इलाहाबाद, जिसे अब प्रयागराज नाम दिया गया है, या हरिद्वार, उज्जैन जैसे अन्य स्थलों पर गंगा-यमुना के संगम तट पर साधुओं और आम हिंदू श्रद्धालुओं का कुंभ मेले में जुटना हिंदू परंपरा का एक प्राचीन हिस्सा रहा है. शुरुआती दौर में कुंभ मुख्य रूप से धार्मिक ग्रंथों पर चर्चा और दार्शनिक चर्चाओं का मंच था, लेकिन समय के साथ यह एक विशाल नदी तटीय धार्मिक मेले में बदल गया. मोदी-शाह-योगी शासनकाल में यह अब एक राजनीतिक और धार्मिक तमाशा बन चुका है, जहां आम हिंदुओं की आस्था का उपयोग कॉर्पारेट हिंदुत्व की ताकत दिखाने, धर्म के नाम पर नफरत फैलाने और हिंदू राष्ट्र के सांप्रदायिक फासीवादी एजेंडे को बढ़ावा देने के लिए किया जा रहा है. इस बार के प्रयागराज महाकुंभ ने इस प्रवृत्ति को और भी खतरनाक मोड़ पर पहुंचा दिया है.
5 फरवरी को दिल्ली में चुनाव होने थे, और संघ परिवार ने प्रयागराज महाकुंभ को बड़े पैमाने पर प्रचार मंच में बदलने में कोई कसर नहीं छोड़ी. फरवरी बजट का भी महीना है, और निराशाजनक आर्थिक हालात से जनता का ध्यान भटकाने के लिए मोदी सरकार के पास कुंभ को एक बड़ी सफलता के रूप में पेश करने से बेहतर विकल्प और क्या हो सकता था? सरकारी खजाने से हजारों करोड़ रुपये झोंककर मोदी-योगी की डबल इंजन सरकार ने कुंभ को विशाल प्रबंधन चमत्कार के रूप में प्रचारित किया.
इसी बीच, संघ-प्रेरित संगठनों की ओर से गैर-हिंदुओं, खासतौर पर मुस्लिमों, को आयोजन से दूर रखने की मांगें तेज होती गईं, फिर भी कुंभ को सामाजिक समानता के महोत्सव के रूप में प्रचारित किया गया. लेकिन 29 जनवरी की भीषण भगदड़ (जमीनी रिपोर्ट्स के मुताबिक, कम से कम तीन अलग-अलग जगहों पर भगदड़ हुई) के बाद इस प्रचार का गुब्बारा पूरी तरह फूट गया और सच सामने आने लगा.
कुंभ मेले में हुई भगदड़ में अब तक कम से कम पचास श्रद्धालुओं की मौत हो चुकी है और दर्जनों घायल हुए हैं, वहीं बार-बार लगने वाली आग में कई टेंट और दुकानें जलकर खाक हो गईं. ये घटनाएं इस महाकुंभ के प्रबंधन को लेकर सरकार के आत्मप्रशंसा भरे दावों को झुठलाती हैं, जिनमें उसने कुंभ के प्रबंधन को बेमिसाल बताया था. असल में, ये भगदड़ प्रशासनिक लापरवाही और आम श्रद्धालुओं की सुविधाओं की अनदेखी कर केवल वीआईपी व्यवस्थाओं पर ध्यान देने की मानसिकता की भयावह मिसाल है.
इससे भी ज्यादा शर्मनाक है इस त्रासदी पर सरकार और मीडिया की प्रतिक्रिया – सरकार ने घटना को दबाने और इसे मामूली बताने की पूरी कोशिश की, जबकि मुख्यधारा मीडिया (कुछ अपवादों को छोड़कर) सरकार के सुर में सुर मिलाकर इसे महाकुंभ जैसे बड़े आयोजन में होने वाली एक छोटी-मोटी अपरिहार्य दुर्घटना साबित करने में जुट गया. हद तो तब हो गई जब हिंदू राष्ट्र के एक पैरोकार ने भगदड़ में हुई मौतों को भाग्यशाली श्रद्धालुओं की मोक्ष प्राप्ति कहकर बेहद असंवेदनशील और घृणित टिप्पणी कर दी.
प्रयागराज कुंभ मेला, मोदी सरकार के लिए व्यापार, राजनीति और धर्म के गठजोड़ को बढ़ावा देने का एक मंच बन गया है. योगी आदित्यनाथ के कार्यालय ने उनकी और बाबा रामदेव की एक तस्वीर जारी की, जिसमें दोनों किसी योगिक नृत्य जैसे अंदाज में आसन करते दिख रहे थे. अमित शाह को दर्जनों साधुओं से घिरे हुए नदी में डुबकी लगाते समय पवित्र अभिषेक कराते देखा गया, जबकि उद्योगपति गौतम अडानी ने इस्कॉन के साथ मिलकर इस्कॉन कैंप में तीर्थयात्रियों को मुफ्त भोजन परोसा और कुंभ मेले को भारत की आध्यात्मिक अधोसंरचना का भव्य प्रदर्शन बताया.
इसी दौरान, आध्यात्मिक गुरु आचार्य प्रशांत, जो अपने प्रवचनों में अंधविश्वास के खिलाफ भी आवाज उठाते हैं, उनके स्टॉल को कुछ साधुओं के समूह ने तोड़फोड़ कर तहस-नहस कर दिया. और सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि कुंभ में अखंड हिंदू राष्ट्र के लिए 501 पृष्ठों का एक मसौदा संविधान भी पेश किया गया, जिसे 25 धर्मगुरुओं की टीम ने तैयार किया है. यह मसौदा रामायण, श्रीकृष्ण की शिक्षाओं, मनुस्मृति और चाणक्य के अर्थशास्त्र का हवाला देते हुए एक राष्ट्रपति प्रणाली वाली केंद्रीकृत शासन व्यवस्था का समर्थन करता है, जिसमें मुसलमानों को मतदान का अधिकार नहीं होगा.
करोड़ों हिंदू श्रद्धालुओं के लिए कुंभ भले ही आस्था का प्राचीन उत्सव हो, लेकिन संघ परिवार और हिंदू राष्ट्र समर्थकों के लिए यह साफ तौर पर एक राजनीतिक प्रोजेक्ट बन चुका है. जब धर्म को राजनीति में मिला दिया जाता है, तो आम लोगों की आस्था सत्ताधारी ताकतों के राजनीतिक मंसूबों के पीछे दब जाती है. कुंभ की यह त्रासदी धर्म के राजनीतिक दुरुपयोग के विनाशकारी परिणामों की गंभीर चेतावनी है.
मोदी-योगी की ‘डबल इंजन’ सरकार को इस त्रासदी की सार्वजनिक रूप से जिम्मेदारी लेनी होगी और मृतकों व घायलों के परिवारों को पर्याप्त मुआवजा देना होगा. भारतीय संविधान के संरक्षक के रूप में सुप्रीम कोर्ट को हिंदू राष्ट्र संविधान निर्माण समिति द्वारा शुरू किए गए संविधान-विरोधी अभियान का संज्ञान लेना चाहिए और इस साजिश को उसके शुरुआती दौर में ही कुचल देना चाहिए. अब यह हर किसी के लिए स्पष्ट हो जाना चाहिए कि संसद में अमित शाह द्वारा की गई संविधान विरोधी, अवमाननापूर्ण टिप्पणियां कोई आकस्मिक चूक नहीं थीं.
संविधान और लोकतंत्र के खिलाफ साजिश तेज हो रही है. ऐसे में भारत के नागरिकों – जो एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य के संवैधानिक संकल्प के प्रति प्रतिबद्ध हैं – को एकजुट होकर इस हमले को नाकाम करना होगा.