[ भाकपा(माले) 2 मार्च को पटना के गांधी मैदान में जन-आंदोलनों के महाजुटान की तैयारी कर रही है. इस संदर्भ में महासचिव कामरेड दीपंकर भट्टाचार्य की ‘द हिंदू’ की शोभना नायर के साथ बिहार के मौजूदा हालात पर बातचीत.]
प्रश्न : हाल के बजट घोषणाओं और ‘डबल इंजन’ के दावों के साथ, एनडीए बिहार चुनाव को लेकर आत्मविश्वास दिखा रहा है. महागठबंधन की क्या स्थिति है?
उत्तर : मुझे लगता है कि एनडीए का यह आत्मविश्वास पूरी तरह निराधार है. अगर आप 2020 के विधानसभा चुनाव को देखें, तो एनडीए बड़ी मुश्किल से जीत दर्ज कर सका था. दिल्ली में आम आदमी पार्टी की एक बेहद लोकप्रिय सरकार थी, जो बिजली, पानी, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे बुनियादी मुद्दों पर काम कर रही थी. इसके बावजूद, केंद्र सरकार द्वारा की गई घेराबंदी और असमान राजनीतिक हालात के चलते वह चुनाव हार गई, जबकि वह एक दशक से अधिक समय तक सत्ता में रही थी.
बिहार में पिछले 20 सालों से एक नाकाम सरकार सत्ता में है, जो मूल रूप से एनडीए की ही सरकार रही है. सिर्फ दो बार, जब नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद के साथ हाथ मिलाया, तब थोड़े समय के लिए सत्ता संतुलन बदला, लेकिन ज्यादातर समय यहां एनडीए का ही शासन रहा. बिहार के हालात देखें, तो साफ है कि सरकार अपने वादों को पूरा करने में पूरी तरह असफल रही है. राज्य में व्यापक गरीबी, बेरोजगारी और पलायन जैसी गंभीर समस्याएं बनी हुई हैं. नीतीश कुमार ने कहा था कि वे अपराध, भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता (3 सी) से समझौता नहीं करेंगे, लेकिन हकीकत यह है कि उन्होंने न केवल समझौता किया, बल्कि इन तीनों का एक खतरनाक मिश्रण परोस दिया है.
बिहार में सिर्फ सत्ता विरोधी लहर नहीं है, बल्कि अधूरी आकांक्षाओं के चलते बदलाव की तीव्र चाह भी है. साथ ही, 2024 के आम चुनाव में हमारा प्रदर्शन भी काफी अच्छा रहा. जहां तक ‘डबल इंजन’ का सवाल है, तो इसने बिहार को केवल दोहरी आपदाएं ही दी हैं. महाकुंभ जैसे आयोजनों में प्रयागराज और दिल्ली में भगदड़ मची. बिहार इस डबल-इंजन प्रयोग का सबसे बड़ा शिकार बना है.
प्रश्न : आपने 2024 के चुनाव का जिक्र किया. महागठबंधन में सबसे खराब स्ट्राइक रेट राजद का रहा. उन्होंने 23 सीटों पर चुनाव लड़ा और सिर्फ 4 पर जीत हासिल की. क्या राजद आपके लिए बोझ बन रही है?
उत्तर : मैं समझता हूं कि हमें अपने गठबंधन के प्रदर्शन का क्षेत्रवार विश्लेषण करना चाहिए. दक्षिण बिहार में, 2020 के विधानसभा चुनाव और 2024 के आम चुनाव दोनों में हमारा प्रदर्शन अच्छा रहा. लेकिन उत्तर बिहार में हम अच्छा नहीं कर पाए. यहां राजद भी उतनी मजबूत नहीं है क्योंकि इसके मूल वोट बैंक में विभाजन हुआ है. पूरे महागठबंधन को – हर पार्टी को अलग-अलग और मिलकर – उत्तर बिहार पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है.
प्रश्न : भाकपा(माले) 2 मार्च को एक सार्वजनिक रैली का आयोजन कर रही है, जो संभवतः विधानसभा चुनाव अभियान की आपकी पहली बड़ी सभा होगी. आपका राज्य के लिए क्या संदेश होगा?
उत्तर : हम ‘बदलो बिहार, महाजुटान’ के नारे के साथ एकजुट हो रहे हैं. यह उन जनसंघर्षों का महासंगम है जो पहले से ही जारी हैं. हम देख रहे हैं कि लोग बेदखली और विस्थापन के खिलाफ और सुरक्षित आजीविका के लिए संघर्ष कर रहे हैं. हाल के एक सर्वेक्षण के अनुसार, बिहार के दो-तिहाई लोग 10,000 रूपये से कम मासिक आय पर गुजर-बसर कर रहे हैं. हमें कोई नया मुद्दा गढ़ने की जरूरत नहीं है, बल्कि इन मौजूदा संघर्षों की स्वाभाविक एकजुटता को मजबूत करना है और भाजपा द्वारा बनाए जा रहे नकली मुद्दों से सतर्क रहना है – जैसे उन्होंने झारखंड में ‘घुसपैठ’ का मुद्दा उछालकर करने की कोशिश की थी.
प्रश्न : आपको 2020 के विधानसभा चुनाव में 19 सीटें दी गई थीं, जिनमें से आपने 12 पर जीत दर्ज की. आपकी स्ट्राइक रेट अन्य सहयोगियों से बेहतर रही. क्या इस बार आपको अपनी न्यूनतम सीटों की संख्या को लेकर स्पष्टता है, जिस पर कोई समझौता नहीं होगा?
उत्तर : सीट-बंटवारे पर अभी बातचीत शुरू नहीं हुई है. लेकिन यह सिर्फ हमारा आकलन नहीं, बल्कि एक आम समझ है कि अगर 2020 में भाकपा(माले) को ज्यादा सीटों पर लड़ने का मौका मिला होता, तो नतीजे अलग हो सकते थे. यही बात 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए भी सही है – हमें सिर्फ तीन सीटें मिलीं, जिनमें से दो पर जीत हासिल की. गठबंधन के रूप में हमारा लक्ष्य बेहतर प्रदर्शन करना है – हम आखिरी मुकाम तक पहुंचना चाहते हैं. हमें उम्मीद है कि सीटों का बंटवारा जमीनी हकीकत के मुताबिक और व्यावहारिक होगा.
प्रश्न : हाल ही में तीन विधानसभा चुनावों में लगातार हार के बाद कांग्रेस को लेकर तीखी आलोचना हो रही है. बिहार में गठबंधन में कांग्रेस की मौजूदगी कितनी अहम है?
उत्तर : कांग्रेस देश की मुख्य विपक्षी पार्टी है. अगर भाजपा को सत्ता से बाहर करना है, तो यह एक कमजोर कांग्रेस के साथ संभव नहीं होगा. एक मजबूत और सक्रिय कांग्रेस न केवल कांग्रेस पार्टी के लिए, बल्कि उन सभी के लिए फायदेमंद है जो भारत में राजनीतिक बदलाव चाहते हैं. यह सच है कि कांग्रेस 1980 के दशक के अंत से अकेले अपने दम पर सत्ता में नहीं रही है और बिहार के कई हिस्सों में उसका संगठन लगभग न के बराबर है. उन्हें आत्ममंथन करने की जरूरत है.