वर्ष - 28
अंक - 47
09-11-2019

आपको यह नारा अटपटा-सा लग रहा होगा किन्तु ऐसे नारे गुंजायमान थे लाल किले के बाहर, जब आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों पर अंग्रेज अदालतों में मुकदमे चल रहे थे. आजाद हिन्द फौज के 17 हजार जवानों के खिलाफ चलने वाले मुकदमे के विरोध में जनाक्रोश के सामूहिक प्रदर्शन हो रहे थे. इन प्रदर्शनों में पुलिसिया जुल्म से दिल्ली, मुम्बई, मदुराई और लाहौर में 326 से अधिक लोगों की जान चली गयी थी, वे भारत मां के लिए सड़कों पर शहीद हो गये. यह वही समय था जब धूर्त शिरोमणि सावरकर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की हत्या करने को अंग्रेजों के साथ मिलकर मिलिट्री बोर्ड बनाने में पूरी ताकत से मदद कर रहा था.

आजाद हिन्द फौज के अनेकों अधिकारियों पर कोर्ट-मार्शल के लगभग दस मुकदमे चले. इनमें पहला और सबसे प्रसिद्ध मुकदमा दिल्ली के लाल किले में चला जिसमें कर्नल प्रेम सहगल, ले. कर्नल गुरुबख्श सिंह ढिल्लन तथा मेजर जनरल शाहनवाज खान पर संयुक्त रूप से चला मुकदमा है. इसे ही इतिहास में ‘लाल किला केस’ के रूप में जाना जाता है.

मेजर जनरल शाहनवाज को मुस्लिम लीग और ले. कर्नल गुरुबख्श सिंह ढिल्लन को अकाली दल ने अपनी ओर से मुकदमा लड़ने की पेशकश की, लेकिन देशभक्त सिपाहियों ने मजहबी तंजीमों को दरकिनार कर कांग्रेस द्वारा जो डिफेंस टीम बनाई गई थी, उसी टीम को अपना मुकदमा पैरवी करने की मंजूरी दी.

आजादी के आन्दोलन में ‘लाल किला ट्रायल’ का अहम स्थान है. लाल किला ट्रायल के नाम से प्रसिद्ध आजाद हिन्द फौज के इस ऐतिहासिक मुकदमे के दौरान उठे इस नारे ‘लाल किले से आई आवाज-सहगल, ढिल्लन, शहनवाज’ ने उस समय आजादी के हक के लिए लड़ रहे लाखों नौजवानों को एक सूत्र में बांध दिया था. वकील भूलाभाई देसाई और आसिफ अली इस मुकदमे के दौरान जब लाल किले में बहस करते, तो सड़कों पर हजारों नौजवान नारे लगा रहे होते.

कांग्रेस की डिफेंस टीम में सर तेज बहादुर सप्रू के नेतृत्व में वकील भूलाभाई देसाई, सर दिलीप सिंह, आसफ अली, जवाहरलाल नेहरू, बख्शी सर टेकचंद, कैलाशनाथ काटजू, जुगलकिशोर खन्ना, सुल्तान यार खान, राय बहादुर बद्रीदास, पी.एस. सेन, रघुनंदन सरन आदि शामिल थे. जो खुद इन सेनानियों का मुकदमा लड़ने के लिए आगे आए थे. सर तेज बहादुर सप्रू की अस्वस्थता के बाद वकील भूलाभाई देसाई ने टीम की अगुवाई की.

सारे मुल्क में सरकार के खिलाफ धरने प्रदर्शन हुए, एकता की सभाएं हुईं, किन्तु मई 2014 से पैदा हुए राष्ट्रवादियों के पुरखे कहीं नजर नहीं आये. वे सब अंग्रेजों के साथ मिलिट्री बोर्ड के गठन के लिए बेगारी कर रहे थे.

इस ट्रायल ने पूरी दुनिया में अपनी आजादी के लिए लड़ रहे लाखों लोगों के अधिकारों को जागृत किया. इस बीच इनकी फांसी की खबर को लेकर भारतीय जलसेना में विद्रोह शुरू हो गया. मुम्बई, करांची, कोलकाता, विशाखापत्तनम आदि सब जगह विद्रोह की ज्वाला फैल गई. इस विद्रोह को जनता का भी भरपूर समर्थन मिला.

इधर कांग्रेस के दिग्गज वकीलों के तर्क के आगे अंग्रेज सरकार बेबस हो गई. सहगल, ढिल्लन और शाहनवाज की 3 जनवरी, 1946 को हुई रिहाई पर ‘राइटर्स एसोसिएशन आफ अमेरिका’ तथा ब्रिटेन के अनेक पत्रकारों ने अपने अखबारों में मुकदमे के विषय में जमकर लिखा. इस तरह यह मुकदमा अंतर्राष्ट्रीय रूप से चर्चित हो गया. अंग्रेजी सरकार के कमाण्डर-इन-चीफ सर क्लाॅड अक्लनिक ने इन तीनों की उम्र कैद सजा माफ कर दी. बाकी के 17 हजार सैनिकों पर चल रहे मुकदमे भी कानूनी दावपेंचों के साथ दनादन खारिज होते गये.

बिना एक चवन्नी फीस लिये कांग्रेस का लीगल सेल देश की आँखों का नूर हो गया, उसे इससे बड़ी पूंजी और चाहिए भी क्या थी?

– अद्वैत बहुगुणा