राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने इतिहास पाठ्यपुस्तक के ‘थीम्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री - पार्ट 2’ से ‘किंग्स एंड क्रोनिकल्स : मुगल दरबार (16वीं और 17वीं शताब्दी)’ वाले अध्याय को हटा दिया है. यह बदलाव काफी दुखद है क्योंकि मुगल प्रशासकीय एकीकरण ने भारत के भौगोलिक और सांस्कृतिक नक्शा – जैसा कि आज हमारे सामने है – को शक्ल देने में मुख्य भूमिका निभाई थी. मुगल शासन के दौरान ‘इस्लामीकरण’ के बारे में लंबे समय के ब्रिटिश औपनिवेकि / हिंदुत्ववादी प्रचार के बावजूद मुगल काल अंतर्धार्मिक सम्मिश्रण और समन्वय की समृद्ध परंपरा का वारिस रहा है, जिसने खास तौर पर भक्ति आन्दोलन और अन्य सांस्कृतिक धाराओं को जन्म दिया, जिसे अब ‘हिंदू’ कहा जा रहा है. नवंबर 2022 में असम में एक सभा के दौरान गृह मंत्री अमित शाह ने कहा : ‘हमें अब गर्व के साथ अपने इतिहास को पुनः लिखने से कौन रोक सकता है? हमें इसे संशोधित करना होगा और गर्व के साथ दुनिया के सामने अपने इतिहास को रखना होगा’. इसी दिशा में हिंदू-मुस्लिम एकता बनाने के महात्मा गांधी के प्रयासों, गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध, इस हत्या में नाथूराम गोडसे की भूमिका और उसकी ब्राह्मण पृष्ठभूमि – इन सबको हाल के अतीत में सरकारी मान्यताप्राप्त ‘विशेषज्ञों’ के गुस्से का शिकार होना पड़ा है. इसी प्रकार, ‘सेंट्रल इस्लामिक लैंड’, ‘संस्कृतियों का टकराव’, और ‘औद्योगिक क्रांति’ जैसे अध्यायों को भी 11वीं कक्षा की पाठ्यपुस्तक ‘थीम्स इन वर्ल्ड हिस्ट्री’ से हटा दिया गया है.
भारतीय इतिहास में इन संशोधनों को अन्य विषयों में किए गए इसी किस्म के बदलावों के साथ मिलाकर देखा जाना जरूरी है. कक्षा 7 और 8 के लिए समाज विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों से दलित लेखक ओम प्रकाश वाल्मीकि के संदर्भों को हटा दिया गया है. इसके पहले 2002 के गुजरात जनसंहार से जुड़े संदर्भों को हटाया गया; आम जनता और संस्थाओं पर आपातकाल के भयावह प्रभावों के उल्लेख वाले पैराग्राफों को छोड़ दिया गया; महत्वपूर्ण प्रतिवादों और सामाजिक आन्दोलनों – जैसे कि नर्मदा बचाओ आन्दोलन, दलित पैंथर्स और भारतीय किसान यूनियन के आन्दोलनों – को भी समाज विज्ञान के पाठ्यपुस्तकों से हटा दिया गया था. स्पष्ट है कि पाठ्यपुस्तकों का भगवाकरण करने के लिए 2014 के बाद किए जा रहे प्रयासों के तहत ही तीन विषय वस्तुओं को हटाया गया है अथवा इन्हें ढीला बनाया गया है. पहला, भारतीय इतिहास के अभिन्न अंग के बतौर मुस्लिमों का वर्णन; दूसरा, इस देश में लोकप्रिय सामाजिक-राजनीतिक जन आन्दोलनों का उल्लेख; और तीसरा, आरएसएस और उनके विचारकों द्वारा किए गए अत्याचारों की चर्चा.
स्कूल सिलेबस को बदलना आरएसएस का लंबे समय का एजेंडा रहा है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी, 2020) ने अब उसे अपने वांछित बदलाव को वैधता प्रदान करने के लिए आवश्यक नीति ढांचा मुहैया कर दिया है. एनईपी 2020 में परिभाषित शिक्षण उद्देश्यों पर आरएसएस का असर साफ-साफ दिखता है. इस दस्तावेज में संवैधानिक मूल्यों के साथ आरएसएस ने अपने मूल्यों का ऐसा घोलमट्ठा तैयार किया है जिसमें संवैधानिक अधिकारों का कोई जिक्र ही नहीं है. इन मूल्यों के स्रोत के बतौर प्राचीन भारतीय परंपराओं के संदर्भ भरे पड़े हैं, किंतु उसमें इस्लाम के लिए कोई जगह नहीं है; और उस दस्तावेज में शिक्षा के मूल उद्देश्य के बतौर अधिकारों के बरखिलाफ केवल कर्तव्यों को समाविष्ट कर दिया गया है.
एनईपी कई दूसरे तरीके से भी भगवाकरण का रास्ता साफ करता है. उसमें सरकार को निजी हाथों में कई कामों की आउटसोर्सिंग करने के लिए प्रोत्साहित किया गया है – जैसे कि शिक्षक प्रशिक्षण, एसेसमेंट, शैक्षिक परिसरों में सुरक्षा सेवा आदि. शिक्षा में एनजीओ और निजी संगठनों की हिस्सेदारी के नियम-कानूनों पर किसी स्पष्टता के बगैर यह आशंका सही तौर पर उठती है कि आरएसएस-समर्थित निकायों को शिक्षक प्रशिक्षण, एसेसमेंट और अन्य कैंपस सेवाओं में पहले से अधिक भूमिका दी जाएगी. यह सब पाठ्यक्रमों के भगवाकरण के साथ-साथ चलेगा और इस प्रकार शिक्षा के क्षेत्र में भय, विभाजन और मातहती का माहौल तैयार किया जाएगा; साथ ही, आलोचनात्मक और संविधान की भावना के अनुकूल शिक्षाशास्त्र को भी तहस-नहस कर दिया जाएगा. इस संयोजन में बड़े कॉरपोरेटों को भारी मुनाफा बटोरने का मौका मिलेगा क्योंकि उनके हाथ में काफी हद तक डाउनसाइज कर दी गई वोकेशनल शिक्षा तथा पाठ्यक्रमों के हिंदुत्ववादी पुनर्गठन के जरिये सस्ता व आज्ञाकारी श्रम बल सौंप दिया जाएगा; एनईपी के जरिये मुनाफा के खुले-छिपे नए-नए मौके खोलने की तो बात ही मत कीजिए.
एनसीईआरटी पाठ्यक्रमों पर इस हमले पर ध्यान देने की जरूरत है, क्योंकि मौजूदा पाठ्यपुस्तकों में इसके पहले के पाठ्यपुस्तकों की तुलना में लोकतांत्रिक परंपराओं और संवैधानिक भावना की कहीं ज्यादा झलक मिलती है. पाठ्यक्रम का यह ढांचा 2005 में कांग्रेस-नीत सरकार के दौरान पेश किया गया था; लेकिन ये पाठ्यपुस्तकें भारतीय समाज और इतिहास के कांग्रेसी विमर्श से परे चली जाती थीं. मिसाल के तौर पर, 2005 के बाद के स्कूली इतिहास पाठ्यक्रम में जातीय व लैंगिक अत्याचारों की चर्चा होती थी, ताकि इनपर काबू पाया जा सके; साथ ही, उनमें बच्चों पर अतीत के बारे में सूचनाओं का बोझ लादने की बजाय उन्हें ऐतिहासिक रूप से सोचने की प्रेरणा जगाई जाती थी. पाठ्यक्रम का यह खाका शिक्षा के सीमित, किंतु महत्वपूर्ण लोकतांत्रीकरण की उपज था, जो 1970 के दशक में हुआ था. इसने दलित बहुजन, नारीवादी, आदिवासी और मार्क्सवादी विद्वानों की कई पीढ़ियों के परिप्रेक्ष्यों को समाविष्ट किया था. एनसीईआरटी सिलेबस पर यह हमला आलोचनात्मक शिक्षा की मानसिकता पैदा करने वाले सार्वजनिक शिक्षा के अवसरों पर हमला का ही दूसरा रूप है.