वर्ष - 34
अंक - 4
15-02-2025

आम आदमी पार्टी की हार और 27 साल बाद दिल्ली की सत्ता में भाजपा की वापसी कराने वाले दिल्ली विधान सभा चुनाव के नतीजे ज्यादा चौंकाने वाले नहीं हैं. दिल्ली की राजनीति पर बारीक नजर रखने वाले लोगों को पहले से ही यह आभास था कि इस बार आम आदमी पार्टी के वोटों में काफी गिरावट आएगी और उसका फायदा सीधे भाजपा को होगा. हालांकि तब भी लोग अनुमान लगा रहे थे कि शायद आम आदमी पार्टी किसी तरह अपनी सरकार बना लेगी. पर न सिर्फ आम आदमी पार्टी सरकार बनाने से काफी दूर रह गयी बल्कि आतिशी सिंह और गोपाल राय को छोड़ दें, तो अरविन्द केजरीवाल सहित उसके बाकी सभी प्रमुख चेहरे चुनाव हार गए. दिल्ली में पड़े वोटों के प्रतिशत को देखें तो लोगों का यह अनुमान गलत नहीं था. आम आदमी पार्टी को मिले वोटों में उतनी गिरावट नहीं है, जितनी उसकी सीटें कम हुई हैं. अगर 48 सीटें जीतने वाली भाजपा को 47.15 प्रतिशत वोट मिला है, तो मात्र 22 सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी को भी 43.57 प्रतिशत वोट मिले हैं. दोनों के वोट प्रतिशत में मात्रा 3.6 प्रतिशत का ही अंतर है.

दिल्ली के चुनाव नतीजे बता रहे हैं कि आप के वोटों में इस बार 10 प्रतिशत की गिरावट आई है. कुछ विश्लेषक और आप नेता इसके लिए कांग्रेस को दोष दे रहे हैं. जबकि कुछ विश्लेषक केंद्र सरकार द्वारा चुनाव के दौरान 8वें वेतन आयोग और 12 लाख रूपये तक की आमदनी पर टैक्स छूट की घोषणा को इसका कारण बता रहे हैं. ये दोनों विश्लेषण दिल्ली की जमीनी सच्चाइयों से मेल नहीं खाते हैं. पहली बात तो यह है कि दिल्ली में कांग्रेस को मिले वोटों का बड़ा हिस्सा आप सरकार और आम आदमी पार्टी की नीतियों से नाराज हिस्सा है. अगर वहां कांग्रेस चुनाव न लड़ती या आप और कांग्रेस का गठबंधन होता तो कांग्रेस को मिले वोटों का बड़ा हिस्सा भाजपा की ही झोली में जाता और आप की सीटों में और गिरावट आती. दूसरा, दिल्ली में 12 लाख वार्षिक आमदनी वाला मध्यवर्ग और सरकारी कर्मचारियों का बड़ा हिस्सा भाजपा का सबसे मजबूत आधार है. उस आधार में एक छोटा ’सा ही प्रगतिशील हिस्सा है जो भाजपा के खिलाफ रहता है. इस लिए केंद्र सरकार की ऐसी घोषणाओं का आप के वोट आधार पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है. यह अलग बात है कि भाजपा-आरएसएस ने इस बार दिल्ली की सत्ता में लौटने के लिए साम-दाम-दंड भेद के साथ ‘करो या मरो’ जैसा अभियान चलाया था. इसमें उपराज्यपाल निवास और चुनाव आयोग की भूमिका भी सर्वविदित है.

दिल्ली के चुनाव नतीजे बताते हैं कि आप ने अपने 10 वर्षों और खासकर पिछले पांच वर्षों के शासन में अपने जिस मजबूत वोट आधार को खोया है, उसमें दिल्ली का मेहनतकश हिस्सा ही प्रमुख है. इस मेहनतकश हिस्से के अन्दर आप ने जो उम्मीदें जगाई थी, उसने ही आप को दिल्ली में 70 में से 67 और फिर 62 सीटों की जीत तक पहुंचाया था. मगर इन 10 वर्षों के शासन में आप ने उन मेहनतकशों के लिए ऐसा कुछ भी नहीं किया, जिससे उनका आप से मोहभंग हो गया. इसमें सबसे ऊपर आते हैं दिल्ली के 1 लाख ऑटो चालक. पिछले तीन चुनावों में दिल्ली के ऑटो चालक खुल कर आप के प्रचार में रहे, पर उनकी समस्याएं हल होने के बजाए जटिल होती गयी हैं. ई रिक्शों की बढ़ती  संख्या, मोटर साइकिलों की बढ़ती रैपिड सर्विस, डीटीसी में महिलाओं की बिना टिकट यात्रा ने उनके कारोबार को बुरी तरह प्रभावित किया है. उनकी मांग है कि ट्रैफिक नियमों में बदलाव कर ई रिक्शों और मोटरसाइकिलों की रैपिड सर्विस के लिए दिल्ली की गलियों वाले रूट निर्धारित किये जाएं और उन्हें मुख्य सड़कों पर चलने की इजाजत न हों और उनके लिए सभी जगह स्टैंड निर्धारित हों, ऑटो चालकों और उनके परिवार की सामाजिक सुरक्षा का दायित्व सरकार ले. लेकिन, उनकी मांगों की अनदेखी होती रही. इस बार आरएसएस-भाजपा ने एक विशेष अभियान चलाकर आप के इस मजबूत आधार को पूरी तरह तोड़ लिया था.

आप को पिछले दो चुनावों में अपार बहुमत तक पहुंचाने वालों में दिल्ली के डीटीसी वर्कर्स, शिक्षा व स्वास्थ्य विभाग जैसे राज्य सरकार में कार्यरत संविदा व ठेका कर्मचारी, शिक्षक व दिल्ली के मजदूर रहे हैं. अपने 10 वर्षों के कार्यकाल में आप सरकार ने न सिर्फ इनकी अनदेखी की, बल्कि दिल्ली में कार्यरत लाखों मजदूरों को सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम वेतन मिलने की गारंटी तक नहीं कर पाई. दिल्ली के कामगारों की झुग्गी बस्तियों और अनियमित कॉलोनियों पर केंद्र सरकार द्वारा नियंत्रित डीडीए के बुल्डोजरों के हमलों के वक्त आप की दिल्ली सरकार व पार्टी कहीं भी इन गरीबों के साथ खड़ी नहीं दिखी. उत्तर पूर्वी दिल्ली में भाजपा-आरएसएस द्वारा योजनाबद्ध तरीके से कराए गए दंगे हों या जहांगीर पुरी में संघी गिरोह के उत्पात और उसके बाद अल्पसंख्यकों के घरों-दुकानों पर चले डीडीए व पुलिस के बुल्डोजर हों, पीड़ितों के साथ आप की सरकार व पार्टी कोसों दूर तक नजर नहीं आ रही थी. सीएए/एनआरसी विरोधी आन्दोलन पर संघ व केंद्र सरकार के हमलों पर आप चुप्पी साधे रही. जम्मू कश्मीर से धारा 370 को हटाने का आप ने खुला समर्थन किया. रोहिंग्या के नाम पर संघ द्वारा मुस्लिमों के खिलाफ चलाए जा रहे घृणा अभियान में खुद भी बढ़-चढ़ कर शामिल होने और राम मंदिर उद्घाटन के समय खुद को सबसे बड़ा हिन्दू दिखाने की आप नेताओं की कार्यशैली ने आप को जनता के उस प्रगतिशील हिस्से से भी अलगाव में डाल दिया, जो अब तक आप को एक नई राजनीति का वाहक मान रहा था. इन मुद्दों पर लोगों को अरविंद केजरीवाल और नरेंद्र मोदी में कोई फर्क नहीं दिख रहा था.

भाजपा-कांग्रेस से लाकर लोगों को पार्टी के टिकट देना, समर्पित कार्यकर्ताओं को छोड़कर ज्यादातर अमीर लोगों को राज्य सभा में भेजना, शराब घोटाले के आरोप, मुख्यमंत्री निवास को सजाने पर भारी खर्च और अपनी पूर्व घोषणाओं के विपरीत वीआइपी कल्चर में ढलने के कारण आम आदमी की उनकी छवि को नुकसान हुआ. लोगों के बीच आप और अन्य सत्ताधारी पार्टियों के बीच का फर्क मिटता गया. ऊपर से पिछले पांच वर्षों में उपराज्यपाल कार्यालय द्वारा राज्य सरकार के कामों डाले जा रहे अवरोध, केंद्र की एजेंसियों द्वारा आप के प्रमुख नेताओं के खिलाफ चलाई गयी मुहिम और मुख्य मंत्री सहित प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारी ने आप सरकार और आप पार्टी की पुरानी छवि के खिलाफ ऊपर से एक माहौल बनाने का काम किया. दिल्ली का चुनाव अभियान ज्यों-ज्यों आगे बढ़ा, आम आदमी पार्टी भाजपा के चुनाव व प्रचार तंत्र के आगे कमजोर दिखनी शुरू हो गयी थी. 5 फरवरी को वोटिंग के दिन ही आप नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की नई दिल्ली सीट बुरी तरह फंसी नजर आने लगी थी.

ऐसा नहीं है कि आप सरकार ने पिछले 10 वर्षों में कोई काम नहीं किया था. सत्ता में आकर शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, अनियमित कालोनियों का विकास आदि के मामले में आप की सरकार ने दिल्ली में किसी भी सरकार से बेहतर काम किया है. दिल्ली के सरकारी स्कूलों की दशा व स्तर में गुणात्मक सुधार, मोहल्ला क्लीनिकों व दिल्ली सरकार के अस्पतालों में गरीबों का मुफ्त व सुलभ इलाज, 200 यूनिट तक बिना शुल्क बिजली की सुचारू आपूर्ति, बिना शुल्क पानी और महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा, बुजुर्गों, विधवाओं, दिव्यान्गों को 2000 रुपए प्रतिमाह पेंशन – दिल्ली के लोगों को आप सरकार द्वारा दी गयी ये ऐसी सुविधाएं थीं जिनके लिए बाकी राज्यों की जनता आज भी तरस रही है. पर ये सुविधाएं आप सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में ही दे दी थी. उसका दूसरा कार्यकाल हालांकि केंद्र द्वारा कानून बदल कर उसे काम करने से रोकने के खिलाफ और खुद की घेरेबंदी के खिलाफ लड़ते ही गुजर गया. पर दूसरे कार्यकाल में अगर आप सरकार दिल्ली के मेहनतकशों की आकांक्षाओं को पूरा करने की तरफ प्राथमिक कदम भी उठाती, सड़क, सफाई, प्रदूषण जैसे सवालों के समाधान की ईमानदार कोशिश करती तथा वैचारिक रूप से आप और भाजपा के बीच एक स्पष्ट विभाजन के रास्ते पर चलती, तो उसे इस हार का सामना नहीं करना पड़ता. दिल्ली हार के बाद आम आदमी पार्टी के भविष्य को लेकर भी चर्चाएं शुरू हो गयी हैं. आने वाले समय में आप नेताओं पर भाजपा की केंद्र सरकार की एजेंसियों के हमलों का बढना तय है. ऐसे में आप पार्टी कैसे उन हमलों का मुकाबला करती है और कैसे अपने खोये इस जन आधार को फिर से जोड़ने की कोशिश करती है, इस पर ही उसका भविष्य टिका है.

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