वर्ष - 34
अंक - 4
15-02-2025

2015 और 2020 में लगातार भारी बहुमत हासिल करने वाली ‘आम आदमी पार्टी’ (आप) को 2025 के विधानसभा चुनावों में करारा झटका लगा है. वोट शेयर में करीब दस प्रतिशत की गिरावट (53% से 43%) के कारण ‘आप’ की सीटें घटकर सिर्फ 22 तक सिमट गई है. वहीं, भाजपा का वोट शेयर सात प्रतिशत बढ़कर 38% से 45% हो गया, जिससे उसकी सीटें छह गुना बढ़कर 8 से 48 हो गईं. साथ ही, यह 27 साल बाद दिल्ली में भाजपा की सत्ता में वापसी और 2024 लोकसभा चुनाव में बहुमत खोने के बाद एनडीए की तीसरी विधानसभा चुनाव जीत है.

दिल्ली में इस बड़े बदलाव के पीछे कई कारण हैं. 2020 के चुनावों से ही साफ हो गया था कि भाजपा दिल्ली की सत्ता हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार थी. उस समय उसने नागरिकता आंदोलन को कुचलने के लिए सांप्रदायिक हिंसा भड़काने वाला जहरीला प्रचार किया. जब इस रणनीति का कोई तत्काल राजनीतिक फायदा नहीं हुआ, तो मोदी सरकार ने विरोध की आवाज को दबाने के लिए दमन की नई मुहिम छेड़ दी. छात्र कार्यकर्ताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और विपक्षी पार्षदों की बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियों के बाद, ‘आप’ नेतृत्व को राजनीतिक रूप से निशाना बनाया गया. मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया सहित कई नेताओं की लगातार गिरफ्तारियां इसी अभियान का हिस्सा थीं.

इस बदले की राजनीति से आगे बढ़ते हुए, भाजपा ने केंद्र सरकार और उपराज्यपाल के पद का इस्तेमाल करके ‘आप’ सरकार को चारों ओर से घेरने की सुनियोजित रणनीति अपनाई. विडंबना यह है कि भाजपा खुद एक समय दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग करती थी, लेकिन ‘आप’ सरकार को कमजोर करने के लिए उसने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को भी नजरअंदाज कर दिया और दिल्ली सरकार की शक्तियों में भारी कटौती कर दी. 2023 में पारित विवादास्पद दिल्ली सेवा कानून (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सरकार संशोधन अधिनियम) ने दिल्ली सरकार को लगभग अपंग कर दिया, जिससे वह केवल एक नाम मात्र की नगर पालिका बनकर रह गई.

इसके अलावा, दिल्ली सरकार की शक्तियों को कमजोर करने की इस साजिश के साथ-साथ भाजपा ने दिल्ली की मतदाता सूची में सुनियोजित छेड़छाड़ की – चुनिंदा क्षेत्रों में मतदाताओं के नाम हटाए गए, नकली नाम जोड़े गए और बड़े पैमाने पर मतदाताओं को एक सीट से दूसरी सीट पर शिफ्ट किया गया. यह सब चुनावी समीकरणों को अपने पक्ष में मोड़ने के लिए किया गया.

भाजपा ने झारखंड में भी ऐसी ही रणनीति आजमाई थी – मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को गिरफ्तार किया गया, अंतरिम मुख्यमंत्री भाजपा में शामिल हो गए, और चुनावी रैलियों के नाम पर आदिवासियों को मुसलमानों के खिलाफ खड़ा करने के लिए एक जहरीला नफरत अभियान छेड़ दिया गया. लेकिन यह रणनीति पूरी तरह धराशायी हो गई और भाजपा लगातार दूसरे विधानसभा चुनाव में हार गई. सवाल यह है कि भाजपा की यही रणनीति दिल्ली में कामयाब क्यों हुई, जबकि झारखंड में नाकाम रही? इसका जवाब कुछ हद तक दोनों राज्यों में विपक्ष की चुनावी लड़ाई के तरीके में छिपा है.

झारखंड में भाजपा-विरोधी गठबंधन एकजुट था और संविधान की रक्षा, राज्य के संघीय अधिकारों और आकांक्षाओं के पक्ष में एक जोरदार प्रचार अभियान चलाया गया. इसके विपरीत, दिल्ली में, ‘इंडिया’ गठबंधन के भीतर कोई एकता नहीं दिखी और भाजपा के फासीवादी हमले को रोकने का मजबूत राजनीतिक एजेंडा चुनावी बहस में सचेतन रूप से गायब दिखा.

‘आम आदमी पार्टी’ (आप) और अरविंद केजरीवाल की ‘आम आदमी’ वाली छवि में भी साफ गिरावट दिख रही है. दिल्ली के गरीब और निम्नमध्यम वर्ग के लोगों में 200 यूनिट मुफ्त बिजली और सार्वजनिक शिक्षा में सुधार की नीतियां अभी भी लोकप्रिय हैं, लेकिन दिल्ली के मजदूर वर्ग की मांगों की अनदेखी, नगर निगम की सेवाओं का खराब प्रदर्शन, और लोकतंत्र के दमन व नफरत फैलाने के मुद्दे पर लगभग पूरी चुप्पी ने ‘आप’ के उस सक्रिय जनसमर्थन को कमजोर कर दिया है, जिसने पिछले दो चुनावों में उसे इतना बड़ा बहुमत दिलाया था.

शराब घोटाले के आरोपों और मुख्यमंत्री आवास के 33.6 करोड़ रुपये के नवीनीकरण ने ‘आप’ नेतृत्व की सादगी और ईमानदारी की छवि को गंभीर ठेस पहुंचाई. ऐसे में, अपनी फीकी पड़ती सार्वजनिक छवि के सहारे केजरीवाल के लिए चुनावी जीत हासिल करना संभव नहीं था.

भाजपा का दिल्ली पर दोबारा पूरा कब्जा आम लोगों और राष्ट्रीय राजधानी में सक्रिय प्रगतिशील लोकतांत्रिक ताकतों और पहलकदमियों के लिए एक बड़ी चुनौती पेश करेगा. उम्मीद है कि यह बदला हुआ राजनीतिक माहौल संसद मे सीमित एकता से आगे बढ़कर, दिल्ली के व्यापक भाजपा-विरोधी राजनीतिक गठबंधन में सहयोग की भावना को बढ़ाएगा.

पूरे भारत की निगाहें अब 2025 में चुनाव वाले एकमात्र राज्य बिहार पर टिकी हैं. दिल्ली में भाजपा 27 साल से सत्ता से बाहर थी और उसे ‘आप’ से जनता की नाराजगी का फायदा मिला. लेकिन बिहार में स्थिति अलग है – भाजपा पिछले बीस वर्षों में अधिकतर समय जेडीयू के साथ सत्ता में रही है, और अब इस सरकार की हर मोर्चे पर नाकामी और वादाखिलाफी के खिलाफ जन आक्रोश लगातार बढ़ रहा है.

अगर झारखंड में एकजुट विपक्ष भाजपा को रोकने में सफल रहा है, तो बिहार में भी ऐसा क्यों नहीं हो सकता? यदि चुनावी लड़ाई को जमीनी संघर्षों से और मज़बूती से जोड़ा जाए और ‘इंडिया’ गठबंधन के भीतर अधिक व्यावहारिक और व्यापक चुनावी समझ बने, तो बिहार भाजपा की महाराष्ट्र-हरियाणा-दिल्ली में जारी जीत के सिलसिले को तोड़ सकता है और संघ ब्रिगेड के फासीवादी हमले को निर्णायक झटका दे सकता है.

ऐसे समय में जब मोदी सरकार अमेरिका के सामने झुककर भारत के उपनिवेशवाद-विरोधी स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत का अपमान कर रही है और संविधान के धर्मनिरपेक्ष व लोकतांत्रिक स्वरूप को कमजोर कर रही है, बिहार को अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभानी होगी. बिहार, जो हमेशा से औपनिवेशिक सत्ता और सामंती शोषण के खिलाफ संघर्षों का मज़बूत केंद्र रहा है, उसे एक बार फिर सच्चे लोकतंत्र और सामाजिक परिवर्तन की लंबी लड़ाई का अगुवा बनकर खड़ा होना ही होगा.