वर्ष - 33
अंक - 29
13-07-2024

- दीपंकर भट्टाचार्य

2024 के चुनाव ने भाजपा को बड़ा झटका दिया है और उसे 240 सीटों तक सीमित कर दिया है जो बहुमत से 32 सीट कम है. जो चीज इस नतीजे को लगभग विपक्ष की विजय और भाजपा की पराजय के रूप में दिखला रही है वह यह है कि ये नतीजे भारत में अबतक के सर्वाधिक असमान चुनावों में आए हैं जहां मीडिया, निर्वाचन आयोग और प्रशासन तंत्र अत्यंत पक्षपातपूर्ण भूमिका निभा रहे थेइसके अलावा, अगर इसे भाजपा के लगातार दुहराये जाने वाले अपने 370 सीट और एनडीए के ‘400 पार’ लक्ष्य के दरपेश देखा जाए तो 240 की संख्या आनुपातिक रूप से और भी कमतर दिखाई पड़ेगी. इस लक्ष्य का शोरगुल चुनावों के दौरान ही शिथिल पड़ना शुरू हो गया था और भाजपा को अपना लक्ष्य ‘तीसरी बार मोदी सरकार’ के बतौर संशोधित करना पड़ा था. लेकिन एक्जिट पोल ने एक बार फिर इस शोरगुल को हवा दी और सट्टा बाजार में एक उभार पैदा किया (मोदी और शाह ने अडानी के टीवी चैनल पर निवेशकों को 4 जून के पहले शेयर खरीद लेने की सलाह दे दी) जो मतगणना के दिन दरअसल सट्टा बाजार में भारी गिरावट की पूर्वपीठिका बन गया.

ये तो तटवर्ती और दक्षिणी इलाकों में भाजपा के वोट शेयर में बड़ी वृद्धि (तेलंगाना 15.4, आंध्र प्रदेश 10.3, तमिलनाडु 7.6, ओडिशा 6.4, केरल 3.7) है जिसके चलते वह अपने 2019 के वोट शेयर को कमोबेश बरकरार रख पाई – 2019 में 37.3 प्रतिशत के मुकाबले 2024 में 36.5 प्रतिशत ! इसके उलट, कांग्रेस ने अपने वोट शेयर में 2 प्रतिशत की हल्की वृद्धि के साथ अपनी सीट संख्या लगभग दुगुनी कर ली (बहरहाल, कांग्रेस 2019 में 421 सीटों के मुकाबले इस बार केवल 328 सीटों पर चुनाव लड़ी थी).

आखिर भाजपा ने 400-पार का लक्ष्य कैसे निर्धारित किया था? क्या वह 1984 में कांग्रेस की रेकॉर्ड सीट संख्या 404 को पार कर जाना चाहती थी ? क्या यह 2019 में भाजपा की 303 और एनडीए की 353 सीट संख्याओं में लगातार बढ़त मिलते जाने की महज एक आकांक्षा भर थी ? क्या वह योगी के 80:20 फार्मूले पर आधारित थी जो अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के पारितोषिक के बतौर हिंदू समर्थन के अभूतपूर्व मजबूतीकरण की आशा कर रहे थे ? यह पूछे जाने पर कि 400 से ज्यादा सीटें कहां से आएंगी, घमंडी योगी ने एक टीवी एंकर को कहा, “80 सीटें तो आप खुद यूपी से गिन लीजिए”! और इसीलिए यह बिल्कुल सही जवाब था कि भाजपा को सबसे गहरा धक्का यूपी में ही मिला जहां उसने अपनी 29 सीटें खो दीं – वह समाजवादी पार्टी के एक वरिष्ठ दलित नेता के हाथों अयोध्या (फैजाबाद) की सीट भी गंवा बैठी.

डर और नफरत का बाजार ठंढा

2024 के चुनावों के निष्कर्ष क्या हैं ? सबसे बड़ा निष्कर्ष तो यही है कि भाजपा के दो मुख्य हथियार – डर और नफरत – भोथरे हो गए. ‘मोदी अपराजेय है’ का विचार भी काफी हद तक ध्वस्त हो गया. यह विश्वास भी खोखला और मिथ्या साबित हो गया कि सिर्फ मुस्लिम-विरोधी नफरती मुहिम वोट बटोरने का सबसे कारगर फार्मूला हो सकता है. भाजपा को कम से कम बीस ऐसी सीटों पर मुंह की खानी पड़ी है, जहां मोदी ने इस चुनावी मौसम में अपना सबसे अधिक नफरत से भरा भाषण दिया था.

सच्चे अर्थों में जनता का आन्दोलन

दूसरी सबसे पुख्ता उपलब्धि रही है जनता की ताकत और फिर से उठ खड़ा होने की उसकी शक्ति का प्रदर्शन . भाजपा के पास न केवल असीमित धन और मीडिया का सामर्थ्य तथा प्रबल प्रशासकीय समर्थन था, बल्कि जैसा कि माना जाता है, उसके पास बेरहमी से भरा सक्रिय चुनावी तंत्र भी था जिसे अमित शाह की बहुप्रचारित ‘चाणक्य नीति’ और ‘पन्ना प्रमुखों’ की कल्पित वाहिनी की शक्ति प्राप्त थी. विलंब से गठित ‘इंडिया’ गठबंधन भाजपा के संसाधनों और संगठनात्मक शक्ति के सामने काफी बेमेल दिख रहा था. फिर भी भारत की जनता ने चुनाव को काफी नजदीकी लड़ाई में बदल दिया और हिंदू हृदय-स्थली कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश में ही भाजपा को धूल चटा दिया. ‘इंडिया’ के राजनीतिक घटकों से परे विभिन्न आन्दोलनकारी शक्तियों, नागरिक समाज संगठनों, अभियान मंचों और डिजिटल संचार मीडिया के कार्यकर्ताओं ने अपने संसाधनों और ऊर्जा को समन्वित कर इस चुनाव को जनता के वास्तविक आन्दोलन में बदल दिया.

भाजपा को दोनों तरह से धक्का लगा है – हिंदुत्व के अपने मूल एजेंडा के लिहाज से और ‘ब्रांड मोदी’ के गिर्द बनाए गई व्यक्ति-पूजा संस्कृति के लिहाज से भी. 2019 के विपरीत, इस बार के चुनाव में कोई उग्र राष्ट्रवादी लहर मौजूद नहीं थी और अगर भाजपा को यह उम्मीद थी कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण से 2024 में चुनावी तूफान खड़ा हो जाएगा, तो यह उसकी सबसे बड़ी भूल थी. समाजवादी पार्टी ने न केवल अयोध्या/फैजाबाद सीट जीत ली, बल्कि भाजपा ने इस पूरे अंचल में लगभग सभी सीटें गंवा दी हैं.

अनेक टिप्पणीकारों ने 2024 चुनाव को किसी राष्ट्रीय विमर्श से रहित ‘सामान्य’ या ‘स्थानीय’ चरित्र का चुनाव बताया है. लेकिन अगर आर्थिक सवाल और आजीविका की चिंताएं चुनावी एजेंडा बन गए हैं और निवर्तमान सरकार के खिलाफ वोट के रूप में परिलक्षित हुए हैं, तो इसे यकीनन ‘स्थानीय कारक’ नहीं समझा जा सकता है. वस्तुतः, रोजमर्रा की जिंदगी की रोजी-रोटी के मुद्दे के साथ-साथ भारत के लोकतंत्र और संविधान के भविष्य को लेकर गहराती चिंता इस बार के चुनावी विमर्श का बड़ा हिस्सा बन गया था.

भारतीय मतदाताओं ने साबित कर दिया कि लोकतंत्र की अवनति अथवा चुनावी निरंकुशता में बदलते जा रहे भारत के संसदीय लोकतंत्र के प्रति चिंता कोई “पश्चिमी प्रचार” नहीं है, बल्कि यह ऐसा खतरा है जिसे देश भर के अधिकाधिक भारतीय शिद्दत से महसूस कर रहे हैं. संविधान के विभिन्न पहलुओं – संघवाद और आरक्षण से लेकर धर्मनिरपेक्षता और नागरिकता तक – पर हमले को भी जनता सीधा-सीधी महसूस कर रही है; और जब भाजपा ने खुद ही 400-पार के लक्ष्य को संविधान बदलने की योजना से जोड़ दिया तो यह तुरंत चुनाव के मौसम में चर्चा का सबसे बड़ा मुद्दा बन गया. जैसा कि भारत के एक प्रमुख चुनाव विश्लेषक ने अपने टेलिविजन इंटरव्यू में स्वीकार किया कि दो महीना पहले तक वे इस बात पर हंस देते कि लोकतंत्र और संविधान आम मतदाताओं के लिए चुनावी एजेंडा बन सकता है, किंतु चुनावों ने उन्हें गलत साबित कर दिया.

लोकतंत्र के लिए डिजिटल युद्ध

इस चुनाव की एक अन्य विशेषता थी राजनीतिक समाचार के सबसे कारगर माध्यम के बतौर यू-ट्यूब का उदय. सरकारी प्रचार तंत्र के रूप में तथाकथित ‘मुख्यधारा मीडिया’ के अधिकांश हिस्से के पतन से अधिकतर टीवी चैनलों के दर्शकों की संख्या काफी कम हो गई है. भारत के अनेक साहसी पत्रकारों ने, जिनके लिए पत्रकारिता का मतलब अभी भी सत्ता से सवाल करना बना हुआ है, संचार के पसंदीदा माध्यम के बतौर यू-ट्यूब को अपना लिया है. इससे आज के भारत में डिजिटल मीडिया का बड़े पैमाने पर उदय हुआ है और हमलोगों ने इन चुनावों में जन संचार के इस नए माध्यम की ताकत देखी है.

रवीश कुमार और ध्रुव राठी जैसे पत्रकारों व संचारकों के विडियो, तथा लोकतंत्र के डिजिटल योद्धा यू-ट्यूबरों के फैलते समुदाय ने गोदी मीडिया और व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी के संयुक्त नेटवर्क के जरिये नफरत व झूठ के निरंतर प्रचार के खिलाफ काफी साहसपूर्ण व कारगर प्रतिरोध खड़ा किया है. यही वजह है कि मोदी सरकार अब डिजिटल मीडिया की आजादी को कुचलने और उसे अपने जहरीले पंजे में जकड़ लेने की जी-तोड़ कोशिश कर रही है.

भाजपा की शरारतपूर्ण व्याख्या

मोदी के जमाने में वोटर लिस्ट से मुस्लिमों के नामां को बड़े पैमाने पर हटाने के जरिये उन्हें मताधिकार से वंचित करने और विभिन्न तरीकों से उन्हें मतदान केंद्रों पर जाने से रोकने के लिए प्रणालीबद्ध ढंग से घृणित प्रयास किए जाते रहे हैं. मोदी ने तो 2024 के चुनाव को “वोट जेहाद” और “राम राज्य” के बीच चुनाव बता दिया. जब यह नफरती मुहिम और ध्रुवीकरण की राजनीति भाजपा को बहुमत नहीं दिला सकी, तो अब हताश-निराश भाजपाई खेमा ने इस्लाम-भीति की एक नई मुहिम छेड़ दी है जिसके तहत मुस्लिम वोटरों (और कृतघ्न हिंदुओं को भी) इस दुखद नतीजे के लिए दोषी ठहराया जा रहा है.

बहु-प्रचारित चुनावी रणनीततिकार प्रशांत किशोर इस शरारतपूर्ण मुहिम के बड़े प्रचारक बन गए हैं, जिनके मुंह पर 4 जून को कालिख पुत गई क्योंकि वे घमंड में आकर भविष्यवाणी कर रहे थे कि मोदी सरकार 2019 की संख्या से भी ज्यादा सीट लाने जा रही है. यह शरारतपूर्ण विकृत विमर्श पहले तो कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन का सेहरा 20 प्रतिशत “स्वतंत्र अल्पसंख्यक वोट बैंक” पर डाल देता है. इस “स्वतंत्र अल्पसंख्यक वोट बैंक” में वे 18 प्रतिशत मुस्लिमों (यह अतिशयोक्ति ही है जो मौजूदा अनुमान से 4 प्रतिशत ज्यादा है) को गिनते हैं और उसके बाद सिखों व इसाइयों को शामिल करते हैं. इस प्रकार, कांग्रेस के लगभग 23 प्रतिशत वोट शेयर को संगठित अल्पसंख्यक वोट से ज्यादा कुछ नहीं बताने की कोशिश की जा रही है!

यह सरासर झूठ है. कांग्रेस 2019 के मुकाबले इस बार 100 के लगभग कम सीटों पर चुनाव लड़ी थी – 421 के बजाय 328 सीटों पर. इसीलिए वोट शेयर की तस्वीर कांग्रेस द्वारा लड़ी गई सीटों पर प्राप्त मतों में वास्तविक औसत वृद्धि को कम करके दिखा रही है. और फिर, इस समग्र वोट शेयर में मुस्लिम अथवा अल्पसंख्यक के अनुपात को भी सही परिप्रेक्ष्य में देखना होगा. संघ ब्रिगेड ‘वोट बैंक’ शब्द का इस्तेमाल मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाने के निए ही किया करता है. अगर भारत में मुस्लिम लोग प्रमुखतः भाजपा के खिलाफ वोट करते हैं, तो लोकतंत्र में उन्हें अपना राजनीतिक विकल्प चुनने का पूरा अधिकार है. और यह विकल्प – नहीं, इसे उनकी बाध्यता कहिए – भाजपा की आक्रामक इस्लाम-भीतिक नीतियों व उसके पिछले रेकॉर्ड से निर्देशित होता है.

भाजपा खुलेआम कहती है कि उसे मुस्लिम वोटों की जरूरत नहीं है, वह कोई मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा नहीं करती है, और अब उसने 70 से ज्यादा मंत्रियों का भारी-भरकम कैबिनेट बनाया है, लेकिन उसमें भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय का एक भी प्रतिनिधि नहीं है. और पूरी दुनिया जानती है कि मोदी शासन के अंतर्गत भारतीय मुसलमानों को चरम असुरक्षा का माहौल झेलना पड़ रहा है. अक्सरहां प्रत्यक्ष प्रशासकीय संलिप्तता के साथ चलाई जाने वाली विभिन्न किस्म की सांप्रदायिक हिंसा के अलावा पिछले दस वर्षों में मॉब लिंचिंग तथा मुस्लिम घरों व दुकानों को बुलडोजर से ध्वस्त करने जैसे मुस्लिम विरोधी हिंसा के नए-नए स्वरूप देखने को मिले हैं.

बहरहाल, औसत मुस्लिम वोटर की सामान्य भाजपा-विरोधी सोच के बावजूद मुस्लिम वोट वास्तव में उस तरह से एकतरफा नहीं है जैसा कि संघ ब्रिगेड प्रचार करता है. यह ठीक है कि मुस्लिमों के बीच भाजपा का अपना वोट शेयर अत्यंत कम है, लेकिन एनडीए के कुछ संश्रयकारियों को (जैसे कि बिहार में जद-यू, आंध्र प्रदेश में टीडीपी, उत्तर प्रदेश में आरएलडी अथवा कर्नाटक में जेडीएस को) अभी भी मुस्लिम वोट का एक हिस्सा मिल जा रहा है. फिर बसपा, एआइएमआइएम, असम में एआइयूडीएफ अथवा पश्चिम बंगाल में आइएसएफ जैसी गैर-‘इंडिया’ पार्टियां हैं जिन्हें अपने-अपने क्षेत्रों में मुस्लिमों का अच्छा-खासा वोट मिला करता है. और अंततः, ‘इंडिया’ के अंदर भी उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बिहार जैसे बड़े राज्यों में कांग्रेस को मुस्लिम वोटों का महज एक छोटा हिस्सा ही मिलता है, क्योंकि उन राज्यों में ‘इंडिया’ के घटकों समाजवादी पार्टी, टीएमसी और राजद को सबसे अधिक मुस्लिम वोट मिला करता है.

उत्पीड़ितों की एकजुटता

दूसरे शब्दों में, इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि 2024 के चुनाव में कांग्रेस को थोड़ा ही सही, मगर जो नई जान मिली है उसकी वजह मुस्लिम वोटों का एकतरफा होना नहीं है, बल्कि यह है कि उसके प्रति गैर-मुस्लिम समुदायों, खासकर हिंदुओं का भी समर्थन बढ़ा है. भाजपाई विमर्श का सबसे शरारतपूर्ण हिस्सा यह है कि वह संसद में मुस्लिमों की घटती संख्या के लिए उन्हें ही दोषी करार देता है. क्या मुस्लिम ही इस तथ्य के लिए जिम्मेदार हैं कि 18वीं लोकसभा के 543 सदस्यों वाले सदन में मुस्लिम सांसदों की संख्या सिर्फ 24 है, जो कि भारत के संसदीय इतिहास में अबतक की सबसे कम संख्या है? यह संख्या इसलिये इतनी कम है कि भारत के संसद की सबसे बड़ी एकल पार्टी ने मुस्लिमों को दरकिनार किए रखने की नीति अपनाई है और जो हमेशा ही जहरीली इस्लाम-भीति फैलाती रही है. भारत के मुसलमानों को यह कहना कि वे भाजपा को इसी रूप में अंगीकार करें और उसे हराने अथवा कमजोर करने के रास्ते न खोजें, दरअसल भाजपा की इस्लाम-भीति को ही जायज ठहराना हो जाएगा. मुस्लिमों के 24 सांसद मुख्यतः 250 सांसदों के गैर-एनडीए खेमा से आते हैं, और यह अनुपात लगभग 10 प्रतिशत का हो जाता है. अगर एनडीए भी इस अनुपात को बरकरार रखता तो 18वीं लोकसभा में 50 से ज्यादा मुस्लिम सांसद रहते.

गैर-भाजपा पार्टियों को यह कहना एक बात है कि वे मुस्लिम प्रतिनिधित्व के मुद्दे पर और ज्यादा जवाबदेह बनें, लेकिन मुस्लिमों से यह कहने का तो बिल्कुल विपरीत तात्पर्य निकलेगा कि वे भाजपा के खिलाफ कारगर सामाजिक व राजनीतिक गठबंधनों से दूर रहें और केवल पहचान की राजनीति करें. इससे गैर-भाजपा वोटों में बिखराव पैदा होगा और भाजपा को ही लाभ हो जाएगा, और इस तरह से भारतीय राजनीति में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व बेहतर होने के बजाय और क्षीण हो जाएगा. प्रतिनिधित्व के मामले में सिखों और मुस्लिमों के बीच तुलना करना भी बिल्कुल गलत होगा. सिखों का संकेंद्रण मुख्यतः पंजाब प्रांत में है और अधिकांश सिख सांसद इसी राज्य से आते हैं. दूसरी ओर मुस्लिम आबादी असमान रूप से ही सही, लेकिन देश भर में फैली हुई है.

ऐसे अनेक चुनाव क्षेत्र हैं जहां मुस्लिम आबादी 15 से 20 प्रतिशत तक है और अतीत में वे वहां से मुस्लिम सांसदों को भेजते भी रहे थे. लेकिन आज अधिकांश मुस्लिम सांसद उन्हीं क्षेत्रों से आ रहे हैं जहां स्थानीय रूप से मुस्लिम सबसे बड़े समुदाय के रूप में मौजूद हैं और उनकी आबादी कम से कम एक तिहाई के लगभग है. यह भाजपा की विभाजनकारी और इस्लामभीतिक नीतियों का ही असर हैइस साजिश को ध्वस्त करने का एकमात्र तरीका यह है कि लोकतंत्र के लिए साझा लड़ाई में, राष्ट्रीय व स्थानीय स्तरों पर, विभिन्न अल्पसंख्यक समुदायों और हाशिये पर पड़े तबकों के बीच और ज्यादा मजबूत व व्यापक एकजुटता बनाई जाए – और, भारत के मुसलमान ठीक इसी रास्ते पर चल रहे हैं. वस्तुतः, 2024 के चुनावों ने दलितों, आदिवासियों तथा अन्य उत्पीड़ित व किनारे पर खड़ी पहचानों के बीच इसी किस्म की एकजुटता विकसित करने की जरूरत और संभावना को उजागर किया है.

संसद के अंदर और बाहर एकजुट दावेदारी

एकजुटता की भावना सिर्फ स्थानीय और आंचलिक गठबंधनों के निर्माण के लिए ही नहीं, बल्कि बहुरंगी वैचारिक धाराओं और आंचलिक पार्टियों को लेकर अखिल भारतीय स्तर पर गठबंधन बनाने के लिए भी केंद्रीय महत्व रखती है. ‘इंडिया’ गठबंधन कुछ बुनियादी मामलों में इस जरूरत को पूरा करता है, और इसीलिए अपने विलंबित निर्माण और चंद राज्यों में स्थानीय अथवा राज्य-स्तरीय एकता के अभाव के बावजूद इसने ऊंचे दर्जे का लोकप्रिय समर्थन और चुनावी सफलता हासिल कर ली.

चुनावी क्षेत्र में उग्र-राष्ट्रवादी तेवर और हिंदुत्व उन्माद का असर घटते जाने के साथ ही मोदी और शाह के अधीन भाजपा की मर्मवस्तु उजागर हो गई है – यह मर्मवस्तु है क्रोनी पूंजीवाद, जो हमलावर गुजरात लॉबी द्वारा संचालित हो रहा है. धर्म का बढ़ता व्यवसायीकरण और गुजरात लॉबी तथा इसके कॉरपोरेट क्रोनियों (पिट्ठुओं) का प्रभुत्च बहु-प्रचारित मंदिरों व मंदिर-कॉरिडोरों के गिर्द बनाए गए आर्थिक व राजनीतिक समीकरणों की मुख्य विशेषता के बतौर उभर कर सामने आते जा रहे हैं. यूपी से तमिलनाडु तक और महाराष्ट्र से मणिपुर तक, भारत के लोगों ने देश के अधिकांश भागों में अति-केंद्रीकरण, गुजरात लॉबी के असंगतिपूर्ण प्रभुत्व और “डबल इंजन सरकारों” व “अधिकतम शासन” के बदले मिलने वाले विनाश के खिलाफ मजबूत संदेश दिया है.

यह सही है कि 2024 का जनादेश मोदी शासन की सीधी शिकस्त और उसकी बर्खास्तगी से पीछे रह गया है. लेकिन इसने निश्चित रूप से इस शासन की उद्दंडता और शक्ति को काफी हद तक कमजोर कर दिया है. लोकतंत्र को राहत की सांस मिली है जिसकी उसे बहुत जरूरत थी. सुरक्षित आजीविका, इंसाफ, कानून का संवैधानिक राज, धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र और समावेशी व विविधतामूलक भारत की हिफाजत जनता के अदम्य साहस और शक्ति के साथ संसद के अंदर और उसके बाहर सड़कों पर करनी होगी. पिछले सात दशकों में भारत में संवैधानिक लोकतंत्र ने सचमुच गहरी जड़ें जमा ली हैं और हम भारत के लोग कभी भी फासीवाद को अपनी जड़ जमाने और भारत को भय व नफरत के गणतंत्र में बदलने नहीं दे सकते हैं.

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