– एन साइ बालाजी
मोदी सरकार का पहला कार्यकाल विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) सहित विज्ञान और समग्र उच्च शिक्षा के बजट में कटौती, आरक्षण का खात्मा, छात्रों और शिक्षकों का तिरस्कार व उत्पीड़न, झूठ और बदनामी के जरिए प्रमुख विश्वविद्यालयों को निशाना बनाना; जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में यौन उत्पीड़न के खिलाफ निर्वाचित सदस्यों वाली स्वायत्त ‘लिंग संवेदीकरण समिति’ (जीएसकैश) की जगह मनोनीत सदस्यों वाली कठपुतली ‘आंतरिक शिकायत समिति’ का गठन, फीस वृद्धि, छात्र राजनीति का अपराधीकरण जैसी चीजों का गवाह रहा है.
2019 से अब तक मोदी सरकार का दूसरा कार्यकाल सार्वजनिक वित्त पोषित शिक्षा और उन्हें नियंत्रित करने वाले संस्थानों को पूरी तरह तहस-नहस कर केंद्रीकृत, काॅर्पाेरेटपरस्त और सांप्रदायिक नजरिये वाले माॅडल में बदलने का रहा है जो समावेशी, सस्ती और सुलभ शिक्षा की नीतियों के उलट रहा है.
मुगल काल, गुजरात दंगों और लोकतांत्रिक आंदोलनों से संबंधित अध्यायों को हटाकर इतिहास को झुठलाने की कोशिश जारी है. सरकार प्रासंगिक पाठों और संबंधित अध्याय को हटाकर लोकतंत्र और संवैधानिक लोकाचार में छात्रों को अप्रशिक्षित करने की कोशिश कर रही है. साथ ही, ब्रिटिश औपनिवेशिक विरासत का पक्ष लेने वाले और नफरत की राजनीति को प्रचारित कर संस्थागत रूप देने वाले सावरकर, गोलवलकर और संघ परिवार से जुड़े अन्य लोगों पर पाठ्यक्रम में अध्याय जोड़ हिंदुत्व के फासीवादी विचार को सरकार बढ़ावा दे रही है.
हाल ही में हमने देखा है कि किस तरह से दिल्ली विवि सहित अन्य विश्वविद्यालयों में जाति, लिंग और अन्य प्रकार के भेदभावों पर अध्ययन करने वाले विभागों के पाठ्यक्रम को बंद करने के लिए मजबूर किया गया है. यह सब पाठ्यक्रम में सुधार के नाम पर किया जा रहा है. हालांकि, जो बदलाव सुझाए गए हैं, वे भेदभाव को बढ़ावा देने वाली मौजूदा असमान संरचनाओं को ही और मजबूत करेंगे.
संसद में राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) पर बिना किसी चर्चा के इसे छात्रों और शिक्षकों पर एकतरफा थोप कर सार्वजनिक वित्त पोषित शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से बर्बाद कर दिया गया है. एनईपी कर्ज-आधारित शिक्षा व्यवस्था का माॅडल स्थापित करना चाहता है.
विश्वविद्यालयों और संस्थानों को अब उच्च शिक्षा निधि प्राधिकरण (एचइएएफ) के जरिये बैंकों से ट्टण लेने की जरूरत है और छात्रों को बढ़ी हुई फीस और शिक्षा पर हुए खर्च को बैंकों के माध्यम से ऋण लेकर चुकाना होगा. इस वजह से कठिन संघर्ष से हासिल सामाजिक न्याय की नीतियां एनईपी 2020 के साथ नष्ट हो गई हैं, क्योंकि यह उच्च शिक्षा के काॅर्पाेरेट अधिग्रहण के लिए जोर देती है, जहां आरक्षण की नीतियां नही लागू होगी. नई शिक्षा नीति के पूरे दस्तावेज में एक बार भी आरक्षण का उल्लेख नहीं है. सार्वजनिक-निजी-लोकोपकारी शिक्षा माॅडल को बढ़ावा देने से काॅर्पोरेट्स के लिए विश्वविद्यालय खोलने का रास्ता खुल जाता है. यदि पहले की नीतियों ने शिक्षा के निजीकरण को बढ़ावा दिया था, तो एनईपी 2020 शिक्षा को काॅर्पाेरेट के हवाले करने और निजीकरण को शिक्षा के नए कायदे के बतौर संस्थागत बनाने की दिशा में बढ़ा एक और कदम है.
गुजरात के रहने वाले और आइआइटी बाॅम्बे के प्रथम वर्ष में पढ़ाई कर रहे दलित छात्रा दर्शन सोलंकी ने 12 फरवरी 2023 को आत्महत्या कर ली. उनके परिवार ने दावा किया है कि दर्शन को कैंपस में जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा और वह चाहते थे कि जांच कराई जाए. दर्शन सोलंकी की आत्महत्या ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी (एचसीयू) में रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या के बाद सुझाये गए कदमों पर आईआईटी और अन्य केंद्रीय विश्वविद्यालयों द्वारा अमल किया गया या नही. रोहित की मृत्यु ने उच्च शिक्षा में उत्पीड़ित पृष्ठभूमि से आने वाले छात्रों द्वारा सामना किए जाने वाले संस्थागत भेदभाव के बारे में ज्वलंत सवाल खड़े कर दिए हैं. आईआईटी और अन्य केंद्रीय विश्वविद्यालय पिछले कुछ वर्षों में हाशिए पर रहने वाले तबके के छात्रों द्वारा आत्महत्या करने में बढ़ोतरी दर्ज करने के लिए बदनाम रहे हैं. वेमुला और सोलंकी के मामलों के अलावा पहली पीढ़ी की आदिवासी छात्रा पायल तड़वी द्वारा उत्पीड़न की वजह से की गई आत्महत्या ने दलितों, आदिवासियों और अन्य हाशिए पर रहने वाले समुदायों के खिलाफ जातिगत भेदभाव की विषाक्त भूमिका के बारे में गंभीर सवाल उठाए हैं. इसी तरह, अक्टूबर 2016 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के छात्रों द्वारा हमले के बाद लापता हुए जेएनयू के छात्र नजीब अहमद का अभी तक पता नहीं चल पाया है. उनके परिवार को आज भी इंसाफ का इंतजार है.
अब एनईपी 2020 के साथ चार-वर्षीय मल्टीपल एंट्री और एग्जिट सिस्टम (एमईईएस) प्रोग्राम की शुरूआत से, जिसे एफवाईयूपी भी कहा जाता है, शिक्षा गरीब और हाशिए पर रहने वाले तबके के छात्रों की पहुंच से बाहर हो जाएगी और निष्कासन संस्थागत स्वरूप ले लेगा. दिल्ली विवि, लखनऊ विवि और भारत के अन्य प्रमुख विश्वविद्यालय इस समावेशी विरोधी डिग्री कार्यक्रम को लागू कर रहे हैं, जो छात्रों को बाद की तारीख में कोर्स पूरा कर लेने की झूठी आशा के साथ अपनी शिक्षा को बीच में छोड़ने के लिए प्रोत्साहित करता है. यह हकीकत है कि आज स्नातक डिग्री वाले छात्रों को भी बाजार में नौकरी नहीं मिल पा रही है. अब, छात्रों को पहले, दूसरे और तीसरे वर्ष के अंत में केवल एक प्रमाण पत्र, एक डिप्लोमा या एक डिग्री के साथ बाहर निकलने की अनुमति देने से उनकी नौकरी की संभावनाएं को साफ तौर धूमिल हो जाएगी.
नई शिक्षा नीति (एनईपी 2020) सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) को बढ़ाने हेतु ऑनलाइन/डिजिटल शिक्षा के उपयोग को माॅडल के बतौर पेश करने के लिए विस्तार से बात करता है. एनईपी 2020 के बाद स्थापित एक ऑनलाइन शिक्षा संस्थान गीकलर्न के हालिया मामले ने उजागर किया है कि कैसे शिक्षा के प्रति प्रतिबद्धता के बिना लाभ के भूखे लोगों द्वारा छात्रों की आकांक्षाओं का शोषण किया जाता है. गीकलर्न ने छात्रों को इन्फाॅर्मेशन टेक्नोलाॅजी से संबंधित खास पाठ्यक्रमों में गुणवत्तापूर्ण प्रशिक्षण का वादा किया था. इस कोर्स को पढ़ने के लिए छात्रों ने 2 से 5 लाख रुपये तक का कर्ज लिया. फिर भी, फीस के भुगतान के बाद ऑनलाइन शिक्षा कंपनी न केवल वादे के मुताबिक कक्षाएं करवाने में विफल रही, बल्कि छात्रों के करोड़ों रुपये भी डकार गई. देश भर में 2000 से अधिक छात्र इस घोटाले का विरोध कर रहे हैं, फिर भी राज्य सरकार या केंद्र सरकार के पास उन छात्रों को राहत देने की कोई नीति नहीं है और वे लिए गए कर्ज को चुका रहे हैं. बायजू और अन्य ऑनलाइन लर्निंग प्लेटफाॅर्म का भी यही हाल है. यहां भी किये गए वायदे को नही पूरा करने से छात्रों की परेशानी के मामले सामने आए हैं. ऑनलाइन/डिजिटल शिक्षा का माॅडल कंपनियों के लिए छात्रों की आकांक्षाओं से लाभ कमाने का एक और तरीका है.
विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) नीति की तर्ज पर गुजरात सरकार द्वारा स्थापित गिफ्ट सिटी (गुजरात इंटरनेशनल फाइनेंस टेक-सिटी) में विदेशी विश्वविद्यालय की स्थापना ने भारत में ऑफशोर इकाई के बतौर अपने कैंपस खोलने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है. इन संस्थानों को नियंत्रित करने वाले नियमों में साफगोई और उद्देश्य के अभाव से यह सन्देह पैदा होता है कि क्या यूजीसी या कोई अन्य भारतीय प्राधिकरण उनकी निगरानी करेगा या मेजबान देश के कायदे-कानून उन पर लागू होंगे क नही?
इसके साथ ही छात्रों से वसूली गयी फीस से अर्जित मुनाफे को इन संस्थानों के अपने मूल देश मे भेजने की अनुमति देने का एक और खतरनाक प्रावधान इस बात का प्रतीक है कि कैसे मोदी सरकार की नई शिक्षा नीति न केवल प्रतिभा पलायन बल्कि धन के पलायन को भी प्रोत्साहित करती है. इन संस्थानों को फैकल्टी की भर्ती, एडमिशन और फीस के संबंध में अपनी नीतियां तैयार करने की पूर्ण स्वायत्तता ऐसे दौर में दी गयी है, जब अत्यधिक केंद्रीकरण और नियंत्रण के जरिए सार्वजनिक वित्त पोषित विश्वविद्यालयों में इसे बिल्कुल कम या सीमित कर दिया गया है.
सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित शिक्षा को व्यवस्थित रूप से तहस-नहस करने के बाद, मोदी सरकार अब ऐसे फैकल्टी सदस्यों की नियुक्ति करके इसके ताबूत में आखिरी कील ठोंक रही है, जिनके शैक्षणिक रिकाॅर्ड संदिग्ध हैं. दिल्ली विवि और अन्य केंद्रीय विश्वविद्यालयों में फैकल्टी में मजमून की चोरी करने वालों की नियुक्ति और बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के मामले सामने आ रहे हैं. अकादमिक रूप से निम्न शैक्षणिक मापदंडों और भाजपा व संघ परिवार और उनके नफरत के प्रचार की विचारधारा में निष्ठा रखने वाले संदेहास्पद फैकल्टी की नियुक्ति करके मोदी सरकार केंद्र सरकार के मातहत संचालित काॅलेजों, विश्वविद्यालयों और संस्थानों को ऐसे प्रचार केंद्रों में तब्दील कर रही है जो हिंदुत्व की नफरत भरी राजनीति का प्रसार करेंगे. ये अब उच्च शिक्षा के केंद्र नहीं रहेंगे.
मोदी सरकार द्वारा शिक्षा को उत्पाद में तब्दील कर देने और नफरत फैलाने का जरिया बनाया जा रहा है. आज के दौर की पुकार है कि एकजुट होकर शिक्षा में बड़ी बेरहमी से किये जा रहे इन बदलावों के खिलाफ सशक्त प्रतिरोध खड़ा किया जाए और एक समावेशी और लोकतांत्रिक समाज बनाने के लिए हमारे विश्वविद्यालयों को फिर से संवारा और बेहतर बनाया जाए.