वर्ष - 28
अंक - 40
23-09-2019

इस वर्ष 14 सितम्बर को (जिसे भारत सरकार ने ‘हिंदी दिवस’ बना दिया है), केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा, “भाषाओं और बोलियों की विविधता हमारे राष्ट्र की ताकत है. मगर हमारे देश को एक भाषा अपनाने की जरूरत है ताकि विदेशी भाषाओं को यहां कोई जगह न मिले. इसी कारण हमारे स्वतंत्रत सेनानियों ने हिंदी को राजभाषा बनाने की कल्पना की थी.” उसके कुछ देर बाद ही उन्होंने एक भाषण में सुझाव दिया कि “बहु-पार्टी लोकतांत्रिक प्रणाली हमारे देश के नागरिकों की आकांक्षाओं को पूरा करने में नाकाम रही है” और इसी कारण से मतदाताओं ने मोदी सरकार को पूर्ण बहुमत दिया है.

ये वक्तव्य हमें इस बात की याद दिलाते हैं कि आरएसएस को भारतीय की विविधता से – भारत की बहुतेरी भाषाओं, बहुतेरी संस्कृतियों, बहुतेरे किस्म के खान-पान, बहुतेरे धर्मों से – नफरत है और उन्हें इससे डर भी लगता है. वे चाहते हैं कि इस वस्तुगत रूप से मौजूद, गौरवशाली विविधता (और वह संघीय लोकतंत्र जो इस विविधता का सम्मान करता है) को खत्म कर उसकी जगह एक मिथकीय “एक राष्ट्र, एक धर्म, एक भाषा, एक पार्टी, एक नेता” कायम कर दिया जाय.

पिछले महीने, मोदी सरकार ने यह घोषित करते हुए धारा 370 को रद्द कर दिया कि यह कदम “एक राष्ट्र, एक संविधान, एक कानून” के उनके सिद्धांत के अनुरूप है. यह दावा और किसी नहीं बल्कि खुद अमित शाह ने खारिज कर दिया जब उन्होंने उत्तर-पूर्वी भारत के राजनेताओं की एक बैठक में यह आश्वासन दिया कि उत्तर-पूर्व के राज्यों की विशिष्ट पहचानों को सुरक्षित रखने के लिये धारा 371 को जस-का-तस बरकरार रखा जायेगा!

अगर शाह इस बात को स्वीकार करते हैं कि “भाषाओं और बोलियों की विविधता हमारे राष्ट्र की ताकत है”, तो फिर वे एक भाषा को “राष्ट्रभाषा” घोषित करके उसे अन्य भाषाओं से ऊपर स्थान देकर इस ताकत को क्यों क्षतिग्रस्त करना चाहते हैं, उसे क्यों विनष्ट करना चाहते हैं? भारतीयता एक जैसा होने में नहीं बसती है. भारत में “विविधता में एकता” सिर्फ उस स्थिति में बरकरार रह सकती है जब भारतीय लोग आपस में एक-दूसरे की विविधतापूर्ण भाषाओं, संस्कृतियों, खान-पान, धर्मों को समान मानते हुए उनका सम्मान करने में एकताबद्ध रहें.

भाजपा द्वारा भारत के समकक्ष केवल हिंदी को ही मान्यता देने और उसे सभी भारतवासियों पर लाद देने की कोशिशें साफ तौर पर असमी, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संथाली, सिन्धी, तमिल, तेलुगू और उर्दू बोलने वाले लोगों का जानबूझकर अपमान करना हैं. ये सिर्फ उन भाषाओं की सूची है जिनको संविधान की आठवीं अनुसूची में हिंदी के साथ-साथ “आधिकारिक” भाषाओं के रूप में भारत में स्वीकार किया जाता है. इनके अलावा भारत में 1700 से ज्यादा भाषाएं विभिन्न अंचलों में बोली जाती हैं.

भारत में साम्प्रदायिक दक्षिणपंथ की शक्तियों ने ही सर्वप्रथम, भारत की स्वाधीनता के पहले से ही, “हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान” के नारे को लागू करने की कोशिश की थी. तब से इन शक्तियों ने तथाकथित “हिंदी बेल्ट” को भारतीय राजनीति की गद्दी के बतौर पेश किया है, और दावा किया है कि हिंदी ही वह एकमात्र भाषा है जिसको भारतीयों की सबसे बड़ी तादाद द्वारा बोला जाता है. मगर यह दावा तथ्यों द्वारा साबित नहीं होता है.

पहली बात तो यह है कि अगर उत्तर भारतीय राज्य सचमुच एक “हिंदी बेल्ट” हैं, तो इन राज्यों में स्कूली छात्र हर साल इतनी बड़ी तादाद में हिंदी की परीक्षा में फेल कैसे हो जाते हैं? 2019 में उत्तर प्रदेश बोर्ड की परीक्षा में दसवीं कक्षा और बारहवीं कक्षा में दस लाख से ज्यादा छात्र हिंदी के पर्चे में पफेल हो गये. इसका कारण यह है कि राजनीतिक प्रचार के विपरीत, हिंदी इन छात्रों की मातृभाषा नहीं है, जो विभिन्न किस्म की अन्य भाषाएं (जैसे अवधी, ब्रजभाषा, भोजपुरी आदि) बोलते हैं. ये भाषाएं कोई बोलियां नहीं हैं, जो हिंदी से “निचले दर्जे” की मानी जायें: वे स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली मानकीकृत, आधिकारिक, संस्कृतनिष्ठ “हिंदी” से कहीं ज्यादा भावों को अभिव्यक्त कर सकती हैं.

लुब्बे लुबाब यह है कि हिंदी को लादना न सिर्फ भारत की अन्य भाषाओं के साथ अन्याय है, यह खुद हिंदी तथा साथ ही साथ उत्तर भारत की समृद्ध भाषाई विविधता के प्रति भी अन्याय है.

1914 में लेनिन ने रूस में अनिवार्य आधिकारिक भाषा को लादने के खिलाफ तर्क देते वक्त अपने पाठकों को याद दिलाया था कि “अनिवार्य आधिकारिक भाषा रूस के राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों के खिलाफ जबर्दस्ती होगी, उनके खिलाफ डंडे का इस्तेमाल होगा”. बेहतर है कि भारत इस सलाह पर कान दे. किसी एक राष्ट्रीय अथवा “आधिकारिक” भाषा को बढ़ावा देना तथा उसे तमाम भाषाओं पर बलपूर्वक थोपना भारत को विभाजित करेगा, उसे एकताबद्ध नहीं करेगा. भारत की विविध भाषाओं, विभिन्न धर्मों और राज्यों के संघीय अधिकारों पर बुलडोजर चलाना भारत को विभाजित करेगा, उसे एकताबद्ध नहीं करेगा.

भारत की एकता और विविधता को बुलंद करने के हित में यह उचित होगा कि “हिंदी दिवस” मनाने के बजाय उसकी जगह “मातृभाषा दिवस” का प्रचलन आरंभ किया जाये, जिसमें हर भारतीय को उसकी अपनी मातृभाषा को, और साथ ही भारत की भाषाई विविधता को बुलंद करने के लिये प्रोत्साहित किया जाये.