के बाहर पेश किया और ऐसा दिखलाया कि उन बातों का कोई सटीक अर्थ नहीं निकलता है.”
अदालत ने बाडगे को सच्चा गवाह माना और सावरकर के खिलाफ परिस्थितिजन्य सबूतों को “प्रभावशाली” माना था – मगर अन्य गवाहों द्वारा किसी स्वतंत्र पुष्टि के अभाव में अदालत ने सावरकार को कोई सजा नहीं सुनाई.
मगर 1969 में कपूर जांच आयोग ने आरोप की पुष्टि करने वाले दो ऐसे स्वतंत्र गवाहों को खोज निकाला जिनकी गवाही से सावरकर का अपराध साबित हो जाता अगर उन्होंने मुकदमे के दौरान गवाही दी होती. सावरकर के अंगरक्षक, अप्पा रामचन्द्र और सावरकर के सचिव गजानन विष्णु दामले के बयानों के आधार पर जस्टिस कपूर आयोग ने निष्कर्ष निकाला कि “ये तमाम तथ्य एक साथ मिलाने से सावरकर और उनकी मंडली द्वारा हत्या की साजिश रचने के अलावा अन्य तमाम बातों का पूर्णतः खंडन हो जाता.”
जब वाजपेयी सरकार ने सन् 2003 में सावरकर की तस्वीर संसद भवन में लगवाई थी तो विश्वनाथ माथुर – जो भगत सिंह की पार्टी के एक स्वतंत्रता सेनानी थे और जिन्होंने अंडमन के सेल्युलर जेल में कैद की सजा काटी थी – ने इसका प्रतिवाद यह कहते हुए किया था कि “यह सरकार राष्ट्रीय शर्म के एक प्रतीक को वैधता की मर्यादा देने को कटिबद्ध है. न सिर्फ उन्होंने (सावरकर ने) ब्रिटिश सरकार से दया की भीख मांगी थी और वे महात्मा गांधी के हत्याकांड में एक आरोपी थे, बल्कि साथ ही वे द्विराष्ट्र सिद्धांत के भी एक पैरोकार भी थे.”
मोदी शासन और भाजपा ने साध्वी प्रज्ञा को, जिन्होंने कहा था कि गांधी का हत्यारा गोडसे एक देशभक्त था, सांसद बना दिया है. वे अभी तक खुलेआम गोडसे को भारत रत्न का पुरस्कार देने अथवा गांधी को “राष्ट्र-द्रोही” घोषित करने का प्रस्ताव नहीं पेश कर पा रहे हैं. भाजपा साध्वी प्रज्ञा के इस नजरिये के – कि गांधी के हत्यारे और ब्रिटिश राज के तलवाचाटू प्यादे ‘देशभक्त’ हैं, सबसे निकट इसी हद तक जा सकती है कि सावरकर को भारत रत्न की उपाधि दे दे.