हत्या के एक कथित 9 साल पुराने मामले में दलित समाज से आने वाले तेजतर्रार व जनता के लोकप्रिय नेता, भोजपुर के अगिआंव से भाकपा-माले विधायक मनोज मंजिल और उनके अन्य 22 साथियों - गुड्डु चौधरी, चिन्ना राम, भरत राम, प्रभु चौधरी, रामाधार चौधरी, गब्बर चौधरी, जयकुमार यादव, नंदू यादव, चनरधन राय, नंद कुमार चौधरी, मनोज चौधरी, टनमन चौधरी, सर्वेश चौधरी, रोहित चौधरी, रविन्द्र चौधरी, शिवबाली चौधरी, रामबाली चौधरी, पवन चौधरी, प्रेम राम, त्रिलोकी राम और बबन चौधरी को आरा व्यवहार न्यायालय द्वारा सश्रम आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है. सांप्रदायिक-सामंती ताकतों ने भोजपुर में दलित-गरीबों के आंदोलन को कमजोर करने के लिए कभी उनका बर्बर जनसंहार रचाया तो कभी राजनीतिक साजिश करके उन्हें झूठे मुकदमों में फंसाया. दलित-गरीबों के आंदोलन को रोकने का यह उनका चिरपरिचित तरीका रहा है. यह सजा बिहार में भाजपाईयों द्वारा सत्ता हड़प के तुरत बाद हुई. तत्काल ही मनोज मंजिल की विधानसभा सदस्यता रद्द कर दी गई. मोदी शासन में जिस प्रकार से विरोध की हर आवाज को खामोश कर देने की साजिशें चल रही हैं, यह न्यायिक संहार उसका चरम उदाहरण है. उसी न्यायालय ने भाकपा-माले नेता का. सतीश यादव हत्याकांड के मुख्य आरोपी रिंकू सिंह को बाइज्जत बरी करने का काम किया था. दलित-गरीबों के हत्यारों की रिहाई और जनांदोलनों के नेताओं को सजा! इसी अन्याय के खिलापफ लड़ने का नाम है - भोजपुर.
1970 के दशक में सामंती शोषण के खिलाफ भोजपुर के दलित-गरीबों के ऐतिहासिक संघर्ष ने राजनीतिक शब्दकोष में ‘भोजपुर आंदोलन’ का एक नया आयाम जोड़ा था. भूमिहीन-गरीब-खेतिहर मजदूरों और पिछड़ी जातियों व किसानों की जनसक्रियता व जमीन-मजदूरी-मर्यादा की लड़ाईयों ने 80 के दशक में जिले के सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य को बदल डाला. 1989 में पहली बार जिले के कई हिस्सों में दलितों ने लड़कर वोट डालने का अधिकार हासिल किया, जिसकी भारी कीमत भी उन्होंने चुकाई. दनवार-बिहटा जैसा जनसंहार रचाया गया. भूमिहीन-गरीब किसानों और खेत मजदूरों के उभरते आंदोलन को रोक देने के लिए तब भूस्वामियों के संगठित हमले शुरू हुए। एक से बढ़कर एक जनसंहार हुए, लेकिन लड़ाई जारी रही. भाजपा-जद (यू) की तथाकथित ‘सुशासन’ वाली सरकार में न्यायालयों द्वारा उनका न्यायिक संहार रचाया गया. लगभग सभी मामले के आरोपी न्यायालय से बरी कर दिए गए. इन तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए भोजपुर आगे बढ़ता रहा है. उसी आंदोलन के गर्भ से उपजे हैं - का. मनोज मंजिल और का. सतीश यादव जैसे नेता. 20 अगस्त 2015 को का. सतीश यादव की हत्या कर दी गई और अब का. मनोज मंजिल व उनके अन्य 22 साथियों को जेपी सिंह हत्याकांड में फंसा दिया गया है. आरोप लगाया गया कि का. सतीश यादव की हत्या के बाद भाकपा-माले कार्यकर्ताओं ने पीट-पीट कर जेपी सिंह की हत्या कर दी थी. न्यायालय का फैसला गले से नीचे नहीं उतरता. उच्च न्यायालय में फैसले को चुनौती दी गई है. देखना है कि उच्च न्यायालय क्या करता है? मृतक की डेड बॉडी पर कई सवाल हैं. वह उस व्यक्ति की है भी या नहीं, संदेह के घेरे में है. डीएनए परीक्षण अभी प्रक्रियाधीन है. बावजूद, सभी लोगों को कड़ी सजा सुना दी गई. न्याय प्रक्रिया पर एक गंभीर सवाल तो यह है ही, यह भी स्पष्ट करता है कि यह एक विशुद्ध राजनीतिक फैसला है, जो भाजपा के इशारे पर हुआ है. चूंकि माले विधायकों को तोड़ा नहीं जा सकता, इसलिए सजा के जरिए उनकी संख्या घटाने की साजिशें रची जा रही हैं.
भाकपा-माले के तेजतर्रार युवा नेता का. सतीश यादव की 20 अगस्त 2015 को हत्या कर दी गई. वे इलाके में धान बिक्री बकाये की वसूली, खेत मजदूरों के लिए बेहतर मजदूरी, बिजली, सड़क निर्माण आदि सवालों पर लगातार आंदोलन चला रहे थे. इन आंदोलनों से सामंती शक्तियां खौफ खा रही थीं. ठीक उसी वक्त रणवीर सेना को संरक्षण देने वाले राजनीतिक नेताओं के नाम एक बार फिर से सुर्खियों में आए थे. 17 अगस्त 2015 को ‘कोबरापोस्ट’ ने उस कड़वी सच्चाई को एक बार फिर से उजागर किया जिसे बच्चा-बच्चा जानता रहा है कि रणवीर सेना ने दलितों और गरीबों, महिलाओं व बच्चों की जघन्य हत्यायें इसलिए की क्योंकि वे अपने सम्मान व अधिकारों की मांग कर रहे थे और बिहार की राजनीति में अपनी स्वतंत्र दावेदारी जता रहे थे. रणवीर सेना के कमाण्डरों ने कोबरापोस्ट को बताया कि दलितों, महिलाओं और बच्चों के सभी बर्बर नरसंहारों का मास्टरमाइण्ड ब्रह्मेश्वर मुखिया ही था। लेकिन भाजपा के गिरिराज सिंह उस बर्बर आतंकवादी बरमेश्वर को बिहार का गांधी बता रहे थे. भाजपा के वरिष्ठ नेताओं सीपी ठाकुर, सुशील मोदी, यशवंत सिन्हा, मुरली मनोहर जोशी के नाम रणवीर सेना के कमांडरों ने खुलकर लिये थे. इन नेताओं ने न केवल रणवीर सेना को संरक्षण दिया था, बल्कि गरीबों पर हमले के लिए उन्हें उकसाया, गवाहों को धमकाया और केस बदल देने की भी भरपूर कोशिश की. ठीक उसी दिन आरा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की भी सभा हुई थी. अपनी सभा में उन्होंने ‘जंगल राज’ की दुहाई दी थी, लेकिन कोबरापोस्ट स्टिंग पर मोदी की जुबान नहीं खुली थी.
‘कोबरापोस्ट’ के स्टिंग में रणवीर सेना के 6 कमाण्डरों ने बड़ी बेशर्मी और सामंती अहंकार के साथ बताया कि कैसे उन्होंने बथानी टोला, लक्ष्मणपुर-बाथे, शंकरबीघा, मियांपुर, एकबारी और सरथुआ में दलित और दमित मेहनतकश गरीबों के जनसंहार किए. सोती हुई महिलाओं और बच्चों को बर्बरता से मार दिया। इन आतंकवादियों ने खुद कहा कि कई ताकतवर नेताओं ने उन्हें हथियार मुहैया कराये. सेना में काम कर रहे एवं रिटायर्ड जवानों से हथियारों की ट्रेनिंग दिलवाने में मदद मिली। कोबरा पोस्ट ने अमीरदास आयोग की रिपोर्ट की पुष्टि की, जिसमें भाजपा नेताओं को बचाने के लिए नीतीश कुमार ने ऐसे समय में अमीरदास आयोग को भंग कर दिया था, जब वह अपनी रिपोर्ट सौंपने ही वाला था. भारत के इतिहास में यह पहली घटना है जब ऐसे निर्मम जनसंहारों की रिपोर्ट सामने नहीं आने दी गयी. जबकि न्यायालय ने दलित-गरीबों के जनसंहारों के अपराधियों को बाइज्जत बरी कर दिया। कहा कि ‘सबूत नहीं मिले’, चश्मदीद गवाहों को झूठा बता दिया। बाद में खुद हत्यारे ही पूरे सामंती दंभ के साथ कोबरापोस्ट के खुलासे में इन गवाहों की गवाहियों को सच ठहराते पाए गए. उसके बाद भी अदालत ने उस सच को स्वीकार करके हत्यारों को दण्डित करके अपनी गलती सुधारने की कोई कोशिश नहीं की.
रणवीर सेना के कमांडरों व उनके संरक्षक भाजपा नेताओं की गिरफ्तारी और गरीबों के साथ नीतीश कुमार की गद्दारी के खिलाफ भाकपा-माले ने तब 18-19 अगस्त को दो दिवसीय विश्वासघात दिवस, पूरे राज्य में जनदावेदारी सभा और 20-21 अगस्त को दक्षिण बिहार में न्याय के लिए उपवास का कार्यक्रम आयोजित किया था. जनदावेदारी सभा के क्रम में ही अगिआंव विधानसभा के बड़गांव से सभा आयोजित करके लौट रहे माले नेता कॉ. सतीश यादव की हत्या कर दी गई थी. इसका आरोप करनी सेना के प्रमुख रिंकू सिंह पर लगा था, जो उस समय पैक्स का अध्यक्ष था और सामंती गुंडा गिरोह से संबंध रखता था. कोबरापोस्ट के खुलासे और आरा में मोदी की सभा के बाद सामंतों का मनोबल उलटा बढ़ गया था. का. सतीश यादव की निर्मम हत्या उसी बढ़े सामंती मनोबल का परिणाम था. और फिर एक गहरी साजिश करके हत्या के एक झूठे मामले में का. सतीश यादव के साथी मनोज मंजिल व उनके अन्य 22 साथियों को भी फंसा दिया गया था.
‘हम भगत सिंह-डॉ. अंबेडकर के वारिस हैं. जेल व दमन से हमारी आवाज कमजोर नहीं पड़ने वाली. वह और बुलंद होगी. भाजपा ने राजनीतिक साजिश करके हमें झूठे मुकदमे में फंसाया है. जेल की सजा कराई. लेकिन हिंदुस्तान के दलितों-उत्पीड़ितों, महिलाओं, छात्र-नौजवानों की मुक्ति, मर्यादा, जमीन-जनवाद के हक-अधिकार और रोजगार की लड़ाई उसी तेवर के साथ जारी रहेगी.’ - 13 फरवरी को इसी दृढ़ संकल्प के साथ मनोज मंजिल अपने साथियों के साथ जेल को विदा हुए. उन्होंने लौटने का वादा किया और संघर्ष जारी रखने का आह्वान किया.
1984 में भोजपुर के तरारी के कपूरडीहरा में एक ईंट भठ्ठा मजदूर के घर मनोज मंजिल का जन्म हुआ था. कपूरडिहरा के प्राथमिक विद्यालय से पाचवीं तक की पढ़ाई की और फिर श्रीमति तेतरा उच्च विद्यालय रन्नी-डुमरिया में पढ़ाई की. वे एक जन्मजात विद्रोही रहे और स्कूली जीवन में भी कई आंदोलनों का नेतृत्व किया. नौवीं कक्षा में ही उन्होंने अपने दोस्तों के साथ भोजपुर के डॉ. अंबेडकर आवासीय विद्यालय में बुनियादी सुविधाओं के लिए विरोध-प्रदर्शन किया. आंदोलन करने पर स्कूल प्रशासन ने उनके खिलाफ स्थानांतरण प्रमाणपत्र जारी कर दिया। उच्च शिक्षा के लिए वे आरा शहर पहुंचे. लेकिन जल्द ही सिविल सेवाओं से उनका मन उचट गया और वे छात्र आंदोलन के कर्णधार बन गए. भोजपुर के क्रांतिकारी आंदोलन के सर्वव्यापी प्रभाव, राम नरेश राम के नेतृत्व और भाकपा-माले की छात्र शाखा आइसा में उनकी बढ़ती गतिविधियों ने उन्हें आंदोलन का आदमी बना दिया। उनके नेतृत्व में छात्रावास सुधार के कई आंदोलन हुए। उन्होंने छात्रों के कई संघर्षों का नेतृत्व किया। आइसा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य बने और बीए की पढ़ाई के दरम्यान ही मार्क्सवादी विचारों से प्रभावित होकर भोजपुर में माले के नेतृत्व में चलने वाले छात्र-युवा आंदोलन में शामिल हो गए. कुछ दिन बाद ही वे ग्रामीण क्षेत्रों में भूमिहीन मजदूरों व गरीब किसानों की लड़ाई संगठित करने चले गए. वे रिवोल्युशनरी यूथ एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए.
भोजपुर के अगिआंव में उन्होंने जल्दी ही मजदूरों व किसानों के बीच अपनी एक अलग पहचान बना ली. अपने साथी सतीश यादव के साथ मजदूरी, बिजली, सड़क निर्माण, किसानों के धान की बकाया वसूली के सवाल पर कई आंदोलन चलाए. उसी दरम्यान का. सतीश यादव की हत्या कर दी गई और का. मनोज मंजिल की लोकप्रियता से घबराई सामंती ताकतों के निर्देशन में प्रशासन ने उनपर हत्या सहित कई फर्जी मुकदमे थोप दिए. पार्टी ने 2015 के बिहार विधानसभा में अगिआंव विधानसभा में उन्हें अपना प्रत्याशी बनाया. नामांकन के दौरान ही उनकी गिरफ्तारी हो गई और उन्होंने जेल से रहते हुए ही विधानसभा का चुनाव लड़ा. 30 हजार से अधिक वोट हासिल किए.
बिहार की बदहाल शिक्षा व्यवस्था के खिलाफ मनोज मंजिल के नेतृत्व में आइसा-आरवाइए के बैनर से अगिआंव में ‘सड़क पर स्कूल’ आंदोलन की एक लंबी शृंखला खड़ी की गई. सरकारी स्कूलों में अधिकांश गरीब, दलित और मुस्लिम परिवारों के ही छात्र आते हैं. सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी से लेकर आधारभूत संरचनाओं के घोर अभाव को लेकर भगत सिंह युवा ब्रिगेड के बैनर से भोजपुर की सड़कों पर प्रतीकात्मक कक्षाएं लगने लगीं. स्कूलों में जाति उत्पीड़न को मुद्दा बनाया गया. हाई स्कूलों में विज्ञान प्रयोगशाला, प्रैक्टिकल व पुस्तकालय आदि की व्यवस्था आदि मांगों पर इस आंदोलन ने जल्दी ही एक जनांदोलन का स्वरूप अख्तियार कर लिया. गांव के ग्रामीण बड़े पैमाने पर इस कार्यक्रम में शामिल होने लगे. बाबासाहेब अम्बेडकर, भगत सिंह और रोहित वेमुला के पोस्टर के साथ तीन से चार घंटे तक विरोध प्रदर्शन किया जाता और राजनीतिक माहौल और शिक्षा मानकों पर भाषण होता. गणित या अंग्रेजी पर प्रतीकात्मक कक्षा आयोजित की जाती थी. मनोज मंज़िल अक्सर कहा करते थे - उच्च जातियों, अमीर परिवारों और सरकारी अधिकारियों के बच्चों के लिए तो निजी स्कूल हैं. सरकारी स्कूल केवल दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों, गरीबों, मजदूरों और उत्पीड़ित वर्गों के लिए हैं। इसलिए इनकी व्यवस्था सुधारना बेहद जरूरी है.
शिक्षा आंदोलन को मनोज मंजिल ने एक जनांदोलन में तब्दील कर दिया. 2021 में उनके नेतृत्व में चला एक और आंदोलन देशव्यापी चर्चा में आया. तारामणि भगवान साव उच्च माध्यमिक विद्यालय, कोइलवर के सैकड़ों बच्चों और अभिभावकों ने पहले नेशनल हाइवे पर बैठकर स्कूल के लिए आंदोलन किया और फिर कोइलवर थाना को घेर कर अपने ही सहपाठियों के खिलाफ दर्ज़ हुए मुकदमों को खत्म कराने के लिए आंदोलन किया. दरअसल, 1700 करोड़ रुपये की लागत से बने कोइलवर से बक्सर (छत्तीसगढ़) तक फोरलेन हाइवे निर्माण के दौरान भोजपुर जिले के कोइलवर में 66 वर्ष पुराने व प्रतिष्ठित स्थानीय तारामणि भगवान साव विद्यालय को ढहा दिया गया और उस स्कूल परिसर को बीच में से तोड़कर फोरलेन सड़क निकाल दी गई थी। वादा किया गया था कि जल्द नया भवन मिलेगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। कोरोना महामारी के बाद जब छात्र पढ़ने आए तो स्कूल की स्थिति को देखते हुए उन्हें निराशा ही हाथ आयी। जिसके बाद आंदोलन शुरु हुआ। घंटी की जगह थाली बजाकर सड़क पर पाठशाला लगाई गयी। और पढ़ाई के साथ-साथ अभिभावक और छात्रों ने सरकार के खिलाफ नारेबाजी कि ‘जब तक पढ़ने के लिए नहीं बनेगा नया स्कूल, तब तक सड़क पर ही चलेगा स्कूल।’ मनोज मंजिल इस आंदोलन के भी अगुवा थे. उनका वक्तव्य काफी लोकप्रिय हुआ - यह आंदोलन सरकार की व्यवस्था के खिलाफ एक शुरुआत हैं। पूंजीवादी भाजपा सरकारों के साथ मिलकर बिहार सरकार भी निजी स्कूलों को बढ़ावा देने और सरकारी स्कूल व्यवस्था को ध्वस्त करने में लिप्त है। छोटे-छोटे बच्चों का सड़क पर बैठ कर अपने स्कूल को बचाना और अपने सहपाठियों के लिए थाना घेरना बड़ी बात है। इस मामले में बिहार सरकार अपनी जिम्मेवारी से भाग नहीं सकती।
सड़क पर स्कूल आंदोलन के अलावा सीएए कानून में संशोधन के खिलाफ चले आंदोलन और कोविड काल में अपनी उल्लेखनीय भूमिका के लिए वे काफी चर्चित हुए. कोविड के दौरान वे अपनी टीम के साथ लगातार अस्पतालों में कैंप करते रहे और अपनी जान की बिना परवाह किए लोगों के इलाज की व्यवस्था करवाते रहे. सड़क दुर्घटना हो या फिर जनता की कोई अन्य समस्या, मनोज मंजिल जनता तक पहुंचने वाले सबसे पहले नेता हुआ करते थे.
2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में अगिआंव सीट पर भाकपा-माले के उम्मीदवर के बतौर का. मनोज मंजिल ने रिकॉर्ड जीत हासिल की. उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने कुल पोल वोट का 63.09 प्रतिशत से अधिक वोट हासिल किया. वहीं उनके प्रतिद्वन्दी जद (यू) उम्मीदवार को महज 27 प्रतिशत वोट हासिल हुए. चुनाव पूरी तरह एकतरफा रहा और उन्होंने भाजपा-जदयू गठबंधन के उम्मीदवार को 50 हजार से अधिक वोटों से हराया. अपनी चर्चित पहलकदिमयों को लेकर वे 2018 में भाकपा-माले के मानसा अधिवेशन में केंद्रीय कमिटी के सदस्य चुने गए. अभी वे खेत मजदूर मोर्चे पर काम कर रहे थे और खेग्रामस के राज्य अध्यक्ष थे. उनकी इसी लोकप्रियता से भाजपा और सामंती शक्तियां घबराई हुई थीं और उनपर लगभग 20 से अधिक फर्जी मुकदमे लाद दिए थे. भाजपा व सामंती ताकतों को इस उभरते नौजवान दलित विधायक से डर समाया हुआ था और वे लगातार उनके खिलाफ साजिशें करती रहती थीं, लेकिन ऐसी साजिशों से लड़कर ही भोजपुर आंदोलन लगातार आगे बढ़ता रहा है.
मेहनतकशों, दलितों और गरीबों की बराबरी और सम्मान की सच्ची लड़ाई लड़ने वाली ताकतें हमेशा आगे ही बढ़ती रहती हैं, और एक सुन्दर भविष्य और नये इतिहास का निर्माण करती हैं। ऐसे इतिहास का जिसमें भाजपा जैसी फासीवादी ताकतों का दफन होना तय है.