1920 का दशक आंध्र में किसानों के गुरिल्ला युद्ध की महान घटना के साथ शुरू हुआ. अगस्त 1922 से लेकर मई 1924 तक, अल्लुरि सीताराम राजू और उनके साथ सैकड़ों आदिवासी किसान गुरिल्ला योद्धाओं ने गोदावरी एजेंसी अंचल में लगभग 2500 वर्गमील के क्षेत्र में ब्रिटिश राज्य के खिलाफ सफल युद्ध चलाया था. पुलिस थानों पर सटीक हमलों और सफल छापों के चलते ब्रिटिशों ने न चाहते हुए भी राजू को एक विकट गुरिल्ला रणनीतिज्ञ की उपाधी दी थी. मद्रास सरकार ने मालाबार स्पेशल पुलिस और असम रायफल्स की मदद से इस विद्रोह को दबाने के लिए 15 लाख रुपये खर्च किए थे. अंततः एक तालाब में नहाते समय राजू को पकड़ लिया गया और इस महान योद्धा को भारी यातनाएं देने के बाद ब्रिटिश शासन ने उन्हें 6 मई 1924 को गोली मार दी. संयोगवश, भारतीय स्वतंत्रता की 50वीं जयंती इस किंवदंती किसान क्रांतिकारी की जन्म शताब्दी भी है.
अगर अल्लुरि सीताराम राजू आजादी के लिए जुझारू लड़ाई चलाने के ग्रामीण गरीबों के साहस और क्षमता के प्रतीक थे, तो भगत सिंह सचमुच हम सब के लिए अधिक सार्थक आजादी की संभावना के सक्षम प्रतीक बनकर उभरे थे. सितंबर 1928 में उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर दिल्ली के फिरोजशाह कोटला के खंडहरों में बैठक करके ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ (एचएसआरए) का गठन किया. अपनी एक पहली कार्रवाई में एचएसआरए ने लाजपत राय पर हमले का बदला लेते हुए दिसंबर 1928 में लाहौर में दोषी पुलिस अधिकारी सैंडर्स को मार डाला (30 अक्टूबर 1928 को लाहौर में सायमन-विरोधी प्रतिवाद मार्च का नेतृत्व करते समय लाजपत राय पुलिस के हाथों गंभीर रूप से जख्मी हो गए थे और 17 नवंबर को अंततः उनकी मृत्यु हो गई थी). 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने विधान सभा में उस वक्त बम फेंके, जब वहां श्रम-विरोधी ट्रेड्स डिस्प्यूट बिल और ब्रिटिश कम्युनिस्टों तथा भारतीय स्वतंत्रता के अन्य समर्थकों द्वारा भारत में सिक्का भेजने पर प्रतिबंध लगाने संबंधी बिल पर चर्चा चल रही थी.
एचएसआरए के बैनर तले इस किस्म की चुनिंदा आतंकवादी कार्रवाइयां चलाते रहने के साथ ही भगत सिंह और उनके साथियों ने ‘नौजवान भारत सभा’ नामक एक खुला नौजवान संगठन भी बनाया. भगत सिंह द्वारा लोकप्रिय बनाया गया युद्धघोष ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ न्याय, आजादी और लोकतंत्र के लिए हर भारतीय संघर्ष का स्थायी युद्धघोष बन गया है.
12 मार्च से 6 अप्रैल तक गांधी ने अपने आश्रम में रहने वाले देश के विभिन्न हिस्से से आए 71 लोगों के साथ प्रसिद्ध दांडी मार्च किया. नमक का मुद्दा बेहद सरल, किंतु गोलबंदी के लिहाज से बहुत संभावनामय मुद्दा था; और वह आन्दोलन जल्द ही देश भर में व्यापक तौर पर फैल गया. अप्रैल के मध्य में नेहरू की गिरफ्रतारी के चलते कलकत्ता के बजबज में मिल मजदूरों और पुलिस के बीच तीखी झड़पें हुईं. उस वक्त बंगाल के जूट मिलों के श्रमिकों की मानसिकता काफी बुलंद थी – पिछले ही वर्ष उन्होंने जूट मिलों में कापफी सफल आम हड़ताल संगठित की थी और काम के घंटे को प्रति सप्ताह 54 से 60 तक बढ़ा देने के मिल मालिकों के प्रयास को उन्होंने नाकाम कर दिया था. कलकत्ता के परिवहन मजदूरों ने भी जुझारू संघर्ष चलाए थे. उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत के पेशावर में भी बड़ा जन उभार देखा गया था. 23 अप्रैल 1930 को बादशाह खान (सीमांत गांधी) और अन्य नेताओं की गिरफ्तारी के बाद वह शहर पूरे दस दिनों तक थर्राता रहा था जिसके चलते वहां 4 मई को मार्शल लाॅ लगा दिया गया. पेशावर में चंद्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में गढ़वाल रेजिमेंट के द्वारा शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से इन्कार कर देने से संघर्ष कर रही जनता और सैन्य बलों के बीच भाईचारा पनपने की नई संभावना पैदा हो गई. करांची में बंदरगाह मजदूर और मद्रास में चुलै मिल मजदूर भी संघर्ष में उठ खड़े हो गए थे.
शोलापुर में तो स्थिति चरम पर पहुंच गई, जब 4 मई के दिन गांधी को गिरफ्तार किया गया था. वहां के संपूर्ण कपड़ा उद्योग के समस्त मजदूर 7 मई से हड़ताल पर चले गए. 16 मई को वहां मार्शल लाॅ लागू कर दिया गया, लेकिन वह शहर मजदूरों के ही वास्तविक नियंत्रण में बना रहा. शराब की दुकानों को जला दिया गया और पुलिस नाकों, कचहरियों, नगरपालिका भवनों तथा रेलवे स्टेशन पर हमले हुए. ऐसा लग रहा था मानों पूरे शहर में समानांतर सरकार चल रही हो, और जल्द ही वह पूरे देश में प्रतिष्ठित ‘शोलापुर कम्यून’ के नाम से विख्यात हो गया.
प्रांतों में 27 महीने तक चला कांग्रेसी शासन कांग्रेस-नीत सामाजिक संश्रय के रूढ़िवादी चरित्र का स्पष्ट आरंभिक संकेत दे रहा था. मजदूर वर्ग और किसानों की लोकतांत्रिक मांगों का पूरा समूह न केवल ऐटक और (स्वामी सहजानंद सरस्वती की अध्यक्षता में अप्रैल 1936 में लखनऊ में निर्मित) अखिल भारतीय किसान सभा के द्वारा सूत्रबद्ध कर दिया गया था, बल्कि कांग्रेस के विभिन्न अधिवेशनों तथा बिहार व यूपी की प्रांतीय कांग्रेस समितियों ने भी उन मांगों को पारित किया था. लेकिन, कांग्रेस की प्रांतीय सरकारों ने इस दिशा में कोई भी महत्वपूर्ण कदम नहीं उठाया.
कांग्रेसी शासन की वादाखिलाफी सबसे ज्यादा मजदूर वर्ग मोर्चे पर दिखाई पड़ी. जहां बंगाल में कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने मार्च-मई 1937 तक व्यापक आम हड़ताल करने वाले जूट मजदूरों के साथ एकजुटता का इजहार किया और दमनात्मक कदम उठाने के लिए गैर-कांग्रेसी फजुल हक मंत्रिमंडल की भर्त्सना की, वहीं अन्य प्रांतों में कांग्रेसी सरकारें बेलगाम होकर ऐसे ही कदम उठाती रहीं. असम में ब्रिटिश मालिकाने वाली असम ऑयल कंपनी के खिलाफ 1939 की डिगबोई तेल हड़ताल के दौरान एनसी बोरडोलोई नीत कांग्रेस मंत्रिमंडल ने हड़ताल को कुचलने के लिए युद्धकालीन ‘डिफेंस ऑफ इंडिया रूल (डीआइआर)’ के खुले इस्तेमाल की इजाजत दे दी. और बंबई में, कांग्रेस मंत्रिमंडल नवंबर 1938 में बंबई ट्रेड डिस्प्यूट ऐक्ट्स लागू करने दौड़ पड़ी, जो इस ऐक्ट के पुराने 1929 के संस्करण से भी बदतर था. उसने अनिवार्य पंचाट (मध्यस्थता, आर्बिट्रेशन) थोप दिया जिसके चलते व्यवहार में तमाम हड़तालें अवैध हो गईं और अवैध हड़तालों के लिए कारावास दंड की अवधि तीन महीने से बढ़ाकर छह महीने कर दिया गया. बंबई के गवर्नर को यह ऐक्ट “प्रशंसनीय” लगा और नेहरू को यह “समग्र रूप से ... एक अच्छा” ऐक्ट नजर आया. अहमदाबाद के गांधीवादी श्रमिक नेताओं को छोड़कर संपूर्ण ट्रेड यूनियन आन्दोलन ने इस दानवी ऐक्ट का विरोध किया; 6 नवंबर को बंबई में 80,000 मजदूर एक प्रतिवाद रैली में शामिल हुए जिसे अन्य लोगों के अलावा डांगे, इंदुलाल याग्निक और अंबेडकर ने संबोधित किया, और उसके अगले ही दिन पूरे प्रांत में आम हड़ताल कर दी गई.
8 अगस्त 1942 को गांधी के संकेत पर कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने प्रसिद्ध ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव पारित किया और “व्यापकतम संभव पैमाने पर अहिंसा का पालन करते हुए जन संघर्ष” का आह्वान किया. कांग्रेसी नेताओं की फौरन गिरफ्तारी की संभावना भांपकर उस प्रस्ताव में यह भी आह्वान किया गया कि “हर भारतीय, जो आजादी चाहता है और इसके लिए कोशिश कर रहा है ... उसे अपना पथ-प्रदर्शक खुद बनना पड़ेगा”. गांधी ने अपना प्रख्यात “करो या मरो” भाषण दिया और एक बार तो यहां तक कह दिया कि “अगर आम हड़ताल एकदम जरूरी ही हो जाए, तो मैं इससे नहीं डिगूंगा”.
9 अगस्त की सुबह तक सभी कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें हटा दिया गया. ब्रिटिश हुकूमत द्वारा संपूर्णतः दमन छेड़ देने के बाद, लगभग समूचे देश में हिंसक प्रतिवाद फूट पड़े.
अंततः जो महान भारत छोड़ो विद्रोह के रूप में जाना गया, वह दरअसल बड़े पैमाने का स्वतःस्फूर्त विस्फोट ही था जिसका नेतृत्व अलग-अलग इलाकों में भूमिगत रूप से काम कर रहे समाजवादी नेतागण और स्थानीय स्तर के कांग्रेसी कार्यकर्ता कर रहे थे. बंबई और कलकत्ता लगातार हो रही हड़तालों से दहल उठे थे. दिल्ली में हड़ताली मजदूर पुलिस से भिड़ गए, और पटना में 11 अगस्त को सचिवालय के सामने हुई एक बड़ी झड़प के बाद शहर पर बरतानियों का नियंत्रण दो दिन तक खत्म हो गया. टाटा स्टील प्लांट 20 अगस्त से लेकर 13 दिनों तक पूरी तरह बंद रहा, क्योंकि टिस्को के मजदूरों ने राष्ट्रीय सरकार बनने तक काम पर वापस आने से इन्कार कर दिया. अहमदाबाद के कपड़ा मजदूर भी पूरे साढ़े तीन महीने तक हड़ताल पर डटे रहे. मद्रास में बी-एंड-सी मिल के कम-से-कम 11 मजदूर पुलिस फायरिंग में मारे गए.
भारत छोड़ो पैमाने के किसी भी जन उभार को फिर से न होने देने के लिए और भारत में अपने दीर्घकालिक हितों को सुरक्षित बनाने के मकसद से ब्रिटेन ने जल्द ही सत्ता के अंतिम हस्तांतरण के लिए वार्ताओं की प्रक्रिया शुरू कर दी. भारत के पूंजीपति भी शीर्घ हस्तांतरण के लिए छटपटा रहे थे जिसका प्रमुख कारण यह था कि वे डर रहे थे कि इसमें विलंब होने से स्वतंत्र भारत में शक्ति समंजन में मजदूर वर्ग और कम्युनिस्टों का प्रोफाइल (कद) बढ़ जाएगा. ब्रिटिश साम्राज्यवादियों और उनके भावी भारतीय उत्तराधिकारियों, दोनों के लिए क्रांति का भय बिल्कुल वास्तविक था.
गलत समझ के कारण 1942 आन्दोलन से अलग रहने के बाद जल्द ही कम्युनिस्ट लोग बड़े पैमाने पर जन कार्रवाइयों में लौट पड़े. उदाहरणीय उत्साह और समर्पण के साथ कम्युनिस्ट पार्टी ने 1943 के भयावह दुर्भिक्ष के दौरान और उसके बाद व्यापक स्तर पर राहत अभियान चलाया. यहां यह उल्लेख करना आवश्यक होगा कि इस राहत मुहिम में और उसके बाद तमाम जन उभारों में भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के कम्युनिस्ट-नीत प्रगतिशील सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं ने बेहद उत्कृष्ट भूमिका अदा की.
सांप्रदायिक रूप से लगातार उन्मादग्रस्त होती परिस्थिति में, जब लगभग तमाम प्रतिष्ठित नेता सत्ता का अपना-अपना टुकड़ा सुनिश्चित करने में मशगूल थे, तो महान लाल पताका तले कदम बढ़ाता और संघर्ष करता मेहनतकश अवाम ही वह एकमात्र शक्ति था जिसने सांप्रदायिक सद्भाव और धर्मनिरपेक्षता, निःस्वार्थ त्याग और प्रगतिशील साम्राज्यवाद-विरोधी राष्ट्रवाद के आदर्श को थाम रखा था.
21 अक्टूबर 1943 को, जब द्वितीय विश्वयुद्ध लगभग अपने अंतिम चरण में पहुंचन गया था, सुभाष चंद्र बोस ने जापान-नियंत्रित सिंगापुर से अपना प्रसिद्ध ‘दिल्ली चलो’ आह्वान जारी किया. उन्होंने आजाद हिंद सरकार और इंडियन नेशनल आर्मी के गठन की घोषणा की – इस फौज में जापान में पड़े करीब 20,000 से 60,000 भारतीय युद्ध बंदियों को शामिल किया गया था. 1944 में मार्च और जून माह के बीच आइएनए ने भारतीय सीमा के अंदर प्रवेश किया और जापानी सेना के साथ मिलकर इंफाल पर कब्जा कर लिया. लेकिन यह मुहिम पूर्ण सैनिक विफलता के साथ खत्म हुई, हालांकि भारतीय जन मानस पर इसका बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक असर पड़ा था.
नवंबर 1945 में ब्रिटिश हुकूमत ने दिल्ली के लाल किले में आइएनए फौजियों के खिलाफ खुली सुनवाई शुरू की. इसने कलकत्ता में बहुत शक्तिशाली और दृढ़ प्रतिवादों को जन्म दिया. 20 नवंबर को छात्रों ने आइएनए फौजियों की रिहाई की मांग करते हुए रात भर जुलूस निकाला, और जब पुलिस फायरिंग में दो छात्रों की मौत हुई तो हजारों टैक्सी चालक, ट्राम श्रमिक और निगम कर्मचारी छात्रों के साथ जा मिले. 22-23 नवंबर को कलकत्ता की सड़कों पर जमकर लड़ाई हुई जिसमें पुलिस फायरिंग से 33 लोग मारे गए. जब आइएनए के अब्दुल राशिद को सात वर्ष की सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई तो 11 से 13 फरवरी के बीच प्रतिवादों की दूसरी लहर से पूरा कलकत्ता हिल उठा. तीन दिनों की इस सड़क लड़ाई के दौरान 84 लोग मारे गए और 300 लोग घायल हुए.
जब आइएनए सुनवाई के प्रतिवाद में कलकत्ता ने विस्फोटक शक्ल अपना लिया था, तो उसी समय बंबई महान नौसेना विद्रोह से दहल उठा. यह पूरा घटनाक्रम काफीकुछ 1905 की रूसी क्रांति के दौरान हुए काला सागर समुद्री बेड़ा विद्रोह से मिलता-जुलता प्रतीत हो रहा था जिसे महान रूसी फिल्म निर्देशक सेर्गेई आइसेंस्टीन ने अपनी सर्वकालिक शास्त्रीय फिल्म ‘बैट्लशिप पोटेम्किन’ बनाकर अमर कर दिया. भारत में बंबई विद्रोह पर कोई फिल्म तो नहीं बनी, लेकिन पटकथा लेखक निर्देशक उत्पल दत्त ने 1960 के दशक में अपने प्रेरणादायी नाटक ‘कल्लोल’ में इन महान नौसैनिकों को श्रद्धांजलि दी है.
18 फरवरी 1946 को बंबई सिग्लिंग स्कूल ‘तलवार’ के नाविक घटिया भोजन और नस्लवादी अपमान के प्रतिवाद में भूख हड़ताल पर चले गए. यह हड़ताल समुद्री तट पर कैसल एंड फोर्ट बैरकों तक फैल गई और बंबई हार्बर में इस विद्रोही बेड़े के 22 जहाजों के मस्तूलों पर कांग्रेस, (मुस्लिम) लीग और कम्युनिस्ट झंडे फहरा दिए गए. इस हड़ताल का संचालन करने वाली केंद्रीय समिति ने बेहतर भोजन और गोरे व भारतीय सिपाहियों के लिए समान वेतन की मांगों के साथ-साथ आइएनए व अन्य राजनीतिक बंदियों की रिहाई तथा इंडोनेशिया से भारतीय सैनिकों की वापसी की मांगों को भी जोड़ दिया था. 21 फरवरी को जब हड़ताली नाविकों ने हथियारबंद घेरेबंदी को तोड़ने की कोशिश की, तो कैसल बैरकों में लड़ाई शुरू हो गई. 22 फरवरी तक हड़ताल पूरे देश के नौसेना ठिकानों में फैल चुकी थी जिसमें 78 जहाज, 20 तटीय प्रतिष्ठान और 20,000 जहाजी शामिल थे.
अरुणा आसफ अली और अच्युत पटवर्धन जैसे कांग्रेस सोशलिस्ट नेताओं के समर्थन के साथ, बंबई की सीपीआई इकाई ने आम हड़ताल संगठित की; तथा कांग्रेस और लीग के विरोध के बावजूद 30,000 मजदूरों ने काम रोक दिया, लगभग सभी कारखाने बंद हो गए, और आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार सड़कों की लड़ाइयों में 228 लोग मारे गए और 1046 लोग जख्मी हुए. वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं ने इस विद्रोह को खत्म कराने के लिए ही हस्तक्षेप किया. 23 फरवरी को पटेल इस आश्वासन पर जहाजियों को आत्मसमर्पण कराने में सफल रहे कि उनकी मांगों पर विचार किया जाएगा और किसी को भी दंडित नहीं किया जाएगा. लेकिन इस आश्वासन को जल्द ही भुला दिया गया, जब पटेल ने कहा कि “सेना में अनुशासन के साथ खिलवाड़ नहीं करने दिया जा सकता है”, नेहरू ने जोर दिया कि “हिंसा के बेलगाम विस्फोट” को कुचल देना चाहिए, गांधी ने जहाजियों की इसके लिए भर्त्सना की कि उन्होंने “भारत के लिए अशोभनीय उदाहरण” पेश किया है.
वर्ष 1946 में मजदूर वर्ग संघर्षों की व्यापक लहरों और किसान विद्रोहों ने पुराने तमाम रिकाॅर्ड तोड़ डाले. इस वर्ष की हड़ताल लहरों में 1629 बार काम रुके जिसमें 1,941,948 मजदूर शामिल हुए. सरकारी कर्मचारियों ने भी इन हड़तालों में अपनी पूरी ताकत झोंक दी, जिसके चलते इन हड़तालों ने अखिल भारतीय स्वरूप अपना लिया. इस संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण थी जुलाई में डाक-तार कर्मचारियों की हड़ताल. 11 जुलाई 1946 को पोस्टमैन लोअर ग्रेड स्टाफ यूनियन अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चली गई. ऑल इंडिया टेलीग्राफ यूनियन भी इसमें शामिल हो गई. 21 जुलाई आते-आते बंगाल और असम में भी हर जगह डाक-तार कर्मचारी संपूर्ण रूप से हड़ताल में शामिल हो गए. बंबई और मद्रास में क्रमशः 22 और 23 जुलाई को एकजुटतामूलक औद्योगिक हड़ताल आयोजित की गई. 29 जूलाई को बंगाल और असम में आम हड़ताल की गई.
उसी दिन कलकत्ता में विशाल रैली निकाली गई क – स्वतःस्फूर्त जन भागीदारी के लिहाज से अबतक उसकी मिसाल बहुत कम देखने को मिली थी; और उससे यह यकीन हो गया कि “यह ऐतिहासिक आम हड़ताल देश के श्रमिक आन्दोलन में एकता और लड़कू चेतना का एक नये अध्याय का सूत्रपात कर रही है”. हड़ताल की यह लहर 1947 में भी जारी रही जब कलकत्ता के ट्राम मजदूरों ने 85 दिनों तक काम बंद कर दिया था. कानपुर, कोयंबटूर और करांची भी मजदूर वर्ग कार्रवाइयों के लिहाज से प्रमुख केंद्रों के रूप में उभरे.
आजादी के 75 वर्षों में भारत के मजदूर वर्ग ने बहुतेरी लड़ाइयां लड़ी हैं, और भारत पर शासन करने वाले पूंजीपतियों तथा जमींदारों से अनेकानेक अधिकार छीने हैं. लेकिन आज, कठिन संर्घर्षों के बदौलत हासिल हर अधिकार पर वर्तमान शासक घातक हमले कर रहे हैं, जो स्वतंत्रता संग्राम के साथ गद्दारी करने और ब्रिटिश शासकों के हितों की सेवा करने वाले आरएसएस तथा हिंदू महासभा के उत्तराधिकारी हैं. आज अपने श्रम कानूनों, कार्य-स्थितियों और यूनियन नेताओं तथा मजदूर वर्ग आन्दोलनों के साथ बर्ताव के मामले में वे औपनिवेशिक ‘कंपनी राज’ के ही प्रतिबिंब हैं, जो काॅरपोरेटों का हित-साधन करते हैं और श्रमिकों के हितों की बलि चढ़ाते हैं. और इसी के साथ, मौजूदा हुकूमत न केवल ‘फूट डालो, राज करो’ की औपनिवेशिक नीति को दुहराने की कोशिश कर रही हैं, बल्कि वे भारत के संवैधानिक लोकतंत्र और कठिन संघर्षों से हासिल आजादी को नेस्तनाबूद करने तथा उसकी जगह देश के अंदर ‘हिंदू राष्ट्र’ के नकाब में फासिस्ट उत्पीड़न और साथ ही, अमेरिकी साम्राज्यवाद की गुलामी लादने की भी कोशिश कर रहे हैं.
स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान मजदूर वर्ग ने विभाजनकारी सांप्रदायिक राजनीति को बारंबार पीछे धकेला था और औपनिवेशिक शासकों को जबर्दस्त चोट देने के लिए एकताबद्ध हुए थे. अब एक बार फिर, भारत के श्रमिकों को इस चुनौती के समक्ष उठ खड़ा होना पड़ेगा, श्रमिक एकता को मुस्लिम-विरोधी जहर से दूषित बनाने के हर प्रयास का प्रतिरोध करना होगा और भारत के लोकतंत्र व आजादी की रक्षा के लिए एकजुट हो जाना पड़ेगा.