वर्ष - 32
अंक - 27
02-07-2023

आज भारत में कार्यपालिका की लगातार आक्रामकता से चल रहे शासन ने विधयिका को कमजोर कर इसे कानून बनाने के महज वफादार औजार में तब्दील कर दिया है. न्यायपालिका की तरफ से आने वाले किसी भी सुधारात्मक उपाय को कार्यपालिका के अध्यादेशों के जरिये तिरस्कारपूर्वक खारिज कर दिया जा रहा है. लोकतंत्र का चौथा खंभा कहे जाने वाले मीडिया को कारगर तरीके से एक रजामंद सहयोगी के बतौर बदल गया है जिसका काम केंद्र सरकार के एजेंडे की वकालत करना, उसकी व्याख्या करना और सर्वोच्च नेता की शान में विज्ञापन करना भर रह गया है. पिछले सात दशकों से भारत के संवैधानिक लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण बना रहा शक्तियों का पृथक्करण और संस्थागत नियंत्रण व संतुलन का सिद्धांत आज बुरी तरह से खोखला होकर कमजोर हो गया है.

चुनावी अखाड़े में पैदा हुआ बड़ा असंतुलन सत्ता के इस आक्रामक केंद्रीकरण को आसान बना रहा है. सत्तारूढ़ दल और प्रमुख विपक्षी दल के बीच 543 निर्वाचित सदस्यों के सदन में 250 तक का अंतर है. यद्यपि राज्यों की स्थिति थोड़ी ज्यादा संतुलित है, क्योंकि कई चुनावों में भाजपा को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया या जीतने से रोक दिया गया है. लेकिन फिर भी मोदी शासन ने बार-बार गैर-भाजपा राज्य सरकारों को गिराया है, और राज्य सरकारों को गिराने में विफल रहने पर उन राज्यों में केंद्रीय एजेंसियों और राज्यपाल या उपराज्यपाल के कार्यालयों के जरिये प्रतिशोध की एक अनवरत लड़ाई छेड़ रखी है. यदि भारत को पूरी तरह से चुनावी निरंकुशता में जाने से बचाना है तो 50 वर्षों तक शासन करने और बहुदलीय लोकतंत्र को एक-दलीय शासनतंत्र के अधीन करने का सपना देखने वाली सत्तासीन भाजपा के खिलाफ एक मुखर और एकजुट राजनीतिक विपक्ष जरूरी है.

1977 तक भारत में केन्द्र में कांग्रेस का निर्बाध शासन था. हालाकि, इन तीन दशकों के लंबे कांग्रेस शासन के पिछले कुछ वर्षों को आंतरिक आपातकाल का ग्रहण लग गया था और संवैधानिक लोकतंत्र निरंकुश शासन के खतरनाक फंदे में फंस गया था. 1977 के चुनावों में उस ग्रहण का अंत हुआ, और दक्षिणपंथी और मध्य-दक्षिणपंथी पार्टियों के अल्पकालिक विलय से बनी जनता पार्टी ने केंद्र में कांग्रेस की जगह ली. 1977 के बाद की अवधि में सरकार में बार-बार परिवर्तन देखा गया और एक प्रमुख एक-दलीय शासन के स्थान पर गठबंधन युग का उदय हुआ. आरएसएस ने अपने प्रभाव और संगठनात्मक नेटवर्क का विस्तार करने के लिए इस विकास का व्यवस्थित रूप से उपयोग किया है. 1977 में जनसंघ को भंग कर जनता पार्टी बनाने से लेकर 1980 के दशक में उसे पुनः भारतीय जनता पार्टी के रूप में  स्थापित करने तक, और की कवायद ने 1990 के दशक के मध्य में अपने मूल एजेंडे में कुछ सबसे विवादास्पद मुद्दों को ठंडे बस्ते में डालने से लेकर लगातार दो बार लोकसभा चुनावों में जीत के बाद अपने पूरे हिंदू राष्ट्र प्रोजेक्ट को खुले तौर पर लागू करने तक, संघ-भाजपा प्रतिष्ठान ने अपनी ताकत बढ़ाने के लिए भारत के संसदीय लोकतंत्र में सामाजिक उथल-पुथल और राजनीतिक अवसरों का भरपूर उपयोग किया है.

भाजपा के एकतरफा राजनीतिक वर्चस्व के परिणामस्वरूप न केवल सत्ता का एक निरंकुश शासन के हाथों में बेलगाम केंद्रीकरण हुआ है. बल्कि, संघ-भाजपा प्रतिष्ठान अपनी चुनावी जीत को आरएसएस के विश्व-दृष्टिकोण और हिंदुत्व या हिंदू वर्चस्ववादी बहुसंख्यकवाद के ढांचे के अनुसार भारतीय राज्य और साथ ही, समाज को नया आकार देने के लाइसेंस के बतौर इस्तेमाल कर रहा है. आज सत्ता के केंद्रीकरण के साथ-साथ हिंसा का विकेंद्रीकरण और घृणा अपराधें का सामान्यीकरण मोदी सरकार की पहचान बन गए हैं. जहां एक तरफ बेलगाम कॉरपोरेट लूट, अनवरत राज्य दमन और खुफिया ग्रुपों की सुनियोजित हिंसा ने भारत को भय के गणतंत्र में बदल दिया है जहां नागरिकों को एक निगरानी राज्य द्वारा नियंत्रित समाज के भयभीत निवासियों में तब्दील कर दिया गया है. राजनीतिक विरोधियों के साथ निरंतर प्रतिशोध का व्यवहार किया जा रहा है; वैचारिक असहमति जताने वालों को लगातार निशाना बना दंडित किया जा रहा है; दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और उत्पीड़ित गरीबों पर अत्याचार बढ़ रहे हैं; और अल्पसंख्यक, खासतौर से मुस्लिम समुदाय को घृणा अभियान, बहिष्कार और यहां तक कि पूरी तरह से नरसंहारी हिंसा का शिकार बनाया जा रहा है. जब राजनीति आवाम की चिंता से परे सिर्फ सत्ता हासिल करने का सनक-भरा जरिया बन जाए तो देश यकीनन सर्वभक्षी अराजकता के दलदल में धंस जाएगा. आज मणिपुर के साथ जो हो रहा है वह कल पूरे भारत के लिए एक चेतावनी है.

जाहिराना तौर पर, भारत को तत्काल अपना रास्ता बदलने की जरूरत है. संवैधानिक रूप से घोषित एक संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारतीय गणराज्य का सपना, सभी नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रता के चार्टर के साथ एक अरब से ज्यादा लोगों के काम आने लायक लोकतंत्र के मानदंड, विविधता में एकता वाला सामाजिक ताना-बाना और सामासिक संस्कृति, तथा संघीय राज्यों के संघ के बतौर भारत को संचालत करने वाला संघीय ढांचा – अब इनमें से किसी भी चीज के बचने की गारंटी नहीं की जा सकती है. भारत के फासीवादी हिंदू वर्चस्ववादी राज्य के बतौर भारत का एक वैकल्पिक गतिपथ उस आधुनिक भारत की संवैधानिक यात्रा के बेपटरी हो जाने का खतरा पैदा कर रहा है जिस आधुनिक भारत को हम 75 वर्ष पूर्व आजादी हासिल करने के समय से जानते और पहचानते हैं.

इसलिए, हमें नए किस्म के सामाजिक संबंध बनाने और भारतीय आवाम के साथ नया रिश्ता कायम करने की जरूरत है. यह निश्चित तौर से सिर्फ मोदी शासन को वोट से हराकर हासिल नहीं किया जा सकता है, बल्कि भारत के मौजूदा शासन की कई प्रचलित नीतियों और पैटर्न पर फिर से विचार कर उन्हें बदलने की जरूरत है, जिनमें से कुछ तो मोदी के शासनकाल से पहले यूपीए और उसके पूर्व के जमाने से चले आ रहे हैं. चाहे वह कॉरपोरेट-परस्त आर्थिक रियायतें और निजीकरण हो, ‘आधार’ और जीएसटी हो, या यूएपीए कानून और फर्जी मुठभेड़ें हों – मोदी-युग की कई आपदाओं और हमलों की जड़े गैर-भाजपा शासनों में तलाशी जा सकती हैं.

विपक्षी दलों की बहुप्रतीक्षित पहली बैठक पर बड़ी आशाओं की फेहरिस्त का बोझ डालना निश्चित तौर से नासमझी होगी. यह बैठक हो रही है, इसे ही अपने आप में एक सकारात्मक शुरूआत के बतौर देखा जाना चाहिए. संयोगवश, चार महीने पहले भाकपा(माले) के 11वें महाधिवेशन के अवसर पर 18 फरवरी को पटना में आयोजित ‘लोकतंत्र बचाओ, भारत बचाओ’ सम्मेलन में ऐसी बैठक की जरूरत पर जोर डालते कहा गया था कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के लगातार दो कार्यकालों से उत्पन्न आपदा से भारत को बचाने के लिए एक जीवंत और विश्वसनीय विकल्प की शुरूआत की दिशा में गैर-भाजपा दलों की एक व्यापक बैठक पहला कदम होगा. पहली बैठक में भाग लेने वाले नेता भारत के विपक्षी दलों के संतोषप्रद मिश्रण का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनमें कांग्रेस और उससे टूट कर बनने वाली पार्टियां, समाजवादी धारा और सामाजिक न्याय खेमे की संबंधित पार्टियां जिनमें पुराने लोक दल और जनता दल की शाखाओं की पार्टियां शामिल हैं, कम्युनिस्ट पार्टियां, अनेक क्षेत्रीय दल, और हाल में ही राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल करने वाली आम आदमी पार्टी भी शामिल हैं. क्या ऐसा गठबंधन टिकाऊ हो सकता हो सकता है? इसी तरह के गठबंधन वर्तमान में तमिलनाडु और बिहार जैसे राज्यों में काम कर रहे हैं, और हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 2004 और 2014 के बीच यूपीए ने दो पूर्ण कार्यकाल बढ़िया से पूरा किया था. इसलिए ऐसी कोई वजह नहीं है कि देश को जिस दलदल में मोदी सरकार ने फंसा दिया है, उससे बाहर निकालने के लिए कोई स्थायी किस्म का विकल्प विकसित नहीं किया जा सके.

फिलहाल, विपक्षी एकता प्रक्रिया में शामिल होने वालों में से कुछ अलग-अलग क्षेत्रीय पार्टियां हैं, जबकि कुछ पार्टियां एक ही मैदान में प्रतिस्पर्ध कर रहे हैं. प्रतिस्पर्ध से सहयोग की ओर परिवर्तन – यदि आप चाहें तो इसे सहयोगी प्रतिद्वंद्विता कह सकते हैं – निश्चित तौर से इसे बढ़ने और विकसित होने के लिए कुछ प्रयासों और एक अनुकूल माहौल सहित सक्षम ढांचे की आवश्यकता होगी. तर्कसंगत और पारस्परिक रूप से स्वीकार्य सीट-बंटवारे की व्यवस्था में भी कुछ कठिनाइयां हैं. लेकिन मौजूदा हालात में भारत के सामने मौजूद अभूतपूर्व और असाधारण राजनीतिक परिस्थितियों के कारण एकता अनिवार्य है.

कई मायनों में यह भारत की आजादी की दूसरी लड़ाई है. राजनीतिक स्वतंत्रता और सामाजिक परिवर्तन के आंदोलन में कई धाराएं और रंग थे जो 1947 से पहले के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एकजुट साथ आए थे. इस विविधतापूर्ण शानदार इतिहास से हमारे संविधान की पैदाइश हुई और अंबेडकर के दूरदर्शी दृष्टिकोण ने हमें उन विरोधाभासों और अलहदगी की दरारों  के बारे में चेतावनी दी थी, जिन्हें लोकतंत्र को धरातल पर उतारने और सार्थक बनाने के लिए भारत को दूर करना होगा. आज जब आधुनिक भारत का संवैधानिक नजरिया और बुनियाद अब तक के सबसे गंभीर खतरे का सामना कर रहा है, तो भगत सिंह, अंबेडकर, पेरियार, गांधी और नेहरू की विरासतों को वर्षों के फासीवादी हमले के बाद लोकतंत्र को बहाल करने और पुनर्जीवित करने के लिए एक साथ लाना होगा.

स्वतंत्रता आंदोलन की समृद्ध विरासत के अलावा संसदीय लोकतंत्र के सात दशकों ने ‘हम, भारत के लोग’ को पर्याप्त राजनीतिक अनुभव से भी लैस किया है. इन सात दशकों में कई नई पार्टियां सामने आईं जिनमें से कई की जड़ें सामाजिक, क्षेत्रीय और जातीय पहचान पर आधारित हैं. इन पार्टियों को अलग-थलग और विविध बनावटों के बतौर देखने के बजाय, हमें सबसे पहले संघीय लोकतांत्रिक माहौल विकसित करना होगा, जिसमें सभी पार्टियों की साझी हिस्सेदारी हो. असाधारण परिस्थितियां असाधारण जवाब की मांग करती हैं – अगले लोकसभा चुनावों से पहले भारत को वास्तव में विपक्ष को एकजुट होकर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने की जरूरत है. जनता में अपने अधिकारों, सुरक्षित आजीविका, स्वतंत्रता और न्याय को हासिल करने की चाहत बढ़ रही है. जमीनी स्तर पर लोगों के संघर्षों और आकांक्षाओं के साथ घनिष्ठ संबंध बनाकर विपक्षी एकता की प्रक्रिया को ऊर्जान्वित करने की जरूरत है.