एलजीबीटीक्यूआइ समुदाय के पंद्रह से अधिक जोड़ों ने याचिका दायर कर यह मांग की है कि उनके रिश्तों को कानून द्वारा विवाह की वैधता प्रदान की जाए. चूंकि यह मौलिक संवैधानिक मुद्दों से जुड़ा मामला है, इसलिए भारत के मुख्य न्यायाधीश ने अनुच्छेद 145(3) का हवाला देते हुए विवाह के अधिकार की दलील देने वाली इन याचिकाओं को पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ के पास भेज दिया है.
याचिका की जांच करते वक्त एक बच्चे के मनोविज्ञान के बारे में चिंता जाहिर करते हुए यह चर्चा किया गया कि उसके लिए माता-पिता के रूप में दो पुरुषों या दो स्त्रियों को देखना परिवार की भारतीय अवधारणा से नहीं मेल खाता है. देश में प्रचलित विवाहों के बारे में केंद्र सरकार ने अपने हलफनामे में कहा है कि हिंदू विवाह एक संस्कार व पवित्र मिलन है जो एक पुरुष और एक महिला के बीच पारस्परिक कर्तव्यों को पूरा करने के लिए है. मुसलमानों के लिए यह एक करार है जो सिर्फ एक जैविक पुरुष और एक जैविक स्त्री के बीच ही संभव है. धार्मिक और सामाजिक मापदंडों से गहराई से जुड़े देश की विधायी नीति पर यह याचिका प्रतिकूल असर डालेगी. ताकतवर हिंदू राष्ट्रवादी संगठन आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि समलैंगिक लोग भारतीय समाज का हिस्सा हैं और उन्हें अपनी इच्छानुसार जीने का अधिकार है, लेकिन आरएसएस के महासचिव ने साफ तौर से कहा कि विवाह दो विपरीत लिंगों के बीच होना चाहिए. यह कोई करार या आनंद का साधन नहीं है और यह रिट देश के पर्सनल कानून और सांस्कृतिक लोकाचार को पूरी तरह से बर्बाद कर देगा. समलैंगिक विवाह का विरोध पीएम नरेंद्र मोदी साफ तौर से करते रहे हैं.
भारत में एलजीबीटी लोगों के कानूनी अधिकारों का विस्तार सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के जरिये हुआ है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2014 में गैर-बाइनरी या ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को ‘तीसरे लिंग’ के रूप में कानूनी मान्यता दी गई जिसे बाद में किसी व्यक्ति के यौनिक अभिरुचि को उसकी निजता के अनिवार्य गुण के बतौर माना गया. समलैंगिक यौन संबंधों पर 10 साल तक की जेल की सजा वाले औपनिवेशिक युग का कानून आईपीसी 377 को 2018 में ही खत्म कर समलैंगिक समुदाय के लिए संवैधानिक अधिकारों का विस्तार किया गया. इस फैसले को समलैंगिकों की ऐतिहासिक जीत के बतौर देखा गया. तब से, उच्च न्यायालयों ने समलैंगिक जोड़ों के लिए एक साथ रहने के पक्ष में निर्णय दिए हैं. अलग-अलग निर्णयों में केरल उच्च न्यायालय ने 2018 में और फिर 2022 में आदेश दिया कि एक लेस्बियन युगल एक साथ रह सकते हैं. उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने दिसंबर 2021 और पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालयों ने नवंबर 2019 में समलैंगिक जोड़े को पुलिस द्वारा सुरक्षा प्रदान करने का आदेश दिया था.
दुनिया के तीन महाद्वीपों के दस देशों में पिछले एक दशक में समलिंगी शादियां वैध है. पहली समलैंगिक शादी 1 अप्रैल 2001 को नीदरलैंड में हुई थी. ताइवान समलिंगी शादी को वैध बनाने वाला पहला एशियाई देश है. एलजीबीटी + समुदायों के कानूनी अधिकारों को दुनिया भर में मान्यता दी जा रही है.
भारतीय कानून परिवार की पितृसत्तात्मक अवधारणा पर आधारित है. धारणा यह है कि पुरुष कमाने वाला है जबकि महिला घर के काम तक ही सीमित है. जैसे ही समलैंगिक विवाहों को मान्यता दी जाती है तो पवित्र प्राचीन परंपराओं, धार्मिक विश्वासों और रीति-रिवाजों के रूप में विवाह की सदियों पुरानी अवधारणा दांव पर लग जाती है और खतरे में दलीलें पेश की जाती हैं.
ये सभी तर्क विज्ञान सम्मत नही है. स्वतंत्र भारत में देश में किसी भी धर्म के व्यक्तिगत कानूनों में सुधारों की कड़ियों ने महिलाओं को लैंगिक न्याय की ओर बढ़ने का मार्ग प्रशस्त किया है. सभी के लिए ‘विवाह का अधिकार’ की मान्यता बाबा साहेब अम्बेडकर के ‘संवैधानिक नैतिकता’ में निहित है. यह इस समझ पर आधारित है कि सभी व्यक्ति गरिमा, समानता और आत्म-अभिव्यक्ति के अधिकार के हकदार हैं. यही संविधान का दिल और आत्मा है. एक लोकतांत्रिक देश को समलिंगी शादी को मान्यता देना और इसे वैध बनाना निहायत ही जरूरी है ताकि एलजीबीटी + समुदायों और उनके बच्चों के अधिकारों की रक्षा की जा सके.
डॉ. ई. रति राव
राष्ट्रीय अध्य़क्ष
मीना तिवारी
राष्ट्रीय महासचिव