नरेंद्र मोदी नीत सरकार की इस भारी और इकतरफा कार्रवाई की कैसे व्याख्या की जाए ? जो लोग कश्मीर के बाहर हैं, उनके लिए इसका क्या महत्व है ? शासक भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के घोषणापत्र में ही यह संकल्प वर्णित था कि धारा 370 द्वारा प्रदत्त जम्मू और कश्मीर की स्वायत्तता को खत्म किया जाए क्योंकि वह इसे मुस्लिम बहुल राज्य को दी गई विशेष गारंटी के बतौर देखता था, भाजपा घोषित रूप से हिंदू राष्ट्रवादी है और इसके नेता तथा कार्यकर्ता भारत को हिंदू राष्ट्र बना देने का अपना संकल्प दुहराते रहे हैं, जहां हिंदू वर्चस्ववाद का डंका बजेगा. जहां भारत सरकार महात्मा गांधी को सम्मान अर्पित करती है, वहीं पश्चिम में शासक पार्टी के वरिष्ठ राजनेता महात्मा गांधी की हत्या का जश्न मनाते हैं और हत्यारे नाथू राम गोडसे की वीरता का बखान करते हैं. भाजपा के एक सांसद दावा करते हैं कि भविष्य में चुनावों की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि लोग नरेंद्र मोदी को ऐसे राष्ट्रवादी नेता के बतौर देखने लगेंगे जिन्हें कोई चुनौती नहीं दे सकता है.
इस एजेंडा में मुस्लिम और ईसाई अल्पसंख्यकों को दुश्मन और बाधा के रूप में देखा जाता है. विभिन्न अधिकार संगठनों, विद्वानों और समाचार टिप्पणीकारों ने रोज-ब-रोज होने वाले भेदभावपूर्ण आचरणों, पूर्वाग्रहों और हिंसा को उजागर किया है, जिसे धार्मिक अल्पसंख्यकों को झेलना पड़ता है. सबसे बड़े धार्मिक अल्पसंख्यकों – मुस्लिमों – को शैतान बताकर उन्हें हाशिये पर डालना केंद्रीय विषयवस्तु बना हुआ है. अनेक मुस्लिमों की भीड़-हत्या कर दी गई है और अपराधियों को सजा देने की आवाज उठाने के बजाय शासक पार्टी ने ऐसी कार्रवाइयेां को जायज बताया है और कभी-कभी अपराधियों की प्रशंसा तक कर डाली है. भारत सरकार असम में एनआरसी के जरिये नागरिकों की पहचान करने की दुनिया की सबसे बड़ी कवायद कर रही है, जिससे दसियों लाख लोगों को संभावित रूप से राज्यविहीन बना दिया गया है, जिनमें एक बड़ी संख्या मुस्लिमों की है. ऐसी राज्यविहीनता नौकरशाही तंत्र के द्वारा पैदा की जा रही है और इसका पैमाना म्यांमार में झेलने वाले रोहिंग्या लोगों से भी ज्यादा बड़ा है. भारत के गृह मंत्री ने सार्वजनिक तौर पर एलान किया है कि सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि जो लोग अपनी नागरिकता प्रमाणित नहीं कर पाएंगे उन्हें भारत में रहने का अधिकार मिलेगा – बशर्ते कि वे मुस्लिम न हों.
भारत की आबादी की विशालता को देखते हुए अल्पसंख्यक अधिकारों का सवाल न सिर्फ भारतीयों के लिये, बल्कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिये भी प्राथमिक महत्व का होना चाहिए. भारत के अंदर वृहत्तर लोकतंत्रीकरण और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के दबाव के अभाव में भारत के हिंदू राष्ट्र में तब्दील हो जाने की संभावना बिल्कुल वास्तविक है.
कश्मीर में इन लोकतंत्र-विरोधी कार्रवाइयों से राजनीतिक शक्तियां लाभ बटोर सकती हैं और उग्रवाद भी नए सिरे से सर उठा सकता है, लेकिन मैंने अपनी कश्मीर यात्रा के दौरान गौर किया कि कभी-कभी वहां तैनात साधारण सैनिकों के पास राजनीतिक वर्ग की अपेक्षा संभावित समाधान की बेहतर समझ मौजूद रहती हैं. विरोधी आबादी के बीच गश्ती लगाते हुए भी वे अपने विचार जाहिर करेंगे कि कश्मीर में सैनिक समाधान नहीं, राजनीतिक समाधान की जरूरत है. शासक पार्टी कश्मीर मुद्दे का इस्तेमाल कर रही है ताकि वह सभी किस्म के विरोधों को राष्ट्र-विरोधी और पाकिस्तान-परस्त कह कर खामोश कर दे सके. यह अंधराष्ट्रवादी रवैया लोकतंत्र में एक खतरनाक प्रवृत्ति है. यह कश्मीरी मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा का जश्न मनाने और हिंसा के अपराधियों का गौरव-गान करने का माहौल मजबूत बनाती है.
वस्तुतः आम तौर पर, और खास करके कश्मीर के संदर्भ में सरकार की कार्रवाइयों के खिलाफ बोलने के लिए भारतीय नागरिकों को पहले से ज्यादा कीमत चुकानी पड़ रही है. सत्ता में बैठे हिंदू अंधराष्ट्रवादियों के लिये कश्मीरी मुस्लिम पक्के दुश्मन हैं – उन्हें रटे-रटाए ढंग से खतरनाक, सनकी राजद्रोही, अलगाववादी और आतंकवादी कहा जाता है – और इस प्रकार उनके हिंसक दमन को उचित ठहराया जाता है. जहां कश्मीर में इस भारी कानूनी रूपांतरण और राष्ट्रवाद के नाम पर गढ़ी गई बहुसंख्यावादी सहमति के जरिये लोकतांत्रिक विमर्श के हल्के ताने-बाने को भी छिन्न-विच्छिन्न कर दिया गया, वहीं भारत में लोकतंत्र की हिफाजत करने वाले संतुलनकारी कारकों को सार्वजनिक संस्थाओं और संवैधानिक निकायों के अंदर से किए जाने वाले बदलावों समेत कई तरीकों से शिथिल अथवा अप्रासंगिक बना दिया जा रहा है.
जहां भारत और पाकिस्तान कश्मीर के विभिन्न हिस्सों में आत्म-निर्णय और आत्म-प्रतिनिधित्व के संघर्ष लंबे समय से चल रहे हैं, वहीं कश्मीर घाटी का एक खास चरित्र लक्षण यह था कि अस्सी दशक के अंतिम वर्षों के पहले वहां हिंदू-मुस्लिम के बीच नफरत की राजनीति अपेक्षाकृत ना-मौजूद थी. वहां के गांवों और शहरों में कश्मीरी पंडित/हिंदू और सिख लोग कश्मीरी मुसलमानों के साथ-साथ रहते थे. 1987 में बहुचर्चित चुनावी धांधलियों के बाद भारतीय राज्य के खिलाफ शुरू हुए हथियारबंद विद्रोह के दौरान कश्मीरी पंडितों का बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ. सरकार और गैर-सरकारी शक्तियों की व्यापक चौतरफा हिंसा की स्थिति में धार्मिक अल्पसंख्यकों का यह विस्थापन घटित हुआ.
जम्मू और कश्मीर पर संप्रभुता का दावा करने वाला भारतीय राज्य बहुसंख्यकों का दमन करने के बावजूद इन अल्पसंख्यकों की हिफाजत करने में पूरी तरह नाकाम रहा. और तो और, सरकारों ने इस विस्थापन से उत्पन्न उनके दुख-तकलीफों को तमाम कश्मीरी मुसलमानों के लिये सामूहिक दंड का एक औजार बना लिया. धार्मिक अल्पसंख्यकों की हत्याओं की जांच-पड़ताल करने अथवा उनकी मूल भूमि पर उनकी वापसी के लिये वास्तविक प्रयास करने के बजाय भारत ने फूट डालो और राज करो का रुख अपना लिया. जैसा कि एमनेस्टी इंटरनेशनल ने रिपोर्ट की है, “जम्मू और कश्मीर पुलिस की एक रिपोर्ट (2008) में कहा गया कि इस राज्य में 1989 के बाद से 209 कश्मीरी पंडित मारे गए हैं, लेकिन सिर्फ 24 मामलों में आरोप दायर किए गए. अनेक मामलों, जिनमें संदिग्ध हथियारबंद ग्रुप के सदस्यों द्वारा कश्मीरी पंडितों को मारा गया – जैसे कि नदीमर्ग, शोपियां में 2003 में 24 कश्मीरी पंडितों की हत्या का मामला – में अभियोग चलाया ही नहीं जा सका.” भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस आधार पर इन मौतों की दुबारा जांच करवाने से इन्कार कर दिया कि “27 वर्षों से भी ज्यादा का समय पार हो गया है. इससे कोई सार्थक उद्देश्य पूरा नहीं होगा, क्योंकि इतने विलंब के बाद कोई साक्ष्य मिलना संभव नहीं है.”
अब आप इससे क्या निष्कर्ष निकालेंगे अगर आप यह देखें कि कुल कितने कश्मीरी (अधिकांशतः मुस्लिम, किंतु सिर्फ वे ही नहीं) मारे गए (यह आंकड़ा 50,000 से लेकर 70,000 से भी ज्यादा तक जाता है) जिनमें गौकादल, छंदवाड़ा, छत्तीसिंहपुरा, सोपोर और डोडा जैसी जगहों पर हुए जन-संहारों के भी मामले शामिल हैं; कितनों को जबरन गायब किया गया (यह आंकड़ा 6000 से 10,000 तक जाता है); महिलाओं को अर्ध-विधवा बना दिया गया; कई महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया (जिसमें 1991 में कुनन-पोशपोरा के गांवों में सामूहिक बलात्कार भी शामिल है); कितने ज्यादा लोगों को यातनाएं दी गईं ; कितने बच्चों और नौजवानों को सुनवाई के बगैर हिरासतों में रखा गया. सभी कश्मीरियों ने – मुस्लिमों, हिंदुओं, सिखों, पुरुषों, महिलाओं और यौन-अल्पसंख्यकों ने बहुत पीड़ा झेली है. सरकार की ओर से इन विभाजनों का इस्तेमाल किया जाना तथा इन्हें और तीखा बनाना, और किसने कितना झेला है – इस विवाद को बढ़ावा देना काफी गैर-जिम्मेदाराना काम है. मानवाधिकार उल्लंघनों के अधिकांश मामलों में कभी सजा नहीं मिल पाती है, क्योंकि हिंसा और भेदभावपूर्ण आचरण प्रणालीगत होते हैं. वस्तुतः, ऐसे बहु-प्रकाशित मामले हैं जिनमें मानवाधिकार उल्लंघन के अपराधियों को पुरस्कृत और सार्वजनिक रूप से प्रशंसित किया जाता है.
हम जो कुछ देख रहे हैं वह राज्य की पूर्ण विफलता का मामला है जिसके साथ उसकी अपनी शर्मनाक हरकतों को देख पाने से उसका लगातार इन्कार भी जुड़ा हुआ है, जिसके चलते तमाम कश्मीरियों की मानवता और उनके दुख-दर्द को समझ कर उन्हें न्याय प्रदान करने की जरूरी शर्त ही खत्म हो जाती है. अन्य कश्मीरियों, खासकर मुस्लिमों के साथ हर नृशंस व्यवहार के जवाब में ‘कश्मीरी पंडितों का क्या’ – यह प्रचार करके राजनीतिक फायदा बटोरते रहना तो काफी आसान काम है.
कश्मीर में विभिन्न समुदायों के लिये आपसी सुलह-समझौता, न्याय और समानता के आधार पर आगे बढ़ना जरूरी है. भारत ने इस तरफ कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है. वस्तुतः, भारत सरकार के इस एकतरफा कदम से, जिसे व्यापक हलके में कश्मीरी मुस्लिमों की अवमानना व तिरस्कार के बतौर देखा जा रहा है, पहचान के आधार पर इन विभाजनों के स्थायी और असमाधेय बन जाने का खतरा पैदा हो गया है. इससे कष्ट और व्यथा के बगैर आगे बढ़ने की संभावना ही लुप्त हो जाती है.
फौरी जरूरत के बतौर यह उपसमिति भारत सरकार से अपील करना चाहती है कि:
जहां अंतरराष्ट्रीय संबंधों के किसी जानकार के लिये परमाणु शक्ति संपन्न दो देशों – भारत और पाकिस्तान – के बीच कश्मीर विवाद को लेकर चिंता करना जरूरी है, वहीं मानवाधिकारों पर सुनवाई के मकसद से इस मामले में जो लोग सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं – यानी कश्मीरी अवाम – उन पर ध्यान केंद्रित करना आवश्यक है. जहां अल्पसंख्यक अधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता की हिफाजत करने का प्रश्न उठता है, तो इस संदर्भ में न तो पाकिस्तान और न ही भारत का कोई खास रिकाॅर्ड रहा है ; दोनों देशों में सुरक्षा बलों पर यातनाओं, गैर-न्यायिक हत्याओं, जबरन गायब करने और मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोप लगते रहे हैं.
ऐसी स्थिति में, जब यहां तक कि भारत-पाकिस्तान-कश्मीर गतिरोध की यथास्थिति भी भारत की एकतरफा कार्रवाई से क्षत-विक्षत हो गई है, तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिये यह आवश्यक है कि वह इस क्षेत्र में शांति के लिये और साथ ही, कश्मीरी अवाम के संदर्भ में मानवीय विनाश को टालने के लिये हस्तक्षेप करे. ट्रंप-खान-मोदी किस्म की कूटनीति आशाजनक दिखाई पड़ सकती है, किंतु भारत और पाकिस्तान शासित कश्मीर के विभिन्न पक्षों को गंभीर साझीदारों के बतौर शामिल किये बगैर कोई भी स्थायी और मानवीय समाधान निकालना संभव नहीं है.
यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि मनमानी गिरफ्तारियां, विचारों की शांतिपूर्ण अभिव्यक्ति की गुंजाइश का सिकुड़ते जाना तथा इकट्ठा होने की स्वतंत्रता व अन्य लोकतांत्रिक अधिकारों पर प्रतिबंध लंबे समय से कश्मीरी जन-जीवन की खासियत बने हुए हैं. जो नई बात हुई है, वह है इन प्रतिबंधों का चरम व तीखा रूप ले लेना, तमाम लोकतांत्रिक मानदंडों की अवमानना किया जाना और न्याय, मर्यादा, आजादी व आत्मनिर्णय की मांग करने वाली कश्मीरी जनता के साथ वार्ता की सभी संभावनाओं को खत्म कर दिया जाना. कश्मीर में कहीं भी असहमति या विरोध की शांतिपूर्ण अभिव्यक्ति की कोई गुंजाइश न बच जाने की इस स्थिति में आखिरकार कश्मीरी अवाम को किस तरफ धकेला जा रहा है ? कश्मीर में अपनी कार्रवाइयों को विकास की ओर लक्षित बताते हुए भारतीय राज्य ने लोकतंत्र के हर-एक उसूल को भंग कर दिया है.
आपके ही एक महान देशवासी मार्टिन लूथर किंग के ही शब्दों में – “कहीं पर भी अन्याय हर जगह न्याय के लिये खतरा है.” कश्मीर में जो कुछ भी होता है या जिसे नजरअंदाज कर दिया जाता है उसका क्षेत्रीय और वैश्विक प्रभाव फैलता है; और इसीलिये यह महत्वपूर्ण है कि हम अभी तुरत आगे की ओर विवेकपूर्ण ढंग से गंभीर कदम उठाएं और मानवाधिकार, मौलिक लोकतंत्र तथा आजादी के आदर्शों की रक्षा के लिये कार्रवाई करें.
22 अक्टूबर 2019 के ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के संपादकीय में नौकरशाह प्रतीक हजेला, जो राज्य और केंद्र की भाजपा सरकारों द्वारा असम में एनआरसी के क्रियान्वयन की निगरानी कर रहे थे, को बलि का बकरा बनाए जाने और असम के बाहर हजेला का तबादला किए जाने पर सर्वोच्च न्यायालय की स्वीकृति पर एक टिप्पणी की गई है:
“यह घटनाक्रम इस नजरिये को ही संपुष्ट करता है कि शुरू से ही एनआरसी का क्रियान्वयन त्रुटिपूर्ण रहा है. लेकिन यह त्राुटि इसके अमल में नहीं, बल्कि इस बेतुके विचार में निहित है कि यह राज्य अपने पिछले अतीत में लौट सकता है और अपनी लगभग 3.5 करोड़ की आबादी में ‘विदेशियों’ की शिनाख्त कर सकता है ...”
“... इस समस्या की जटिलता को देखते हुए कोई भी नौकरशाही ढांचा सीधा-सरल अथवा सर्वमान्य एनआरसी प्रस्तुत नहीं कर सकता है. एनआरसी के पीछे का दृष्टिकोण इस हकीकत को खारिज कर सकता है कि सभी समाज राजनीतिक, भौगोलिक और आर्थिक कारणों से प्रेरित स्थानांतरणों से निर्मित होते हैं. जो राजनेता स्थानीय संस्कृति को अपना लेने वाली आप्रवासी आबादियों का हौवा खड़ा कर भय का माहौल बनाते हैं और यह दावा करते हैं कि इन आबादियों के स्थानांतरण को उलटने का नौकरशाही तरीका मौजूद है, वे ऐतिहासिक प्रक्रियाओं के बारे में अंधदृष्टि रखते हैं.”