‘बदलो बिहार न्याय यात्रा’ 16 से 26 अक्टूबर तक बिहार भर में आयोजित पदयात्राओं, जन-मार्चों और जनसभाओं का एक साथ चलने वाला अभियान, हाल के दशकों में बिहार में हमारे द्वारा किए गए सबसे जीवंत जन आंदोलनों में से एक के रूप में याद किया जाएगा. इस मार्च का विचार अक्टूबर की शुरुआत में सामने आया, और केवल दस दिनों में पार्टी ने एक या दो नहीं, बल्कि लगभग दो दर्जन पदयात्राओं को शुरू करने की तैयारी कर ली, जो बिहार के 38 में से कम से कम 30 जिलों को कवर करती हैं. और अगले दस दिनों में लगभग पांच हजार पार्टी कार्यकर्ताओं और समर्थकों, जिनमें निर्वाचित प्रतिनिधि और विभिन्न स्तरों पर पार्टी कमिटियों के सदस्य शामिल थे, जिला की सड़कों, राष्ट्रीय और राज्य राजमार्गों पर लगभग तीन हजार किलोमीटर की पदयात्रा करते हुए आगे बढ़े. इन यात्राओं का समापन पटना के ऐतिहासिक मिलर स्कूल मैदान में एक विशाल जन सम्मेलन के साथ हुआ, जहां हजारों लोगों ने एक साथ आकर बदलो बिहार और न्याय के लिए अपनी आवाज बुलंद की.
इस यात्रा के दौरान, पदयात्रियों ने कम से कम एक हजार सार्वजनिक सभाओं को संबोधित किया, जिनमें सभी वर्गों के हजारों लोग शामिल हुए. चमक-धमक वाले रोड शो और पूंजी-प्रधान राजनीति के मौजूदा दौर में, यह यात्रा जनता की राजनीति का एक वास्तविक उदाहरण बनकर उभरी – ऐसी राजनीति जो जनता की है, जनता के लिए है, और जनता द्वारा है. भागीदारी और जन-सम्पर्क के मामले में, अभियान पीड़ित और वंचित लोगों के विभिन्न वर्गों के साथ जुड़ने में उल्लेखनीय रूप से सफल रहा. भूमि सर्वेक्षण के नाम पर बेदखली की धमकी झेल रहे भूमिहीन गरीब परिवार, बढ़े हुए बिजली बिल और प्रीपेड मीटरों के बोझ तले दबे कम आय वाले परिवारए जात-पात और धार्मिक हिंसा का सामना कर रहे दलित और अल्पसंख्यक, बुनियादी अधिकारों और जीविका मजदूरी के लिए लड़ रही महिला योजना कर्मी, बिहार में सरकारी स्कूलों की स्थिति को लेकर चिंतित किशोर छात्रा – सभी यात्रा के विषय से सहज रूप से जुड़ सके.
यात्रा की नींव ‘हक दो, वादा निभाओ’ अभियान ने रखी थी, जो तीन प्रमुख मांगों पर केंद्रित थी – छह हजार रुपये या उससे कम मासिक आय पर जीवित रहने वाले 95 लाख सबसे गरीब परिवारों में हर एक को दो लाख रुपये की आर्थिक सहायता, हर भूमिहीन परिवार को पांच डिसमिल जमीन और सभी के लिए पक्के मकान सुनिश्चित करना. ये वादे बार-बार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली दिल्ली और नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली पटना की कथित ‘डबल इंजन’ सरकार द्वारा किए गए थे, लेकिन बिहार के लाखों वंचित और पीड़ित गरीबों के लिए ये वादे सिर्फ खोखले वादे साबित हुए. अगस्त और सितंबर के बीच, बिहार की कामकाजी आबादी की सबसे बुनियादी जरूरतों की इस निरंतर अनदेखी और विश्वासघात के खिलाफ लगभग दो सौ प्रखंडों में लाखों लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया.
नीतीश कुमार सरकार ने जले पर नमक छिड़कते हुए दो और बड़े झटके दिए हैं. पहलाए ‘भूमि सर्वेक्षण’ की शुरुआत से, जिससे बिहार के भूमिहीन गरीबों पर दशकों से ज़मींदारी उन्मूलन के संघर्षों के माध्यम से हासिल की गई जमीन से बेदखल होने का खतरा मंडराने लगा है. ऐसा प्रतीत होता है कि यह सर्वेक्षण कॉर्पारेट भूमि हड़प के लिए भूमि बैंक बनाने के उद्देश्य से किया जा रहा है. दूसरा झटका, प्री-पेड मीटरों की अनिवार्यता है, जो कम आय वाले परिवारों पर आर्थिक बोझ डालते हुए उन्हें बिजली के अधिकार से वंचित कर रही है. इसीलिए यात्रा ने यह मांग की है कि गरीबों के कब्जे में मौजूद भूमि को नियमित करने तक भूमि सर्वेक्षण पर रोक लगाई जाए, हर भूमिहीन परिवार को पांच डिसमिल जमीन देने का सरकार का वादा पूरा किया जाए, प्री-पेड मीटर योजना वापस ली जाए, और गरीबों व किसानों के लिए प्रति माह 200 यूनिट मुफ्त बिजली की व्यवस्था की जाए. इन मांगों ने आम जनता के विभिन्न वर्गों में व्यापक प्रभाव डाला है.
बिहार निस्संदेह एक राजनीतिक परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है. नीतीश कुमार, लालू प्रसाद, रामविलास पासवान और सुशील मोदी जैसे नेताओं की पीढ़ी के बाद अब एक नया पीढ़ीगत बदलाव साफ दिखाई दे रहा है, और राजनीतिक परिदृश्य में एक नई पीढ़ी जोर-शोर से उभर रही है. पिछले दो दशकों से पर्दे के पीछे से बिहार पर शासन कर रही भाजपा अब इस बढ़ते राजनीतिक शून्य का लाभ उठाने के लिए तत्पर है, ताकि वह स्वतंत्र रूप से सत्ता में आ सके और पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश की तरह बिहार में भी योगी आदित्यनाथ का ‘बुलडोजर राज’ थोप सके. यह कोई संयोग नहीं था कि ‘बदलो बिहार न्याय यात्रा’ का सामना गिरिराज सिंह की तथाकथित ‘हिंदू स्वाभिमान यात्रा’ से हुआए जिसने संविधान का खुलेआम उपहास किया और बिहार के पूर्वी जिलों में मुस्लिम विरोधी घृणा और हिंसा को हवा दी. युवा बिहार की बेहतर और अधिक स्कूलों की मांग के जवाब में, गिरिराज के पास त्रिशूल के अलावा कोई ठोस जवाब नहीं था. इस प्रकार, ये दोनों यात्राएं बिहार के भविष्य के लिए पूरी तरह से दो भिन्न दृष्टिकोणों का प्रतिनिधित्व करती हैं.
‘बदलो बिहार’ का आह्वान केवल सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि बिहार में एक व्यापक बदलाव की मांग है. प्रशांत किशोर और भाजपा जैसे लोगों द्वारा गढ़ी जा रही कहानी के विपरीत, बिहार किसी पुरानी सामंती व्यवस्था की बहाली नहीं चाहता, भले ही वह छद्म आधुनिकता के मुखौटे में हो. बिहार की असल जरूरतें हैं – बुनियादी सुविधाओं और लोगों की बढ़ती आकांक्षाओं की पूर्ति, जिन्हें अब तक आई सरकारों ने सिर्फ खोखले वादों से पूरा करने का दिखावा किया है, रोटी-कपड़ा-मकान जैसे मूलभूत नारे से लेकर बिजली-पानी-सड़क जैसी आवश्यक सुविधाएं, और शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे उपेक्षित अधिकारों तक – बिहार, जो सस्ते श्रम का स्रोत बनकर रह गया है, गरीबी, आर्थिक पिछड़ेपन और सामाजिक उत्पीड़न की बेड़ियों से मुक्ति की पुकार कर रहा है.
बिहार में एनडीए के दो दशकों के शासन के दौरान, राज्य की महिलाओं को सबसे अधिक ठगा गया है. मिड-डे मील कार्यकर्ता, जिन्हें साल में केवल दस महीने के लिए प्रतिदिन मात्र पचास रुपये मिलते हैं, से लेकर कोविड-19 महामारी के दौरान बिहार की सेवा और रक्षा के लिए अपनी जान जोखिम में डालने वाली आशा कार्यकर्ताओं तक – इनको नीतीश कुमार ने 2,500 रुपये मासिक प्रोत्साहन राशि देने के वादे से मुकर कर निराश किया गया है. जीविका कैडर, जिन्होंने स्वयं सहायता समूहों के नेटवर्क में लाखों महिलाओं को जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, अब उन्हीं समूहों से अंशदान एकत्र कर अपनी जीविका चलाने के लिए मजबूर हैं. इसी तरह, बिहार के दलित-बहुजन समुदाय गहरे सामाजिक भेदभाव और सामंती हिंसा का सामना कर रहे हैं, जबकि युवा बेहतर शिक्षा और नौकरी के अवसरों की तलाश में दूसरे राज्यों में पलायन करने को विवश हैं. इसके अलावा, अगर गिरिराज सिंह जैसे लोगों की चलती है, तो बिहार मुस्लिम विरोधी नफरत और हिंसा की प्रयोगशाला बन जाएगा.
‘हक दो, वादा निभाओ अभियान’ के तहत ‘बदलो बिहार न्याय यात्रा’ ने सामाजिक परिवर्तन और व्यापक न्याय के एजेंडे को प्रमुखता से सामने रखा है. इस पदयात्रा ने बिहार के गरीबों, महिलाओं और युवाओं की सामूहिक दावेदारी की अपार क्षमता की झलक दी है, और अब इस ऊर्जा का पूरा उपयोग ‘बदलो बिहार’ के आह्वान को जन आंदोलन में बदलने के लिए किया जाना चाहिए. बिहार की राजनीति में बढ़ते शून्य का लाभ संविधान-विरोधी ताकतों और पीछे धकेलने वाली विचारधाराओं को नहीं लेने देना चाहिए. बिहार की जीवंत साम्यवादी और समाजवादी परंपराओं के उत्तराधिकारियों को आगे आना होगा और सामाजिक समानता व सांप्रदायिक सद्भाव का झंडा बुलंद करते हुए बिहार को सभी के लिए सम्मान, अधिकार और न्याय के रास्ते पर आगे ले जाना होगा.