आज हम इतिहास के नाज़ुक मोड़ पर खड़े हैं। पूरी दुनिया में फ़ासीवाद उभार के दौर में है। कई देशों में फ़ासीवादी सरकारें सत्तारूढ़ हैं। साथ ही उनके प्रतिवाद आंदोलन भी उभर रहे हैं। उदाहरण के तौर पर ब्राज़ील में बोल्सोनारो की सत्ता के ख़िलाफ़ एक सफल संघर्ष को देखा जा सकता है। नव उदारवाद के विनाशकारी पहलू अब और ज़्यादा साफ़ तौर पर हमारे सामने हैं और अंतर्राष्ट्रीय पूँजीवादी व्यवस्था के अंतर्विरोध भी ज़्यादा स्पष्ट हुए हैं। पिछले दशक में नव उदारवादी प्रयोग को लागू करने वाले घाना, पाकिस्तान और श्रीलंका जैसे देश पूरी आर्थिक तबाही के दौर से गुजर रहे हैं लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और अमेरिका, अभी भी ढाँचागत सुधारों की वही ‘जादुई पुड़िया’ पूरी दुनिया में आक्रामकता से बेचने की कोशिश कर रहे हैं। पहले से ही कमजोर चल रही अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था अब साफ़ तौर पर वैश्विक मंदी की दिशा में बढ़ रही है।
इसी दौर में बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था में भी बदलाव दिखाई पड़ रहे हैं। संकटग्रस्त अमेरिका और उसके सहयोगी, विस्तारवादी व आक्रामक रूस और आर्थिक तौर पर सशक्त चीन का सामना कर रहे हैं। यूरोप में एक भयानक युद्ध लड़ा जा रहा है, जहाँ रूस की फ़ासिस्ट पुतिन सरकार ने यूक्रेन के नागरिक इलाक़ों पर बेरहमी से हमला किया है तो दूसरी ओर यूक्रेन की सेना पश्चिमी सरकारों द्वारा मुहैय्या कराए गए अत्याधुनिक हथियारों से उनका करारा जवाब भी दे रही है।
पूँजीवाद के वैश्विक संकट, जोकि पर्यावरणीय संकट भी है, ने बड़े पैमाने पर असुरक्षाओं और वंचना को जन्म दिया है। यह फ़ासीवादी और सर्वसत्तावादी ताक़तों के पनपने की उपजाऊ ज़मीन तैयार करता है। ये ताक़तें असमानता और असुरक्षा के लिए नव उदारवादी नीतियों की जगह अल्पसंख्यकों और प्रवासियों को ज़िम्मेदार ठहराती हैं। जहाँ भी इन ताक़तों ने सत्ता हासिल की है, वहाँ फ़ासीवादी समूहों द्वारा संगठित नस्लीय/साम्प्रदायिक हिंसा भड़काई गयी है और असहमति, नागरिक अधिकार, अभिव्यक्ति की आज़ादी, महिलावादी राजनीति तथा महिला अधिकारों, LGBTQ+ के अधिकारों पर हमले तेज हुए हैं। फ़ेक न्यूज़ का इस्तेमाल करके हिंसा, घृणा और पूर्वाग्रह को बढ़ाना, सत्ता का केंद्रीयकरण, व्यक्ति पूजा तथा एक नेता की सर्वशक्तिमान छवि का निर्माण करना, इन सरकारों की ख़ासियत है।
2020 में वैश्विक स्तर पर कोविड महामारी पूँजीवादी व्यवस्था के उस ख़ौफ़नाक चेहरे को सामने लेकर आई, जो मुनाफ़े को लोगों की ज़िंदगी से ऊपर रखता है। दशकों तक स्वास्थ्य बजट घटाने और स्वास्थ्य व अन्य ज़रूरी सेवाओं के निजीकरण के चलते भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के दक्षिणी देशों में वायरस की बजाय ज़्यादा लोग इस वजह से मारे गए कि वे स्वास्थ्य सेवाओं और उपकरणों को ख़रीद नहीं सके। वहीं दूसरी तरफ़ मज़बूत स्वास्थ्य सेवाओं वाले देश इस महामारी के संकट से ज़्यादा बेहतर तरीक़े से निपट सके। महामारी के प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभावों ने वर्ग, जेंडर, नस्ल और दोसोआरे सामाजिक विभाजनों के द्वारा खड़ी की गई ग़ैर-बराबरी की दीवार को और भी ऊँचा कर दिया। वैक्सीन बनने के बाद उसे हासिल करने में वैश्विक ग़ैर-बराबरी या ‘वैक्सीन नस्लभेद’ ने बाज़ार आधारित कॉरपोरेट नियंत्रित वैश्विक अर्थव्यवस्था के अन्यायों को हमारे सामने रखा।
एक तरफ़ तो महामारी ने आर्थिक मंदी को बढ़ाया, वहीं दूसरी तरफ़ वैश्विक स्तर पर अरब-खरबपतियों की सम्पत्ति में बेतहाशा इज़ाफ़ा हुआ है। 2022 में दुनिया के सबसे धनी आदमियों ने अपनी दौलत 700 बिलियन डॉलर से दोगुना बढ़ाकर 1.5 ट्रिलियन डॉलर कर ली। उनकी सम्पत्ति में पूरे साल हर सेकेंड 15,000 डॉलर का इज़ाफ़ा हुआ। दूसरे शब्दों में कहें तो हर 26 घंटे में एक अरबपति पैदा हो रहा है और ग़ैर-बराबरी के चलते हर चार सेकेंड में एक आदमी की मौत हो रही है। दौलत में बेतहाशा इज़ाफ़े के बावजूद हम छँटनी, बेरोज़गारी, मज़दूरी न बढ़ने, सामाजिक सुरक्षा और मज़दूर अधिकारों में कटौती भी देख रहे हैं। यह सब ‘मुनाफ़े में कमी’ के झूठे दावे के आधार पर किया जा रहा है। पूरी दुनिया में सरकारें घाटे में चल रहे कॉरपोरेट क्षेत्र के बेल-आउट के लिए सार्वजनिक पैसे का धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रही हैं जबकि कामगारों पर खर्चे में कटौती का बोझ बढ़ाया जा रहा है।
दुनिया के पैमाने पर वैश्विक पूँजीवाद नव उदारवादी नीतियों और कटौती की रणनीति को आगे बढ़ने में लगा हुआ है, जबकि इसी दौर में ग़ैर-बराबरी, भूख और बेरोज़गारी अपने चरम पर है। एक समय ‘वाशिंगटन कंसेंसस’ की सफलता के उदाहरण के बतौर पेश किए जाने वाले दुनिया के दक्षिणी देश आज पूरी तरह ध्वस्त होने की कगार पर खड़े हैं और असह्य पीड़ा का सामना करने वाली आम जनता की सुरक्षा के लिए कोई उपाय नहीं बचा है। एक समय नव उदारवाद की जादुई पुड़िया को आर्थिक सम्पन्नता की दवा के रूप में लागू करने वाले लेबनान जैसे मुल्कों में जनता अपने जीवन की गाढ़ी कमाई को रोज़मर्रा के खर्च में इस्तेमाल करने के लिए बैंकों से नहीं निकाल पा रही है और उसे बैंकों को लूटना पड़ रहा है।
अमेरिका की अगुवाई में पिछले दशक में छेड़े गए युद्धों का अंत अमेरिकी और नाटो सेनाओं को वापस बुलाने के ज़रिए हुआ है लेकिन प्रत्यक्ष या परोक्ष सैन्य अभियानों व गठजोड़ों के ज़रिए साम्राज्यवाद पूरी दुनिया में अपना विस्तार कर रहा है। आर्थिक महाशक्ति के रूप में चीन के उदय के बाद अमेरिकी अगुवाई वाला साम्राज्यवादी धड़ा चीन को परास्त करने के नए रास्तों की खोज में है ताकि उसके नेतृत्व में एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था बनी रहे और मज़बूत हो।
इसी बीच अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प की हार के बाद चुनाव परिणामों के ख़िलाफ़ एक विद्रोह संगठित किया गया। हाल ही में ब्राज़ील में फ़ासीवादी बोल्सोनारो के समर्थकों ने भी इसे दोहराने की कोशिश की। भले ही ट्रम्प की हार हुई हो, लेकिन अमेरिका में श्वेत वर्चस्ववादी आंदोलन लगातार मज़बूत जो रहा है। ट्रम्प द्वारा न्यायपालिका में दक्षिणपंथी रूढ़िवादियों की नियुक्ति के चलते आज अमेरिका में दक्षिणपंथी ताक़तें नई जीतें हासिल कर रही हैं। रो बनाम वेड मामले में गर्भपात के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट के पुराने फ़ैसले को बदलना इसी का एक उदाहरण है। बाइडन की सरकार ने ट्रम्प की जनविरोधी घरेलू नीतियों में बदलाव की कोशिश तो की है लेकिन प्रवासी विरोधी नीतियों, साम्राज्यवादी और विदेश नीतियों, ख़ासकर इज़राइल के समर्थन जैसी नीतियों को ज्यों का त्यों जारी रखा है।
फ़ासीवादी बोल्सोनारो को हराकर ब्राज़ील में लूला डि सिलवा की जीत, बोलीविया में अमेरिका समर्थित अंतरिम सरकार के ख़िलाफ़ एम.ए.एस. की जीत तथा चिले और कोलम्बिया में वामपंथी सरकारों का आना यह दिखाता है कि लैटिन अमेरिका में वामपंथी प्रगतिशील सरकारों का फिर से उदय हुआ है। इस इलाक़े के जनांदोलनों ने 1980 और 90 के दशक में अमेरिका की सहायता और हस्तक्षेप के ज़रिए स्थापित की गयी दक्षिणपंथी सरकारों के ख़िलाफ़ संगठित प्रतिरोध चलाने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई थी। क्यूबा और वेनेज़ुएला द्वारा संचालित क्षेत्रीय सहयोग और एकजुटता की ‘बोलिवारियन अल्टरनेटिव फ़ॉर आवर अमेरिकास’ व ‘कम्युनिटी ऑफ़ लैटिन अमेरिकन एंड कैरेबियन स्टेट्स’ जैसी कोशिशें लोकप्रिय जनांदोलनों के पुनर्गठन और प्रगतिशील आंदोलनों को आगे बढ़ाने में आज भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।
अमेरिका आज भी लैटिन अमेरिका को अपना पिछवाड़ा समझता है। वेनेज़ुएला और क्यूबा के ख़िलाफ़ अमानवीय प्रतिबंध और नाकेबंदी आज भी ज़ारी है। फ़िदेल कास्त्रो की मृत्यु के बाद भी क्यूबा अमेरिकी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ सर तानकर खड़ा है। वेनेज़ुएला में निकोलस मादुरो की सरकार को गिराने के लिए अमेरिका लगातार शावेज़ विरोधी दक्षिणपंथी ताक़तों का समर्थन कर रहा है। हाल ही का ‘ऑपरेशन गिडियान’ इसका ताज़ा उदाहरण है जिसमें सिल्वरकार्प यूएसए नाम की निजी सैन्य कम्पनी और दक्षिणपंथी समूहों के लोगों को समुद्र के रास्ते वेनेज़ुएला में घुसपैठ करके मादुरो की हत्या करनी थी।
कोविड- 19 महामारी के दौरान जहाँ पूरी दुनिया का दवा उद्योग मुनाफ़ा कमाने के लिए वैक्सीन पर आधिपत्य जमाने की कोशिश में लगा हुआ था, वहीं क्यूबा की सरकारी बायो-टेक्नोलॉजी क्षेत्र ने सफलतापूर्वक शोध करके जनता के लिए सस्ती वैक्सीन बनाई। क्यूबा का प्रसिद्ध मेडिकल अंतर्राष्ट्रीयतावाद यहाँ एक और नई उपलब्धि हासिल करता है। क्यूबा आपातकालीन परिस्थितियों में दुनिया के सबसे गरीब इलाक़ों में प्राथमिक चिकित्सा उपलब्ध कराने के लिए अपने डॉक्टर भेजने के लिए मशहूर रहा है।
वेनेज़ुएला में अमेरिका द्वारा की गयी आर्थिक नाकेबंदी के चलते पैदा हुए कठिन हालात को ‘जन कम्यून’ अभी तक धता बताते आ रहे हैं। मादुरो सरकार को गिराकर सत्ता पर क़ाबिज़ होने की अमेरिका समर्थितों की कोशिश को जन भागीदारी के ज़रिए बार-बार नाकाम किया गया है। 2019 में अमेरिका समर्थित उवान गुवाइडो के नेतृत्व वाला ऑपरेशन फ़्रीडम भी नाकाम कर दिया गया। एक तरफ़ तो कम्यून और लोकप्रिय जनांदोलन बोलिवारियन क्रांति की रक्षा करने में लगे हुए हैं और निजी क्षेत्र का राष्ट्रवाद इसके केंद्र में है। लेकिन दूसरी तरफ़ मादुरो सरकार ने यातायात, टेलीकॉम और कृषि-खाद्य जैसे सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ हिस्सों का निजीकरण करने की कोशिश की है।
बोलीविया में समाजवादी आंदोलन के इवो मोरालेस के ख़िलाफ़ 2019 में तख़्तापलट हुआ। बोलीविया का ‘मूवमेंट फ़ॉर सोशलिज़्म’ (MAS) अमेरिका समर्थित सरकारों के ख़िलाफ़ एक दीर्घकालीन लोकप्रिय जनांदोलन रहा है। 2019 के चुनावों में मोरालेस को विजेता घोषित किया गया था पर सेना के एक हिस्से समेत कुछ लोगों के द्वारा तख़्तापलट के बाद उन्होंने खून खराबे से लोगों को बचाने के मक़सद से इस्तीफ़ा दे दिया था। मोरालेस की सरकार की उपलब्धियाँ ज़बरदस्त थीं, जिनमें प्रति व्यक्ति आय को तीन गुना बढ़ाना, ग़रीबी को 60 फ़ीसदी से घटाकर 35 फ़ीसदी पर ले आना, सरकार और निर्णयकारी संस्थाओं में मूलनिवासियों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए संवैधानिक प्रावधान इसके कुछ उदाहरण हैं। बोलीविया की आबादी में कम से कम 50 फ़ीसदी हिस्सा मूलनिवासियों का है और उनके बीच मोरालेस अभी भी बहुत लोकप्रिय हैं। मोरालेस के राष्ट्रपति बनने से पहले तक यह समुदाय किसी भी तरह की ताक़त से वंचित था क्योंकि सत्ता यूरोपीय मूल वाले श्वेत और नस्लवादी अमीरों के हाथ में थी। मोरालेस के कार्यकाल में देशज संस्कृति और पहनावे को सम्मान की निगाह से देखा जाना शुरू हुआ और आज इसे गौरव के रूप में देखा जाता है। उन्होंने मूलनिवासियों के परम्परागत विफाला झंडे को दूसरा राष्ट्रीय झंडा घोषित किया और सैन्य बलों की वर्दी पर उसे एक प्रतीक चिन्ह की तरह शामिल किया। बोलीविया में MAS की लोकप्रिय जन गोलबंदी की फिर से जीत हुई है और लुइस आर्क को राष्ट्रपति बनाया गया है।
2019 में चिले में सार्वजनिक संसाधनों के निजीकरण, दक्षिणपंथी हिंसा और बढ़ती ग़ैर-बराबरी के ख़िलाफ़ छात्रों और मज़दूरों के ऐतिहासिक जन आंदोलन का उभार हुआ। 2019 के इस आंदोलन ने ‘सामाजिक प्रक्रिया’ को मज़बूती दी और 2021 के नवम्बर में हुए आम चुनाव में चिले की अवाम ने दक्षिणपंथी ताक़तों को पूरी तरह ख़ारिज किया और चिले के अगले राष्ट्रपति के रूप में प्रगतिशील प्रत्याशी गैब्रियल बोरिक को चुना। पिनोशे की खूनी तानाशाही के दौर वाले चिले के मौजूदा संविधान में बदलाव के लिए पहला जनमत संग्रह हुआ लेकिन दुर्भाग्यवश पारित करने की प्रक्रिया में यह हार गया। हालाँकि पिनोशे की तानाशाही के बाद के दौर के नवउदारवादी चंगुल से बाहर निकलने में पूर्ववर्ती वाम झुकाव वाली सरकारों को थोड़ी सफलता हासिल हुई थी पर बोरिक और वामपंथी गठबंधन के सामने ऐतिहासिक चुनौती है। अभी के लिए इस सरकार ने चिले को पिनोशे के दौर की बर्बरता में लौट जाने से रोक लिया है पर चिले में गहरी जड़ें जमाए हुए नवउदारवाद के कारण सामाजिक-आर्थिक हालात ढहने की कगार पर है।
असफल अभियान के बाद अफ़ग़ानिस्तान से सैन्य वापसी के चलते अमेरिकी साम्राज्यवाद को थोड़ा झटका तो लगा लेकिन अब वह फिर से अपना शिकंजा फैला रहा है। इस बार उसके निशाने पर हैती है। अमेरिका और उसका सहयोगी कोर ग्रुप (ब्राज़ील, कनाडा, फ़्रांस, जर्मनी, स्पेन, यूरोपियन यूनियन और ऑर्गनाइज़ेशन ऑफ़ अमेरिकन स्टेट्स) हैती में सैन्य हस्तक्षेप की कोशिश में लगा है। अमेरिका ने 1915 में पहली बार हैती में सैन्य हस्तक्षेप किया था और अब तक ऐसे तीन हस्तक्षेप कर चुका है। अमेरिका और उसके सहयोगी कोर ग्रुप की मदद से ही 2004 में लोकतांत्रिक ढंग से चुने गए हैती के राष्ट्रपति ज़्याँ बरट्रांड एरिस्टाइड का तख़्तापलट किया गया था। तख़्तापलट के लिए दक्षिणपंथी पूर्व अर्ध सैन्य बलों की टुकड़ी डोमिनिकन सीमा से हैती में घुसी थी।
लैटिन अमेरिकी जनगण काफ़ी सचेत है। पेरू में पेद्रो कास्तीलो की लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार के ख़िलाफ़ संवैधानिक सत्तापलट की कोशिशों और बोल्सोनारो के समर्थकों द्वारा ब्राज़ीली जनता के जनादेश को उलट देने की दक्षिणपंथी कोशिशों से यह स्पष्ट है कि पूरे लैटिन अमेरिका में दक्षिणपंथी ताक़तें पुनर्संगठित हो रही हैं और अमेरिकी साम्राज्यवाद का ख़तरा अभी टला नहीं है।
लैटिन अमेरिका की राजनीति के वामपंथी झुकाव की जड़ें लम्बे समय से चले आ रहे साम्राज्यवादविरोधी और समाजवादी जनान्दोलनों में मौजूद हैं। ट्रेड यूनियानें, किसान संगठन, महिला संगठन, अफ्रीकी-लैटिन अमेरिकी मूलनिवासियों के आंदोलन साम्राज्यवाद और कुलीनतावाद के ख़िलाफ़ बड़ी जन गोलबंदियाँ करते रहे हैं।
शरणार्थी-विरोध और आर्थिक संकट की लफ़्फ़ाज़ी पर सवार धुर दक्षिणपंथ यूरोप के कई देशों में उभार पर है। मुसोलिनी के बदनाम ‘ब्लैक शर्ट्स’ से अपना रिश्ता जोड़ने वाले संगठन ‘ब्रदर्स ऑफ़ इटली’ ने हालिया चुनाव में सत्ता हासिल कर ली है। ‘ब्रदर्स ऑफ़ इटली’, नवफ़ासीवादियों को भी सदस्यता देता है। पोलैंड, स्वीडन, हंगरी और आस्ट्रिया में दक्षिणपंथी सरकारें चुनी गयी हैं और स्पेन, फ़्रांस, फ़िनलैंड व दूसरे देशों में दक्षिणपंथी राजनीति उभार पर है।
रूस में पुतिन की सरकार न सिर्फ़ धुर दक्षिणपंथी राजनीति पर बढ़ते हुए महिलाओं और LGBTQ+ के अधिकारों पर हमला कर रही है और इसके लिए उसे ताकतवर रूसी ऑर्थोडॉक्स चर्च का समर्थन हासिल है। विरोध की आवाज़ों को दबाया जा रहा है। व्यक्ति पूजा को बढ़ावा दिया जा रहा है। साथ ही साथ यूक्रेन पर रूस के भीषण हमले ने साफ़ कर दिया है कि वह दिनोंदिन ग्रेटर रूस की धारणा के आधार पर अपने साम्राज्यवादी एजेंडे को आगे बढ़ा रहा है। युद्धविरोधी प्रदर्शनों को बुरी तरफ़ कुचल दिया गया और जब 82,000 लोगों को सितंबर में युद्ध के मोर्चे पर भेजने की घोषणा हुई तो एक बार फिर विरोध-प्रदर्शन हुए, जिन्हें फिर कुचल दिया गया।
यूक्रेन में रूस की आक्रमणकारी सेनाएँ कुछ जगहों पर पीछे धकेली गईं लेकिन इस युद्ध का कोई अंत दिखाई नहीं पड़ रहा। परमाणु युद्ध के मँडराते ख़तरे के चलते नाटो सैन्य बलों ने न तो सीधा हस्तक्षेप किया है और न ही नो फ़्लाई ज़ोन नियम लागू किया है। फ़िलहाल अमेरिका यूक्रेन को हथियार मुहैय्या करवाने वाला सबसे बड़ा देश है। उसके बाद यूनाइटेड किंगडम और दूसरे पश्चिमी देशों का नम्बर आता है। जर्मनी और ऐतिहासिक तौर पर निरपेक्ष रहे स्वीडन जैसे देशों के लिए यह अपनी रक्षा नीतियों में एक बड़े बदलाव का बिंदु है। उनकी अब तक की रक्षा नीतियों में हथियार देने की नीति शामिल नहीं थी। यह पहली बार ही है कि एक इकाई के बतौर यूरोपियन यूनियन ने अपने सदस्य देशों से बाहर किसी देश को हथियार दिए हों। इसी बीच यूक्रेन की सरकार ने ट्रेड यूनियनों पर प्रतिबंध, कर्मचारियों के विनियमितीकरण जैसे मज़दूर विरोधी क़ानूनों की झड़ी लगा दी है। इन्हें विदेशी कॉरपोरेट निवेश के लिए माहौल तैयार करने के उपायों के बतौर देखा जा रहा है। आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए संघर्ष को व्यापक जनसमर्थन हासिल है और यूक्रेन का वामपंथ भी इसके पक्ष में है। यूक्रेन को ‘नाज़ीवाद से मुक्त’ करने का पुतिन का दावा साफ़ तौर पर प्रचार मात्र है। लेकिन यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि यूक्रेन के सैन्य बलों में अजोव बटालियन जैसे फ़ासीवादी तत्व बड़ी तादात में मौजूद हैं। ऐसा लगता है कि दोनों ही पक्ष यूरोप में मौजूद धुर दक्षिणपंथी ताक़तों को आकर्षित कर रहे हैं और विदेशी लड़ाकों को प्रशिक्षित कर रहे हैं। अंततः इससे धुर दक्षिणपंथी ताक़तें ही मज़बूत होंगी।
6 सितंबर 2022 को बोरिस जॉनसन के इस्तीफ़े के छः महीने के भीतर कंजर्वेटिव पार्टी द्वारा शासित यूनाइटेड किंगडम ने दो प्रधानमंत्रियों, लिज़ ट्रस और ऋषि सुनक, का कार्यकाल देखा। जैसे-जैसे यूनाइटेड किंगडम में रोज़मर्रा के ख़र्चों में वृद्धि हो रही है और कटौती की राजनीति जारी है, वैसे-वैसे वहाँ के मज़दूरों की आक्रामक हड़तालें भी दिखाई पड़ रही हैं। कीर स्टार्मर के नेतृत्व में लेबर पार्टी ने अपने आप को केंद्र से दक्षिण की तरफ़ खिसका लिया है और आमतौर पर मज़दूरों व शरणार्थियों के ख़िलाफ़ नीतियाँ बनाने के मामले में कंजर्वेटिव पार्टी से होड़ लेती रहती है। इस दौरान खुले तौर पर नस्लवादी और इस्लामोफ़ोबिक कंजर्वेटिव पार्टी ने परंपरागत तौर पर मौजूद धुर दक्षिणपंथी राजनीति पर क़ब्ज़ा कर लिया है। ऋषि सुनक ने घोषणा की है कि आतंकवाद विरोधी नीति (PREVENT) एक बार फिर से ‘इस्लामी आतंकवाद’ पर अपना ध्यान केन्द्रित करेगी। बोरिस जॉनसन और प्रीति पटेल के दौर की की शरण माँगने वालों को रवांडा भेजने की नीति जारी रहेगी। शरणार्थी जिन छोटी नावों में बैठकर इंगलिश चैनल पार करते हैं, उन्हें कड़ाई से वापस लौटा दिया जाएगा, चाहे कितनी ही जानें चली जाएँ। एक समय मोदी सरकार से थोड़ी दूरी बरतने वाले ऋषि सुनक के सास-ससुर अब खुलकर संघ की शरण में हैं जिससे सुनक के भी हिंदुत्व से सम्बन्ध मज़बूत होने की उम्मीद है। सुनक और मोदी सरकार के बीच एक व्यापार समझौता होने वाला है जिसका ब्रिटिश ट्रेड यूनियन कांग्रेस और भारतीय ट्रेड यूनियनों ने विरोध किया है क्योंकि इससे बहुत उत्पीड़नकारी क़िस्म की आउटसोर्सिंग और मोदी सरकार के नए श्रम क़ानूनों को वैधता मिलेगी।
जहाँ एक तरफ़ यूरोप में धुर दक्षिणपंथी आंदोलन का उभार हो रहा है, वहीं दूसरी तरफ़ भूमध्य सागर अफ़्रीका और एशिया के युद्ध प्रभावित इलाक़ों से जान बचाकर भागे हज़ारों शरणार्थियों की क़ब्रगाह में तब्दील हो रहा है। ये युद्ध सीधे तौर पर अमेरिका और यूरोपीय साम्राज्यवादी नीतियों के परिणाम हैं। एक अनुमान के मुताबिक़ 2014 से अब तक यूरोप पहुँचने की कोशिश करने वाले शरणार्थियों में से 25 हज़ार लोगों की भूमध्य सागर में डूब कर मृत्यु हुई।
तुर्की में धर्मनिरपेक्षता को ध्वस्त करके, विरोध की आवाज़ों को दबाकर, मीडिया पर नियंत्रण करके और नए सिरे से संविधान लिखकर एर्दोगान की तानाशाही सत्ता ने पूरे देश को अपनी मुट्ठी में क़ैद कर लिया है। 2019 में एर्दोगान की सेना और सीरिया के भाड़े के हत्यारों ने एकसाथ मिलकर उत्तरी सीरिया के कुर्द बहुल इलाक़े में सैन्य अभियान की शुरुआत की थी। तुर्की में कुर्द लोगों को लगातार भेदभावपूर्ण नीतियों का सामना करना पड़ रहा है और आत्मनिर्णय की उनकी आवाज़ को क्रूरतापूर्वक दबाया जा रहा है।
मोरक्को और पश्चिमी सहारा: मोरक्को में लोकतांत्रिक आवाज़ों पर राज्य दमन और राज्य द्वारा निगरानी बेरोक टोक जारी है। हालिया वर्षों में मोरक्को सरकार और सेना की आलोचना करने के आरोप में वहाँ के पत्रकारों, कार्यकर्ताओं, ट्रेड यूनियन नेताओं, अमाज़िग़ भाषी अल्पसंख्यकों और सहारवी समुदाय के लोगों को गिरफ़्तार किया गया। इज़राइल के नस्लभेदी दमन के उपायों से प्रेरित होकर मोरक्को की सरकार ने सघन निगरानी और राज्य हिंसा की एक व्यवस्थित व्यवस्था क़ायम कर ली है। मोरक्को ने पश्चिमी सहारा क्षेत्र को अपने में मिलाने के लिए उसी तरह मोरक्को की दीवार (जिसे स्थानीय तौर पर शर्म की दीवार कहा जाता है) खड़ी की है जैसे इज़राइल ने वेस्ट बैंक में एक दीवार बनाई है।
2019 में मिस्र में संविधान में संशोधन करके राष्ट्रपति अब्देल फत्ताह अल सीसी का कार्यकाल 2022 से बढ़ाकर 2030 तक कर दिया। सैन्य कमाण्डर के रूप में जघन्य रब्बा जनसंहार कराने और मोरसी सरकार को सत्ताच्युत कराने के बाद 2014 में राष्ट्रपति बनने के बाद अल सीसी ने शुरुआत से ही खाद्य और ईंधन की सब्सिडी में भारी कटौती जैसे कदम उठाते हुए बर्बर दमन का राज कायम कर लिया।
2011 में अमेरिका-नाटो के हस्तक्षेप और राष्ट्रपति मुअम्मर गद्दाफ़ी की हत्या के बाद से लीबिया लगातार राजनीतिक उथल-पुथल का सामना कर रहा है। राजनीतिक हिंसा बेरोकटोक जारी है और देश में केवल अस्थाई सरकार है। लीबिया, भूमध्यसागर के ज़रिए यूरोप जाने वाले शरणार्थियों के रास्ते में पड़ता है और शरणार्थियों को क़ैद करने का सबसे बड़ा डिटेंशन सेंटर यहाँ मौजूद है। यूरोपियन यूनियन के देशों ने एक छद्म शरणार्थी व्यवस्था क़ायम की है जो शरणार्थियों को यूरोपीय तट पर पहुँचने से पहले ही गिरफ़्तार कर लेती है और उन्हें भाड़े के लड़ाकों द्वारा संचालित लीबिया के क्रूर डिटेंशन सेंटरों में भेज देती है।
अमेरिका की तथाकथित अफ्रीकी मिलिट्री कमांड या AFRICOM ने अफ़्रीका के 35 देशों में घुसपैठ कर रखी है। अमेरिका अपनी इस आक्रामक रणनीति में फ़्रांस और ब्रिटेन के साथ गठजोड़ किए हुए है। सैन्य ताक़त और लूट एक-दूसरे के साथ चलते हैं। अमेरिका, फ़्रांस और ब्रिटेन का यह गठजोड़ अफ्रीकी देशों के साथ चीन की बढ़ती आर्थिक नज़दीकी को मात देने के लिए अफ्रीकी देशों के कोबाल्ट, हीरा, प्लैटिनम और यूरेनियम जैसे संसाधनों को लूट रहा है। अमेरिकी सेना यहाँ बग़ैर किसी दंडभय के तांडव कर रही है। उदाहरण के लिए अमेरिकी सरकार ने 2018 में घाना के साथ रक्षा सहयोग समझौते पर दस्तख़त किए जिसमें घाना में सैन्य प्रतिष्ठान खोलने और सेना के लोगों को राजनयिक प्रतिरक्षा (immunity) मिली हुई है।
2019 में जन आंदोलन के चलते लम्बे समय से सूडान के राष्ट्रपति ओमार अल बशीर को इस्तीफ़ा देना पड़ा। बशीर की सरकार न सिर्फ़ आर्थिक दुर्व्यवस्था, भ्रष्टाचार और लोकतांत्रिक आंदोलन के ख़िलाफ़ हिंसा में लिप्त थी बल्कि इसने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के इशारे पर खाद्य व ईंधन सब्सिडी को समाप्त कर दिया थ। जिसके चलते खाद्य, दावा व परिवहन के दाम बहुत बढ़ गए थे। 2021 में सूडान की सेना ने अब्दुल्ला हमदोक की सरकार को उखाड़ फेंका तो इस तख़्तापलट के ख़िलाफ़ बड़ा जनांदोलन व नागरिक नाफ़रमानी आंदोलन शुरू हो गया था। सूडानी सैन्य बलों द्वारा 300 नागरिकों की हत्या के बाद भी आंदोलन और तीखा होता रहा तो हमदोक को वापस बतौर प्रधानमंत्री सत्ता में लाना पड़ा। इस सब के बावजूद भी आर्थिक बदहाली अभी भी जारी है क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से क़र्ज़ हासिल करने की योग्यता पाने के लिए नई सरकार भी सब्सिडी को ख़त्म किए जा रही है। सूडान में अभी भी विरोध-प्रदर्शन जारी हैं। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष समर्थित आर्थिक सुधारों के ख़िलाफ़ और लोकतांत्रिक राजनीतिक व न्यायिक व्यवस्था के अभाव के ख़िलाफ़ लोगों में विक्षोभ है।
फ़्रांस के पूर्व उपनिवेश उत्तर मध्य अफ्रीकी देश चाड में फ़्रांस का राजनीतिक दख़ल अभी भी जारी है। अप्रैल 2021 में राष्ट्रपति इदरीस डेबी की युद्ध में मौत के बाद अंतरिम मिलिटरी काउंसिल की सरकार द्वारा सत्ता पर क़ब्ज़े को फ़्रांस का समर्थन हासिल है। इसके चलते फ़्रांस की भूमिका और उसकी सैन्य मौजूदगी के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हो गया है। फ़्रांस की नव उपनिवेशवादी महत्वाकांक्षा माली और सेंट्रल अफ़्रीकन रिपब्लिक (CAR) में उसकी सैन्य उपस्थिति में भी देखी जा सकती है।
दक्षिण अफ़्रीका की अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस सरकार का नेतृत्व करने वाले जैकब ज़ूमा को भ्रष्टाचार और दुलरुआ पूँजीवाद के आरोपों के बाद इस्तीफ़ा देना पड़ा है। ज़ूमा पर आरोप है कि उन्होंने सहारनपुर, उत्तर प्रदेश के मूल निवासी गुप्ता ब्रदर्स को देश के कुल व्यापार के बड़े हिस्से पर नियंत्रण करने में मदद की। एक तरह से गुप्ता ब्रदर्स ने दक्षिण अफ्रीकी राज्य पर ही क़ब्ज़ा कर लिया। अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए सिरिल रामफोसा दक्षिण अफ्रीकी कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थन के साथ दक्षिण अफ़्रीका के राष्ट्रपति हैं। रामफोसा, ज़ूमा के दाहिने हाथ थे और दक्षिण अफ़्रीका के सबसे धनी व्यक्तियों में से एक हैं। वे खनन कम्पनी लोनमिन के शेयर धारक और निदेशक हैं। 2012 में जन लोनमिन की मारिकाना खदान में हड़ताल करने वाले मज़दूरों का अफ्रीकी सुरक्षा बलों ने जनसंहार किया तो इन्हीं रामफोसा ने और दमन की माँग की थी।
सिरिल रामफोसा के नेतृत्व में दक्षिण अफ्रीकी सरकार ने दुलरुआ पूँजीवाद, दमन और नस्लवाद के बढ़ते जाने की उम्मीद है। अफ़्रीकन नेशनल कांग्रेस ने बहुत पहले भूमि स्वामित्व के मामले में नस्लीय ग़ैर-बराबरी की समस्या को सुलझाने का वादा किया था। रंगभेद के समाप्त होने के दो दशक के बाद भी दक्षिण अफ़्रीका की ज़मीन का अधिकांश हिस्सा श्वेतों के मालिकाने में है। यह शताब्दियों के क्रूर औपनिवेशिक दमन का ही मौजूदा स्वरूप है।
आर्थिक बदहाली और बढ़ती महँगाई के बरक्स रामफोसा सरकार नव उदारवादी निजीकरण और सब्सिडी में कटौती जैसे उपाय अपना रही है। ट्रेड यूनियनें इन सुधारों का विरोध कर रही हैं और हाल के वर्षों में हड़तालों का एक सिलसिला सा चल पड़ा है।
सीरिया में बशर अल असद की सत्ता के ख़िलाफ़ विद्रोह अरब क्रांति के हिस्से के बतौर ही शुरू हुआ था। असद ने इस विद्रोह का बर्बर दमन शुरू किया जिसके चलते गृह युद्ध और मानवीय संकट के हालात पैदा हुए। लाखों लोगों को सीरिया से भागकर शरणार्थी के बतौर जीवन शुरू करना पड़ा। असद की सरकार ने शहरों को ‘आतंकवादियों’ से मुक्त कराने के नाम पर आम नागरिकों पर बमबारी और रासायनिक हथियारों से हमले किए। जहां असद की सरकार को रूस की सेना का समर्थन हासिल था, वहीं अमेरिका ने अल क़ायदा और अल नस्र समेत सभी विरोधी ताक़तों को अपना समर्थन दिया। अमेरिका ने बड़े पैमाने पर सीरिया पर बमबारी शुरू की और सरकार बदलने पर आमादा दिखाई पड़ा। बाद में सीरिया और असद के मामले में अमेरिका और रूस के रवैए में मेल दिखने लगा।
हम इस क्षेत्र में अमेरिका और रूस के साम्राज्यवादी युद्ध का विरोध करते हैं और माँग करते हैं कि संयुक्त राष्ट्र अपनी देखरेख में सीरिया के गृहयुद्ध का राजनीतिक समाधान निकाले।
यमन में 2014 से ही गृहयुद्ध जारी है और देश का मूलभूत ढाँचा ढहने की कगार पर है। सउदी अरब के नेतृत्व में अमेरिका-फ़्रांस और ब्रिटेन समर्थित सैन्य दमन के चलते अब तक 20,000 नागरिक मारे जा चुके हैं। साथ ही हैजा की महामारी और लगातार चल रहे अकाल के चलते संयुक्त राष्ट्र ने यमन युद्ध में मारे गए लोगों की संख्या 1,50,000 बताई है। रोग, भूख और स्वास्थ्य ढाँचे की बर्बादी के चलते 50,000 से ज़्यादा बच्चों की जानें जा चुकी हैं।
फ़िलिस्तीन पर इज़राइली क़ब्ज़ा और फ़िलिस्तीनी जनता के ख़िलाफ़ उसका युद्ध लगातार बढ़ता जा रहा है। 2014 में ग़ाज़ा की घेरेबंदी के बाद से बड़े पैमाने पर फ़िलिस्तीनियों ने अपनी जान गँवाई है। ग़ाज़ा की इज़राइली घेरेबंदी अब भी जारी है। वहाँ न तो चिकित्सा सामानों की आपूर्ति हो रही है और न ही खाद्यान्न व अन्य ज़रूरी सामानों की। 2021 में इज़राइली सेना के ग़ाज़ा पर आक्रमण में 200 फ़िलिस्तीनियों की हत्या की गयी जिसमें से 66 बच्चे थे। वहीं वेस्ट बैंक पर हमले में 29 लोग मारे गए। अगस्त 2022 में इज़राइल ने 20 बच्चों समेत कुल 45 फ़िलिस्तीनियों की हत्या कर दी। फ़िलिस्तीन की आज़ादी के संघर्ष में भागीदारी के चलते हज़ारों राजनीतिक बंदी, जिनमें बच्चे भी शामिल हैं, इस समय इज़राइल की जेलों में बंद हैं।
नवम्बर 2022 के चुनावों के बाद नेतन्याहू की सत्ता में वापसी हुई है। इस बार उन्होंने धुर दक्षिणपंथी इज़राइली पार्टियों के साथ गठजोड़ किया है। बहुत से लोगों का यह मानना है कि अब इज़राइली राज्य को केवल नस्लवादी और बसाया गया औपनिवेशक राज्य मानने की जगह फ़ासीवादी राज्य माना जाना चाहिए। इज़राइल, फ़िलिस्तीनियों के नस्लीय सफ़ाये, फ़िलिस्तीन की ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने और अपनी बसावटों को बढ़ाने की नीति जारी रखे हुए है।
फ़िलिस्तीनी प्रतिरोध आंदोलन अपने आपको तीसरे इंतिफ़ादा के लिए पुनर्संगठित और पुनर्नियोजित कर रहा है। मोहम्मद अब्बास के नेतृत्व वाली ‘फ़िलिस्तीनी अथॉरिटी’ इज़राइल के क़ब्ज़े और उसके सैन्य सहयोगियों पर हमला बोलने का मंसूबा बना रही है। ओस्लो समझौते के क़रीब तीन दशक बीत चुके हैं। यह समझौता लोगों के लिए शांति व न्याय की स्थापना में पूरी तरह नाकाम रहा है। एक समय फ़िलिस्तीन के पक्ष में खड़े होने वाले अरब क्षेत्र के देशों में से कई अब इज़राइल के साथ नए सिरे से सम्बन्ध बना रहे हैं।
यहूदी वर्चस्ववादी राज्य के विरोध को यहूदी विरोध बताकर अपने आलोचकों को चुप कराने की इज़राइल की कोशिशों के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘बॉयकाट, डाइवेस्टमेंट एंड सैंक्शंस’ (BDS- ‘बहिष्कार, भंडाफोड़ एवं प्रतिबंध’) का आंदोलन सशक्त हो रहा है। यह आम समझदारी बन चुकी है कि 1994 से पहले के दक्षिण अफ़्रीका की तरह आज का इज़राइल भी नस्लवादी राष्ट्र है। सभी साम्राज्यवाद विरोधी और नस्लवाद विरोधी ताक़तों को मज़बूती से इसका विरोध करना चाहिए। भारत की इज़राइल के साथ बढ़ रही रणनीतिक साझेदारी के मद्देनज़र हमारे लिए यह महत्वपूर्ण है कि हम BDS आंदोलन को मज़बूत करें।
सउदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात (UAE) और बहरीन, पश्चिमी एशिया में इज़राइल के बाद अमेरिका के सबसे बड़े सहयोगी हैं। ये देश इस क्षेत्र में अमेरिकी युद्ध को संचालित करने के लिए सैन्य आधार क्षेत्र बनाने के लिए अमेरिका को ज़मीन मुहैया कराते हैं। ये सैन्य क्षेत्र ईरान के ख़िलाफ़ अमेरिका की परोक्ष कार्यवाहियों में बड़ी भूमिका निभाते हैं। इन देशों में लोकतंत्र की माँग करने वाले अरब क्रांति के आंदोलनों को बुरी तरह कुचल दिया गया जिसके लिए गल्फ़ कोऑपरेशन (GCC) ने सैन्य तैनाती की थी। यूएई में बेहतर काम की स्थितियों की माँग करने के चलते भारतीय व अन्य विदेशी कामगारों को गिरफ़्तार करके उनके देश वापस भेज दिया गया।
ईरान की मॉरलिटी पुलिस के हाथों कथित तौर पर ‘ड्रेस कोड’ का उल्लंघन करने के आरोप में माशा अमीनी की हत्या ने ईरान में एक ज़बरदस्त विद्रोह खड़ा कर दिया है। महिलाओं और कामगार समुदायों का धर्म आधारित राजसत्ता और बदहाल होती जीवन स्थितियों के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा पूरे ईरान में फूट पड़ा है। अब तक सैकड़ों लोगों की सरकार द्वारा हत्या की जा चुकी है। बावजूद इसके विरोध-प्रदर्शनों का दायरा बढ़ता जा रहा है। ज़ाहिर है कि धार्मिक कट्टरतावादियों और अमेरिका समर्थक हस्तक्षेपवादियों द्वारा यह कोशिश भी हो रही है कि माशा अमीनी की हत्या और उसके बाद उपजे विरोध-प्रदर्शनों की आड़ में अपने इस्लामोफ़ोबिक तर्कों को आगे बढ़ाया जाय और ईरान में सत्ता परिवर्तन की कोशिशें तेज की जाएँ। हमें ईरान की संघर्षरत महिलाओं का बेशर्त समर्थन करना चाहिए और धर्म आधारित राज्य व पितृसत्ता से आज़ादी के उनके संघर्ष से एकजुटता ज़ाहिर करनी चाहिए। साथ ही हमें पश्चिमी हस्तक्षेप से मुक्त अपना खुद का रास्ता चुनने के ईरानी जनता के अधिकार का समर्थन करना चाहिए।
इराक़ में इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक़ एंड सीरिया (आईएसआईएस) या दाएश, जोकि अमेरिका के इराक़ पर क़ब्ज़े और बाथ आंदोलन को ख़त्म करने की प्रक्रिया में बना था, सीरिया और इराक़ी कुर्दिस्तान समेत अनेक मोर्चों पर हार के बाद अब पूरी तरह बिखर चुका है। अब ऐसे साक्ष्य सामने आ रहे हैं कि आईएसआईएस को अमेरिका और सउदी अरब ने धन मुहैया कराया था और इज़राइल ने उसे हथियार दिए थे। इराक़ से अमेरिकी सैन्य बल 2021 में पूरी तरह वापस चले गए लेकिन वहाँ राजनीतिक हालत अब भी नाज़ुक बनी हुई है। वर्चस्वशाली ताक़तें राजनीतिक सत्ता पर क़ब्ज़ा करना चाहती हैं ताकि वे पूरी राजनीतिक प्रक्रिया को नियंत्रित कर सकें।
मौजूदा समय में लेबनान भीषण आर्थिक संकट से गुजर रहा है। लोगों को अपनी खुद की गाढ़ी कमाई निकालने के लिए बैंकों को लूटना पड़ रहा है। लेबनान पिछले कई दशकों से नव उदारवादी नीतियों के प्रयोग का अड्डा रहा है। आज यह साफ़ दिखाता है कि सामाजिक सुरक्षा और सरकारी नियंत्रण के अभाव में ये नीतियाँ समाज के लिए कितनी विनाशकारी हो सकती हैं। कोविड-19 महामारी के विनाश और 2020 में बेरुत बंदरगाह पर विस्फोट के साथ-साथ ‘वाशिंगटन कंसेंसस’ की नीतियों ने देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ ही तोड़ दी है। लोगों को इस कठिन दौर में किसी भी तरह की सुरक्षा हासिल नहीं है।
तालिबान के द्वारा नाटकीय तरीक़े से अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर क़ब्ज़ा करने के साथ ही यह देश अव्यवस्था और अनिश्चितता के दौर में खड़ा है। नागरिकों के ख़िलाफ़ अपराध, महिलाओं के उत्पीड़न और मानवाधिकारों पर व्यवस्थित हमले की ख़बरें हर दिन आ रही हैं। हज़ारा और सिख जैसे अल्पसंख्यक समुदायों के ख़िलाफ़ हिंसा की संभावना बहुत बढ़ गयी है। मौजूदा बदहाली के लिए अमेरिकी विदेश नीति ही पूरी तरह ज़िम्मेदार है। 1980 और 90 के दशक में तालिबान को पाल-पोस कर खड़ा करने और 9/11 के बाद अफ़ग़ानिस्तान पर आक्रमण और क़ब्ज़े से लेकर बिना किसी योजना के अमेरिकी सैनिकों की वापसी तक, यह सब कुछ अमेरिकी सैन्य हस्तक्षेप और क़ब्ज़े की नीति ही है जो अफ़ग़ानिस्तान को आज की तबाही तक ले आई है। तालिबान के क़ब्ज़े के बाद अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान के 3.5 बिलियन डॉलर के विदेशी मुद्रा भंडार को ठप कर दिया है। इससे पहले ही भीषण ग़रीबी और भुखमरी झेल रहे अफ़ग़ानिस्तान के लोगों का आर्थिक संकट और भी बढ़ेगा।
पाकिस्तान बेहद कठिन और उथल-पुथल भरे दौर से गुजर रहा है। यह देश धनी देशों द्वारा पैदा की गई अभूतपूर्व जलवायु तबाही के बीच फँस गया है। आर्टिक ध्रुवीय क्षेत्र के बाहर के इलाक़े में सबसे ज़्यादा 7253 ग्लेशियर पाकिस्तान में हैं। रपटों के मुताबिक़ ये ग्लेशियर तेज़ी से पिघल रहे हैं। मानसून वर्षा ने रेकॉर्ड तोड़ दिया है, यहाँ तीस साल के राष्ट्रीय वर्षा औसत से 2.78 गुना ज़्यादा बारिश हुई है। यूनाइटेड नेशंस ने इस परिघटना को ‘अति वृष्टि’ कहा है। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि बाढ़ के चलते होने वाली तबाही के चलते पाकिस्तान को 10 बिलियन डॉलर का नुक़सान हुआ। 2 मिलियन एकड़ से ज़्यादा की कृषि ज़मीन नष्ट हो गई और हज़ारों मवेशी मारे गए। इसके चलते आगामी महीनों में बड़े पैमाने पर खाद्यान्न की कमी का ख़तरा पैदा हो गया है। लोग भूखे रह रहे हैं और उन्हें तत्काल चिकित्सा सहायता की ज़रूरत है। कम से कम 35 मिलियन लोग बाढ़ के चलते विस्थापित हुए। यह संख्या कनाडा की 90 फ़ीसदी जनसंख्या के बराबर होती है। बाढ़ से प्रभावित ज़्यादातर हिस्से बलोचिस्तान कमजोर और हाशिए के समुदायों वाले हैं। बाढ़ ने ग़ैर-बराबरी को बढ़ा दिया है, मानवीय सहायता की कमी है और ये समुदाय भेदभाव और दमन का भी सामना कर रहे हैं।
इस विनाश के पीछे साम्राज्यवादी अन्याय की हक़ीक़त छिपी हुई है: पाकिस्तान वैश्विक स्तर पर कुल कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन का केवल 0.4 फ़ीसदी ही उत्सर्जित करता है लेकिन पर्यावरण संकट का सामना करने वाला वह आठवाँ सबसे ज़्यादा प्रभावित देश है। सच्चाई यह है कि कार्बन उत्सर्जन की सुरक्षित सीमा से 90 फ़ीसदी अधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाले चंद धनी देश हैं और पाकिस्तान जैसे देश तो अपने हिस्से का सुरक्षित कार्बन उत्सर्जन भी नहीं करते। वैश्विक उत्तरी देशों की कुछ कम्पनियाँ पूरी धरती पर तबाही मचा रही हैं और पाकिस्तान जैसे देश उनकी आपराधिक और न बुझने वाले लालच की क़ीमत चुका रहे हैं।
इस समय ज़्यादातर राजनीतिक निर्णय पाकिस्तान की सेना ही ले रही है। अप्रैल 2022 में अविश्वास प्रस्ताव के ज़रिए प्रधानमंत्री पद से हटा दिए गए इमरान खान पर हमला पाकिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता के नए दौर की ओर संकेत कर रहा है।
तहरीक ए तालिबान, पाकिस्तान के साथ एक संक्षिप्त युद्ध विराम और अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबानी क़ब्ज़े के दौर में पाकिस्तानी मध्यस्थता के बाद अब तहरीक ए तालिबान, पाकिस्तान ने खैबर पख़्तूनवा इलाक़े में अपनी गतिविधियाँ फिर से शुरू कर दी हैं। अहमदी समेत तमाम अल्पसंख्यक समुदायों और धर्मनिरपेक्ष व तर्कशील आवाज़ों के ख़िलाफ़ ईशनिंदा क़ानून का क़हर जारी है। यह क़ानून मॉब लिंचिंग और हत्या के लिए आधार मुहैया कराता है। दिसम्बर 2021 में ईशनिंदा का आरोप लगाकर पंजाब के सियालकोट शहर में श्रीलंका के नागरिक प्रियान्था कुमारा की भीड़ ने हत्या कर दी। पाकिस्तान ने बलोचिस्तान के राष्ट्रीयता के आंदोलनों के ख़िलाफ़ भी बर्बर दमन जारी रखा है जिसमें लोगों को ग़ायब कर देने और रिहाईशी इलाक़ों पर बमबारी की घटनाएँ आम हैं। पाकिस्तान के संघ शासित आदिवासी इलाक़ों (FATA) में भी दमन, गुमशुदगी और मानवाधिकारों के उल्लंघन के ख़िलाफ़ पख़्तूनों के प्रतिरोध संघर्ष दिखाई पड़ रहे हैं। नेशनल असेम्बली के सदस्य और पख़्तून तहफ़्फ़ुज़ आंदोलन के सह-संस्थापक अली वज़ीर देशद्रोह के आरोप में जेल में बंद हैं। वे पख़्तून समुदाय के अधिकारों और न्याय की माँग उठाते रहते हैं।
कश्मीर, भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद का पुराना मुद्दा है। इस मामले को हल करने की गम्भीर कोशिशों की जगह दोनों ही देशों की सरकारें केवल इस समस्या को बढ़ाने में ही व्यस्त हैं। भारत ने कश्मीर से धारा 370 ख़त्म करके इस मुद्दे को न सिर्फ़ और भड़का दिया है बल्कि कश्मीर के राजनीतिक सवाल को सैन्य समाधान की ओर धकेलने की कोशिश भी की है। कश्मीर विवाद का स्थाई और शांतिपूर्ण समाधान केवल कश्मीरी जनता के विभिन्न समुदायों के प्रतिनिधियों और भारत व पाकिस्तान की सरकारों की आपसी बातचीत से ही सम्भव है। ऐसे किसी भी समाधान के लिए कश्मीरी लोगों द्वारा अपने भाग्य का निर्धारण स्वयं करने की आकांक्षा को ध्यान में रखना होगा।
श्रीलंका में भीषण आर्थिक संकट, खाद्यान्न और तेल की कमी के चलते पैदा हुए ज़बरदस्त जन विक्षोभ के कारण राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षा को इस्तीफ़ा देना पड़ा और देश छोड़ कर भागना पड़ा। रानिल विक्रमसिंघे को राष्ट्रपति नियुक्त किया गया और उन्होंने वादा किया है कि उनकी सरकार देश को मौजूदा आर्थिक संकट से बाहर ले जाएगी। इन वादों के बावजूद विक्रमसिंघे की सरकार उसी पुराने ढर्रे पर चलती दिखाई पड़ रही है और संकट के समाधान के लिए अंतर्रराष्ट्रीय मुद्रा कोष का मुँह ताक रही है। विक्रमसिंघे भी राजपक्षा की तरह ही विरोध की लोकतांत्रिक आवाज़ों का कठोरतापूर्वक दमन कर रहे हैं। हाल ही में राज्य दमन और बढ़ती हुई महँगाई के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने वाले चार छात्र नेताओं को आतंकवाद निरोधक क़ानून के तहत गिरफ़्तार किया गया। यही क़ानून श्रीलंका की तमिल आबादी के हज़ारों लोगों की परान्यायिक हत्या, गुमशुदगी और उत्पीड़न के लिए ज़िम्मेदार रहा है।
गृहयुद्ध के दौरान तमिल जनता के ख़िलाफ़ बड़े-बड़े अपराध करने वाले श्रीलंकाई सैन्य बलों के लोग बिना किसी दंड के खुले घूम रहे हैं क्योंकि कोई भी सरकार उनके ख़िलाफ़ कार्यवाही करने के लिए तैयार नहीं है। तमिल और मुस्लिम समुदायों के ख़िलाफ़ भेदभाव अभी भी जारी है। इस दौर में नागरिक जीवन के हर पहलू का सैन्यीकरण बढ़ा है। इन हालात में भारत धौंस जमाने वाले ताकतवर पड़ोसी की भूमिका में है और प्रधानमंत्री मोदी के कॉरपोरेट दोस्तों के हित साधने में लगा हुआ है। इससे श्रीलंका की पहले से ही तबाह अर्थ व्यवस्था और पर्यावरण को और नुक़सान पहुँचा है।
राजपक्षा सरकार सिंघली वर्चस्ववाद, अनियंत्रित नव उदारवाद और भाई-भतीजावाद का भयावह गठजोड़ थी। हाल के जन विद्रोह में समाज के हर हिस्से की एकता की उम्मीद भारी किरण दिखाई पड़ी। लोगों में यह एहसास बढ़ा है कि भविष्य के लोकतांत्रिक श्रीलंका के लिए बुनियादी आर्थिक माँगों के साथ-साथ तमिल और मुस्लिम समुदायों के सम्मान और अधिकार का सवाल भी महत्वपूर्ण है।
बांग्लादेश में लोकतंत्र ख़तरे में है। सत्तासीन पार्टी ‘भ्रष्टाचार से लड़ने’ के नाम पर नव उदारवादी हमले को तेज करके लोकतांत्रिक संस्थाओं को ध्वस्त कर रही है, विपक्षी पार्टियों की आवाज़ दबा रही है और नागरिक अधिकारों को कम कर रही है। इस तरह के विषाक्त माहौल में रूढ़िवादी ताक़तों को भी बल मिला है और वे धर्मनिरपेक्ष, प्रगतिशील और तर्कशील आवाज़ों के ख़िलाफ़ जंग छेड़े हुई हैं।
हम पर्यावरण के लिए विनाशकारी भारतीय परियोजनाओं, रूढ़िवाद व नवदारवाद के ख़िलाफ़ और लोकतंत्र के लिए संघर्ष कर रही बांग्लादेश की अवाम के साथ एकजुटता ज़ाहिर करते हैं। घरेलू राजनीति में फ़ायदे के लिए भाजपा बांग्लादेशी शरणार्थियों या बांग्लादेशी घुसपैठियों के बारे में तरह-तरह के दावे करती रहती है और उसने सीमा सुरक्षा बलों को भारत-बांग्लादेश सीमा में पचास किलोमीटर भीतर तक विशेष अधिकार प्रदान कर दिए हैं। नागरिकता क़ानून में भेदभावपूर्ण संशोधन बांग्लादेश के भीतर की ग़ैर-मुस्लिम अल्पसंख्यक आबादी को भेदभाव और उत्पीड़न से बचाने का भारत दावा करता है लेकिन अपने मुसलमान नागरिकों को भी बांग्लादेशी और रोहिंग्या के बतौर चिन्हित किया जा रहा है। ऐसे भेदभावपूर्ण और घृणा भरे अभियान परस्पर विश्वास पर आधारित द्विपक्षीय समझौतों को नुक़सान पहुँचाते हैं।
हाल ही में हुए नेपाल के संसदीय चुनाव में खंडित जनादेश मिला जिसमें नेपाली कांग्रेस सीट के लिहाज़ से सबसे बड़ी पार्टी और सीपीएन (यूएमएल) वोट के लिहाज़ से सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरे। चुनावपूर्व गठबंधन करने वाले नेपाली कांग्रेस और सीपीएन (माओवादी) के बीच सत्ता की साझेदारी में सवाल पर गठबंधन टूट गया तो माओवादियों ने सीपीएन (यूएमएल) के साथ नया गठबंधन बना लिया। हालाँकि दोनों पार्टियों के मिलाने के बाद भी सरकार बनाने के लिए पर्याप्त संख्या नहीं थी तो उन्हें पाँच और दलों को गठबंधन में शामिल करना पड़ा। इसमें नवगठित राष्ट्रीय स्वतंत्रता पार्टी और राजशाही समर्थक राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के अलावा तीन स्वतंत्र सांसदों को शामिल किया गया है। नेपाली कांग्रेस और सीपीएन (यूएमएल) से बहुत पीछे तीसरे नम्बर की पार्टी होने के बावजूद सीपीएन (माओवादी) के नेता प्रचंड प्रधानमंत्री बने। चुनाव बाद बना यह गठबंधन बहुत बेमेल क़िस्म का है और शुरुआत से ही इसके स्थायित्व पर सवालिया निशान लगे हुए हैं।
नेपाल की 240 साल पुरानी राजशाही को ख़त्म करने में कम्युनिस्ट आंदोलन ने बड़ी भूमिका निभाई थी। राजशाही के ख़ात्मे के बाद के संघीय लोकतांत्रिक नेपाल ने माओवादियों और सीपीएन (यूएमएल) को सबसे बड़ी पार्टियों के रूप में चुना था और एक स्पष्ट वाम रुझान प्रदर्शित किया था। एक दौर में इन दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों ने आपस में विलय कर लिया और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया। सत्ता में रहते हुए ही ये पार्टियाँ फिर से अलग हो गयीं और पुरानी नेपाली कांग्रेस ने इस मौक़े का फ़ायदा उठाते हुए राजनीतिक पहलकदमियाँ लीं और सत्ता में आ गयी। हाल में ही सीपीएन (यूएमएल) में एक और विभाजन हुआ और यूनिफ़ाइड सोशलिस्ट पार्टी नाम से एक नई पार्टी का गठन हुआ। वामपंथी ख़ेमे में बँटवारे और पुनर्गठन ने न केवल नेपाली कांग्रेस को अपने आप को फिर से जीवित करने का मौक़ा दिया बल्कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता पार्टी जैसी नई राजनीतिक पार्टियों के उदय के लिए भी ज़मीन मुहैया कराई। जहाँ राजशाही का ख़ात्मा अब एक सर्वस्वीकृत तथ्य बन चुका है, वहीं नेपाली गणराज्य के धर्मनिरपेक्ष और संघीय ढाँचे के बारे में बहस अब भी जारी है। हम नेपाल के कम्युनिस्ट आंदोलन को लोकतंत्र को सुदृढ़ करने और हिमालयी क्षेत्र में जन संघर्षों को आगे बढ़ाने के लिए शुभकामनाएँ देते हैं।
फ़रवरी 2021 में आंग सान सू की को सैन्य तख़्तापलट के ज़रिए सत्ता से बाहर करने के बाद बड़े पैमाने पर म्यांमार में बड़े पैमाने पर विरोध-प्रदर्शन हुए। मिलिट्री जुंटा ने दावा किया कि सू की सरकार की चीन के साथ बढ़ती निकटता के कारण उन्हें तख़्तापलट करना पड़ा क्योंकि वे अमेरिका के साथ अपने सम्बन्धों को मज़बूत करना चाहते थे। म्यांमार के सैन्य शासन ने इंटरनेट को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया और मीडिया को पूरी तरह क़ब्ज़े में ले लिया। उन्होंने तख़्तापलट के ख़िलाफ़ होने वाले प्रदर्शनों का कठोरता से दमन किया और 2000 से ज़्यादा लोगों की हत्या कर दी। प्रदर्शनों के हिंसक दमन के जवाब में वहाँ के आंदोलन ने हथियारबंद संघर्ष का रूप ले लिया है और ख़ुद को पीपुल्स डिफ़ेंस फ़ोर्स के बैनर ताले संगठित किया है। मिलिट्री जुंटा से आज़ादी के लिए लड़ रहे बहुत से हथियारबंद समूहों ने पीपुल्स डिफ़ेंस फ़ोर्स से गठजोड़ कर लिया है।
लम्बे समय से रोहिंग्या अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ चला आ रहा नस्लीय भेदभाव, नागरिकता से वंचित करने और हिंसा ने 2017 में जनसंहार का रूप धारण कर लिया. म्यांमार में हज़ारों की तादात में रोहिंग्या अल्पसंख्यकों का क़त्ल किया गया। रोहिंग्या समुदाय की एक बड़ी आबादी ने भाग कर बांग्लादेश में शरण ली जहाँ वे अमानवीय हालात में कैम्पों में रह रहे हैं। कुछ भागकर भारत चले आए लेकिन मोदी की फ़ासीवादी सरकार के दौर में उन्हें हिंसा, उत्पीड़न और प्रत्यर्पण का सामना करना पड़ रहा है। भारत सरकार द्वारा म्यांमार को प्रत्यार्पित किए गए रोहिंग्या शरणार्थियों की जान पर ख़तरा मँडरा रहा है।
1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी कन्वेंशन और 1967 के इसके प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर करने से भारत आज भी इनकार कर रहा है। भारत को जल्द से जल्द इस कन्वेंशन पर हस्ताक्षर करने चाहिए और रोहिंग्या समेत सभी शरणार्थियों के साथ अंतर्राष्ट्रीय मानकों और क़ायदों के अनुरूप व्यवहार करना चाहिए। राखीन क्षेत्र से रोहिंग्या मुसलमानों को खदेड़ने के पीछे कुछ भू-राजनीतिक और आर्थिक कारण भी हैं। इनमें तेल खोजने की परियोजनाओं से लेकर तेल पाइपलाइन बिछाने, सड़क और बंदरगाह बनाने व अन्य संसाधन निर्माण की परियोजनाएँ शामिल हैं। इन परियोजनाओं में भारत और चीन के बड़े उद्योगपतियों की दिलचस्पी है। हम माँग करते हैं कि भारत सरकार भारत में मौजूद रोहिंग्या शरणार्थियों को शरणार्थी का दर्जा व सम्मान दे और कूटनीतिक प्रयासों के ज़रिए इस बात की गारंटी करे कि उनके म्यांमार वापस लौटने पर उन्हें पूरे नागरिक अधिकार हासिल हों।
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने अभी अपना 20वाँ महाधिवेशन सम्पन्न किया। यह पार्टी स्थापना का 100वाँ साल भी था। चीन में समाजवाद को अब मुख्य तौर पर राज्य पर कम्युनिस्ट पार्टी के नियंत्रण के बतौर परिभाषित किया जा रहा है। इसका परिणाम यह है कि अब समाजवाद का मतलब ‘कोर’ नेता की केन्द्रीयता और अर्थव्यवस्था में समाजवादी पहलुओं के ऊपर पूँजीवाद की प्रधानता रह गया है। इसके साथ ही देश की धार्मिक और सांस्कृतिक बहुलता के प्रति दमनकारी बहुसंख्यकवादी हान राष्ट्रवादी रुख़ अपनाया जा रहा है। संक्षेप में कहें तो चीनी ढंग का समाजवाद बनाने का चीन का दावा अपने सारतत्व में चीनी ढंग के पूँजीवाद में बदल रहा है।
साथ ही ग़ैर-बराबरी की खाई लगातार बढ़ रही है और वैश्विक बाज़ार के लिए उत्पादन करने वाली फैक्ट्रियों में काम की दमनकारी स्थितियाँ उजागर हो रही हैं। रोज़गार उत्पादन क्षेत्र से हटकर शहरी सेवा क्षेत्र और अनिश्चित अनौपचारिक क्षेत्रों में जा रहा है। निगरानी तकनीक के मामले में चीन पूरी दुनिया में सबसे आगे है। यह न केवल विरोध के तमाम रूपों की निगरानी कर सकता है बल्कि ऐसे लोगों को जीवन की बुनियादी ज़रूरतों से भी वंचित कर सकता है। सबसे पहले यह कोविड-19 के दौर में पश्चिमी देशों की तुलना में ज़्यादा प्रभावी तरीक़े से स्वास्थ्य सेवाएँ पहुँचाने के कदम के रूप में सामने आया और इसके बाद दमनकारी लॉकडाउन लगाने और विरोध-प्रदर्शनों को नियंत्रित करने का बहाना बन गया। अल्पसंख्यक मुस्लिम उइगर समुदाय का बहुसंख्यकवादी दमन और भी तेज हुआ है।
चीन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ज़्यादा बड़ी आर्थिक व भू-राजनीतिक भूमिका निभा रहा है। शुरुआत में कई अफ्रीकी देशों में चीन के निवेश को साम्राज्यवादी पश्चिम के एक विकल्प के रूप में देखा गया था लेकिन धीरे-धीरे अब चीनी कुशल कामगार व उनका प्रबंधन ही वहाँ काम करता दिखाई पड़ रहा है और अफ्रीकी नागरिकों के प्रति उनका नस्लीय भेदभाव भी सामने आना शुरू हो गया है। चीन क़र्ज़ का इस्तेमाल अपने ऊपर इन देशों की निर्भरता बढ़ाने के लिए कर रहा है। चीन बेल्ट एंड रोड/नए सिल्क रोड की अपनी पहलकदमी पर एक ट्रिलियन डॉलर से अधिक खर्च कर चुका है। इसका मक़सद भूमि व समुद्री व्यापार नेटवर्क के ज़रिए एशिया को अफ़्रीका व यूरोप से जोड़ना है। इससे चीन का प्रभाव और चीन पर अन्य देशों की निर्भरता भी बढ़ेगी।
फ़िलिपींस में मई 2022 में हुए राष्ट्रपति चुनाव के परिणाम उन तमाम लोगों के लिए बड़े त्रासद थे जिन्होंने फ़र्दिनांद मार्कोस (मार्कोस सीनियर) की एक दशक लम्बी क्रूर तानाशाही को झेला है। मार्कोस सीनियर के बेटे फ़र्दिनांद (बांगबांग) मार्कोस जूनियर ने लगभग 30 मिलियन वोट हासिल करके चुनाव में जीत दर्ज की। मार्कोस जूनियर को रोद्रिगो ड्यूतर्ते की सत्ता से बाहर जा होने वाली तानाशाही सरकार का समर्थन हासिल था। ड्यूतर्ते की बेटी सारा ड्यूतर्ते उपराष्ट्रपति चुनी गईं। 1965 से 1986 (1972 से 1981 के दौरान सैन्य शासन था।) तक की अमेरिका समर्थित मार्कोस सीनियर की सरकार को फ़िलिपींस के इतिहास में सबसे क्रूर सरकार के रूप में जाना जाता है। उस दौर को राजनीतिक विरोधियों, ट्रेड यूनियन नेताओं, मुसलमानों और तानाशाही के ख़िलाफ़ बोलने वालों की परान्यायिक हत्याओं के लिए जाना जाता है। साथ ही भ्रष्टाचार और ऐय्याशी अपने चरम पर थी। इस परिवार ने सरकारी ख़ज़ाने से 5 या 10 बिलियन अमेरिकी डॉलर से ज़्यादा चुरा किया था। भले ही ये चुनाव परिणाम सदमा पहुँचाने वाले हों, लेकिन आश्चर्यजनक नहीं हैं। पर्यवेक्षकों का मानना है कि पिछले तीन दशक से सैन्य शासन के बारे में इतिहास की किताबों में मौजूद अनालोचनात्मक दृष्टि ने जो ख़ाली स्थान पैदा किया, उसका यह परिवार फ़ायदा उठा रहा है। मार्कोस जूनियर का पूरा अभियान तानाशाही के अपराधों को नकारने और अपने पिता की क्रूर छवि को चमकाने पर केन्द्रित था। ड्यूतर्ते की सरकार के दौर में फ़िलिपींस पहले ही लोकतांत्रिक आवाज़ों पर राज्य प्रायोजित हमलों, कम्युनिस्टों को चुन-चुन कर निशाना बनाने और ‘नशे के ख़िलाफ़ युद्ध’ के नाम पर परान्यायिक हत्याओं को झेल रहा था। ड्यूतर्ते-मार्कोस सरकार के उदय से फ़िलिपींस के तानाशाही के दौर में चले जाने का ख़तरा पैदा हो गया है।
फ़रवरी 2019 में थाइलैंड में छात्रों की पहलकदमी पर एक बड़ा व्यापक लोकतंत्र समर्थक आंदोलन हुआ। इस आंदोलन की माँग थी कि लोकतंत्र के पक्षधार राजनीतिक क़ैदियों की तत्काल रिहाई की जाए, सेना के प्रभुत्व वाले शासन को ख़त्म किया जाए और एक लोकतांत्रिक सरकार के चुनाव के लिए स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव कराए जाएँ। इन आंदोलन ने यह भी माँग की कि सामंती सत्ता को समाप्त किया जाए और लोगों की आवाज़ कुचलने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले राजद्रोह क़ानून समेत तमाम दमनकारी ख़त्म किया जाए व लोकतांत्रिक-संवैधानिक बदलाव की तरफ़ कदम बढ़ाए जाएँ। इस आंदोलन को क्रूर दमन का सामना करना पड़ा और इसके कई नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया।
मौजूदा श्रम क़ानूनों को ध्वस्त करते हुए और नए फ़ौजदारी क़ानून बनाते हुए, जिनमें राष्ट्रपति की अवमानना के लिए भी दंड का प्रावधान है, इंडोनेशिया में राष्ट्रपति जोको विडोडो की सरकार देश की राजनीति पर अपना चंगुल कसने को कोशिश में लगी हुई है। विवाह पूर्व यौन सम्बन्ध, शादी के बाहर साथ रहने, काला जादू प्रदर्शित करने और गर्भपात पर प्रतिबंध लगाने वाले इन फ़ौजदारी क़ानूनों के ख़िलाफ़ 2019 में छात्रों का एक बड़ा प्रतिरोध उठ खड़ा हुआ था। इस आंदोलन के पुलिस दमन में पाँच विद्यार्थियों की मृत्यु हो गई और हज़ारों घायल हो गए। विडोडो देश के मौजूदा श्रम क़ानूनों को पूरी तरह बदलकर एक सर्वव्यापी (Omnibus) श्रम क़ानून प्रस्ताव भी लाने की कोशिश में हैं। मज़दूरों ने इस क़ानून को मज़दूर अधिकारों को ख़त्म करने और कॉरपोरेट तबके को मुनाफ़े की गारंटी पहुँचाने वाला बताया और सरकार की इस कोशिश के ख़िलाफ़ पूरे इंडोनेशिया में विरोध-प्रदर्शनों और प्रतिरोध आंदोलनों की ऋंखला संगठित की। यह सर्वव्यापी श्रम क़ानून काम के क्षेत्रों में न्यूनतम मज़दूरी और मज़दूरी देने में देर करने वाली कम्पनियों पर अर्थदंड को ख़त्म करता है। इस क़ानून के तहत ओवरटाइम का समय एक दिन में अधिकतम 4 घंटे और हफ़्ते में 18 घंटे तक बढ़ जाएगा और कम्पनियों को मज़दूरों को हफ़्ते में दो दिन की बजाय बस एक दिन की छुट्टी देनी होगी।
इंडोनेशिया में अभी भी कम्युनिस्ट/मार्क्सवादी-लेनिनवादी प्रतीकों और पहचानों पर प्रतिबंध जारी है। 53 साल पहले 1965-66 में सुहार्तो शासन ने इंडोनेशिया में 10 लाख से ज़्यादा कम्युनिस्ट और कम्युनिस्ट समर्थक नागरिकों का क्रूर जनसंहार किया था। तब दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी, इंडोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी को बुरी तरह कुचल दिया गया था। हाल ही में जकार्ता स्थित अमेरिकी दूतावास की अब गोपनीय न रह गई फ़ाइलों से पता चलता है कि अमेरिकी सरकार और सीआईए को न सिर्फ़ इस जनसंहार की पूरी जानकारी थी बल्कि इसमें उनकी रज़ामंदी भी थी।
आत्मनिर्णय की माँग कर रहे इंडोनेशिया के पश्चिमी पापुआ इलाक़े में जनसंहारों और परान्यायिक हत्याओं के लिए इंडोनेशियाई सेना ज़िम्मेदार है। 2019 के आंदोलन की यह भी माँग थी कि पश्चिमी पापुआ में सैन्यीकरण को ख़त्म किया जाए और सभी पापुआ राजनीतिक क़ैदियों को रिहा किया जाए।
उत्तर कोरिया को खलनायक बनाने के लिए नस्लवादी प्रचार का इस्तेमाल करते हुए अमेरिकी प्रशासन इसके ख़िलाफ़ अपने आर्थिक युद्ध और सैन्य घेरेबंदी को सही ठहरा रहा है। कोरियाई इलाक़े में उत्तर कोरिया को निशाने पर रखते हुए शुरू हुए अमेरिकी सैन्य अभ्यास के चलते उत्तर और दक्षिण कोरिया के बीच 2018 से शुरू शांति प्रक्रिया रुक गयी है। कोरियाई इलाक़े में युद्ध की सम्भावना में हालिया बढ़त वैश्विक शांति के लिए बड़ा ख़तरा है। इन दोनों देशों के बीच शांति प्रक्रिया को फिर से संगठित किया जाना चाहिए और कोरियाई इलाक़े की स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए इस इलाक़े में तैनात भारी अमेरिकी सैन्य ढाँचे को हटाया जाना चाहिए। जापान में ओकीनावा द्वीप के लोग लगातार देश से अमेरिकी सेना और सैन्य आधार को हटाने की माँग कर रहे हैं। ओकीनावा में फ़रवरी 2019 में हुए जनमत संग्रह में 70 फ़ीसदी, लगभग 434000 लोगों ने, नए हेनोको सैन्य बेस के निर्माण के ख़िलाफ़ वोट दिया।
आस्ट्रेलिया में मई 2022 के चुनावों के बाद बनी लेबर पार्टी सरकार के सामने भारी चुनौतियाँ हैं। मध्यमार्गी-दक्षिणपंथी गठबंधन की एक दशक लम्बी सरकार ने मज़दूरों और मूलनिवासियों के अधिकारों को बेहद बुरी हालात में पहुँचा दिया था। यह गठबंधन सरकार बड़े कॉरपोरेट घरानों की पक्षधर और प्रवासी विरोधी नीतियों को आक्रामक ढंग से आगे बढ़ा रही थी। आस्ट्रेलिया में अभी भी नारू और मानुस (जो पापुआ न्यू गिनी को दे दिए गए हैं) में शरणार्थियों को अमानवीय डिटेंशन कैम्पों में क़ैद रखना जारी है। रपटों के मुताबिक़ 2021 तक इन डिटेंशन कैम्पों में 20 से ज़्यादा शरणार्थियों ने ख़ुदकुशी कर ली थी।
आस्ट्रेलिया के क्वींसलैंड के मूलनिवासियों ने गौतम अडानी की अब चालू हो गई कारमाइकल कोयला खदान के ख़िलाफ़ विरोध-प्रदर्शन जारी रखा है। यह खदान ग्रेट बैरियर रीफ़ सहित पूरे स्थानीय पर्यावास के लिए ख़तरा है। खनन कम्पनी पर यह भी इल्ज़ाम है कि उसके चलते खनन के इलाक़े में भू जलस्तर नीचे गिर गया है।
एकतरफ़ा अमेरिकी राजनीतिक आधिपत्य या आईएमएफ़-वर्ल्ड बैंक-डब्ल्यूटीओ के आर्थिक आधिपत्य के ख़िलाफ़ बहुध्रुवीयता को बढ़ावा देने की सम्भावनाओं पर ब्रिक्स (BRICS) देश समूह कभी भी खरा नहीं उतरा। यहाँ तक कि ब्रिक्स के सदस्य देशों- ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ़्रीका के बीच भी आर्थिक सहयोग बेहद कम हुआ। भारत, शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइज़ेशन (एससीओ) का भी सदस्य है पर वहाँ भी इसकी भूमिका बहुत सीमित रही है। भारत ने इस मंच का इस्तेमाल चीन या अन्य एशियाई देशों के साथ बेहतर सम्बन्ध विकसित करने में नहीं किया। इसके उलट भारत, अमेरिका के साथ अपने सैन्य रिश्ते मज़बूत करते हुए क्वाड (क्वाड्रीलेटरल सिक्योरिटी डाइलॉग) में शामिल हो गया जिसके अन्य सदस्य जापान और आस्ट्रेलिया हैं। क्वाड डाइलॉग और कुछ नहीं, ‘भारत-प्रशांत’ क्षेत्र में चीन का मुक़ाबला करने के उद्देश्य से बनाया गया अमेरिकी सैन्य गठजोड़ है। भारत का इससे जुड़ाव देश के संप्रभु हितों के ख़िलाफ़ है। यह गठबंधन चीन को निशाना बनाने के लिए भारत में अपने सैनिकों और सैन्य संसाधनों को तैनात करने की अमेरिका की कोशिश है।
भारत की विदेश नीति की पहचान अमेरिका के रणनीतिक हितों की पिछलग्गू नीति के बतौर हो रही है। इसके चलते भारत का लगभग अपने सभी पड़ोसी देशों से अलगाव बढ़ा है और उनके साथ क्षेत्रीय सहयोग व मैत्री की संभावनाओं को भारी धक्का पहुँचा है। क्षेत्रीय दादा की तरह के भारतीय रवैये, भारतीय कॉरपोरेट हितों को किसी भी क़ीमत पर आगे बढ़ाने की कोशिशों और भारतीय राष्ट्रवाद को हिंदू वर्चस्ववादी राष्ट्रवाद की तरह परिभाषित करने की कोशिशों ने दक्षिण एशिया में भारत के प्रति अविश्वास को गहरा किया है और तनाव बढ़ाया है। हाल ही में चीन और भारत के बीच सीमा पर झड़पें हुई हैं और भारतीय नियंत्रण वाले क्षेत्र में चीन के घुसपैठ की ख़बरें भी आ रही हैं। मोदी सरकार ने सीमा के मौजूदा हालात के बारे में कोई स्पष्ट रुख़ नहीं अपनाया है। वह केवल देश की घरेलू राजनीति की गणित के मुताबिक़ चीन विरोधी लफ़्फ़ाज़ी को बढ़ा रही है। 2022 में चीन से आयात अब तक के सबसे ऊँचे मुक़ाम पर पहुँच गया है व्यापार 100 बिलियन डॉलर पार को कर गया है।
क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के बतौर हम साझी वैश्विक शांति और धरती को बचाए रखने के पक्षधर हैं। इस मक़सद के लिए हमें नव उपनिवेशवादी वर्चस्व की नीतियों, साम्राज्यवादी हस्तक्षेप, सैन्य हमलों और पर्यावरण की क्षति के चलते पैदा हुए पर्यावरणीय संकट के लिए ज़िम्मेदार नीतियों के ख़िलाफ़ संघर्ष जारी रखना होगा। हमें लगातार भारतीय विदेश नीति के रुख़ को सही दिशा में मोड़ने और वैश्विक स्तर पर भारत की भूमिका के पुनर्निर्धारण पर ज़ोर देना जारी रखना होगा। हम दुनिया भर की कम्युनिस्ट पार्टियों और प्रगतिशील आंदोलन की ताक़तों के साथ और सघन सम्बन्ध विकसित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं ताकि युद्ध के ख़िलाफ़, आज़ादी व मानवाधिकार के लिए, फ़ासीवाद, नस्लवाद और इस्लामोफोबिया के ख़िलाफ़ एक व्यापक अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता क़ायम कर सकें। हमें फ़िलिस्तीन के आज़ादी के संघर्ष के प्रति अपनी एकजुटता को और मज़बूत करना होगा तथा दुनिया भर में फ़ासीवाद व वैश्विक पूँजीवाद के ख़िलाफ़ चल रहे संघर्षों के साथ सघन सहयोग विकसित करना होगा। दक्षिण एशिया में शांति व लोकतंत्र के लिए, युद्ध, आतंकवाद, धार्मिक अतिवाद और घृणा व उन्माद की राजनीति के ख़िलाफ़ प्रगतिशील ताक़तों के साथ और सघन सहयोग बनाना होगा।