– शौभीक घोषाल
(दूसरी किश्त)
विद्याासागर महिलाओं के बीच शिक्षा के प्रसार के बारे में भी उतने ही ज्यादा फिक्रमंद थे. उन्होंने अपने मित्र ब्रिटिश जन-हितैषी व्यक्ति ड्रिंकवाटर बेथ्यून के साथ संश्रय कायम करके बेथ्यून द्वारा 1849 स्थापित महिला विद्यालय के सम्मानित सचिव के रूप में कार्य किया. विद्यालय निरीक्षक के रूप में कार्य करते हुए उन्होंने अपनी पहलकदमी और अपने धनस्रोतों पर 35 महिला विद्यालयों की स्थापना की. पूरी लगन से सक्रिय विद्यासागर ने महिलाओं के प्रति होने वाले अन्यायों को खत्म करने के लिये एक आंदोलन शुरू किया. जनवरी 1855 में उन्होंने पुरातनपंथी हिंदुओं के कोप का निशाना बनते हुए भी विधवाओं के पुनर्विवाह का पक्षपोषण करते हुए एक प्रचार-पुस्तिका प्रकाशित की: ‘विधवा विवाह विषयक प्रस्ताव’. इसी विषय पर एक और पुस्तक उन्होंने उसी साल अक्टूबर में प्रकाशित की. अगले साल इन दोनों प्रचार-पुस्तिकाओं का अंग्रेजी में अनुवाद करके उसे ‘मैरिज ऑफ हिंदू विडोज’ शीर्षक से प्रकाशित किया गया. अपने पूर्व के समाज सुधारक राममोहन राय की ही तरह विद्यासागर ने भी अपने प्रस्ताव की पुष्टि के लिये हिंदू धर्मग्रंथों से लेकर ऐसे उद्धरणों को सबूत के तौर पर पेश किया जिनके अनुसार धर्मग्रंथों में वास्तव में विधवा विवाह की अनुमति दी गई थी. उन्होंने हिंदू विधवाओं के पुनर्विवाह को स्वीकृति दिये जाने के पक्ष में हिंदू समाज से सशक्त और भावपूर्ण पैरवी की तथा 1856 में सरकार को इस बात के लिये सफलतापूर्वक राजी करा लिया कि वह हिंदू विधवाओं के पुनर्विवाह की मंजूरी देने वाला एक कानून बना दे. ये प्रचार-पुस्तिकाएं इस बात को दर्शाती हैं कि उन्हें हिंदू धर्मग्रंथों के बारे में कितना विराट ज्ञान था, जिसका इस्तेमाल उन्होंने अपने धर्मनिरपेक्ष मानवतावादी जागृति अभियान के हित में किया. अपनी इन तमाम प्रगतिशील सामाजिक गतिविधियों के दौरान उन्हें हिंदू समाज के शक्तिशाली रूढ़िवादी हिस्सों का भयानक प्रतिरोध झेलना पड़ा, मगर उन्होंने इस प्रतिरोध का बड़े ही साहस के साथ मुकाबला किया. उन्होंने बाल-विवाह का विरोध किया और बहुपत्नी प्रथा को समाप्त करने के लिये 1871 में एक आंदोलन का सूत्रपात किया. उन्होंने इस बुरी प्रथा का पर्दाफाश करते हुए दो प्रचार-पुस्तिकाएं भी लिखीं. मगर वे इस कुप्रथा पर प्रतिबंध लगाने वाला कोई कानून बनाने के लिये सरकार को राजी कराने में पर्याप्त रूप से सक्षम और सशक्त जनमत तैयार करने में कामयाब नहीं हुए.
सार्वजनिक जीवन की सभी मांगों को पूरा करने में व्यस्त रहकर अनथक परिक्षम करते हुए भी उन्होंने बांग्ला अक्षरमाला से संस्कृत ध्वनियों वाले अक्षरों को निकालकर उसका सरलीकरण करने और उसको 12 स्वरों एवं 40 व्यंजनों में पुनव्र्यवस्थित करने का समय निकाल लिया. इससे ही ‘वर्ण-परिचय’ की नींव पड़ी – जो 1855 में दो भागों में प्रकाशित युग-परिवर्तक बांग्ला प्राथमिक पुस्तक है – और जो आज भी बांग्ला की प्राथमिक पुस्तक के बतौर बेजोड़ है. ये पाठ्य-पुस्तकें उनकी अन्य रचनाओं की ही तरह एक संस्कृत विद्वान के रूप में उनके विराट ज्ञान भंडार होने का सबूत हैं और एक सरल, सीधे-सादे तरीके तरीके से तमाम पाठकों या छात्रों तक अपने विचारों को पहुंचाने की उनकी योग्यता का द्योतक हैं.
ऐसे कई आलोचक हैं जो यह मानते हैं कि विद्यासागर केवल ब्रिटिश सरकार के हाथों का एक मोहरा भर थे और उनके संश्रयकारी के बतौर काम करते थे. मगर तथ्य यह है कि जहां उन्होंने तर्कसम्मत ज्ञान की रोशनी को देशी भाषा (वर्नाकुलर) में तथा धर्मनिरपेक्ष एवं मानवतावादी मुहावरों के माध्यम से जनसाधारण तक पहुंचाने में सरकारी प्रायोजन या आर्थिक संरक्षण का पूरा इस्तेमाल किया, वहीं उनकी मनःस्थिति और ब्रिटिश सरकार के इरादों के बीच एक विशाल खाई मौजूद थी. उन दिनों बंगाल में तर्कसंगत ज्ञान का धर्मनिरपेक्ष एवं मानवतावादी मुहावरों में प्रसार बेहद विरल था, जिसके चंद अपवादों में अक्षय कुमार दत्ता (जिनके जन्म की द्विशतवार्षिकी इस साल मनाई जा रही है) की रचनाएं शामिल हैं. विद्यासागर और ब्रिटिश सरकार के दृष्टिकोणों में भिन्नता के चलते दोनों के बीच संघात अनिवार्य था और ऐसा हुआ भी. ब्रिटिश सरकार की योजना थी कि उच्च एवं मध्य वर्गों के एक छोटे से हिस्से को शिक्षित किया जाये, ताकि एक ऐसा वर्ग पैदा हो जो “खून और रंग से तो भारतीय हो लेकिन रुचियों, विचारों और नैतिकता तथा बौद्धिकता मे अंग्रेज हो” (जो कि मैकाॅले का जाना-माना कथन है) जो सरकार और जनता के बीच वार्तालाप में अनुवादकों का काम करेंगे तथा लोगों के बीच पश्चिमी विज्ञानों एवं एवं साहित्य के ज्ञान के प्रचार-प्रसार में सहायता करेंगे. विद्यासागर की स्वप्नदृष्टि इससे बिल्कुल ही भिन्न थी. उनका ध्येय था विशाल संख्या में बुनियादी शिक्षा के स्कूलों की स्थापना करना और एक प्रत्यक्ष, सकारात्मक तरीके से दूर-दूर तक एवं गहराई में शिक्षा का प्रसार करना. उन्होंने शिक्षा में जातिभेद के खिलाफ विद्रोह किया और निचली जाति के छात्रों के प्रवेश के लिये संस्कृत काॅलेज के दरवाजे खोल दिये (इससे पहले तक यह काॅलेज केवलमात्र ब्राह्मणों के लिये आरक्षित था). और 1849 में जब उन्होंने देखा कि उनके ब्रिटिश उच्चाधिकारी सुदूर गांवों तक शिक्षा के प्रसार के उनके कदम का समर्थन नहीं कर रहे हैं, तो उन्होंने तुरंत ही अपना इस्तीफा सौंप दिया.
बांग्ला भाषा और साहित्य के विकास में ईश्वर चन्द्र विद्यासागर के विराट् योगदान का आकलन इस बात से किया जा सकता है कि जब हम उन्नीसवीं सदी से पहले की स्थिति का स्मरण करते हैं तो देखते हैं कि बांग्ला में किसी साहित्यिक गद्य की मौजूदगी नहीं के बराबर थी. श्रीरामपुर-आधारित बैप्टिस्ट मिशनरियों ने इसकी एक शुरूआत की थी, जिसके बाद फोर्ट विलियम कालेज के पंडितों और मुंशियों ने तथा उनके बाद 1818 से कुछेक अखबारनवीसों ने इसकी धारावाहिकता जारी रखी थी. राममोहन राॅय ने अपने निबंधों और अनुवादों के जरिये इसमें एक उल्लेखनीय योगदान किया था, लेकिन बांग्ला के ढांचागत आधार को सुदृढ़ करने का काम वास्तव में विद्यासागर ने ही किया. सरकारी अधिकारी उन दिनों आधिकारिक आदेशों का वितरण करने के मकसद से उत्तम बांग्ला गद्य की तलाश कर रहे थे. उन्होंने फोर्ट विलियम काॅलेज में अध्ययन कर रहे ब्रिटिश क्लर्कों को तथा पूरे बंगाल में फैले हुए मिशनरी स्कूलों में पढ़ने वाले युवा छात्रों को शिक्षित करने के लिये विद्यासागर से बांग्ला में उत्तम बांग्ला गद्य की किताबों की रचना करने की गुजारिश की. इसलिये विद्यासागर ने अन्य भाषाओं में लिखी उत्तम रचनाओं का बांग्ला में अनुवाद करने की बीड़ा उठाया. उन्होंने संस्कृत के महाकाव्य श्रीमद्भागवत पर आधारित ‘वासुदेव चरित’ की रचना की पर उसको कभी प्रकाशित नहीं किया जा सका. उसके बाद बहुतेरी पुस्तकों के सशक्त रचनाकार विद्यासागर ने 1847 में ‘बेताल पंचविंशति’ – जो एक संस्कृत शास्त्रीय रचना के हिंदी संस्करण से अनूदित बेताल एवं विक्रम की 25 कहानियों का संग्रह है – की रचना की, और उसके बाद सोमदेव द्वारा 11वीं सदी में रचित संस्कृत में संकलित रचना ‘कथासरित्सागर’ का अनुवाद प्रस्तुत किया, मगर जो उससे भी पुरानी सामग्री पर आधारित था. प्राचीन कथाओं के बांग्ला में अनुवाद की रचना करते वक्त उन्होंने ध्यान रखा कि वे आधुनिक पाठक के लिये उपयुक्त साबित हों. उन्होंने कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ काव्य का गद्य रूप में अनुवाद किया, जिसमें शकुंतला एवं उसकी दो सखियां युवा बंगाली लड़कियों जैसी ज्यादा लगती है; और इसी तरह ‘सीतार बनबास’ (1860) में सीता भी बंगाली ही प्रतीत होती है. जब उन्होंने शेक्सपियर की रचना ‘द काॅमेडी ऑफ इरर्स’ का अनुवाद करके उसका नाम ‘भ्रांतिबिलास’ (1886) रखा, तो उन्होंने अपनी रचना को बांग्ला पाठकों के लिये ग्रहणीय बना दिया और उसे कहानी के बतौर पुनर्रचित किया. उनकी शैली, चातुर्य और परिहास भाव ने उनकी रचनाओं को अत्यधिक पठनीय बना दिया. जैसा कि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है, “वे बांग्ला गद्य के प्रथम वास्तविक कलाकार थे”. उनकी अन्य साहित्यिक रचनाओं में 1860 में रचित ‘महाभारत’, 1873 में रचित ‘अति अल्प होइलो’, 1873 में रचित ‘आबार अति अल्प होइलो’, 1884 में रचित ‘ब्रजविलास’ और 1886 में रचित ‘रत्नपरीक्षा’ का शुमार होता है.
विद्यासागर – जिसका अर्थ होता है ज्ञान का सागर – का परिचय ‘दयासागर’ के रूप में भी ख्यात है. वे हमेशा गरीबों, बीमारों और दबे-कुचलों की मदद करने के लिये प्रस्तुत रहते थे. यहां तक कि वे जब संस्कृत काॅलेज के छात्र थे तभी वे अपनी छात्रवृत्ति की राशि के एक हिस्से को गरीबों को भोजन देने तथा बीमारों के लिये दवाइयां खरीदने में खर्च करते थे. बाद के अरसे में वे अपने संयुक्त परिवार के प्रत्येक सदस्य को, परिवार के नौकरों को, अपने जरूरतमंद पड़ोसियों को, मदद चाहने वाले ग्रामवासियों को तथा ग्रामीण अस्पताल और विद्यालय को निश्चित रकम मासिक भत्ते और मदद के बतौर दिया करते थे. यहां तक कि जब वे बेरोजगार थे तब भी उन्होंने बिना किसी नागा के इसको निरंतर जारी रखा और इसके लिये उन्हें समय समय पर अच्छी खासी मात्रा में कर्ज लेना पड़ता था. अपनी अंतिम विरासत में उन्होंने उन सभी के नाम को, जिन्हें वे मासिक भत्ता या मदद दिया करते थे, उल्लेख तो किया ही था, साथ ही उन्होंने उसमें एक खुली कोटि को भी शामिल किया था, “जिस किसी को भी मदद की जरूरत हो”.
अपने सम्पूर्ण जीवन में विद्यासागर अपने समाज की पुरातनपंथी अमानवीय परम्पराओं के खिलाफ अनथक लड़ाई लड़ते रहे. कलकत्ते के हिंदू काॅलेज से युवा रैडिकल शिक्षक हेनरी लुइस विवियन डेरोजियो के नेतृत्व में उभरने वाले मुक्त विचारकों (फ्रीथिंकर्स) का समूह “यंग बेंगाल” भी उन्नीसवीं सदी के शुरूआती दशकों से बंगाल में यही काम कर रहा था. लेकिन विद्यासागर उनसे कहीं बहुत बड़ा कदम उठाकर आगे निकल गये. यंग बेंगाल ग्रुप के लोगों ने समाज को आंदोलित जरूर किया था, मगर विद्यासागर पुरानी रूढ़िवादी परम्पराओं को तोड़ने वाले और जीवन के नये रचनात्मक तरीकों का निर्माण करने वाले इन्सान थे. परम्परावादियों के अड़ियल प्रतिरोध का मुकाबला करते हुए वे तत्कालीन समाज को अन्य लोगों की अपेक्षा कहीं ज्यादा गहराई से प्रभावित करने में कामयाब रहे थे. प्रख्यात इतिहासकार और बंगाली पुनर्जागरण (बेंगाल रेनेसां) के श्रेष्ठ भाष्यकार बिनय घोष ने जब अपनी अति-प्रशंसित पुस्तक ‘बिद्यासागर ओ बांगाली समाज’ में विद्यासागर को बंगाली पुनर्जागरण के केन्द्रीय नायक के बतौर चिन्हित किया था तो उन्होंने एकदम सही बात की परिपुष्टि की थी.
बांग्ला गद्य की इस महान विभूति ने महसूस कर लिया था कि सामाजिक सुधार की पूर्वशर्त आधुनिक गद्य है. उन्होंने महाभारत, रामायण और कालिदास की रचनाओं का जो गद्य में अनुवाद किया, वह प्राचीन भारत में वापस लौटने के लिये नहीं बल्कि उभरते बुद्धिजीवी वर्ग की साहित्यिक रुचियों में सुधार करने के लिये किया था. जिस साहित्य का उन्होंने अनुवाद किया वह मुख्यतः राम और सीता जैसे देवताओं और देवियों के बारे में था, मगर उन्होंने इन-देवी-देवताओं को आकर्षक आधुनिक मानवीय चरित्रों में बदल दिया था. अपने दौर के अधिकांश विद्वानों के विपरीत वे प्रगतिशील बदलाव और उदारपंथ के उत्साही पक्षपोषक थे. आज के उथल-पुथलभरे दौर में, जब शासक निजाम शैक्षणिक संस्थानों और व्यापक समाज में धर्मनिरपेक्ष, वैज्ञानिक और तर्कसम्मत विमर्श को विनष्ट करने पर आमादा है, तब हमें धार्मिक कट्टरपंथी, पुरातनपंथी और विभाजनकारी शक्तियों और विमर्श के खिलाफ अपने जारी संघर्ष में विद्यासागर की विरासत को बुलंद करना होगा और उससे सबक लेना होगा.
(समाप्त)