- प्रणय कृष्ण
नामवर सिंह नहीं रहे. 93 साल की उन्होंने उम्र पायी, लेकिन लगता है जैसे किसी विराट उपस्थिति ने अचानक हमें किसी न भरे जा सकने वाले शून्य में छोड़ दिया हो. नामवर सिंह ने कभी अवकाश ग्रहण नहीं किया. उनके चाहनेवाले कई लोगों की यह तमन्ना रही कि उन्हें सार्वजनिक जीवन के तमाम व्यावहारिक तकाजों से अलग रह कर लिखने पर केन्द्रित करना चाहिए, मसलन जैसा कि रामविलास जी ने अध्यापकीय पेशे से 58 वर्ष की उम्र में अवकाश लेने के बाद किया.
इलाहाबाद में ‘नामवर के निमित्त’ कार्यक्रम (नामवर सिंह की 74वीं वर्षगांठ इसी बैनर से 2001 में अनेक शहरों में मनाई गयी थी) में अशोक वाजपेई ने कहा कि मन करता है कि नामवर जी को किसी एकांत निर्जन द्वीप पर सभी जरूरी सुविधाएं उपलब्ध कराते हुए एक कमरे में बंद कर दिया जाए, ताकि वे लेखन को ही समर्पित हो जाएं. नामवर सिंह से कई दशक तक हिन्दी के साहित्यिक समाज की असमाप्य अपेक्षाएं रहीं. जिस भी चीज़ को नामवर सिंह की प्रशंसा, चाहे लिखित या मौखिक मिल गयी, वह उसके लिए एक सर्टिफिकेट हो गया.
ऐसा हिन्दी के किसी भी अन्य आलोचक के लिए नहीं कहा जा सकता. यही अपेक्षाएं उन्हें विभिन्न गोष्ठियों, मंचों, संस्थानों में मसरूफ रखे रहीं. उनके लिए अखबार, पत्रिकाएं, अकादमिक और सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों में बड़े से बड़े पदों की कोई कमी नहीं रही. 36-37 वर्ष की उम्र तक संघर्षमय जीवन के बाद से उन्होंने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा. नामवर सिंह ने अपने गुरु हजारीप्रसाद द्विवेदी से जो गहरी मानवतावादी दृष्टि पाई, परम्परा और आधुनिकता की जो समझ पाई, उसे उन्होंने मार्क्सवादी प्रेरणाओं से युक्त कर साहित्यालोचन की जमीन पर विकसित किया. यह द्विवेदी जी के असमाप्त कार्यभार को उसकी परिणति तक पहुंचाने का अनूठा उपक्रम था. संस्कृत नहीं, बल्कि प्राकृत और अपभ्रंश की परम्परा ही हिन्दी साहित्य से सीधे जुड़ती है, शास्त्र नहीं, बल्कि लोक ही हिन्दी साहित्य की परम्परा का निकष है, उच्च नहीं, बल्कि निम्न समझी जानेवाली जातियों-वर्गों का अवदान ही प्रमुख है, ब्राह्मण नहीं , बल्कि बौद्ध-जैन आदि नास्तिक दर्शनों का सांस्कृतिक प्रवाह हिन्दी को अधिक पोषित करता रहा है.
ये कुछ ऐसी धारणाएं थीं जिसे नामवर सिंह ने द्विवेदी जी के चिंतन और सृजन कर्म से चुनकर पल्लवित किया और उसे ही उन्होंने ‘दूसरी परम्परा’ का नाम दिया. यह सभी धारणाएं हिन्दी साहित्य और संस्कृति को देखने-परखने के अबतक के नज़रिए को आमूलचूल बदलने की मांग करती थी. यही वह चीज थी जिसने हिंदी आलोचना और साहित्येतिहास को वही नहीं रहने दिया, जो वह अब तक रही आई थी. खुद मार्क्सवादी आलोचना के भीतर भी इसने एक तूफ़ान मचाया.
दूसरी परम्परा और उससे भिड़ने वाले जनवादी आलोचकों ने यानी दोनों पक्षों ने इस भिडंत से समृद्धि पाई. इसने हिन्दी की मार्क्सवादी आलोचना को और गहराई प्रदान की. इन धारणाओं से पैदा हुए विमर्श ने हिन्दी आलोचना को द्वंद्वात्मक बनाया. संस्कृत-प्राकृत, शास्त्र-लोक, उच्च-निम्न जाति समूह, ब्राहमण-अब्राह्मण जैसे युग्म परस्पर अपवर्ज नहीं थे, इनमें आवाजाही और द्वंद्व था. इस द्वंद्व की शिनाख्त प्रगतिशील मूल्यों को परम्परा से जोड़नेवाली और पक्षधरता को वृहत्तर परिप्रेक्ष्य देनेवाली साबित हुई.
कहने को तो ‘हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग’ और ‘दूसरी परम्परा की खोज’ जैसी नामवर सिंह की पुस्तकें इस परिघटना की सूत्राधार कही जा सकती हैं, लेकिन नामवर सिंह की तमाम पुस्तकों, लेखों, सम्पादकीयों, भाषणों ने इस पूरे परिप्रेक्ष्य का निर्माण किया. नामवर सिंह ने जिस प्रकार अपने गुरु द्विवेदी जी के असमाप्त कार्यभार को पूर्णता तक पहुंचाया, वैसा ही हौसला उन्होंने गजानन माधव मुक्तिबोध के अधूरे काम को पूर्णता तक पहुंचाने का भी दिखलाया. मुक्तिबोध नयी कविता के भीतर जनवादी मान-मूल्यों की प्रतिष्ठा का संघर्ष आलोचना और कविता, दोनों ही स्तरों पर करते रहे.
प्रगतिशील आलोचना नयी कविता को समझ नहीं पा रही थी. रामविलास शर्मा जैसे महान आलोचक भी उत्तर-छायावाद और प्रगतिशील कविता के आगे अपनी अभिरुचि का विकास नहीं कर पा रहे थे. रसवादी अलग किस्म की जड़ता लेकर नयी कविता की समीक्षा में प्रवृत्त हो रहे थे. नयी कविता की सहयोगी आलोचना उसी ‘जड़ीभूत सौन्दर्यानुभूति’ की शिकार हो रही थी जो ‘डबरे में सूरज का बिम्ब’ नहीं देख पा रही थी, जिसे नयी कविता में कस्बों और छोटे शहरों के निम्न-मध्यवर्गीय आक्रोश, उनमें व्यक्त हो रहे क्षोभजनक जीवन-सत्य, दिए गए यथार्थ से उनकी संवेदना की असंगति रास नहीं आ रही थी.
नामवर सिंह ने इन सब आलोचकीय उपक्रमों की निर्जीविता को ‘कविता के नए प्रतिमान’ में उजागर कर दिया. यहां उन्होंने प्रतिमानों की खोज में पश्चिमी आलोचना की गैर-मार्क्सवादी पद्धतियों से भी खूब सहायता ली. खुद मुक्तिबोध की लम्बी कविता ‘अंधेरे में’ का भाष्य करते हुए उन्होंने उसे ‘अस्मिता की खोज’ ठहराया. युवा मार्क्सवादी आलोचकों ने उनसे जम कर लोहा लिया जिनके अनुसार यह ‘व्यक्तित्वांतरण’ की कविता थी, चेतना के सर्वहाराकरण की कष्टदायक प्रक्रिया की कविता थी.
यह वाद-विवाद-संवाद की उनकी ही शैली थी जिसने उनसे अगले संस्करण में पुनश्च लिखवाया, जहां उन्होंने सफाई देते हुए अपनी व्याख्या को मार्क्सवाद के मेल में साबित करने की कोशिश की. ये वे दिन थे जब आलोचना का एकतरफापन वाद-विवाद-संवाद के ज़रिए दुरुस्त किया जा सकता था और इस तौर-तरीके के सबसे ज़्यादा कायल खुद नामवर सिंह थे. यह नामवर सिंह ही थे जिन्होंने अपनी ही पुस्तक ‘कविता के नए प्रतिमान’ से बाद को असहमति व्यक्त की.
नामवर सिंह ने खूब अच्छी तरह यह दिखलाया कि कैसे साहित्य की कुछ नयी प्रवृत्तियां स्वयं साहित्य संबंधी हमारे मूल्य-बोध को ही बदल देती हैं. ‘छायावाद’ शीर्षक अपनी पुस्तक में उन्होंने खामोशी से यही दिखलाया. ‘कविता के नए प्रतिमान’ जैसा शीर्षक भले ही साही से प्रेरित हो, उसने सफलतापूर्वक दिखलाया कि नयी कविता सिर्फ़ पहले से चले आ रहे कविता संबंधी भाव-बोध में एक इजाफा नहीं, बल्कि कविता के बारे में ही नए दृष्टिकोण की मांग करती है.
यह नया दृष्टिकोण समाज, राजनीति, जीवन-पद्धति और उससे पैदा हुए संवेदनात्मक बदलाव से पैदा होता है. ‘कहानी-नयी कहानी’ जैसी कृति में उन्होंने पहले ही यह स्थापित कर दिया था कि नयी कहानी ने कहानी की अब तक चली आ रही परिभाषा को ही बदल दिया है. नामवर सिंह ने आजादी के बाद अंततः 1960 के दशक में नेहरू युग से मोहभंग को समकालीन कविता का आगाज़ माना. उनसे वाजिब तौर पर असहमत होनेवालों की कोई कमी नहीं, लेकिन समकालीन कविता के अनेक पडावों को देखते समझते यह धारणा अभी भी काम करती है.
नामवर सिंह से 20वीं सदी के आखि़री दशक और 21 वीं सदी के विमर्शों से टकराव अनपेक्षित नहीं था. दुनिया और देश काफी बदल चुके थे. उन्होंने मंडल कमीशन का विरोध किया, दलित और दूसरे अस्मिता-विमर्शों को खारिज किया, आलोचना में दृष्टि पर रुचि को तरजीह दी, हिन्दी उपन्यास की भारतीयता के सन्दर्भ में उपन्यासों में कल्पना के अभिनिवेश और काल की चक्रीय गति में घटना-प्रवाह को महत्व दिया. ज़ाहिर है कि उनकी इन धारणाओं का विरोध हुआ, लेकिन विरोध के लिए भी ये धारणाएं प्रासंगिक हैं, इनमें कोई संदेह नहीं.
नामवर सिंह एक ज़बरदस्त अध्यापक थे, जटिल से जटिल अवधारणाओं को विद्यार्थियों के लिए हस्तामलक उप्लब्ध कराने वाले, वे पश्चिमी वैदुश्य के अद्यतन विमर्शों से वाकिफ थे, वे पाठ्यक्रम समितियों से लेकर चयन समितियों तक अधिकांशतः प्रगतिशीलता को बढ़ानेवाले थे, वे एक लम्बे समय तक प्रगतिशील लेखक संघ को दिशा देते रहे, वे अपने छात्रों के प्रति सदैव ही सदाशय रहे, भले ही उन्होंने उनका वैचारिक विरोध भी किया हो. वे हिंदीतर भारतीय भाषाओं में और विदेशी हिंदी वैदुषिक समुदाय में हिन्दी के कीर्तिस्तंभ थे.