1. हम ऐसे दौर से गुजर रही हैं जब संसदीय लोकतंत्र के संवैधानिक आधार और जनता के जीवन और जीविका पर हमला बढ़ा है। साथ ही कॉरपोरेट द्वारा भारत के प्राकृतिक संसाधनों की बेरोकटोक लूट जारी है। इन दोनों तरह के हमलों की शुरुआत आज से क़रीब तीन दशक पहले उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और आक्रामक हिंदुत्व के रूप में हुई थी। आक्रामक हिंदुत्व भारतीय राष्ट्रवाद को हिंदी वर्चस्ववाद के रूप में परिभाषित करता है जिसकी परिणति 2014 में नरेंद्र मोदी को केंद्र में सत्ता में लाने में हुई है। तब से राज्य मशीनरी का इस्तेमाल करके यह दोतरफ़ा अभियान चलाए हुए है। इस अभियान ने 2019 के चुनाव में मोदी की सत्ता में वापसी के साथ और तेज़ी पकड़ी और अब 2024 के चुनाव व 2025 में संघ की स्थापना के शताब्दी वर्ष के मद्देनज़र हम इस अभियान में और तेज़ी देख सकते हैं।
2. संविधान पर पूरी तरह से हमला बोल दिया गया है- चाहे वह संविधान के बुनियादी ढाँचे और उसकी भावना के विपरीत जाते हुए किए जाने वाले संदेहास्पद संशोधन हों या फिर किसी भी तरह की संसदीय या न्यायिक पड़ताल से बचते हुए पारित किए जाने वाले कार्यकारी आदेश हों। भारत के संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक जैसे शब्दों को व्यवस्थित ढंग से अप्रासंगिक बनाया जा रहा है। नागरिकता संशोधन क़ानून ने धर्म और नागरिकता को जोड़ दिया तथा पड़ोसी देशों से शरणार्थी के बतौर आने वालों के बीच धर्म के आधार पर भेदभाव का प्रावधान किया है। आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए आरक्षण के प्रावधान में अनुसूचित जाति/जनजाति व अन्य पिछड़ा वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर हिस्से को बाहर रखा गया है। धारा 370 को समाप्त करने के साथ-साथ जम्मू और कश्मीर के राज्य के दर्जे को समाप्त करने के ज़रिए वहाँ के नागरिकों को हासिल विशिष्ट संवैधानिक अधिकार छीन लिए गए हैं। यह राज्यों को केंद्र शासित इलाक़ों में तब्दील कर देने का भयानक उदाहरण है। भारत-पाकिस्तान और भारत-बांग्लादेश सीमा पर सीमा से 50 किलोमीटर तक भीतर के क्षेत्र में सीमा सुरक्षा बलों को विशेष अधिकार देने का मामला सीधे तौर पर संघीय अधिकारों पर हमला है।
3. कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच तथा केंद्र और राज्य के बीच शक्तियों का स्पष्ट बँटवारा हमारे गणतंत्र की केंद्रीय संवैधानिक बुनियाद है। मोदी सरकार में कार्यपालिका लगातार विधायिका और न्यायपालिका के क्षेत्र में घुसपैठ कर रही है। सरकार संसद में बिना बहस के ही लगातार अध्यादेश व बिल पारित कर रही है। जिस तरह से विधायकों को ख़रीदने के ज़रिए सरकारें गिराई और बनाई जा रही हैं, ग़ैर भाजपा शासित राज्यों में राज्यपाल के पद का दुरुपयोग करके सरकारों को अस्थिर किया जा रहा है, वह भी संविधान को उलट देने का ही उदाहरण है। केंद्रीय एजेसियों का इस्तेमाल संघीय ढाँचे में मौजूद लोकतांत्रिक जगह को नष्ट करने के लिए किया ज़ा रहा है। साथ ही उच्च शिक्षा और केंद्रीय सेवाओं के क्षेत्र में प्रवेश, भर्ती और तैनाती की प्रक्रियाओं को तेज़ी से केंद्रीकृत किया जा रहा है जिससे राज्यों को नुक़सान हुआ है। जीएसटी के ज़रिए करों के केंद्रीकरण में भी राज्यों का बुरी तरह नुक़सान हुआ है। अपनी मनपसंद के नौकरशाहों से चुनाव आयोग को भर देने व अग्निपथ योजना के ज़रिए सेना के ढाँचे में बदलाव के बाद अब केंद्र सरकार न्यायिक नियुक्तियों को भी नियंत्रित करना चाहती है। क़ानून मंत्री ने ज़मानत याचिकाओं और जनहित याचिकाओं पर सुनवाई के लिए पटल पर खुलेआम सुप्रीम कोर्ट की संसद के आलोचना की।
4. सत्ता के बेलगाम केंद्रीकरण ने संसदीय लोकतंत्र की प्रणाली को अमेरिकी राष्ट्रपति की तरह की प्रणाली में बदल दिया है और प्रधानमंत्री सत्ता का मुख्य केंद्र बनकर उभरा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की तिकड़ी इस सरकार के ज़्यादातर रणनीतिक निर्णयों के केंद्र में होती है। नोटबंदी, जीएसटी से लेकर लॉकडाउन और कृषि क़ानूनों तक ऐसे कई उदाहरण हैं, जब प्रधानमंत्री ने सलाह मशविरे की किसी भी प्रक्रिया को अपनाए बिना सीधे अपने निर्णयों की घोषणा की। जम्मू और कश्मीर के मामले में अमित शाह ने धारा 370 को समाप्त करके राज्य की समस्त संवैधानिक शक्तियों को ख़त्म कर उसे दो केंद्र शासित प्रदेशों में बाँटने की औचक घोषणा करके संसद को चौंका दिया था। पूर्व चीफ़ ऑफ़ डिफ़ेंस स्टाफ़, रोज़गार और सामाजिक सुरक्षा प्राप्त सैनिकों की जगह इनकी गारंटी के बग़ैर अस्थाई व कम समय के लिए संविदा पर सैनिकों की नियुक्ति के ख़िलाफ़ थे। मोदी के ही शब्दों में कहें तो यह अग्निपथ योजना ‘आपदा में अवसर’ खोजने की सरकार की रणनीति का हिस्सा थी।
5. भाजपा अपनी संविधान के प्रति अवमानना को अक्सर संविधान के उत्सव के पीछे छुपाती है। 2015 से मोदी सरकार संविधान दिवस मनाती है और इस मौक़े का फ़ायदा उठाकर वह संविधान के बारे में अपने दृष्टिकोण का प्रचार करती है जोकि भारत के संविधान के मूल्यों और दृष्टिकोण के एकदम उलट है। आज़ादी के 75वें साल को आज़ादी के अमृत महोत्सव के रूप में मनाने के बाद सरकार ने 2047 तक के आगामी 25 वर्षों को अमृत काल घोषित किया है। नरेंद्र मोदी इस दौर को कर्तव्य काल के रूप में परिभाषित करते हैं जिसमें नागरिकों के कर्तव्य, उनके संवैधानिक अधिकारों से ऊपर होने चाहिए। 2022 के संविधान दिवस को ‘भारत लोकतंत्र की जननी है’ विषय के रूप में मनाया गया। इस मौक़े पर जारी किए गए वक्तव्य में भारतीय लोकतंत्र को सदियों पुरानी हिंदू सभ्यता के रूप में वर्णित किया गया था जिसमें भारत की जाति व्यवस्था का कोई ज़िक्र नहीं था। जबकि भारत के बड़े समाज-सुधारकों ने जाति व्यवस्था को सामाजिक ग़ुलामी के बतौर देखा था। बहुधर्मिक-बहुसांस्कृतिक भारत को हिंदू वर्चस्ववादी देश के रूप में परिभाषित करते हुए धार्मिक रूढ़िवाद और संकीर्णतावाद ने भारतीय समाज की प्रगति को बाधित किया।
6. 1990 के दशक में जब भाजपा ने पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन बनाया, तो उसने राम मंदिर, धारा 370 और समान नागरिक संहिता के तीन सर्वाधिक विवादास्पद मुद्दों को छोड़ने की बात कही थी। भाजपा आज न सिर्फ़ इन तीन मुद्दों को लागू करने बल्कि उनका विस्तार करने में भी लगी हुई है। बाबरी मस्जिद विध्वंस को गम्भीर संवैधानिक उल्लंघन मानने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने विवादित ज़मीन को बाबरी मस्जिद ढहाने वालों को ही देने का निर्णय सुनाया। 2024 के चुनाव से पहले अब मंदिर के उद्घाटन की प्रतीक्षा है। भाजपा 1991 के उस क़ानून को भी ख़त्म करना चाहती है जिसमें 15 अगस्त 1947 को वह तिथि माना गया है जिसके आधार पर किसी धार्मिक उपासना की जगह का चरित्र तय किया जाता है। अयोध्या को इस क़ानून में अपवाद माना गया था।अब संघ ब्रिगेड इस क़ानून को ख़त्म करके कई मस्जिदों और इस्लामी स्मारकों को मंदिरों में बदलने के अपने एजेंडे को आगे बढ़ाना चाहता है। भाजपा शासित राज्यों में मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाने वाले एक के बाद एक क़ानून बनाए जा रहे हैं और संघ ब्रिगेड के गुंडे इन क़ानूनों को लागू करवाने के नाम पर मुस्लिम समुदाय पर हमले कर रहे हैं। शैक्षणिक संस्थानों में मुस्लिम छात्रों और शिक्षकों के हिजाब पहनने, धर्मांतरण और अंतर्धार्मिक विवाह, मवेशियों के व्यापार, मांस की बिक्री और गोमांस खाने के आरोप तथा सार्वजनिक जगहों पर नमाज़ पढ़ने पर संघ ब्रिगेड के गुंडे और भाजपा की राज्य सरकारें सीधी हिंसा करती हैं। मॉब लिंचिंग, घरों पर बुलडोज़र चलाना, सामूहिक गिरफ़्तारी और क़ैद, फ़र्ज़ी मुठभेड़ में हत्याएँ, हिंसा के वे रूप हैं जिन्हें भाजपा की राज्य सरकारों द्वारा बनाए गए क़ानून और लगाए गए प्रतिबंध वैधता प्रदान करते हैं। इस तरह की हिंसा केवल मुस्लिम समुदाय के लोगों तह ही सीमित नहीं रही है। अन्य अल्पसंख्यक समुदायों, दलितों, आदिवासियों और महिलाओं पर भी हमले काफ़ी बढ़े हैं।
7. अल्पसंख्यकों व अन्य हाशिए के समुदायों पर हमले के साथ-साथ विरोध की आवाज़ों को व्यवस्थित ढंग से कुचलने, जनांदोलनों का दमन करने और विपक्ष के दलों की साख को नष्ट करने की कोशिशें भी जारी हैं। सरकार औपनिवेशिक तौर-तरीक़े अपनाते हुए नागरिकों को षड्यंत्र के आरोपों में गिरफ़्तार कर रही है और बिना मुक़दमा चलाए या ज़मानत के उन्हें लम्बे समय तक जेलों में रख रही है। भीमा-कोरेगाँव और दिल्ली दंगों के मामले दमन की इस पूरी योजना का खाका हमारे सामने रख देते हैं जिसमें संदिग्ध तरीक़े से फ़र्ज़ी इलेक्ट्रानिक सबूत प्लांट करने, देशद्रोह और आतंकवाद के झूठे आरोप लगाने और यूएपीए, एनएसए व राजद्रोह की धाराओं के तहत मुक़दमा चलाने की साज़िश शामिल है। हमने इसी तरह से फँसाए गए हज़ारों आदिवासी नौजवानों के लिए काम करने वाले फादर स्टैन स्वामी को भी इसी तरह से फँसाने और न्याय व लोकतंत्र के लिए शहीद हो जाते देखा। असहमतियों को कुचलने का यह क्रम अप्रवासी भारतीयों पर भी जारी है। मोदी सरकार की आलोचना करने और लोकतंत्र के पक्ष में आवाज़ उठाने वाले अप्रवासी भारतीयों के ओवरसीज़ सिटीजन स्टेटस (ओसीआई) को छीन लिया गया। भेदभावपूर्ण नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ शाहीन बाग जैसे ताकतवर जनांदोलन और खेती पर कॉरपोरेट कब्जे का मार्ग प्रशस्त करने वाले कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ एकजुट किसान आंदोलन के ख़िलाफ़ राष्ट्र विरोधी साज़िश के रूप में दुष्प्रचार चलाया गया। इन आंदोलनों के ख़िलाफ़ संगठित हिंसा भड़काई गई। प्रधानमंत्री मोदी ख़ुद इस दुष्प्रचार अभियान का नेतृत्व कर रहे थे और आंदोलन के नेतृत्वकर्ताओं को आंदोलनजीवी, अर्बन नक्सल व ‘कलमधारी नक्सल’ कह रहे थे।
8. किसी भी तरह के सांस्थानिक नियंत्रण के न होने और अकूत पैसे की ताक़त के बलबूते भाजपा ने दूसरी पार्टियों के विधायकों को ख़रीदने का उद्योग खड़ा कर दिया है। इससे ग़ैर-भाजपा राज्य सरकारों पर किसी भी समय गिरा दिए जाने का ख़तरा मँडराता रहता है। कर्नाटक, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र, ऐसे उदाहरण हैं जहाँ भाजपा ने विधायक ख़रीद कर दूसरी पार्टियों की सरकार गिराई और सत्ता हासिल की। राज्यपाल दफ़्तर और सीबीआई, ईडी, एनआईए जैसी केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल ग़ैर-भाजपा सरकारों पर दबाव बनाने और उन्हें अस्थिर करने के लिए खुलेआम किया जा रहा है। 2014 के कांग्रेस मुक्त भारत के अभियान से आगे बढ़ते हुए अब भाजपा विपक्ष मुक्त लोकतंत्र के रास्ते पर चल पड़ी है। भाजपा एक दलीय राज्य की वकालत करती है और अगले पचास सालों तक पूरे देश पर शासन करने का दावा करती है।
9. मोदी सरकार एक तरफ़ तो नागरिकों पर गहन निगरानी के ज़रिए भय और नियंत्रण को बढ़ा रही है, तो दूसरी तरफ़ अपने कुछ चुनिंदा कॉरपोरेट घरानों को अर्थव्यवस्था तथा लगभग सभी सार्वजनिक सम्पत्तियों व सेवाओं का नियंत्रण सौंप रही है। निजीकरण अब सार्वजनिक सम्पत्ति की एकमुश्त बिक्री या सार्वजनिक सम्पत्ति को लगभग स्थाई क़िस्म से पट्टे पर देने की व्यवस्था में बदल चुका है जिसे सरकारी शब्दावली में ‘निष्क्रिय सम्पत्ति का मौद्रीकरण’ कहा जा रहा है। नोटबंदी की तरह ही यह मौद्रीकरण भी एक विनाशकारी विचार है जो सार्वजनिक पैसे और श्रम से बनी सरकारी सम्पत्तियों को बड़ी तेज़ी से निजी सम्पत्तियों में बदल देता है। निजीकरण के समर्थक इसके चलते कार्य-कुशलता और विकास में वृद्धि की बात कर रहे हैं। हक़ीक़त के सामने ये भ्रामक प्रचार कहीं टिकते नहीं दिखाई पड़ते। बहुत साफ़ है कि बढ़ते निजीकरण ने बेरोज़गारी, ग़रीबी और ग़ैर-बराबरी को बड़े पैमाने पर बढ़ाया है। निजीकरण ने उच्च शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को इस कदर महँगा कर दिया है कि वे अब मध्य वर्ग की पहुँच के दायरे से भी बाहर पड़ रही हैं। इस तरह निजीकरण ने सामाजिक गतिशीलता को अवरुद्ध किया है और मुख्य रूप से ब्राह्मणवादी सामाजिक अभिजात वर्ग के विशेषाधिकार को और मज़बूत किया है।
10. मोदी सरकार द्वारा संरक्षित दुलरुआ पूँजीवाद ने अमीर और गरीब के नीच की खाईं को और बढ़ा दिया है। मोदी सरकार के दौर में अरबपतियों की संख्या में तेज़ी से इज़ाफ़ा हुआ है। 2013 में भारत में कुल 55 अरबपति थे जो 2022 में बढ़कर 166 हो गए। 2020 और 2022 के महामारी के दो वर्षों के दौरान भारत में 64 नए अरबपति पैदा हुए। राजस्व व्यवस्था का इस्तेमाल आर्थिक पुनर्वितरण और बराबरी के लिए करने की जगह सरकार इसका इस्तेमाल ग़रीबों को लूटकर अमीरों की जेब भरने के हथियार की तरह कर रही है। भारत में सम्पत्ति और उत्तराधिकार टैक्स नहीं है। कॉरपोरेट टैक्स की दरें लगातार कम हो रही हैं। कॉरपोरेट को टैक्स माफ़ी और टैक्स से छूट लगातार बढ़ रही है और जीएसटी की मार गरीब व मध्यवर्गीय लोगों पर बेअनुपात ढंग से ज़्यादा पड़ी है। एक आकलन के मुताबिक़ भारत के कुल जीएसटी संग्रह का दो-तिहाई हिस्सा देश की सबसे गरीब आधी आबादी से इकट्ठा किया जाता है। जीएसटी संग्रह का एक-तिहाई हिस्सा ऊपर के बाक़ी 40 फ़ीसदी आबादी से आता है। सबसे धनी 10 फ़ीसदी आबादी से जीएसटी का केवल 3 से 4 फ़ीसदी हिस्सा ही आता है।
11. अगर नोटबंदी ने हमें मोदी सरकार की मनमानी कठोर और विघटनकारी प्रकृति से परिचित कराया था तो कोविड-19 के दौर में भीषण इंसानी तबाही की क़ीमत पर फिर से मोदी सरकार का वही चेहरा देखने को मिला। महामारी के शुरुआती चरण में सरकार ने वायरस का सामना करने के बारे में तरह-तरह के रूढ़िवादी और तर्कहीन विचारों को बढ़ावा दिया। बिना किसी तैयारी के अचानक किए गए लॉकडाउन की घोषणा ने देश को भारी मानवीय संकट में डाल दिया। प्रवासी मज़दूरों और उनके परिजनों को सड़कों पर सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने के लिए न सिर्फ़ छोड़ दिया गया बल्कि रास्ते में उन्हें अपमानजनक और बर्बर उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ा। क्वारंटाइन केंद्रों की भी हालत बदहाल थी। लाखों परिवारों को भोजन और दैनिक उपयोग की अन्य ज़रूरी वस्तुओं को हासिल करने के लिए संघर्ष करना पड़ा। लॉकडाउन एक कठोर और विघटनकारी तरीक़ा था। बहुत से देशों ने वायरस के फैलाव को रोकने के लिए इसे अस्थाई माध्यम के रूप में अपनाया था और उन्होंने इस समय का इस्तेमाल अपनी स्वास्थ्य सेवाओं को मज़बूत करने के लिए किया। लेकिन भारत में तो लॉकडाउन साधन नहीं, साध्य के रूप में लागू किया गया था। इसका मक़सद लोगों को चुपचाप अधीनता स्वीकार करने के लिए तैयार करना था। इस दौर में इतने विशाल संकट के सामने पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था बिना किसी तैयारी के लचर हालत में दिखाई पड़ी। कोविड की दूसरी लहर के दौरान ऑक्सीजन की समय पर आपूर्ति न हो सकने के चलते बड़े पैमाने पर मौतें हुईं लेकिन सरकार ने आपूर्ति को ठीक करने की जगह वास्तविकता को छिपाने और दबाने की कोशिश की तथा झूठे प्रचार के ज़रिए ख़ुद को जनता के रक्षक के रूप में पेश किया।
12. अंधाधुंध निजीकरण और ग़ैर-ज़िम्मेदार व मनमाने कठोर शासन ने भारत की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को गर्त में पहुँचा दिया है। तमाम वैश्विक सूचकांकों में भारत के लगातार गिरते हुए हालात इसी का नतीजा है। सरकार हर दिन अपनी अक्षमता को पिछले 70 सालों की सरकारों पर मढ़ती रहती है लेकिन सत्ता में आने के लिए किए गए वादों को पूरा न करने के सवाल पर मौन साध लेती है। आज़ादी के 75 साल होने के बाद भी सभी के लिए आवास, बिजली और साफ़ पीने का पानी अभी दूर का सपना ही रह गया है। अब इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए समय सीमा को 2047 तक खिसका दिया गया है। सरकार दुनिया के पैमाने पर भारत के काल्पनिक उदय का प्रचार कर रही है और इसी साल होने वाले जी-20 सम्मेलन के दौरान यह झूठा प्रचार और भी ऊँचाई पर ले जाया जाएगा। यह आश्चर्यजनक है कि सरकार वैश्विक स्तर पर विश्वगुरु के रूप में भारत के उदय का दावा कर रही है लेकिन अमीर और विशेषाधिकार प्राप्त भारतीय लगातार भारत की नागरिकता छोड़कर अमेरिका व दूसरे विकसित पूँजीवादी देशों में बस रहे हैं। पश्चिम और मध्य-पूर्व में प्रवासी मज़दूरों के रूप में आजीविका की तलाश करने वाले कामगार व मध्यवर्गीय भारतीयों को कामकाज की दमनकारी अनिश्चित परिस्थियों और भेदभावपूर्ण आव्रजन क़ानूनों का सामना करना पड़ता है। 2022 के शुरुआती 10 महीनों में ही एक लाख से ज़्यादा भारतीयों ने भारत की नागरिकता छोड़ी है। नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से अब तक भारत की नागरिकता छोड़ने वालों की तादात साढ़े 12 लाख से अधिक हो गयी है।
13. चरम असमानता से पीड़ित किसी समाज में शिक्षा और रोज़गार सामाजिक गतिशीलता का आधार होते हैं लेकिन ये दोनों ही भारत के अमीर तबकों के लिए आरक्षित कर दिए गए हैं। शासन व्यवस्था की अमीरपरस्ती दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ग़रीबों की ज़रूरतों और अधिकारों को फ्रीबी या रेवड़ी संस्कृति कहकर उनका मज़ाक़ उड़ाते हैं जबकि वन्दे भारत ट्रेनों और गंगा विलास सुपर लक्ज़री क्रूज़ को विकास का प्रतीक मानते हैं और इन्हें हरी झंडी दिखाते हैं। सरकार की अमीरपरस्त नीतियों के बरक्स ग़रीबों और आम लोगों की ज़रूरतों और आकांक्षाओं की घोर उपेक्षा, उनके जीवन में बढ़ती अनिश्चितता, अभाव व अपमान के चलते समाज में ज़बरदस्त हताशा पैदा हुई है। संघ ब्रिगेड इस हताशा का इस्तेमाल अपने नफ़रत, झूठ और हिंसा के अभियान को बढ़ाने में कर रहा है। ख़ासकर समाज के उत्पीड़ित और वंचित तबकों के युवाओं और महिलाओं के बीच संघ ब्रिगेड की बढ़ती पैठ बहुत ख़तरनाक है और इसका हर सम्भव तरीक़े से मुक़ाबला किया जाना चाहिए।
14. धर्मनिरपेक्षता, संघीय ढाँचे, असहमति के अधिकार पर बढ़ते हमले और संकट की गम्भीरता के बावजूद शक्तिशाली जनांदोलन भी खड़े हो रहे हैं। सीएए के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर हुए विरोध-प्रदर्शन और उसमें मुस्लिम महिलाओं की अभूतपूर्व भागीदारी तथा दिल्ली की सीमाओं पर हुआ ऐतिहासिक किसान आंदोलन भारत में लोकतंत्र की लड़ाई को नई ऊर्जा और प्रेरणा देने वाले साबित हुए। सरकार ने औपनिवेशिक शासकों की तर्ज़ पर क्रूर दमन का सहारा लेकर और इज़राइल के संदिग्ध स्पाईवेयर (जासूसी) तकनीक का सहारा लेकर इन आंदोलनों को दबाने की कोशिश की लेकिन आंदोलन के कार्यकर्ताओं ने जिस साहस और दृढ़संकल्प के साथ इस हमले का सामना किया, उसने फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ जन प्रतिरोध संघर्षों के दृढ़ संकल्प को और भी मज़बूत किया।
15. लोगों में बढ़ता असंतोष और जनांदोलनों का दबाव अब चुनाव के अखाड़े में भी दिखने लगा है। भाजपा के तीन सबसे पुराने सहयोगियों, अकाली दल, शिवसेना और जदयू के एनडीए गठबंधन से बाहर आने को एनडीए के भीतर बढ़ते असंतोष के चिन्ह के रूप में देखा जा सकता है। जहाँ अकाली दल ने किसान आंदोलन के चलते भाजपा का साथ छोड़ा, वहीं शिवसेना ने ग़ैर-भाजपा गठबंधन बनाने के लिए राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस से हाथ मिला लिया। शिवसेना के इस गठबंधन ने ढाई साल तक सरकार चलाई। तब तक भाजपा ने शिवसेना में दो फाड़ करवाकर सत्ता पर फिर से क़ब्ज़ा कर लिया। नीतीश कुमार ने अगस्त 2022 में एनडीए छोड़ा और भाजपा को सत्ता से बाहर करने के लिए राजद, कांग्रेस व वाम दलों के महागठबंधन से हाथ मिला लिया। यह घटना पाँच साल पहले बिहार में हुई राजनीतिक घटना के ठीक उलट थी। उस समय नीतीश कुमार ने राजद और कांग्रेस से अपना अल्पकालिक गठबंधन तोड़ लिया था और एनडीए में वापस लौट गए थे।
16. 2019 में झारखंड, 2021 में पश्चिम बंगाल और 2022 में हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों में भाजपा विरोधी जनादेश देखने को मिला। तमिलनाडु, केरल और पंजाब में भाजपा कभी भी मज़बूत नहीं रही है और इसका पार्टी का प्रदर्शन काफ़ी ख़राब रहा। पश्चिम बंगाल में भाजपा को ज़बरदस्त फ़ायदा हुआ और यह मुख्य विपक्षी पार्टी बनकर उभरी। हक़ीक़त यह है कि माकपा और कांग्रेस विधानसभा में एक भी सीट नहीं जीत सके और वाम समर्थित आईएसएफ़ के एक विधायक के अलावा विधानसभा के भीतर भाजपा ही एकमात्र विपक्ष है। पंजाब में आम आदमी पार्टी ने किसान आंदोलन द्वारा बनाए गए मूड और परिवर्तन की आकांक्षा को भुनाते हुए बड़ी जीत हासिल की। पंजाब के बाद गुजरात में भी आम आदमी पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन करते हुए वोटों का बड़ा हिस्सा हासिल किया। इससे आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिल गया। जोड़-तोड़ की तमाम कोशिशों के बावजूद भाजपा दिल्ली के नगरनिगम चुनाव में अपनी सत्ता बचाए नहीं रख सकी।
17. कई राज्यों में हार के बावजूद आज भाजपा अखिल भारतीय स्तर पर अपने वर्चस्व के शिखर पर पहुँची हुई है। राष्ट्रीय स्तर पर मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस वोटों में हिस्सेदारी और सीट, दोनों मामलों में ऐतिहासिक रूप से सबसे निचले स्तर पर है। भले ही कुछ क्षेत्रीय दलों ने ख़ुद को भाजपा से दूर कर लिया है, लेकिन उनमें से बहुत कम ही सीधे तौर पर विपक्ष की भूमिका निभाते हैं। ओड़िशा का बीजू जनता दल और आंध्र प्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस पार्टी, ऐसे ख़ास उदाहरण हैं जो लगभग सभी मुद्दों पर भाजपा का साथ देने के लिए तैयार रहते हैं। मुख्य रूप से कांग्रेस की कमजोरी का फ़ायदा उठाकर बढ़ने वाली आम आदमी पार्टी अब ऐसी जगह पहुँच गयी है कि उसे भाजपा से सीधा मुक़ाबला करना पड़ रहा है। लेकिन वह भाजपा की शर्तों पर भाजपा को चुनौती देने वाली एक नरम हिंदुत्ववादी प्रतिद्वंद्वी के बतौर उभरने की कोशिश कर रही है। पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस की सरकार हो या तेलंगाना की टीआरएस से बीआरएस बनी चंद्रशेखर राव की सरकार, ये सरकारें मोदी शासन के ख़िलाफ़ मुखर तो हैं लेकिन ख़ुद ही भ्रष्टाचार और कुशासन की दलदल में धँसी हुई हैं। अस्मिता आधारित अधिकांश राजनीतिक पार्टियाँ ठोस विचारधारात्मक रुख़ अख़्तियार नहीं करतीं और आम लोगों की आजीविका पर हमलों के मामलों में भी मौन साध लेती हैं। ये पार्टियाँ साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के ज़रिए अस्मिताओं में तोड़-फोड़ कर उन्हें हज़म कर लेने की भाजपा की आक्रामक राजनीति के सामने ख़ुद को असहाय पाती हैं। उत्तर प्रदेश में बसपा का निरंतर कमजोर होते जाना भाजपा की फ़ासीवादी आक्रामकता के सामने विचारधाराहीन अस्मितावादी राजनीति की असहायता का सबसे ज्वलंत उदाहरण है।
18. पिछले तीन दशकों में नीतियों के दक्षिणपंथी झुकाव और विकसित हुए हिंदू वर्चस्ववादी दक्षिणपंथी सामान्य बोध का लाभ भाजपा को मिलता है। नव उदारवादी नीतियों और हिंदू वर्चस्ववादी राजनीति के इर्द-गिर्द बनी व्यापक राजनीतिक आम सहमति इनके बीच की सीमा को कई बार सीमा रेखाएँ धुँधला कर देती है और विपक्ष मौन रह जाता है। भाजपा आक्रामक हिंदुत्व के साथ बेलगाम कॉरपोरेट लूट को जोड़कर पूरे देश पर क्रूर राज्य दमन और पारा न्यायिक हिंसा थोप रही है। इस फ़ासीवादी हमले का विरोध करने के लिए विपक्ष में समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, संघीय लोकतांत्रिक भारत के प्रति प्रतिबद्धता की सुसंगत दृष्टि होने ज़रूरी है। इस महत्वपूर्ण मोड़ पर कम्युनिस्ट आंदोलन को अपनी ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी उठाने के लिए आगे आना होगा।
19. दुर्भाग्यपूर्ण है कि भाजपा के इस चरम उभार के दौर में वाम ख़ेमे की चुनावी ताक़त को भारी नुक़सान हुआ है। हालाँकि चुनावी ताक़त की कमी वामपंथ की वैचारिक राजनीतिक प्रासंगिकता को कम नहीं करती है। वाम ख़ेमे के सांसदों और विधायकों की संख्या में यह तीव्र गिरावट मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में माकपा के सत्ता से बाहर होने से जुड़ी हुई है और उसके विशिष्ट संदर्भ भी हैं। पश्चिम बंगाल में माकपा सरकार 34 साल की संचित सत्ता विरोधी लहर, नीतिगत ग़लतियों, कॉरपोरेट समर्थक आर्थिक नीतियों के स्वीकार और जबरन भूमि अधिग्रहण के चलते अपने चुनावी आधार से अलगाव में पड़ गई। कृषि भूमि के जबरन अधिग्रहण और सत्ता के अहंकार के चलते माकपा एक ऐसी राजनीतिक हालत में फँस गई, जहाँ पूरी राजनीति तृणमूल कांग्रेस और आक्रामक भाजपाई प्रचार के बीच ध्रुवीकृत हो गई। बदली हुई स्थितियों को स्वीकार करके अपनी कमियों को दुरुस्त न करने और त्रिपुरा में भाजपा के हाथों अपनी सत्ता खोने के बावजूद पश्चिम बंगाल में भाजपा के उदय के प्रति उदासीन बने रहने के आत्मघाती कदम ने माकपा की हालात और भी बदतर कर दी। लेकिन इसी दौर में माकपा के नेतृत्व में वाम दलों ने केरल और तमिलनाडु में अच्छा प्रदर्शन किया है। बिहार में भाकपा-माले की चुनावी सफलताओं ने मौजूदा हालात के मद्देनज़र वामपंथ के पुनरुत्थान की सम्भावनाओं को खोल दिया है।
20. भाकपा-माले और वामपंथी आंदोलन को आधुनिक भारत के इस महत्वपूर्ण मोड़ पर अपनी प्राथमिकताओं को ठीक रखना होगा। प्रतिगामी और विनाशकारी फ़ासीवादी एजेंडे के ख़िलाफ़ साहसपूर्ण, सुसंगत और प्रेरक संघर्ष विकसित करते हुए दृढ़ संकल्प वाले जन आंदोलनों का निर्माण और व्यापकतम सम्भव विचारधारात्मक, राजनीतिक एकजुटता व गतिशील चुनावी समझौते भाकपा-माले और वामपंथ के विकास का नया रास्ता खोलेंगे। हमें इस दिशा में लगातार प्रयास करते रहने होंगे। भाजपा का फ़ासीवादी अभियान भारत की त्रिस्तरीय राजनीतिक संरचना को रौंद कर एक ऐसे सपाट राजनीतिक मैदान में तब्दील कर देना चाहता है, जिसमें सारी शक्तियाँ भाजपा के पास ही केन्द्रित हो जाएँ। हमें इन कठिन परिस्थितियों का जवाब देने के लिए हर स्तर पर तैयार रहना होगा। पंचायत और नगरपालिका शासन क्षेत्रों में लगभग हार जगह बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के चलते लोगों को मिलाने वाले लाभों और अधिकारों से वंचित होना पड़ रहा है तो वहीं शिक्षा और नौकरी के लिए संघर्ष कर रहे युवाओं के बीच परीक्षाओं और भर्ती प्रक्रिया में पारदर्शिता का सवाल सबसे बड़ी चिंता के रूप में उभरा है। चाहे जिस पार्टी की सरकार रही हो, जाति और जेंडर उत्पीड़न, अन्याय और प्रशासनिक उदासीनता पूरे भारत में महामारी की तरह मौजूद रहे हैं। फ़ासीवाद विरोधी संघर्ष के दौरान हमें संघ ब्रिगेड के फ़ासीवादी हमले के ख़िलाफ़ लड़ाई से ध्यान हटाए बग़ैर लोगों के हितों की रक्षा के हर संघर्ष में उनका नेतृत्व करना होगा।