[ भाकपा(माले) महासचिव कामरेड दीपंकर भट्टाचार्य की ओर से विगत 11 जुलाई 2023 को समान नागरिक संहिता के संदर्भ में 22वें विधि आयोग के सदस्य सचिव को सौंपा गया प्रत्यावेदन ]
भारत के 22 वें विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता पर आम जनता और ‘मान्यता प्राप्त धार्मिक संगठनों’ की राय जानने के लिए एक सार्वजनिक नोटिस जारी किया है. नोटिस कहता है कि “21 वें भारतीय विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता के विषय का परीक्षण किया और 7 जुलाई 2016 को अपनी अपील और प्रश्नावली के जरिये तथा पुनः 19 मार्च 2018, 27 मार्च 2018 और 10 अप्रैल 2018 के सार्वजनिक अपील/नोटिस के जरिये सभी हितधारकों के विचार आमंत्रित किए. तदनुसार आयोग को उत्साहजनक प्रतिक्रिया प्राप्त हुई. 21वें विधि आयोग ने 31 अगस्त 2018 को ‘पारिवारिक कानून में सुधार’ नामक परामर्श पत्र (कन्सल्टेशन पेपर) जारी किया. उक्त कन्सल्टेशन पेपर जारी होने के समय से अब तक तीन वर्ष बीत चुके हैं, अतः विषय की प्रासंगिकता और महत्व को ध्यान में रखते हुए तथा इस मामले में विभिन्न न्यायालयी आदेशों को ध्यान में रखते हुए, 22वें भारतीय विधि आयोग ने इस विषय पर नए सिरे से विचार करना तय किया. तदनुसार 22वें भारतीय विधि आयोग ने पुनः व्यापक तौर पर आम जनता से तथा मान्यता प्राप्त धार्मिक संस्थाओं के विचार, समान नागरिक संहिता के बारे में जानने का फैसला किया.”
जो सार्वजनिक सूचना जारी की गयी है, वह जनता और ‘मान्यता प्राप्त धार्मिक संस्थाओं’ का आह्वान करती है कि वे समान नागरिक संहिता के बारे में अपने विचार प्रस्तुत करें, लेकिन सूचना यह नहीं कहती कि इस कवायद से क्या हासिल होगा और इस कवायद का या नागरिक संगठनों पर ‘मान्यता प्राप्त धार्मिक संगठनों’ को तरजीह देने का कोई औचित्य प्रस्तुत नहीं किया गया.
जून 2016 में भारत सरकार ने विधि आयोग को समान नागरिक संहिता से जुड़े हुए तमाम मुद्दों को हल करने का दायित्व सौंपा. 31 अगस्त 2018 को न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) बीएस चौहान की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने पारिवारिक कानून में सुधार पर एक कंसलटेशन पेपर पेश किया, जिसमें विस्तार से समान नागरिक संहिता और पर्सनल लाॅ में सुधार पर भी चर्चा की गयी थी.
आयोग ने शुरुआत में ही नोट किया कि हालांकि ‘वर्तमान पर्सनल लाॅ के विभिन्न पहलू महिलाओं को वंचित करते हैं’, लेकिन यह ‘भिन्नता नहीं भेदभाव है जो कि असमानता की जड़ है’ और ‘आगे का सर्वाेत्तम रास्ता यह है कि पर्सनल लाॅ की विविधता को संरक्षित किया जाये, लेकिन साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाये कि पर्सनल लाॅ, भारत के संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के विरोधाभासी न हों.’
विधि आयोग ने इस बात को माना कि ‘महिलाओं को उनके धर्म की स्वतंत्रता की गारंटी होनी चाहिए और यह उनके समानता के अधिकार से कोई समझौता किए बगैर होना चाहिए’. भारतीय संस्कृति की विविधता का गुणगान करना चाहिए, लेकिन यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विशिष्ट समूह या हाशिये पर मौजूद तबके, इस प्रक्रिया से नुकसान में न रहें. आयोग ने समान नागरिक संहिता लागू करने के बजाय लैंगिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए सभी धर्मों के पारिवारिक कानूनों में सुधार पर ज़ोर दिया. समान नागरिक संहिता के बारे में उसने कहा कि ‘इस समय न तो वह जरूरी है और ना वांछित.’
21वें विधि आयोग ने विवाह और तलाक, संरक्षता और अभिभावकत्व, गोद लेने और रख-रखाव तथा उत्तराधिकार व विरासत के बारे में विभिन्न व्यावहारिक संस्तुतियां कीं और सभी धर्मों के पर्सनल लाॅ व धर्मनिरपेक्ष कानूनों में सुधार के सुझाव दिये ताकि जो प्रतिकूल स्थितियां महिलाओं को झेलनी पड़ती हैं, वे दूर हो जाएं. परंतु आज तक इनमें से कोई संस्तुति लागू नहीं की गयी है.
सभी धर्मों के पर्सनल लाॅज में ऐसे प्रावधान हैं, जो महिलाओं के प्रति भेदभाव से भरे हैं और ये संविधान प्रदत्त समानता के मौलिक सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं. लेकिन यह विश्वास कि ‘समान नागरिक संहिता’ इस भेदभाव का जवाब है, पूर्णतया गलत है. यह समझना आवश्यक है कि असमानता का मूल कारण भेदभाव है, भिन्नता नहीं. पर्सनल लाॅज में कोई भी संशोधन असमानता को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए ताकि समानता की संवैधानिक गारंटी सुनिश्चित की जा सके, ना कि एकरूपता थोपने के लिए संशोधन किया जाए. जरूरत ऐसे कानूनी सुधार और संस्थाबद्ध सुधार की है जो लैंगिक न्याय की दिशा में कदम बढ़ाए.
22वें विधि आयोग की वर्तमान कार्यवाही, समान नागरिक संहिता की आवश्यकता और वांछनीयता पर हल हो चुकी बहस को दोबारा से शुरू करने की कवायद है. सार्वजनिक नोटिस में एक चलताऊ बयान है कि ‘उक्त परामर्श पत्र जारी होने के बाद तीन साल बीत चुके हैं’ और ‘विषय की प्रासंगिकता और महत्व’ के हवाई तर्क के साथ, कोई ठोस वजह इस पूरी प्रक्रिया को दोबारा शुरू करने के लिए नहीं बताई गयी है और वह भी इतने अल्प समय में!
डाॅ. पाम राजपूत की अध्यक्षता में भारत में महिलाओं की स्थिति पर उच्च स्तरीय कमेटी (एचएलसीएसडबल्यू) की रिपोर्ट जून 2015 में जमा की गयी. इस रिपोर्ट में महिलाओं की स्थिति पर व्यापक अध्ययन किया गया ताकि समुचित नीतिगत हस्तक्षेप विकसित किए जा सकें. पर्सनल लाॅज और समान नागरिक संहिता के मामले की पड़ताल भी इस कमेटी ने की तथा राज्यों व पर्सनल लाॅज में महिलाओं की असमानता के मसले को देखने का मार्गदर्शक सिद्धांत भी दिया – ‘तरीका यह नहीं कि सबके लिए एक कानून सुनिश्चित किया जाये बल्कि यह सुनिश्चित किया जाये कि सभी महिलाएं, चाहे वे धर्मनिरपेक्ष कानूनों से शासित होना चुनें या पिफर अपने पर्सनल लाॅज से, उस समानता का लाभ उठा सकें, जो भारत का संविधान उन्हें देने का वायदा करता है. इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि ‘एकरूपता’ (जिसे कट्टरतावादी या बहुसंख्यावादी समझा जाता है) के फरमान के बजाय विशिष्ट तरीके से कानूनी दायरे में कुछ मसलों को हल किए जाये.’ रिपोर्ट आगे इंगित करती है कि ‘भेदभाव को सिर्फ कानूनी रूप से नहीं बल्कि परम्पराओं में भी खत्म करने की आवश्यकता है, जिसके लिए राज्य को कानून, नीति और तौर-तरीके ग्रहण करने होंगे तथा सक्रिय उपाय तथा सकारात्मक कार्यवाही करनी होगी ताकि इन भेदभावपूर्ण प्रावधानों और परंपराओं को खत्म किया जा सके. अतः सभी पर्सनल लाॅज समानता के सिद्धांत के अनुरूप होने चाहिए. महिलाएं काम कर रही हैं और बहुत तरह से परिवार व समाज में योगदान कर रही हैं तथा यही उचित समय है कि राज्य महिलाओं के परिवारों में अवैतनिक योगदान को मान्यता दे. राज्य को वैवाहिक संपत्ति के मामले में कानून बनाना चाहिए, जहां कोई पर्सनल लाॅज अस्तित्व में नहीं है और जन्म तथा वैवाहिक घर में संपत्ति पर महिलाओं का अधिकार सुनिश्चित करना चाहिए.’
रिपोर्ट ने विवाह, संरक्षता, देखरेख और उत्तराधिकार के मामलों में सभी धर्मों के पर्सनल लाॅज के संदर्भ में संस्तुतियां की और साथ ही धर्मनिरपेक्ष कानून के संदर्भ में भी संस्तुतियां की ताकि महिलाओं द्वारा झेली जाने वाली दिक्कतों को दूर किया जा सके.
एक महत्वपूर्ण टिप्पणी में भारत में महिलाओं की स्थिति पर उच्च स्तरीय कमेटी ने इंगित किया कि संविधान का अनुच्छेद 44 जो राज्य को समान नागरिक संहिता बनाने के प्रयास करने को कहता है, उसे घरेलू हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा अधिनियम (2005), बाल विवाह निषेध अधिनियम (2006), गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम (1971) जैसे विभिन्न कानूनों के जरिये नया अर्थ प्रदान किया गया है, जो सभी समुदायों की महिलाओं पर समान रूप से लागू होते हैं. अतः यह स्पष्ट है कि उपाय दो स्तरीय हैं – पहला ऐसे कानून लागू करना, जिनका उल्लेख ऊपर किया गया है, जो सभी सभी समुदायों की महिलाओं पर, उनके धर्मों की भिन्नता के बावजूद समान रूप से लागू हों और दूसरा सभी वर्तमान कानून में एक खास पहलू से सुधार के जरिये.
हम यह देखते हैं कि विधि आयोग ने आज की तारीख तक इस रिपोर्ट की उपेक्षा की है.
21वें विधि आयोग ने अपने परामर्श पत्र में पाया था कि एकरूपता का मतलब अनिवार्यतः समानता व समावेशिता नहीं है और ‘एक एकताबद्ध राष्ट्र को अनिवार्यतः ‘एकरूपता’ की आवश्यकता नहीं होती वरन विविधता का सामंजस्य मानवाधिकारों के विभिन्न सार्वत्रिक और निर्विवाद तर्कों से बैठना होता है.’
आज ऐसे कानूनी सुधार और सांस्थानिक सुधारों की आवश्यकता है जो लैंगिक न्याय की दिशा में ले जाएं. यह जरूरी है कि पर्सनल लाॅज में किसी तरह के सुधारों को पहले समान नागरिक संहिता से अलग किया जाना चाहिए. आज जरूरत है ऐसे कानूनी सुधारों की जो समानता, व्यक्तिगत स्वायत्तता, गरिमा, भेदभाव मुक्त, स्वतंत्रता, समावेशिता और संवैधानिक नैतिकता के सिद्धांतों को ध्यान में रख कर किए जाएं. ऐसे सुधारों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पर्सनल लाॅज और धर्मनिरपेक्ष कानूनों में से भेदभावपूर्ण प्रावधान हटाये जाएं और उन्हें ऊपर उल्लेख किए गए सिद्धांतों के अनुरूप बनाया जाये. इसका अर्थ यह है कि तलाक, गोद लेने, अभिभावकत्व और उत्तराधिकार में पुरुषों और महिलाओं को समान अधिकार हों. यह भी जरूरी है कि ऑनर किलिंग के खिलाफ, अंतर जातीय व अंतर धार्मिक जोड़ों की सुरक्षा सुनिश्चित करने, महिलाओं के अपने जीवन साथी चुनने में स्वायत्तता और समान लिंग व उभय लिंगी शादियों व रिश्तों को मान्यता देने के लिए सुधार लाये जाएं.
महिलाओं की सामानता और गरिमा को कायम रखने के लिए पर्सनल लाॅज में सुधार का पूर्णतया समर्थन करते हुए भी, समान नागरिक संहिता की बहस को खोलने की कोशिश को सचेत होकर देखने की जरूरत है और वर्तमान सांप्रदायिक माहौल में इसका विरोध करने की जरूरत है. जिस तरह से भाजपा समान नागरिक संहिता और पर्सनल लाॅज में सुधार के मसले को सामने ला रही है, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि वे लैंगिक न्याय की चिंताओं से परे देश के अल्पसंख्यकों पर सांप्रदायिक बहुसंख्यावादी एकरूपता थोपने पर उतारू हैं.
इस बहस को सांप्रदायिक रंग देना, लैंगिक न्याय के जरूरी प्रश्न को गंभीर क्षति पहुंचा रहा है. यह समझना आवश्यक है कि समान नागरिक संहिता का विमर्श सिर्फ मामले का सांप्रदायिकरण करके दोहन करने की मंशा से और धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने के लिए खड़ा किया जा रहा है और इसका लैंगिक न्याय से कोई लेना-देना नहीं है.
समान नागरिक संहिता, आदिवासियों के विशिष्ट किस्म के रीति रिवाजों, प्रथाओं और परंपराओं पर भी कुठराघात करेगी और यह इन समुदायों को जबरन हिंदू दायरे में खींचने का एक और प्रयास है. यह आदिवासियों को प्रदत्त संवैधानिक विशेषाधिकार और सुरक्षा का भी खात्मा करेगी. इसके अलावा आदिवासियों, खास तौर पर उत्तर-पूर्वी राज्यों के निवासियों के परंपरागत कानूनों और रिवाजों में दखल देने के संसद के अधिकार पर (अनुच्छेद 371 ए से 371 आई तक) कई संवैधानिक सीमाएं हैं.
यही कारण है कि देश भर में आदिवासियों ने समान नागरिक संहिता पर गंभीर आपत्ति प्रकट की है और अपनी परंपराओं और रीति रिवाजों में किसी तरह के दखल के विरुद्ध चेताया है. समान नागरिक संहिता के प्रस्ताव के विरुद्ध विभिन्न हलकों की आशंकाओं और विरोध को देखते हुए इस विषय पर सभी हितधारकों के बीच व्यापक चर्चा की आवश्यकता है ताकि इस विषय पर सामूहिक सहमति और सर्वसम्मति तक पहुंचा जा सके. यही वह भावना है, जिसके तहत संविधान निर्माताओं ने इस विषय को अनुच्छेद 44 के तहत राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के अंतर्गत रखा था, जहां राज्य को यह अधिकार दिया गया था कि वह अपने सभी नागरिकों के लिए इसे हासिल करने का प्रयास करे. हमें यह भी याद रखना चाहिए कि डाॅ.अंबेडकर ने बेहद विवेकपूर्ण तरीके से नागरिक संहिता को ऐच्छिक रखने का सुझाव दिया था. समान नागरिक संहिता के एजेंडे को फिर से इसकी उपयोगिता रेखांकित किए बिना खोले जाने के कारण, पहले ही काफी भ्रम फैल चुका है और इसने पुनः सांप्रदायिकरण और समाज के कुछ तबकों का दानवीकरण कर दिया है. कानूनी सुधार एक निरंतर जारी रहने वाला कार्य है और हड़बड़ी में, चर्चा के लिए पर्याप्त समय दिये बगैर, इस बहस को नतीजे तक ऐसे समय में पहुंचाने की कोशिश करना जबकि गणतंत्र आम चुनाव की तरफ बढ़ रहा है, कतई स्वीकार्य नहीं है.
अतः 21वें विधि आयोग की सुविचारित सलाह के विपरीत समान नागरिक संहिता के एजेंडे को दोबारा खोलने का हमें कोई तर्कसंगत कारण नजर नहीं आता है. हम सभी समुदायों व धर्मों में समानता और लैंगिक न्याय सुनिश्चित करने वाले कानूनी सुधारों के पक्षधर हैं और एकरूपता थोपने के नाम पर भारत की सांस्कृतिक विविधता की उपेक्षा करने वाले किसी भी कदम का हम पुरजोर विरोध करते हैं. विचार यह होना चाहिए कि समानता सुनिश्चित की जाये और उसका विविधता से सामंजस्य स्थापित किया जाये, ना कि इन दोनों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा किया जाए.
सधन्यवाद,
दीपंकर भट्टाचार्य,
महासचिव, भाकपा(माले)