वर्ष - 28
अंक - 44
19-10-2019
– कुणाल, बिहार राज्य सचिव, भाकपा(माले)

मुझे जानकारी थी कि पूरे बिहार की ही तरह पश्चिम चंपारण से गरीब-गुरबे रोजी-रोटी की तलाश में बाहर काम करने जाते हैं – बल्कि यहां से कुछ ज्यादा ही लोग जाते हैं. लेकिन यह पता नहीं था कि कश्मीर उनका पसंदीदा राज्य है. पूरे भरोसे व सम्मान के साथ वहां उन्हें काम करने का मौका मिलता है. बाहर से काम करने आए मजदूरों के साथ मेहमान की तरह स्थानीय लोगों का व्यवहार होता है. धारा 370 के खात्मे के बाद चंपारण के गांव की बहसों में गरीब-गुरबे सरकार के इस कदम का विरोध कर रहे हैं क्योंकि उनके खून-पसीने की कमाई के करोड़ों रुपये वहां बकाया रह गए. सेना के जवानों ने उन्हें कश्मीर से खदेड़ दिया. भूखे-प्यासे दो-दो, तीन-तीन दिन पैदल चलकर किसी तरह स्टेशन पहुंचे और फिर बिहार लौटे. कश्मीर के लोगों से उनकी कोई शिकायत नहीं है. उन लोगों ने कभी उनका पैसा नहीं रोका. लेकिन बैंक बंद कर दिए गए थे, फिर वे मजदूरों को कैसे पैसा चुकाते? काफी गुस्से में वे कश्मीर से अपने घर लौटे हैं और यहां पैसों के लाले पड़े हुए हैं. बिहार की भाजपा-जदयू सरकार को गरीबों की इस पीड़ा से कोई लेना-देना नहीं है. उलटे भाजपा-संघ के लोग धारा 370 को खत्म करने के फायदे गिनाने में लगे हैं. लेकिन कश्मीर से लौटे दसियों हजार लोगों – जिसमें हर जाति-समुदाय के लोग हैं – के गले यह फायदे की बात उतर नहीं रही है. वे लुटे-पिटे महसूस कर रहे हैं. उन्हें लग रहा है कि सरकार ने उनकी रोजी-रोट का एक बड़ा रास्ता खत्म कर दिया है.

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पश्चिम चंपारण के जिला मुख्यालय बेतिया में भाकपा(माले), खेग्रामस व ऐक्टू के संयुक्त बैनर से विगत 30 सितंबर 2019 को महाराजा काॅलेज पुस्तकालय में कश्मीर से लौटे मजदूरों की व्यथा पर एक परिचर्चा रखी गई. कुछेक मजदूरों का दर्द उनकी ही जुबानी सुनिए:

सरवन राम/जयराम पटेल (रमपुरवा, मैनाटांड़): हमारे साथ खोभारी राम, संजू राम सहित करीब 50 लोग पुलवामा से लौटे हैं. हम सभी वहां आइसक्रीम फैक्ट्री में काम करते थे व आइसक्रीम बेचते थे. स्थानीय लोगों से कभी कोई दिक्क्त नहीं हुई. फौजियों द्वारा हमें पीटा गया, गाली-गलौज कर अपमानित किया गया और वहां से भगा दिया गया. तीन दिन पैदल चलकर स्टेशन पहुंचे और छठे दिन अपने घर पहुंच सके. एक-एक मजदूर का 15-15 हजार रुपया बकाया है. यहां हम एक-एक रुपया के लिए भटक रहे हैं. कुल 7 लाख 50 हजार रुपए फंस गए. जितेन्द्र महतो का 30 हजार रुपया फंस गया है, तो संजीव राम का 10 हजार रुपया. आइसक्रीम फैक्ट्री में काम के दौरान संजीव राम का पैर भी टूट गया था.

जैनुल्लाह खां (कोल्हुआ चौतरवा, बगहा-1): अमरनाथ यात्रा शुरू होने वाली थी. ठीक उसी समय पुलिस वालों से सूचना मिली कि आपलोग कश्मीर छोड़ दीजिए. मुझे 3 लाख 50 हजार रुपया छोड़कर भागना पड़ा. मैं वहां टाइल्स लगाने का काम करता था.

नैमुल्लाह खां (बसंतपुर, बगहा-1): पांच रोज भूखे-प्यासे किसी तरह जान बचाकर वहां से भागकर घर पहुंचे हैं. मेरा पूरा सामान वहीं छूट गया. मेरे साथ बीस मजदूर थे. सब मिलाकर 3 लाख रु. वहां बाकी रह गया.

अजय महतो (खाप टोला, नौतन): हम वहां राजमिस्त्री का काम करते थे. हमने वहां मकान बनाने का ठेका ले रखा था. हमारे साथ 10 मजदूर और 6 मिस्त्री थे. मिस्त्री का 1 लाख और मजदूर का 50 हजार रु. छोड़कर भागना पड़ा.

मोहम्मद अब्दुल्लाह (बसंतपुर, बगहा-1): हम वहां 6 बरस से सिलाई का काम करते थे. कोई परेशानी नहीं थी. हमारा 3 लाख रु. और सामान फंस गया है.

ठग राम (लइया टोला, बेतिया ग्रामीण): हम दो लोग एक ही परिवार के काम करते थे. 50 हजार रु. फंस गया है. हमारे गांव से 100 मजदूर कश्मीर से लौटे हैं.

जफर इमाम (सिसवा बसंतपुर, बगहा - 1): मैं अनंतनाग में राज मिस्त्री का काम करता था. मेरे साथ 7 मजदूर थे. 5 अगस्त को ही कर्फ्यु लग गया. मेरा 7 हजार रु. फंस गया है. किसी तरह भूखे-प्यासे भागकर जान लेकर लौटे हैं. घर लौटकर भुखमरी की स्थिति बनी हुई है.

बुनीलाल प्रसाद (सेखवना, बेतिया ग्रामीण): हम बाप-बेटा दोनों कश्मीर में राजमिस्त्री का काम करते थे. हमारा एक लाख पचास हजार रुपया फंस गया है.

यह वहां से लौटे कुछेक मजदूरों का बयान  है. सिरिसिया, सिकटा में 75 लोग लौटे हैं. मुशहर जाति के सिर्फ 13 लोगों का 2 लाख 88 हजार रुपया फंसा हुआ है. श्रम बाजार में रोज श्रम बेचने वालों की मजदूरी तो नहीं फंसी, लेकिन वे भी गुस्से में हैं कि यहां बिहार में कोई काम ही नहीं है और वहां से काम छोड़कर बिहार लौटना पड़ा है. डेढ़ से 2 लाख की मजदूरी वहां कमा लेते थे.

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पश्चिम चंपारण भाकपा-माले की जिला कमिटी में साथियों ने बताया कि चंपारण के मजदूर अनेक तरह के काम वहां करते थे – सेव, अखरोट के बागान में तुराई से लेकर धान-सरसों की कटाई, निर्माण कार्य में मजदूर व राजमिस्त्री, बढ़ई, आइसक्रीम-पान-गुटखा बेचना, ईंट पाथना, कपड़ा सिलाई, मोजैक रगड़ाई, टाइल लगाना आदि. लद्दाख भी बड़ी संख्या में लोग मजदूरी करने जाते हैं. रमपुरवा के मजदूरों ने बताया कि अप्रील से हमारे गांव के लोग आइसक्रीम बेचते हैं और सितंबर के महीने से धान की कटनी करते हैं. बगहा-1 प्रखंड के अकेले कोल्हुआ-चौतरवा गांव से करीब 2 हजार मजदूर कश्मीर में काम करते हैं. काॅ. राम अवध राय ने बताया कि उनका लड़का सुदामा राय जम्मू से 52 किलोमीटर आगे कटरा में काम करता था. वहां सेव बागान, राजमिस्त्री व लेबर के रूप में लोग काम करते हैं. लोगों के पास पैसा नहीं था. पुलिस व सेना के लोगों ने सबों को खदेड़ दिया. भूखे-प्यासे कई किलोमीटर चलकर कटरा, ऊधमपुर व जम्मू से लोगों ने ट्रेनें पकड़ी. राम अवध जी ने बताया कि उनके गांव के लोग सालाना 5-6 करोड़ रु. कमा कर लाते थे. उनका अनुमान है कि करीब 50 लाख रु. गांव वालों का वहीं फंस गया है. कोल्हुआ चौतरवा गांव का तो पूरा जीवन एक तरह से कश्मीर पर ही आश्रित है.

बिहार में अभी पर्वाें का मौसम है. दीपावली के बाद छठ है. इसमें बड़ा खर्च है, लेकिन लोगों की जेब एकदम से खाली है. कार्तिक का महीना गरीबों के लिए बेहद संकट भरा होता है. महाराजा काॅलेज पुस्तकालय में आयोजित जनसंवाद के कार्यक्रम में एक स्वर से कश्मीर से लौटे मजदूरों को तत्काल मुआवजा, उनके फंसे रुपयों की बरामदगी और वैकल्पिक रोजगार की मांग उठी. भाकपा-माले ने इन सवालों पर आंदोलन की योजना भी बनाई है. कश्मीर से लौटे लोगों की सूची बनायी जा रही है. एक गांव - सिरिसिया, सिकटा की रिपोर्ट आई है. कुल 75 मजदूरों का 10 लाख 74 हजार रु. फंस गया है.

विकास के तमाम दावों के बावजूद रोजी-रोटी की तलाश में बिहार के मजदूरों का पलायन एक स्थाई परिघटना बनी हुई है. यह राज्य की आमदनी का भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. चंपारण जैसे जिलों में जहां जमीन पर इस्टेटों व चीनी मिलों का कब्जा है, गरीबों के लिए रोजी-रोटी की तलाश में पलायन ही एकमात्र विकल्प बचता है. सरकार को प्रवासी मजदूरों के हितों की गारंटी करनी चाहिए.

कश्मीर में कार्यरत लोगों के बारे में जुटायी गई एक प्राथमिक रिपोर्ट के मुताबिक प. चंपारण जिले के बगहा, रामनगर, मैनाटांड़, नरकटियागंज, गौनाहा, सिकटा, बेतिया ग्रामीण, मझौलिया, बैरिया प्रखंडों के कुल 95 गांवों के 6,372 लोग वापस लौटकर आए हैं.