भारत के संविधान को अपनाए जाने की 75वीं वर्षगांठ की पूर्व संध्या पर, सुप्रीम कोर्ट ने भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा दायर उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें 1976 के संशोधन के तहत प्रस्तावना में जोड़े गए ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को हटाने की मांग की गई थी. सामान्य परिस्थितियों में, शीर्ष अदालत के इस स्पष्ट फैसले से संविधान के खिलाफ चल रहे अभियान पर विराम लग जाना चाहिए था. लेकिन, कुछ ही दिनों बाद, इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक मौजूदा न्यायाधीश की ओर से अत्यंत कट्टरपंथी और असंवैधानिक बहुसंख्यकवादी बयान सामने आया.
दिसंबर 2019 से हाई कोर्ट के जज रहे न्यायमूर्ति शेखर यादव ने विश्व हिंदू परिषद की कानूनी प्रकोष्ठ की एक बैठक को संबोधित करते हुए कहा कि ‘कानून को बहुसंख्यकों को संतुष्ट करना ही होगा.’ इसके साथ ही उन्होंने मुस्लिम समुदाय के खिलाफ तीखी और भड़काऊ टिप्पणियां कीं, उन्हें ‘स्वाभाविक रूप से हिंसक’ करार दिया.
हाल के वर्षों में, देश की अदालतों से इस प्रकार के खुले तौर पर इस्लामोफोबिक बयान आम होते जा रहे हैं, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और हिंदुत्व विचारधारा की न्यायपालिका में गहरी पैठ का स्पष्ट प्रमाण है. इस विशेष मामले में यह देखना बाकी है कि सुप्रीम कोर्ट, जिसने इस बयान का संज्ञान लिया है, क्या कदम उठाता है. साथ ही, लोकसभा में कुछ सांसदों द्वारा आरंभ की गई महाभियोग प्रक्रिया का परिणाम भी जल्द सामने आने की संभावना है.
इस घटनाक्रम के नतीजे चाहे जो भी हों, एक मौजूदा हाई कोर्ट जज द्वारा संविधान की मूल भावना का ऐसी गंभीर अवहेलना भारत के धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य की नींव पर मंडराते खतरे को दर्शाता है. यह न केवल न्यायपालिका की निष्पक्षता पर सवाल खडा करता है, बल्कि संविधान की गरिमा और इसकी मूलभूत संरचना को भी चुनौती देता है.
इस खराब न्यायिक माहौल को लोकतंत्र की दूसरी प्रमुख संस्था – भारत की संसद – के कार्यपालिका द्वारा लगातार मजाक बनाए जाने के संदर्भ में समझा जाना चाहिए. प्रधानमंत्री, उनके मंत्रिमंडल, और सत्तारूढ़ गठबंधन के अन्य सदस्यों ने संसद की कार्यवाही को बाधित करने और विपक्ष द्वारा उठाए गए मुद्दों पर किसी भी प्रकार की चर्चा या बहस की अनुमति न देने की नीति अपना ली है.
लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति ने भी तटस्थता और संसदीय शिष्टाचार के सभी औपचारिक दिखावे को त्यागते हुए, इस प्रक्रिया में पूरी तरह से सहयोगी की भूमिका निभाई है. बार-बार चुप कराए जाने और उपहास का सामना करने के बाद, विपक्षी सांसदों को राज्यसभा में उनके पक्षपातपूर्ण आचरण के विरोध में अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए मजबूर होना पड़ा.
महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में अपनी बेहद संदिग्ध जीत के बाद, संघ-भाजपा ब्रिगेड फासीवादी हमलों को तेज करने और हर मोर्चे पर विपक्ष को निशाना बनाने को लेकर उत्साहित दिखाई दे रहा है. अडानी समूह पर रिश्वतखोरी घोटाले के गंभीर आरोपों को ‘भारत-विरोधी साजिश’ बताया जा रहा है, और विपक्ष को इस ‘बाहरी षड्यंत्र’ का हिस्सा बताकर उसकी वैधता को बदनाम किया जा रहा है.
दक्षिण एशिया में विदेश नीति से जुड़ी बढ़ती चुनौतियां, खासकर बांग्लादेश और श्रीलंका में हाल के राजनीतिक बदलावों के बाद उत्पन्न स्थितियां, भी इसी दृष्टिकोण से देखी जा रही हैं. घरेलू मोर्चे पर, सरकार गहराते आर्थिक संकट का कोई ठोस समाधान पेश करने में विफल रही है. इसलिए, संसद को व्यवस्थित रूप से चुप कराया जा रहा है और इस्लामोफोबिया को योजनाबद्ध तरीके से भड़काया जा रहा है.
जन आंदोलन की ताकतों को इस निर्णायक मोड़ पर लोकतांत्रिक एजेंडा को मजबूती से आगे बढ़ाते हुए चुनौतियों का सामना करना होगा. महाराष्ट्र के गांवों ने चुनावी अनियमितताओं और चुनाव आयोग की पारदर्शिता व जवाबदेही की कमी को चुनौती देते हुए एक नया दृढ़ संकल्प दिखाया है. उनकी यह रचनात्मक पहल, मतपत्रों का उपयोग कर समानांतर चुनाव कराने पर जोर देती है, जो लोकतांत्रिक अधिकारों की बहाली की दिशा में एक साहसिक और प्रेरणादायक कदम है.
जनता के इस लोकतांत्रिक प्रयास को दबाने के लिए सरकार की बेताबी से यह साफ हो जाता है कि चुनावी पारदर्शिता के मुद्दे पर सरकार कितनी कमजोर और असुरक्षित है.
सरकार को जनगणना में देरी करने या आगामी परिसीमन प्रक्रिया में हेरफेर कर देश के संघीय संतुलन को बिगाड़ने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. यदि मोदी सरकार यह सोचती है कि चुनावी धांधली, संसदीय कार्यवाही में बाधा डालने और संस्थानों को कमजोर करके जनता की आवाज दबाई जा सकती है, तो जन आंदोलन को अपनी दृढ़ता, संकल्प और राजनीतिक सूझबूझ से उसे गलत साबित करना होगा.