वर्ष - 30
अंक - 22
29-05-2021


भारत में लोकतंत्र बिल्कुल नाकारा हो गया है, जिसका नाम अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने ‘निरंकुश निर्वाचित लोकतंत्र’ रख दिया है, जो रात के अंधेरे में ही अपनी करामात दिखाता है. छियालीस साल पहले डरावनी मध्यरात्रि में ही लोकतंत्र के संवैधानिक दरवाजे पर दस्तक देकर इमरजेन्सी को अंजाम दिया था. ‘अच्छे दिन’ की हमारी मौजूदा मनहूस सरकार द्वारा नोटबंदी और लाॅकडाउन जैसी तमाम घोषणाएं आम तौर पर शाम के बाद ही की जाती रही हैं. पश्चिम बंगाल में हक्का-बक्का कर देने वाले जनादेश के दो हफ्ते बाद, अब इस राज्य में ढेर सारी रात्रिकालीन साजिशें रची जा रही हैं. 17 मई को सीबीआई ने पांच वर्ष पुराने एक भ्रष्टाचार के मामले में चार राजनेताओं को – जिनमें कोलकाता के निवर्तमान मेयर और ममता सरकार की तीसरी पारी के पंचायती राज मंत्री शामिल हैं – गिरफ्तार कर लिया. दोपहर बाद सीबीआई की अदालत से उनको जमानत मिल गई, लेकिन हाई कोर्ट ने बीच रात में ही एकपक्षीय आदेश देते हुए उनकी जमानत को स्थगित करने का आदेश पारित कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप इन चार आरोपी राजनेताओं को रात के अंधेरे में फिर गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया. एक न्यायोचित जमानत के आदेश पर हाई कोर्ट द्वारा इस तरह का स्थगन आदेश तमाम प्रक्रियागत औचित्य का सम्पूर्ण उल्लंघन है, और जबकि सुप्रीम कोर्ट ने वर्तमान महामारी की स्थितियों में इस किस्म की गिरफ्तारी के खिलाफ स्पष्ट रूप से निर्देशित किया है, उस स्थिति में लोगों को अनावश्यक रूप से जेल भेजने का यह आदेश एक खौफनाक उदाहरण कायम करता है.

चुनाव के परिणाम की घोषणा, जिसने भाजपा के बंगाल विजय के सपने को जोरदार ठोकर मारी थी, के बाद से ही इस बात के स्पष्ट संकेत मिलने लगे थे कि भाजपा जनादेश को स्वीकार करने और स्थिति को सामान्य करने के मूड में बिल्कुल नहीं है. चुनाव के बाद हुई हिंसा की घटनाओं को दुष्टतापूर्ण ढंग से साम्प्रदायिक रंग दे दिया गया और गढ़ी गई झूठी रिपोर्टो एवं नकली वीडियो क्लिपों के जरिये उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया. चुनाव के जनादेश को “अल्पसंख्यकों का वीटो” बताया गया और समूचे देश में तथा विदेश में बसने वाले भारतीयों के बीच पश्चिम बंगाल में तथाकथित हिंदू-विरोधी आतंक और जनसंहार का प्रचार अभियान चलाया गया.

पश्चिम बंगाल में अपनी अत्यधिक पक्षपातपूर्ण भूमिका के लिये कुख्यात राज्यपाल जगदीप धनखड़ अब जनादेश को उलटने के लिये तथा निर्वाचित सरकार के सिर पर चढ़कर और संवैधानिक औचित्य की सीमाओं को लांघते हुए सत्ता के एक स्वतंत्र केन्द्र की भूमिका निभाने में जी-जान से जुटे हुए हैं. जबकि चुनाव के बाद होने वाली हिंसा की घटनाएं थम चुकीं और राज्य सरकार ने कोविड-19 के चढ़ते हुए मनहूस ग्राफ से निपटने पर अपना ध्यान केन्द्रित करना शुरू कर दिया, तब राज्यपाल ने शीतलकुची और नंदीग्राम का दौरा करने को तरजीह दी. और जब विधायकों और मंत्रियों को शपथ दिलाई जा रही थी तब उन्होंने राज्य सरकार से कोई परामर्श किये बिना या फिर विधान सभा अध्यक्ष को सूचित किये बिना ही सीबीआई को नारदा मामले में आरोपियों पर मुकदमा चलाने का अधिकार सौंप दिया, जो वर्तमान में पश्चिम बंगाल में जाहिर हो रही साजिशभरी पटकथा का ही एक हिस्सा है.

हमें याद रखना होगा कि नारदा का मामला वास्तव में 2014 में हुए एक स्टिंग ऑपरेशन के खुलासे से शुरू हुआ था, मगर उसके टेपों को 2016 के चुनाव से ठीक पहले जारी किया गया था, और यह मामला विधान सभा चुनाव में भारी चर्चा का विषय बन गया था.वर्ष 2017 में इस मामले को कोलकाता हाई कोर्ट द्वारा सीबीआई के हाथों सौंप दिया गया. इस मामले के कुछेक मुख्य आरोपियों ने इस बीच भाजपा का दामन थाम लिया है, जिनमें भाजपा के मौजूदा राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं विधायक मुकुल राय एवं पश्चिम बंगाल विधान सभा में भाजपा के मौजूदा विधायक दल के नेता तथा विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी भी शामिल हैं. भला सीबीआई, जिसने इतने लम्बे अरसे तक मुकदमा चलाने में कोई हड़बड़ी नहीं दिखाई, अब क्यों जल्दबाजी दिखला रहा है जबकि पश्चिम बंगाल अभी-अभी लम्बे आठ चरणों वाले चुनाव से उबरा है और तेजी से बढ़ते कोविड-19 का मुकाबला करने की पूरी कोशिश कर रहा है? और फिर सीबीआई चुन-चुनकर केवल तृणमूल कांग्रेस के नेताओं को ही निशाना बना रही है, जबकि उन नेताओं को वह बिल्कुल साफ छोड़ दे रही है जिन्होंने भाजपा की शरण ले ली है? संयोग से, अभी गिरफ्तार चार नेताओं में से एक कोलकाता महानगर निगम के पूर्व मेयर शोभन चट्टोपाध्याय हैं, जो हाल ही में भाजपा में शामिल हो गये थे मगर इस चुनाव में टिकट न दिये जाने के चलते उन्होंने भाजपा से इस्तीफा दे दिया और वापस तृणमूल में शामिल हो गये.

मगर सीबीआई के इस मौजूदा हस्तक्षेप के पीछे मकसद केवल आयाराम-गयाराम के आने-जाने को – चाहे वे अतीत में हुए हों, वर्तमान में हो रहे हों या फिर संभावित हों – नियंत्रित करना ही नहीं, कुछ और भी है. बेशक इसका संदेश यही है कि अगर कोई राज्य भाजपा के ‘डबल इंजन’ के चारे में फंसने से इन्कार कर देता है, तो उसे इस हुक्म-उदूली की भारी कीमत चुकाने के लिये भी तैयार रहना होगा. यद्यपि आम आदमी पार्टी ने विपक्ष की कोई प्रमुख भूमिका नहीं निभाई, और तमाम महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दों पर – जम्मू-कश्मीर से उसका संवैधानिक दर्जा छीनने से लेकर दिल्ली के दंगों पर तथा दंगों के बाद सीएए-विरोधी सक्रिय कार्यकर्ताओं की प्रतिशोधात्मक गिरफ्तारी पर – भाजपा के पक्ष में रहना ही पसंद किया, फिर भी दिल्ली को यह कीमत चुकानी पड़ी है. यह सच है कि भाजपा के कई नेताओं ने पश्चिम बंगाल की जनता को ही इसके लिये दोषी ठहराया है कि उन्होंने अपने वोट से भाजपा को सत्ता में नहीं बैठाकर ऐतिहासिक भूल की है.

पश्चिम बंगाल की घटनाओं को महज घोटाले के कुछेक आरोपियों पर चल रहा एक और विवाद समझ लेना हद दर्जे की राजनीतिक बेवकूफी होगी. अपने राजनीतिक मकसद से प्रेरित होकर सीबीआई और राज्यपाल के पद का इस्तेमाल करने का विरोध, घोटाले के आरोपियों का पक्ष लेना या भ्रष्टाचार के मामलों में आरोपित लोगों को सजा से बचाने की वकालत करना नहीं है. बात यह है कि पश्चिम बंगाल में चुनाव जीतने में नाकाम रहने के बाद भाजपा येन-केन-प्रकारेण इस जनादेश को उलट देने पर आमादा हो गई है. सीबीआई और राज्यपाल का इस दिशा में तालबद्ध होकर हस्तक्षेप भाजपा द्वारा पश्चिम बंगाल को जीतने में विफल रहने के बाद भी राज्य पर अपना वर्चस्व जमाने के प्रयास का ही जारी रूप है.

पश्चिम बंगाल के चुनाव के जनादेश से भाजपा खास तौर पर इसलिये भी व्याकुल है कि इसने मोदी सरकार की वादाखिलाफी और नाकारेपन के खिलाफ चल रहे संघर्षों को नई ऊर्जा दी है और मोदी सरकार के खिलाफ शक्तिशाली राष्ट्रीय विपक्ष एवं राजनीतिक विकल्प खड़ा करने की जनता की आकांक्षाओं को मजबूती दी है. इसी वजह से पश्चिम बंगाल के जनादेश को क्षतिग्रस्त करने और उसे उलट देने की इतनी बेताबीभरी कोशिशें की जा रही हैं. अगर पश्चिम बंगाल पर राष्ट्रपति शासन थोपा गया तो वह भारतीय राजप्रणाली की संवैधानिक आधारशिला और संघीय ढांचे के खिलाफ चौतरफा युद्ध ही होगा. वह महज कोरोना की दूसरी लहर के मुकाबले में मोदी सरकार की विनाशकारी नाकामी से जनता का ध्यान दूसरी ओर हटाने की कोशिश ही नहीं बल्कि भारत में लोकतंत्र की भी तबाही होगा. इसीलिये समूचे भारत की विपक्षी पार्टियों और जनता के आंदोलनों को पश्चिम बंगाल में मोदी सरकार के साजिशाना हस्तक्षेप की भर्त्सना करनी होगी और वहां के पक्षपाती राज्यपाल को अविलम्ब हटाने की मांग करनी होगी.