हम भारतीय कितनी कितनी बार अपना मुंह फेरें और बहाना करें कि हम कश्मीरी अवाम पर ढाए जा रहे भयावह उत्पीड़न को नहीं देख रहे हैं ?
एसोसिएशन ऑफ पेरेंट्स ऑफ डिसएपीयर्ड पर्सन्स (लापता लोगों के माता-पिता का संघ, एपीडीपी) और जम्मू-कश्मीर कोलिशन ऑफ सिविल सोसाइटी (जम्मू कश्मीर नागरिक समाज संश्रय, जेकसीसीएस) द्वारा प्रकाशित ‘टाॅर्चर: इंडियन स्टेट्स इन्स्ट्रूमेंट ऑफ कंट्रोल इन इंडियन एडमिनिस्टर्ड जम्मू एंड कश्मीर (2019)’ रिपोर्ट 1990 के बाद से भारतीय राज्य द्वारा जम्मू-कश्मीर में चलाए जा रहे उत्पीड़न की परिघटना पर पहला मुकम्मल रिपोर्ट है.
हाल ही में 18 मार्च 2019 को लिखी गई एक चिट्ठी में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) ने अपनी तीन खास रिपोर्टों के हवाले से भारत को कहा कि वह 1990 के बाद जम्मू-कश्मीर में उत्पीड़न और मनमानी हत्याओं के 76 मामलों में इनके पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए उठाए गए कदमों की विस्तृत जानकारी पेश करे. भारत ने इन रिपोर्टों पर कोई ध्यान नहीं दिया और कहा कि इनमें “व्यक्तिगत पूर्वाग्रह” का प्रदर्शन होता है. इसके पूर्व भारत में जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघनों पर यूएन-ओएचसीएचआर की रिपोर्ट को भी निराधार बताकर खारिज कर दिया गया. लेकिन इस किस्म के खोखले इन्कार से इन रिपोर्टों का वजन व महत्व और बढ़ ही जाता है. भारतीय नागरिकों को राष्ट्र के नाम पर किए जा रहे अत्याचारों की इन सुलिखित रिपोर्टों की अनदेखी नहीं करनी चाहिए.
इस ताजातरीन रिपोर्ट की शुरुआत में पिछले कुछ वर्षों के दौरान उत्पीड़न की घटनाओं की लंबी फेहरिस्त पेश की गई है.
“5 सितंबर 2018 को एसओजी जवानों ने कोकेरनाग के फिरोज अहमद हाजम को खानाबल में गिरफ्तार कर लिया और उसे खानाबल स्थित संयुक्त पूछताछ केंद्र (जेआइसी) लाया गया, और फिर उसे अनंतनाग लाया गया. इस कैंप में एसओजी के लोगों ने उसे पीछे से पकड़ कर उसके गले में सुराख कर दी और उसके ध्वनि तंत्र को इतनी बुरी तरह नष्ट कर दिया कि वह फिर कभी कुछ बोल ही न सके. 1 जुलाई 2016 को कैमोह (कुलगाम) के इरफान अहमद दार को सीआरपीएफ के जवानों ने बुरी तरह पीटा, जब वह अपने 12 वर्ष के भाई को पिटाई से बचाने की कोशिश कर रहा था. 14 जुलाई को इरपफान की मौत हो गई. 10 जुलाई 2016 को तंगपोरा के हिलाल अहमद पराय को सीआरपीएफ के जवानों ने पीटा – 16 जुलाई को अस्पताल में उसकी मौत हो गई. 20 जुलाई 2016 को लोलब (कूपवाड़ा) के गुलाम मोहिउद्दीन मीर को सेना के 41 आरआर रेजिमेंट ने यातनाएं दे-देकर मार डाला. तारजू (सोपोर) के इशफाक अहमद दार को सीआरपीएफ के जवानों ने 23 जुलाई 2016 के दिन भयानक यातनाएं दीं, जिससे 31 जुलाई को उसकी मौत हो गई. 27 जुलाई 2016 को लोने मोहल्ला (खोनमोह) के आकिब रमजान का मृत शरीर पाया गया जिसपर भयावह उत्पीड़न के निशान मौजूद थे. 18 अगस्त 2016 को सशस्त्रा बलों ने खेरू के शब्बीर अहमद मूंग को उसके परिजनों के सामने पीट-पीट कर मार डाला. हर्दशिवा (सोपोर) के मंसूर अहमद लोन को सेना 22 आरआर (राष्ट्रीय रायफल्स) रेजिमेंट की हाजत में यातनाएं दी गईं जिससे 14 सितंबर 2016 को उसकी मौत हो गई. 9 सितंबर 2016 को आली कदल (श्रीनगर) के एक सरकारी कर्मचारी अब्दुल कयूम वांगनू को काम करके घर लौटते समय हैदरपोरा (श्रीनगर) के सीआरपीएफ जवानों ने बुरी तरह पीटा. कुछ ही घंटे बाद अस्पताल में उसकी मृत्यु हो गई. 10 अक्टूबर 2016 को एक किशोर उम्र के लड़के कैसर अमीन साफी को पहले यातनाएं दी गईं, फिर पुलिस ने उसे जहर पीने पर मजबूर कर दिया. 4 नवंबर 2016 को अंतिम बयान देकर वह लड़का अस्पताल में मर गया.”
इस रिपोर्ट की टिप्पणी में कहा गया है कि “ये मामले तो जम्मू-कश्मीर में भारतीय राज्य बलों के द्वारा चरम उत्पीड़न के इस्तेमाल की परिघटना के महज हालिया दृष्टांत हैं. उत्पीड़न तो लंबे समय से व्याप्त है और इसे प्रायः यातनामूलक जिरह व सजा का जारी रूप समझा जाता है. इसमें यातना देने के शारीरिक और मनोवैज्ञानिक तरीके शामिल हैं – जिरह करना, गाली देना, ‘ऊंचे स्तर की पूछताछ’ और अन्य क्रूर व अमानवीय बर्ताव, और फिर सीधेसीधी शारीरिक यातनाएं जिससे गहरे जख्म हो जाते हैं और दीर्घकालिक अपंगता पैदा होती है.
यह रिपोर्ट साबित करती है कि “"कश्मीर में उत्पीड़न और अमानवीय बर्ताव – चाहे वह गुप्त रूप से हो या प्रकट रूप से – के समकालीन व्यवहार को सशस्त्र टकराव के संदर्भ में समझा जाना जरूरी है. ... नागरिकों और लड़ाकुओं को सामूहिक दंड और यातनाएं की घटनाएं प्रायः ‘घेराबंदी व तलाशी ऑपरेशन’ तथा ‘तलाशी लो और नष्ट करो ऑपरेशन’ जैसी सेना-पुलिस की मुहिमों के दौरान घटित होती हैं. इन मुहिमों को असाधारण ‘अशांत क्षेत्र’ तथा ‘विशेष शक्ति’ कानूनों के जरिए इजाजत मिलती है जो सेना और पुलिस को नागरिक इलाकों में बेखौफ होकर कार्रवाइयां चलाने की अनुमति देते हैं. ... ये प्रणालीगत आचरण उत्पीड़न और उपनिवेशकालीन विद्रोह-निरोधी युद्ध रणनीति के बीच दीर्घकालिक ऐतिहासिक संबंधों की झलक देते हैं.
इन औपनिवेशिक विरासतों को वैश्विक “आतंक के खिलाफ युद्ध” आख्यान के संदर्भ में जीवन की नई खुराक मिल जाती है : “11 सितंबर की घटना के बाद पूरी दुनिया में ऐसे कानूनों और विमर्श का पुनरुत्थान हो रहा है जो उदार लोकतंत्रों में भी यातना को विद्रोह-निरोधी और आतंकवाद-विरोधी कार्यपद्धति के बतौर वैधता प्रदान करते हैं.”
इस रिपोर्ट में भारतीय राज्य द्वारा यातना के इस्तेमाल के विभिन्न दौरों और पैटर्नों का जिक्र किया गया है : (1) दमन और बड़े पैमाने पर उत्पीड़न (1990-92); (2) ‘पकड़ो और मार डालो’ तथा यातना की आउटसोर्सिंग (1993-1996); (3) नागरिक सरकार तथा उत्पीड़न का सामान्यीकरण (1996-2001); (4) ‘सुकून पहुंचाना’ (हीलिंग टच) और उत्पीड़न को नजरों से ओझल कर देना (2002-2008); और (5) नागरिक विद्रोह, सड़कों पर प्रतिवाद और उत्पीड़न का पुनः प्रकटीकरण (2008-2018).
इस रिपोर्ट से स्पष्ट है कि अपने विभिन्न रूपों में यातना या उत्पीड़न कश्मीर घाटी में कोई अपवाद नहीं है – यह रोजमर्रे की हकीकत है, जिससे छोटे बच्चे भी प्रभावित होते हैं. यह जरूरी नहीं कि किसी खास मकसद (जैसे कि जानकारियां हासिल करना) से ही यातनाएं दी जाएं – बेवजह भी यातनाएं दी जा सकती हैं. तब इस बेवजह की, बड़े पैमाने पर, लगभग हर रोज ऐसे उत्पीड़न का क्या मकसद हो सकता है ? इसका जवाब तो बस यही हो सकता है: किसी अवाम को गुलाम बनाओ, उसकी इच्छाशक्ति को तोड़ दो और उसकी इच्छा के खिलाफ उसे गिरफ्त में रखो.
इस रिपोर्ट को पढ़ने पर यह स्पष्ट है कि उत्पीड़न को मुट्ठी भर फ्बुरे तत्वों ̧ का कारनामा – अन्यथा अनुशासित सैन्य बल में ‘अनुशासन-भंग’ की चंद मिसालें – नहीं कहा जा सकता है. भारतीय सैन्य बल वास्तव में कापफी अनुशासित हैं – और इसी तरह उत्पीड़न भी उतना ही अनुशासित है, इसे अनुमति के साथ किया जाता है और उत्पीड़न के लिए किसी सजा का कोई खौफ नहीं रहता है. जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघनों के आरोपी एक भी शख्स को अबतक सजा नहीं मिली है.
इस रिपोर्ट में उत्पीड़न के 432 मामलों को दर्ज किया गया है – 326 मामलों में पीड़ितों को पीटा गया, 231 को बिजली के झटके दिए गए, एक सौ से ज्यादा लोगों को निर्वस्त्र किया गया और उनके पैरों पर भारी राॅलर चढ़ा दिया गया, शारीरिक तनाव की स्थितियों में रखा गया या फिर उल्टा लटका दिया गया. बलात्कार तो उत्पीड़न का एक आम तरीका बन गया है – पुरुषों का भी और महिलाओं का भी. राॅलर के इस्तेमाल की बात पढ़कर बरबस ही याद हो आता है कि आपातकाल के दौरान किस तरह कैलिकट के एक इंजीनियरिंग छात्रा राजन को राॅलर चढ़ाकर यातनाएं दी गई थी. राजन “गुमशुदगी” का एक दृष्टांत है और जिसे “आपातकाल के दौरान अतियां” कहा जाता है, उसका एक प्रतीक है. यह रिपोर्ट हमें स्मरण कराता है कि ऐसा उत्पीड़न कोई अतीत की चीज नहीं है. यह आज भी पूरे भारत में – और सबसे ज्यादा कश्मीर में – जारी है. 252 मामलों में पीड़ित को लगातार कई बार यातनाएं दी गई हैं.
कश्मीर दुनिया के उन हिस्सों में से एक है जहां सेना की सबसे सघन तैनाती है – यह ऐसी स्थिति पैदा करती है जिसमें नागरिकों के मन में अंधाधुंध गुमशुदगी या उत्पीड़न का आतंक बना रहता है. रिपोर्ट में 144 सैन्य शिविरों, 52 पुलिस थानों और कम से कम 15संयुक्त पुछताछ केंद्रों का जिक्र है जो यातना-स्थल के बतौर इस्तेमाल होते हैं. रिपोर्ट में “पाया गया कि (सैन्य बलों समेत) विभिन्न भारतीय एजेंसियों ने कश्मीर में उत्पीड़न का सहारा लिया है और इसमें उन्होंने राजनीतिक संबद्धता, लिंग अथवा उम्र का कोई लिहाज नहीं किया है. ... कि उत्पीड़न के कुल 432 मामलों में से 301 पीड़ित आम नागरिक थे और इसमें से 5 पूर्व-उग्रवादी थे – यानी ऐसे लोग जो उग्रवादी गतिविधियां छोड़ चुके थे और यातना झेलने वक्त वे किसी किस्म की उग्रवादी कार्रवाई में संलिप्त नहीं थे. इन 301 नागरिकों में से 20 राजनीतिक कार्यकर्ता थे जो विभिन्न संगठनों से संबद्ध थे, 2मानवाधिकार कार्तकर्ता थे, 3पत्रकार, 6छात्र और 12 व्यक्ति जमात-ए-इस्लामी (एक राजनीतिक-धार्मिक ग्रुप) से जुड़े हुए थे. इनमें से 258 नागरिकों का किसी भी राजनीतिक या अन्य किसी संगठन से कोई रिश्ता नहीं था. इस प्रकार, उत्पीड़न समूचे अवाम पर थोपी गई ‘सामूहिक सजा’ का ही एक रूप है.”
न्यायालयों की क्या दशा है? क्या यातनाओं के पीड़ित न्याय के लिए कोर्ट नहीं जा सकते हैं? रिपोर्ट में पाया गया है कि “शुरुआती दौर में न्यायपालिका राज्य की ऐसी संस्था थी जिसपर पीड़ितों को भरोसा था, लेकिन समय बीतने के साथ उनका यह भरोसा खत्म होता चला गया. हालांकि न्यायपालिका को स्वतंत्र माना जाता है, लेकिन उसने खुद से अपनी सीमाएं निर्धारित कर ली हैं. टकराव के इलाकों में कार्यरत जजों के मन में दावेदारी की भावना का अभाव पाया जाता है. सेना और पुलिस से कोई सहयोग न मिलने के कारण न्यायपालिका नाकारगर हो गई है. उच्च न्यायालय के श्रीनगर बेंच के सामने कोर्ट की अवमानना की 4000 याचिकाएं लंबित पड़ी हुई हैं. ... यह अति विशाल संख्या राज्य में न्यायपालिका को पूर्ण विध्वंस को ही रेखांकित करती है.”
जम्मू-कश्मीर में राज्य मानवाधिकार आयोग मौजूद है – लेकिन 2017 में सरकार ने आयोग द्वारा दी गई 75 प्रतिशत अनुशंसाओं को खारिज कर दिया; सरकार ने मुआवजा और राहत से संबंधित इसकी 44 सिफारिशों में से सिर्फ 7 सिफारिशों को स्वीकार किया! राज्य सरकार ने 2018 में विधान सभा को बताया कि 2009 के बाद से इस आयोग द्वारा दी गई 229 अनुशंसाओं में से सरकार द्वारा सिर्फ 58 अनुशंसाएं स्वीकृत की गई हैं!
रिपोर्ट में कई अनुशंसाएं पेश की गई हैं, जो इस प्रकार हैं :
इस रिपोर्ट को भारतीय नागरिकों, ट्रेड यूनियनों और तमाम किस्म के जन आंदोलनों के बीच व्यापक रूप से पढ़ा जाए और इस पर बहसें चलाई जाएं ताकि वे रिपोर्ट की अनुशंसाओं को अपने-अपने स्तर पर उठा सकें तथा इसे जोरदार आवाज दे सकें. यह हर विवेकशील भारतीय के लिए एक आह्वान है.