- मनमोहन कुमार
2019 में जम्मू-कश्मीर के राज्य के दर्जे को खत्म करने के पीछे भाजपा की वैचारिक मंशा ने आगामी चुनावों के लिए उनकी योजना पर सवाल खड़े कर दिए हैं, जैसा कि आप जानते हैं 17 अगस्त 1922 को जम्मू-कश्मीर के मुख्य चुनाव अधिकारी ने घोषणा की कि अनुच्छेद-370 के निरस्त होने के बाद, भारत का हर नागरिक जो नौकरी, शिक्षा या व्यवसाय के उद्देश्य से कश्मीर में रहता है, आगामी चुनावों में वोट डाल सकता है. इससे 20 लाख अतरिक्त मतदाता हो गए हैं. इस कदम के परिणामस्वरूप, कश्मीर में तैनात सैनिक भी अपना वोट डाल सकते हैं. मोटे तौर पर, यह कदम कश्मीर में हिंदुत्व वर्चस्व वाली विधानसभा की स्थापना का कदम है, जो हिंदू वर्चस्व को संस्थागत बनाने, और साथ ही दुनिया के लिए एक लोकतांत्रिक दिखावा है.
जम्मू और कश्मीर में रहने वाले किसी भी भारतीय नागरिक को, यहां तक कि अस्थायी रूप से भी, मतदाता के रूप में सूचीबद्ध करने की अनुमति देने के हालिया फैसले ने कश्मीरी लोगों के जनसांख्यिकीय परिवर्तन और उनकी राजनीतिक दावेदारी के कमजोर होने के डर को और भी बढ़ा दिया है.
यह इस क्षेत्र के मुस्लिम-बहुल चरित्र को कमजोर करने और हिंदू वर्चस्व को संस्थागत बनाने का एक स्पष्ट प्रयास है. यह भारत सरकार द्वारा शुरू की गई नीतियों और कानूनों के एक बड़े पैटर्न का हिस्सा है जिसका उद्देश्य कश्मीरियों को उनकी भूमि, संसाधनों और राजनीतिक प्रतिनिधित्व से वंचित करना है.
चुनावी मानचित्र का पुनर्निर्धारण, जिसने हिंदू-बहुल जम्मू क्षेत्र में सीटों की संख्या में वृद्धि की है जबकि कश्मीर घाटी में प्रतिनिधित्व को न्यूनतम रूप से बढ़ाया है, इस रणनीति का एक और प्रमाण है. जम्मू के पक्ष में चुनावी संतुलन को झुका करके, भारतीय राज्य एक भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार का निर्माण करना चाहता है जो औपचारिक रूप से 2019 के निर्णयों का समर्थन और वैधता प्रदान कर सके.
ये घटनाक्रम ‘सेटलर उपनिवेशवाद’ के क्लासिक सांचे में फिट बैठते हैं, जहां स्वदेशी आबादी के अधिकार छीनकर गैर-मूल निवासियों को बसने के लिए प्रेरित किया जाता है और कार्यकारी आदेश जैसे गैर-लोकतांत्रिक तरीके से गैर-मूल निवासियों को अधिकार दिए जाते हैं. अधिक मतदाताओं को लाने, अलग-अलग हिंदू बस्तियों की स्थापना करने और गैर-कश्मीरियों को असीमित भूमि स्वामित्व देने के लिए भारत सरकार के कदम अन्य औपनिवेशिक शासनों द्वारा प्रयोग की जा रही रणनीतियों की याद दिलाते हैं, जैसे कि फिलिस्तीन में इजराइल.
पूरे कश्मीर का सैन्यीकरण, असहमति को अपराध मानने वाले कठोर कानून, तथा कश्मीरी इतिहास और आख्यानों को व्यवस्थित रूप से कमजोर करना, ये सभी भारतीय राज्य के शस्त्रगार में अपना नियंत्रण मजबूत करने और कश्मीरी लोगों को उनके आत्मनिर्णय के अधिकार से वंचित करने के हथियार हैं.
इसके अलावा, सैन्य उपयोग, औद्योगिक विकास और बसने वालों के लिए कश्मीरी भूमि और संसाधनों का उपयोग ने क्षेत्र में पर्यावरण क्षरण और जलवायु संबंधी संकटों को बढ़ा दिया है, जिससे स्थानीय आबादी और अधिक पराधीन हो गई है. इसलिए, जम्मू और कश्मीर में आगामी विधानसभा चुनावों को भारतीय राज्य की सेटलर औपनिवेशिक परियोजना के व्यापक संदर्भ में समझा जाना चाहिए.
कश्मीरी लोग, जो लंबे समय से आत्मनिर्णय के अपने अधिकार के लिए संघर्ष कर रहे हैं, अब एक ऐसे राजनीतिक परिदृश्य की कठिन चुनौती का सामना कर रहे हैं, जिसे भारतीय राज्य की उपनिवेशवादी महत्वाकांक्षाओं ने बुनियादी तौर से बदल दिया है. आगामी विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय दलों की भागीदारी या बहिष्कार, और मतदाताओं की प्रतिक्रिया, कश्मीर की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं के भविष्य को और उनकी पहचान और राजनीतिक दावेदारी को मिटाने के भारतीय राज्य के अथक प्रयासों के खिलाफ प्रतिरोध को आकार देने में अहम होगी.