– पुरुषोत्तम शर्मा, राष्ट्रीय सचिव, अखिल भारतीय किसान महासभा
भारत की खेती और खाद्य सुरक्षा को कारपोरेट व बहुराष्ट्रीय निगमों का गुलाम बनाने वाले मोदी सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ देश के किसानों का ऐतिहासिक आन्दोलन आज पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बन गया है. इस आन्दोलन के एजेंडे में तीन कृषि कानूनों के अलावा बिजली के निजीकरण और वायु प्रदूषण से जुड़े दो अध्यादेशों को वापस लेने की मांग भी है. किसानों का यह संघर्ष सीधे-सीधे केन्द्रीय सत्ता के खिलाफ है और भारत में आर्थिक सुधार के नाम पर कारपोरेट और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों देश के संसाधनों को लुटाने के विरोध में खड़ा है. भारत की सत्ता के केंद्र दिल्ली को घेरे लाखों किसानों ने आजाद भारत के इतिहास में और खासकर भारत में बढ़ते फासीवादी निजाम के दौर में जनता के प्रतिरोध की एक नई इबारत लिख दी है. आन्दोलन में बैठे किसानों का मूड बता रहा है कि वे इस जंग को जीते बगैर वापस लौटने वाले नहीं हैं. वे जानते हैं, अगर वे जीत के बिना वापस लौटे तो उनके पास बची जमीन को कारपोरेट लूट लेंगे और देश की खाद्य सुरक्षा भी कारपोरेटों की गुलाम बन जाएगी.
दिल्ली के दरवाजे पर पड़ाव डाले वर्तमान किसान आन्दोलन सच्चे लोकतंत्र की पाठशाला के रूप में विकसित हुआ है. इस आन्दोलन में भारत के भविष्य के लिए यह देखना काफी प्रेरणादायक है कि कैसे विभिन्न विचारधाराओं से बंधे लोग भी जनता और राष्ट्र के सामूहिक हितों के लिए एकताबद्ध रूप से काम कर सकते हैं. इसमें शामिल किसान संगठनों में वामपंथी से लेकर दक्षिणपंथी, मध्यमार्गी से लेकर स्वयंसेवी विचारधारा तक के सभी किसान संगठन शामिल हैं. इन सभी संगठनों में आन्दोलन की रणनीति को लेकर अपनी आंतरिक बैठकें होती हैं. फिर इसमें शामिल सभी बड़े समन्वयों की अपनी बैठकें होती हैं. पंजाब के 32 संगठनों की अलग से बैठक होती है. उसके बाद पंजाब के संगठनों और अन्य समन्वयों के साझे मंच की बैठक कर आम राय से अंतिम निर्णय लिया जाता है. साझे मंच के इस अंतिम निर्णय को आन्दोलन में शामिल सभी किसान संगठन स्वेच्छा और पूर्ण अनुशासन के साथ लागू करते हैं. इस तरह से देखें तो वर्तमान किसान आन्दोलन की रणनीति और कार्यनीति को सजाने में हर संगठन की अपनी बराबर की भूमिका है. यही कारण है कि लाख कोशिशों के बाद भी केंद्र सरकार किसान संगठनों के बीच फूट डालने में सफल नहीं हुई है.
केंद्र सरकार ने एक तरफ वार्ता का नाटक करने और दूसरी तरफ किसान नेताओं में फूट डालने, उन्हें अलग-अलग कर समझाने और आन्दोलन को खालिस्तानी, विपक्ष का उकसाया और माओवादी तक बताने की कोशिशें की ताकि आन्दोलन में बिखराव पैदा हो जाए. पर वे किसानों और उनके नेतृत्व की चट्टानी एकता को तोड़ने में पूरी तरह असफल हुए हैं.
इस आन्दोलन की तुलना कुछ लोग ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ आन्दोलन से कर रहे हैं, तो कुछ इस आन्दोलन की तुलना महेंद्र सिंह टिकैत के बोट क्लब आन्दोलन से कर रहे हैं. पर इस आन्दोलन की तुलना उन आंदोलनों से नहीं की जा सकती है, क्योंकि उन आंदोलनों की मुद्दों और प्रभाव क्षेत्र को लेकर एक सीमा थी. पर आज का यह किसान आन्दोलन देश के संसाधनों की कारपोरेट लूट के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी चरित्र लिए है. जनता के विभिन्न हिस्सों का व्यापक समर्थन आंदोलित किसानों को मिल रहा है. यह आन्दोलन भारत के किसानों का राजनीतिक आन्दोलन है. यह आन्दोलन आर्थिक सुधार के नाम पर देश को कारपोरेट और बहुराष्ट्रीय निगमों का गुलाम बनाने के खिलाफ लक्षित है. इसीलिए यह पहली बार है कि न सिर्फ किसान केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ लड़ रहे हैं, बल्कि भारत में कारपोरेट के चेहरे बने और प्रधानमंत्री मोदी के चहेते अंबानी-अडानी समूहों के खिलाफ भी सीधे संघर्ष कर रहे हैं. भारत के बुद्धिजीवी जिसे ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ कह रहे थे, किसानों ने उसे ‘अंबानी-अडानी कम्पनी राज’ की सरल परिभाषा में बदल दिया है. पंजाब से जो किसान इस आन्दोलन की अगुवाई कर रहे हैं, उनमें ज्यादातर परिवारों ने मुजारा आन्दोलन के जरिये ही खेती की जमीन प्राप्त की है. पंजाब में जिसमें आज का हरियाणा भी है, के मुजारा किसानों ने लाल झंडे के नेतृत्व में जमीन के लिए संघर्ष में पटियाला राज की सेना की तोपों से मुकाबला किया था. मुजारा किसानों ने 1942 से 1952 के बीच चले मुजारा आंदोलन के दौरान राजाओं और बड़े जागीरदारों की 18 लाख एकड़ जमीन पर कब्जा किया था और उसे मुजारों के नाम दर्ज कराने में सफलता पाई थी. उसी मुजारा आन्दोलन में मिली जमीन के अब खेती के कारपोरेटीकरण की नीतियों के चलते फिर छिनने का खतरा मंडरा रहा है, जिसने पंजाब और हरियाणा के किसानों को ज्यादा उद्वेलित किया है. मुजारा आन्दोलन की स्मृतियाँ अभी पंजाब में पुरानी नहीं पड़ी हैं. शहीदों के स्मारक बने हैं और उनकी गाथाएं नई पीढ़ी ने सुनी हैं. पंजाब व हरियाणा के गांवों में अभी भी उस दौर को देखे कुछ बुजुर्ग बचे हैं. पंजाब किसान यूनियन में मुजारा आन्दोलन के युवा किसान नेता मानसा जिले के कृपाल सिंह बीर जो अब 92 वर्ष से ऊपर के हो चुके हैं, अभी भी लगातार किसान आंदोलनों की अगुवाई कर रहे हैं.
आज दिल्ली के बार्डरों और देश भर में जिस किसान आन्दोलन की लहर आपको दिख रही है, उसकी बुनियाद घाटे की खेती के कारण 2017 तक ही देश में साढ़े तीन लाख किसानों की आत्महत्या और मध्य प्रदेश के मंदसौर में 6 जून 2017 को पुलिस की गोली से हुई 6 युवा किसानों की हत्या के बाद उपजा किसानों का आक्रोश है. मंदसौर में प्रधानमंत्री के वायदे के अनुसार फसलों की लागत का डेढ़ गुना दाम की मांग पर किसानों का आन्दोलन चल रहा था, जिसमें भाजपा की शिवराज सरकार की पुलिस ने 6 युवा किसानों को पकड़-पकड़ कर ठंडे दिमाग से गोली मारी थी. इस गोलीकांड के बाद देश के कई प्रमुख किसान संगठनों ने 6 जुलाई 2017 को मन्दसौर जाकर शहीद किसानों को श्रद्धांजलि देने की घोषणा की. इसी प्रक्रिया में अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआइकेएससीसी) अस्तित्व में आई, जिसने ‘कर्ज मुक्ति’ और ‘लागत का डेढ़ गुना दाम’ की दो सूत्रीय मांग पर मंदसौर से दिल्ली तक ‘किसान मुक्ति यात्रा’ की घोषणा की. चार चरणों में चली इस किसान मुक्ति यात्रा में दर्जनों किसान नेताओं ने देश के 19 राज्यों में लगभग 12 हजार किमी की यात्रा की. देश भर में सैकड़ों जन सभाएं, सैकड़ों किसान सम्मेलन व गोष्ठियां तथा दिल्ली में 2 राष्ट्रीय रैलियां की गयी. लगभग 20 लाख किसानों से सीधे संवाद किया गया. इस पूरी मुहिम में एआइकेएससीसी से जुड़ने वाले संगठनों की संख्या 250 से ऊपर पहुंच गयी.
पंजाब में 17 जत्थेबंदियों का एक साझा मंच किसानों के आंदोलनों की अगुवाई पहले से ही कर रहा था. उसके अलावा भी कुछ और साझे मंच और स्वतंत्रा किसान संगठन सक्रिय थे. पर इनमें किसानों के मुद्दों पर एक आपसी समझ हमेशा बनी रही. इसी तरह कक्काजी के नेतृत्व वाला भारतीय किसान महासंघ, बलबीर सिंह राजोवाल के नेतृत्व वाला बीकेयू, राकेश टिकैत के नेतृत्व वाला बीकेयू जैसे किसान संगठन भी अलग से आन्दोलनों का आह्वान करते रहे. 29-30 नवम्बर 2018 को दिल्ली में हुई किसान संसद में किसानों ने ‘कर्जा मुक्ति’ और ‘सी 2 प्लस सहित उपज की कुल लागत का डेढ़ गुना दाम’ से संबंधित दो विधेयक पास किये. जिन्हें बाद में शेतकारी संगठन के सांसद राजू शेट्टी और सीपीएम के राज्यसभा सांसद कामरेड रागेश ने लोकसभा व राज्यसभा में निजी विधेयकों के रूप में पेश किया. किसान आन्दोलन की इन कार्यवाहियों ने घाटे की खेती के कारण आत्महत्या को मजबूर भारत के किसानों की दो प्रमुख मांगों को राजनीतिक एजेंडे में ला दिया. विपक्ष की 21 पार्टियों ने इन मुद्दों को समर्थन दिया. हालांकि 2014 के लोकसभा चुनाव में स्वयं प्रधानमंत्री के दावेदार नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आने पर इन मांगों को पूरा करने का वायदा किया था. लेकिन, किसानों के राष्ट्रव्यापी आन्दोलन के बाद भी मोदी सरकार ने किसानों की इन दोनों मांगों के प्रति उपेक्षा का ही भाव दिखाया.
कोरोना संकट की आड़ लेकर मोदी सरकार ने देश के संसाधनों के निजीकरण और कारपोरेटीकरण को रफ्तार देने के लिए आर्थिक सुधारों के नाम पर एक के बाद एक काले कानूनों की झड़ी लगा दी. उसी कड़ी में चार श्रम कोड बिलों के साथ ही खेती के कारपोरेटीकरण और अन्न के व्यापार व भंडारण को कारपोरेट के हाथ सौंपने सहित तीन कृषि अध्यादेशों को लाकर भारत के किसान आन्दोलन के एजेंडे पर अपना एजेंडा थोप दिया. इन तीन कानूनों के साथ ही मोदी सरकार बिजली सुधार अध्यादेश 2020 में विद्युत विभाग के पूर्णतः निजीकरण और सबके लिए सामान रेट पर बिजली का प्रावधान ले आई. इसके चलते अब बड़े उद्योग, पांच सितारा होटल, एक बीपीएल परिवार और किसान के ट्यूबवेल पर एक ही रेट में बिजली मिलेगी. इसी तरह वायु प्रदूषण के लिए लाए गए मोदी सरकार के अध्यादेश में पराली जलाने वाले किसान के लिए एक करोड़ रुपए तक जुर्माने और पांच साल तक की सजा का प्रावधान रखा गया है. इन कानूनों ने किसान आन्दोलन के पूरे विमर्श को ही बदल दिया. जो किसान आन्दोलन पिछले साढ़े तीन साल से कर्ज मुक्ति और लागत का डेढ़ गुना दाम की मांग पर केन्द्रित था, वह अब खेती के कारपोरेटीकरण और खाद्य सुरक्षा पर खतरे के खिलाफ मुड़ गया.
खेती किसानी की तबाही के दस्तावेज के रूप में मोदी सरकार के तीन कृषि अध्यादेशों का मुखर विरोध पंजाब की धरती से शुरू हुआ. पंजाब के किसान संगठनों और एआइकेएससीसी से जुड़े संगठनों ने इन काले कानूनों के खिलाफ 9 अगस्त 2020 को पूरे देश में ‘कारपोरेट खेती छोड़ो’ दिवस मनाया. इस विरोध दिवस में लाखों किसानों ने देश भर में भागीदारी की. बाद में इन अध्यादेशों को गैर संसदीय परंपरा से संसद में जबरन पास कराने की मोदी सरकार की कार्यवाही के बाद तो पंजाब का किसान सड़कों पर उतर आया. मध्य सितम्बर के बाद ही पंजाब में स्थाई धरने, चक्का जाम, रेल रोको जैसे कार्यक्रम किसानों ने शुरू कर दिए. बदली हुई स्थितियों में पंजाब के 31 किसान संगठनों ने एक साझा मोर्चा बनाया. 25 सितम्बर को पंजाब बंद और देश भर में प्रतिरोध कार्यक्रम की घोषणा पंजाब के संगठनों और एआइकेएससीसी ने मिलकर की. इस कार्यक्रम को देश भर में किसानों का व्यापक समर्थन मिला. कर्नाटक में भी बंद सफल रहा. कर्नाटक में पुलिस दमन के विरोध में फिर 28 सितम्बर को किसान संगठनों ने बंद की घोषणा की. दक्षिण भारत से लेकर पूर्वोत्तर के असम तक भी लाखों किसान प्रतिरोध कार्यक्रम में उतरे.
किसानों द्वारा एक अक्टूबर 2020 से पूरे पंजाब में रेलवे लाइनों, टोल नाकों, रिलायंस के पेट्रोल पम्पों, अंबानी-अडानी के रिटेल स्टोर व गोदामों पर अनिश्चितकालीन धरना शुरू कर उनकी आर्थिक गतिविधियों को ठप्प कर दिया गया. किसान संगठनों ने इन काले कानूनों को जबरन पारित कराने वाले भाजपा सांसदों, उनके सहयोगियों के घेराव व सामाजिक बहिष्कार की भी घोषणा कर दी. पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के गांव में भी किसानों ने स्थाई धरना लगा दिया और उनसे एनडीए से बाहर आने की मांग की. पंजाब में हर ग्राम पंचायत में इन कृषि कानूनों के खिलाफ प्रस्ताव पास किये जाने लगे. किसानों के आन्दोलन का ही दबाव था कि पहले अकाली कोटे की केन्द्रीय मंत्री हरसिमरन कौर ने केन्द्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया और बाद में अकाली दल ने भी एनडीए से बाहर आने की घोषणा कर दी. पंजाब सरकार ने किसानों से रेल ट्रैक खाली करने की मांग की. अब किसानों ने पजाब की अमरिंदर सरकार पर दबाव बनाना शुरू किया कि वे पहले पंजाब विधान सभा में केंद्र के कानूनों को अप्रभावी बनाने वाले बिल लाएं.
आन्दोलन के दबाव में पंजाब सरकार को तीनों कृषि बिलों को अप्रभावी बनाने के लिए विधानसभा का विशेष सत्र बुलाना पड़ा. साथ ही केन्द्र के बिजली सुधार अध्यादेश 2020 के खिलाफ भी एक विधेयक पास किया गया. इन बिलों को राज्य विधानसभा में भाजपा के दो विधायकों के अलावा बाकी सभी विधायकों का समर्थन मिला. इसके बाद किसान संगठनों ने मालगाड़ी की आवाजाही के लिए रेलवे ट्रैक को खाली कर दिया. पर केंद्र सरकार ने राजनीतिक बदले की कार्यवाही के चलते एक माह बाद तक भी पंजाब में रेलें नहीं चलाई. 14 अक्टूबर को केंद्र सरकार ने पंजाब के 29 किसान संगठनों को वार्ता के लिए दिल्ली बुलाया. मगर वार्ता में कोई भी केंन्द्रीय मंत्री उपस्थित नहीं था. किसान संगठनों ने नौकरशाहों से वार्ता करने से इनकार कर बैठक का बहिष्कार किया और कृषि भवन के बाहर आकर विरोध प्रदर्शन किया. 14 अक्टूबर को ही एआइकेएससीसी ने ‘एमएसपी अधिकार दिवस’ के आह्वान के तहत देश भर की मंडियों के घेराव की घोषणा की थी. यह कार्यक्रम भी पूरे देश में सफल रहा. एआइकेएससीसी ने 26-27 नवम्बर को किसानों के ‘दिल्ली चलो’ कार्यक्रम की योजना बनाई.
देश भर के सभी किसान संगठनों में एका बनाने के लिए 27 अक्टूबर को दिल्ली के गुरुद्वारा रकाबगंज में देश के तमाम किसान संगठनों की एक साझा बैठक एआइकेएससीसी ने बुलाई. बैठक में एआइकेएससीसी के घटक संगठनों के अलावा कक्काजी के नेतृत्व वाला भारतीय किसान महासंघ, भाकियू-राजोवाल, भाकियू-चढूनी, भाकियू-उग्राहां सहित कई अन्य किसान संगठन भी शामिल हुए. सभी संगठनों ने एक साझे मंच में एकताबद्ध होकर इस लड़ाई को लड़ने पर सहमति दी. इस साझे मंच में शामिल देश भर के किसान संगठनों की संख्या अब 500 से ऊपर हो चुकी थी. उग्राहां ने कार्यक्रमों पर तो सहमति दी पर साझे मोर्चे के बारे में निर्णय बाद में बताने को कहा. इस बैठक में 5 नवम्बर को पूरे देश में चक्का जाम आन्दोलन की घोषणा की गयी. साथ ही 26-27 नवम्बर को किसानों के ‘दिल्ली मार्च’ का ऐलान किया गया. रेल सुविधा अभी भी सामान्य न होने के कारण पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और यूपी के किसानों से दिल्ली आने का आह्वान किया गया. बाकी दूर के राज्यों में किसानों से ब्लाक, तहसील, जिला व राज्य मुख्यालयों पर धरने-प्रदर्शन करने का आह्वान किया गया. इन कार्यक्रमों को संचालित करने के लिए साझे मंच की ओर से एक 7 सदस्यीय कमेटी का गठन किया गया.
किसानों के दिल्ली पड़ाव आन्दोलन को व्यापक जनता का इतना समर्थन मिलेगा, ऐसी उम्मीद केंद्र सरकार को नहीं थी. पिछले 30 वर्षों से आम तौर पर दिल्ली में होने वाली राष्ट्रीय रैलियों को दिल्लीवासी अच्छी नजर से नहीं देखते हैं. पर इस आन्दोलन के प्रति दिल्ली शहर का नजरिया बदला हुआ है. सरकार, सत्ताधारी पार्टी, आरएसएस, गोदी मीडिया के कुत्सित प्रचार के बावजूद समाज के विभिन्न हिस्सों से किसानों को जो सहयोग और समर्थन मिल रहा है, ऐसा दिल्ली व उसके आस-पास सिर्फ आजादी की लड़ाई के दौर में ही देखने को मिलता होगा. टीकरी और सिंघु बार्डर पर बड़ी संख्या में हरियाणा के किसानों के जत्थों के भी डेरा डालने के बाद सरकार के इस प्रचार पर लगाम लगी कि यह आन्दोलन सिर्फ पंजाब के किसानों का है. किसान लम्बी लड़ाई का मन बनाते हुए अपने साथ राशन, बिस्तर, बर्तन, गैस सिलेंडर व चूल्हा आदि लेकर ही निकले थे. बावजूद इसके हरियाणा के किसान गांव-गांव से राशन, सब्जी, दूध, लस्सी, गुड़, मूंगफली, केले लेकर आ रहे हैं और किसानों के बीच जमकर बांट रहे हैं. ईंधन के लिए जलावनी लकड़ी और गैस भी किसानों को पर्याप्त मात्रा में निशुल्क ही बांटी जा रही है.
फल व सब्जी मंडियों की संस्थाएं भी किसानों को निशुल्क सब्जी व फल बांट रहे हैं. कुछ लोग तो खजूर और बादाम भी किसानों में बांट गए. ट्रेडर्स एसोसिएशनों का भी भरपूर सहयोग मिल रहा है, जिसके चलते आटा, दाल, चीनी, चाय पत्ती, मसाले आदि की भी आंदोलनकारी किसानों को कोई कमी नहीं है. कई संस्थाओं ने लंगर भी लगाए हैं जिनमें रोजाना आन्दोलन को समर्थन देने आ रहे लोगों को पका हुआ भोजन भी मिल रहा है. किसान अपने ट्रैक्टरों की बैटरी से रात की रोशनी और मोबाइल चार्ज की व्यवस्था कर रहे हैं. क्षेत्र के व्यापारियों ने उन्हें बैटरी के निशुल्क चार्ज की व्यवस्था भी की है. कुछ संस्थाओं और कुछ स्थानीय डाक्टरों ने मेडिकल कैम्प भी लगाए हैं. टीकरी बार्डर पर तो पंजाब के मानसा में आंदोलनों में मेडिकल कैम्प लगाने वाले डाक्टर आंदोलनकारी किसानों के साथ ही आकर बार्डर पर अपनी सेवा दे रहे हैं. स्थानीय नर्सिंग होमों के डाक्टर परामर्श शुल्क किसानों से नहीं ले रहे हैं. स्थानीय उद्योगों, कम्पनियों, व्यापारियों ने अपने सस्थानों के शौचालय और स्नानागार सुबह और शाम को आन्दोलनकारी किसानों के लिए खोल दिए हैं. प्रशासन ने सफाई और सचल शौचालय वाहनों की भी व्यवस्था की है. हालांकि वह धरनों में बढ़ती संख्या के कारण कम पड़ती जा रही है.
किसानों के आन्दोलन के समर्थन में 10 केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें, पंजाब व कर्नाटक की फिल्म इंडस्ट्री, हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री के कई नामी कलाकार, लोक गायक, लेखक, पत्रकार खुल कर साथ आए हैं. देश के बड़े पुरस्कार प्राप्त दर्जनों जाने-माने खिलाड़ियों, बड़े मेडलों से नवाजे गए सैकड़ों भूतपूर्व सैनिकों ने किसान आन्दोलन के पक्ष में अपने पुरस्कार और मेडल लौटाने की घोषणा कर दी है. पद्म पुरस्कार प्राप्त कुछ विशिष्ट लोगों और ग्राम पंचायतों में भी पुरस्कार प्राप्त सरपंचों ने सरकार को अपने पुरस्कार लौटाने की घोषणा कर दी है. आइएएस/आइपीएस सहित अन्य ऊंचे पदों पर बैठे या रिटायर्ड सैकड़ों नौकरशाहों ने भी किसान आन्दोलन को पूरा समर्थन दिया है. वामपंथी पार्टियों सहित देश की सभी विपक्षी पार्टियों का समर्थन किसान आन्दोलन के साथ है. इस आन्दोलन के पक्ष में पूरी दुनिया में आवाज उठ रही है. ब्रिटेन की संसद हो या कनाडा के प्रधानमंत्री का वक्तव्य. दुनिया के सभी लोकतंत्र पसंद, न्याय पसंद और साम्राज्यवादी व कारपोरेट लूट के खिलाफ लड़ने वाली आवाजें भारत के वर्तमान किसान आन्दोलन को अपना नैतिक समर्थन दे रही हैं.
पंजाब से भारी संख्या में किसानों के दिल्ली मार्च में आने के बावजूद पंजाब में ढाई माह से चल रहे किसानों के धरने बदस्तूर जारी हैं. रेलवे स्टेशनों, रिलायंस के पैट्रोल पम्पों, अदानी-अम्बानी के माॅल और जियो के सेंटरों पर किसानों के धरने बदस्तूर जारी हैं. उन धरनों का नेतृत्व करने के लिए किसान संगठनों के नेताओं का एक छोटा हिस्से को पंजाब में ही रोका गया है. पंजाब में चल रहे इन धरनों में अब भारी संख्या में महिलाओं और युवाओं ने मोर्चा संभाल रखा है. दिल्ली पड़ाव की कहानियां पंजाब में आन्दोलन को जारी रखने के लिए रुके लोगों को दिल्ली की तरफ आकर्षित कर रही हैं. ऐसे में कार्यकर्ताओं की अदला-बदली लगातार हो रही है. मगर हर अदला-बदली में दिल्ली बार्डर आने वालों की संख्या पंजाब लौटने वालों से ज्यादा हो रही है. इससे आन्दोलन के मोर्चे पर किसानों की भागीदारी लगातार बढ़ रही है.
दिल्ली मोर्चे पर आए किसानों की खेती व परिवार की जिम्मेदारी किसानों की ग्राम कमेटियों की है. ऐसी पंजाब में किसान आन्दोलन की परम्परा रही है. अगर कोई कार्यकर्ता किसान आन्दोलन में लम्बे समय के धरने या जेल में जाता है, तो गांव के लोग उसकी खेती और परिवार की देखभाल किसान संगठनों की ओर से करते हैं. ऐसे परिवार में आने वाली आर्थिक जिम्मेदारियों को भी किसान संगठन ही उठाते हैं. इस आन्दोलन में भी यही हो रहा है. यहां तक कि आन्दोलन में गए कार्यकर्ता के परिवार के निशुल्क इलाज की भी जिम्मेदारी किसान संगठनों की इकाइयां संभालती हैं. किसान आन्दोलन में किसान परिवारों की कई पीढ़ियां आन्दोलन में हिस्सा लेती हैं. एक ही परिवार की दो, तीन, चार पीढ़ियों के सदस्य आपको इस आन्दोलन में भागीदारी करते दिखेंगे. दिल्ली पड़ाव आन्दोलन में टीकरी बार्डर आन्दोलन की कमान संभाल रही टीम की एकमात्र महिला किसान नेता जसबीर कौर नत्त के परिवार की तीन पीढ़ियां – उनके पति सुखदर्शन नत्त, बेटा, बेटी, बहू और छोटा-सा पोता – सभी घर व खेती छोड़ आन्दोलन के मोर्चे पर डटे मिले. उनका परिवार पंजाब किसान यूनियन से जुड़ा है.
आखिर इन कानूनों में ऐसा क्या है कि किसान इन्हें स्वीकारने को तैयार नहीं? इनमें पहला है ‘कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) कानून, 2020’, जिसके तहत सरकार ने वर्तमान कृषि मंडियों के बाहर प्राइवेट मंडियों का प्रावधान किया है. सरकार कह रही है कि अब किसान अपनी फसल किसी को भी और कहीं भी बेचने को आजाद हो गया है. इसका मतलब क्या है? इस बदलाव के बाद अब केंद्र सरकार राज्य सरकारों को किसानों की फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने के लिए न तो बैंकों से ‘कैश क्रेडिट’ दिलाएगी और न ही राज्य की मंडियों द्वारा खरीदी गई फसल को एफसीआइ के माध्यम से खरीदने की गारंटी देगी. ऐसी स्थिति में राज्य सरकारें वर्तमान मंडियों के माध्यम से फसल नहीं खरीद पाएगी और किसान मंडी के बाहर बैठे कारपोरेट के दलालों के हाथ अपनी फसल कौड़ियों के भाव बेचने को मजबूर होंगे. इसलिए प्राइवेट मंडियों की स्थापना के साथ सरकार अगर कहती है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य जारी रहेगा तो वह सिर्फ किसानों को धोखा दे रही है.
यही नहीं, जब भारतीय खाद्य निगम मंडियों के माध्यम से किसानों की फसल को नहीं खरीदेगा, तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से देश के गरीबों को मिलने वाले सस्ते अनाज की व्यवस्था भी बंद हो जाएगी. ऐसे में अनाज का भंडारण और खुदरा व्यापार पूरी तरह कारपोरेट के हाथ में चला जाएगा. इससे हमारी खाद्य सुरक्षा को भी गम्भीर खतरा पैदा हो जाएगा. इसकी तैयारी इन कानूनों के आने से पहले ही शुरू हो गई है. भटिंडा, बरनाला, मोगा, मानसा, देवास, होशंगाबाद, कन्नौज, कटिहार, दरभंगा, समस्तीपुर, सतना, उज्जैन और पानीपत जिले सहित देश के कई हिस्सों में प्रधानमंत्री के करीबी अदानी समूह के अदानी एग्री लाॅजिस्टिक लिमिटेड के बड़े-बड़े गोदाम बन गए हैं या निर्माणाधीन हैं. जिनमें अदानी समूह लाखों मैट्रिक टन खाद्यान्न का भंडारण कर उसे 10 साल तक भी सुरक्षित रख सकेगा. ऐसा ही अन्य कुछ कारपोरेट और बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भी कर रही हैं. रिलायंस, पतंजलि, वालमार्ट जैसी देशी-विदेशी कम्पनियां हमारे रिटेल बाजार के साथ ही खाद्यान्न बाजार पर एकाधिकार के लिए मैदान में उतर चुकी हैं. इसीलिए जब देश के कृषिमंत्री कहते हैं कि नए कृषि कानूनों को वापस लेने से कारपोरेट का विश्वास सरकार पर से उठ जाएगा तो इसके निहितार्थ को समझ लेना चाहिए.
दूसरा कानून है ‘मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवा सम्बंधी किसान समझौता (सशक्तिकरण और सुरक्षा) कानून, 2020’. मोदी सरकार के अनुसार यह कृषि क्षेत्र के लिए एक ‘जोखिम रहित कानूनी ढांचा’ है. ताकि किसान को फसल बोते समय उससे प्राप्त होने वाले मूल्य की जानकारी मिल जाए और किसानों की फसलों की गुणवत्ता सुधरे. यह जोखिम रहित कानूनी ढांचा और कुछ नहीं देश में खेती के कारपोरेटीकरण की जमीन तैयार करने के लिए पूरे देश में कान्ट्रैक्ट (अनुबंध) खेती को थोपना है. कान्ट्रैक्ट खेती सबसे पहले तो भारत जैसे विशाल आबादी के देश की खाद्य सुरक्षा और खाद्य संप्रभुता पर सीधा हमला है. खेती में उत्पादन का अधिकार अनुबंध के जरिये जब कारपोरेट और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ चला जाएगा, तब ये कम्पनियां अपने अति मुनाफे को ध्यान में रख कर ही उत्पादन कराएंगी, न कि जनता की खाद्य जरूरतों को ध्यान में रखकर. ऐसे में खाद्यान्न का उत्पादन जब तक उनके अति मुनाफे का सौदा नहीं बन जाएगा, वे उसे नहीं उगाएंगे.
कान्ट्रैक्ट खेती से किसान के सीधे नुकसान को अगर समझना है तो 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान चर्चा में आए कान्ट्रैक्ट खेती के एक बड़े विवाद को समझना होगा. अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी पेप्सिको ने गुजरात के साबरकांठा जिले में कुछ आलू किसानों के साथ चिप्स के लिए आलू की खेती करने का अनुबंध किया. कंपनी ने 9 किसानों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर 4.2 करोड़ रुपये का हर्जाना मांगा था. पेप्सीको ने एफसी-5 नाम के आलू की किस्म का पेटेंट अपने नाम कराया हुआ है जिसकी पैदावार वह किसानों से कराती है. पेप्सिको से कान्ट्रैक्ट किए इन किसानों से कम्पनी के मानकों को पूरा न करने वाले किसानों के मौजूदा आलू के स्टाक को नष्ट करने के लिये कहा था. इसमें घाटा सह रहे किसानों ने इसे नष्ट करने के बजाए बीज के लिए अन्य किसानों को और बाजार में बेच दिया था. पेप्सिको ने कहा कि किसान उसके साथ अनुबंध कर सिर्फ कम्पनी से ही बीज ले सकते हैं और होने वाली फसल वापस उसे ही बेच सकते हैं बाहर नहीं. कम्पनी के मानकों पर सही न उतरने वाली पैदावार किसानों को नष्ट करनी होगी.
इस तरह कम्पनी से अनुबंध किए किसानों को और उनकी खेती को पूरी तरह से कम्पनी की गुलामी की जंजीरों में बांध दिया जाता हैं. अनुबंध कृषि के तहत किसानों को ऋण, बीज, उर्वरक, मशीनरी और तकनीकी सलाह के लिए कम्पनी पर ही निर्भर बना दिया जाता है, ताकि उनकी उपज कंपनियों की आवश्यकताओं के अनुरूप हो सके. अति मुनाफे के लिए कम्पनियों के द्वारा खेती में प्रयोग कराए जा रहे जीएम बीज, कीटनाशक व रासायनिक खाद खेत की मृदा और उर्वरता को भारी नुकसान पहुंचा देते हैं जिससे जमीन के मरुस्थल में बदलने का खतरा बना रहता है. सरकार कह रही है कि कांट्रेक्ट खेती वाली जमीन का मालिक किसान ही रहेगा. मगर कम्पनी के मानकों के अनुसार उत्पादन नहीं हुआ तो उसे नष्ट करना होता है और उसमें लगी कम्पनी की लागत किसान पर कर्ज रह जाती है. नए कानून के मुताबिक किसान पर कम्पनी के उस बढ़ते कर्ज की वसूली राजस्व नियमों के तहत होगी. यानि कि कांट्रेक्ट लेने वाली कम्पनी तहसील से किसान की जमीन की कुर्की का आदेश करा सकती है. ऐसी जमीनों की नीलामी उंची कीमत पर उठा कर कम्पनी उसे अपने नाम करा सकती है.
तीसरा अध्यादेश है ‘आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून, 2020’, जिसको आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में संशोधन करके लाया गया है. नए कानून के मुताविक अब यह कानून सिर्फ आपदा या संकट काल में ही लागू किया जाएगा. बाकी दिनों में जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं के भंडारण की कोई सीमा नहीं रहेगी ताकि बड़े कारपोरेट, बहुराष्ट्रीय कंपनियां, जमाखोर और व्यापारी आवश्यक वस्तुओं का कृत्रिम अभाव पैदा कर उनकी कालाबाजारी के जरिए जनता को लूटने की खुली कानूनी छूट पा सकें. यही नहीं, इस कानून में आलू, प्याज, दलहन, तिलहन जैसी रोजाना उपभोग की वस्तुओं को आवश्यक वस्तु की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है. इस कानून के जरिये एक तरफ किसानों और दूसरी तरफ आम उपभोक्ता को लूटने की व्यवस्था की गयी है. कृषि उत्पादन, भंडारण और पूरे खाद्यान्न बाजार पर से सरकारी हस्तक्षेप को खत्म करना, उपभोक्ता उत्पादों की तरह खाद्यान को भी अतिमुनाफे के उत्पाद में बदल देना आज बहुराष्ट्रीय कम्पनियों व कारपोरेट कम्पनियों की सबसे बड़ी जरूरत है. इसी जरूरत की पूर्ति के लिए मोदी सरकार इन तीन अध्यादेशों को लाकर इन्हें कानून का दर्जा देना चाहती है.
आज कोरोना संकट के कारण दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं पूरी तरह चरमरायी हुई हैं. उद्योग, सेवा क्षेत्र, पर्यटन, आटोमोबाइल, निर्माण, व्यापार, ट्रांसपोर्ट जैसे जीडीपी को गति देने वाले प्रमुख क्षेत्र पूरी दुनिया में बुरी तरह हांफ रहे हैं. भारत में कोराना काल से पूर्व ही मोदी सरकार की क्रोनी कैपिटलिज्म को बढ़ावा देनेवाली आर्थिक नीतियों के कारण जीडीपी गोते खाने लगी थी. ऐसे में देश में ‘सरकारी व सार्वजनिक संस्थान सब कुछ बिकाऊ है’ का नारा देने के बाद भी मोदी सरकार को कोई खरीदार नहीं मिल रहा है. देश की अर्थव्यवस्था की इस निराशाजनक गति को देख कर कोरोना काल में ही भारत के कारपोरेट घराने भारत में कोई निवेश करने के बजाय अमेरिका में डेढ़ लाख करोड़ रुपए का निवेश कर आए. बेरोजगारी बढ़ रही है. आम लोगों की क्रय शक्ति लगातार घट रही है. इससे दुनिया भर में उपभोक्ता उत्पादों की मांग में भारी कमी आ गई है. सिर्फ एक क्षेत्र है खाद्य वस्तुएं, जिनकी मांग मनुष्य के जीवित रहने के लिए हर स्थिति में बनी रहेगी. इसलिए दुनिया की बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और देशी कारपोरेट कम्पनियों की नजर अब खेती की जमीन और खाद्य पदार्थों के व्यवसाय पर गड़ी है.
भारत के कृषि व्यवसाय में नेसले, कैडबरी, हिन्दुस्तान लीवर, गोदरेज फूड्स एण्ड बेवरेजेस, डाबर, आई.टी.सी., ब्रिटेनिया जैसी बड़ी कंपनियां पहले ही पैर जमाई हुई हैं. अब करगिल, रिलायंस, पतंजलि जैसी कई बहुराष्ट्रीय व कारपोरेट कम्पनियां इस क्षेत्र में उतर चुकी हैं. हिमांचल में वालमार्ट, बिग बास्केट, अदानी, रिलायंस फ्रेश और सफल जैसी बड़ी कंपनियों के अलावा अन्य कंपनियां भी बागवानों से सीधे सेव खरीद रही हैं. ये कम्पनियां सेव के रंग, आकार और गुणवत्ता के हिसाब से छांट कर ही बागवानों से क्रेटों में सेव खरीदती हैं. इसी तरह ज्यादातर कम्पनियों के ही नियंत्राण में चलने वाले भारत में कृषि-आधारित उद्योगों की भी तीन श्रेणियां हैं – (1) फल एवं सब्जी प्रसंस्करण इकाइयों, डेयरी संयंत्रों, चावल मिलों, दाल मिलों आदि को शामिल करने वाली कृषि-प्रसंस्करण इकाइयां; (2) चीनी, डेयरी, बेकरी, कपड़ा, जूट इकाइयों आदिको शामिल करने वाली कृषि निर्माण इकाइयां; (3) कृषि, कृषि औजार, बीज उद्योग, सिंचाई उपकरण, उर्वरक, कीटनाशक आदि के मशीनीकरण को शामिल करने वाली कृषि-इनपुट निर्माण इकाईयां. इसके एक बड़े हिस्से पर अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का एकाधिकार बढ़ता जा रहा है.
भारत का खाद्य प्रसंस्करण उद्योग देश के कुल खाद्य बाजार का 32 प्रतिशत है. यह भारत के कुल निर्यात में 13% और कुल औद्योगिक निवेश में 6% हिस्सा रखता है. भारत के खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में फल और सब्जियां, मसाले, मांस और पोल्ट्री, दूध और दुग्धउत्पाद, मादक और गैर मादक पेय पदार्थ, मत्स्य पालन, अनाज प्रसंस्करण और मिष्ठान भंडार, चाकलेट तथा कोकोआ उत्पाद, सोया आधारित उत्पाद, मिनरल वाटर और उच्च प्रोटीन युक्त आहार जैसे अन्य उपभोक्ता उत्पाद समूह शामिल हैं. पिछले वर्ष तक भारत का खाद्य बाजार लगभग 10.1 लाख करोड़ रुपये का था, जिसमें खाद्य प्रसंस्करण उद्योग का हिस्सा 53 प्रतिशत अर्थात 5.3 लाख करोड़ रुपये का था. अब भारत के गांवों के हाट-बाजारों पर भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और बड़ी कारपोरेट कम्पनियों की नजर है. बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और बड़ी कारपोरेट कम्पनियां ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में जगह-जगह अपने मॅाल खोल रही हैं. वे अपने विभिन्न उत्पाद-ब्राण्डों को दूरदराज के गांवों व चौके-चूल्हे तक पहुंचाने का सपना देख रहे हैं. ई-चौपालों, चौपाल सागरों, एग्रीमार्टो, किसान हरियाली बाजारों आदि का बस एक ही लक्ष्य है – फसलों की पैदावार और कृषि जिंसों के कारोबार पर कारपोरेट का शिंकजा और कृषि उपज मण्डियों का कारपोरेटीकरण.
मोदी सरकार भारतीय कृषि को अमेरिकी कृषि के रास्ते पर ले जाना चाहती है. अमेरिका की कुल कृषि उपज का 60 प्रतिशत हिस्सा मात्र 35 हजार बड़े कृषि फार्म पैदा करते हैं, जबकि भारत की 85 प्रतिशत खेती छोटे व सीमांत किसानों पर निर्भर है. भारत का 70 प्रतिशत दुग्ध उत्पादन भी भूमिहीन, खेत मजदूर, गरीब व मध्यम किसान करता है. भारत में खेती व्यवसाय नहीं, बल्कि 85 प्रतिशत किसान परिवारों को पालने का एक साधन है. मोदी सरकार कारपोरेटों के निर्देश पर अन्न को भी अब आवश्यक वस्तु से बाहर कर उपभोक्ता माल में बदलने की तरफ कदम बढ़ा चुकी है. इसलिए भारत जैसे कृषि प्रधान और विशाल आबादी के देश की खेती और खाद्य बाजार पर अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और बड़े कारपोरेट घराने अपना एकाधिकार जमाना चाहते हैं. जून 2018 में जागरण में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनी करगिल ने भारत से गेहूँ, मक्का, तेल जैसे जिंसों के 10 लाख टन की खरीददारी की. करगिल वर्ष 2018 में ही कर्नाटक के दावणगेरे में डेढ़ करोड़ डालर खर्च कर मक्का की फसल के भंडारण के लिए अन्नागार स्थापित कर रही थी. भारत के पशु आहार व मत्स्य आहार क्षेत्र में भी करगिल का दखल लगातार बढ़ रहा है.
दुनिया के स्तर पर देखें तो चोटी की 10 वैश्विक बीज कम्पनियां दुनियां के एक-तिहाई से ज्यादा बीज कारोबार पर काबिज है. वे इस क्षेत्र में प्रतिवर्ष 30 अरब डाॅलर का धन्धा कर रही हैं. भारत के 75 प्रतिशत बीज बाजार पर भी मोसोंटो और करगिल जैसी अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का कब्जा हो चुका है जो शिमला मिर्च, गोभी, टमाटर के बीज को अब 80 हजार से डेढ़ लाख रुपए किलो तक में किसानों को बेच रही हैं. चोटी की 10 कीटनाशक रसायन निर्माता बहुराष्ट्रीय कम्पनियां दुनियां के 90 प्रतिशत कीटनाशक रसायन कारोबार पर काबिज हैं. वे इस क्षेत्रा में प्रति वर्ष 35 अरब डाॅलर का कारोबार कर रही हैं. चोटी की 10 बहुराष्ट्रीय कम्पनियां खाद्य पदार्थों की कुल बिक्री के 52 प्रतिशत पर कब्जा जमाये हुए हैं. चोटी की 10 फर्में दुनियां के संगठित पशुपालन उद्योग और उससे जुड़े हुए समस्त कारोबार के 65 प्रतिशत पर काबिज हैं. वे इस क्षेत्र में 25 अरब डालर का धन्धा कर रही हैं. भारत जैसे कृषि प्रधान और बड़ी आबादी वाले देश की खेती, अन्न भंडारण और अन्न बाजार को अपने नियंत्राण में लेने के लिए इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और कारपोरेट कम्पनियों में होड़ मची है. यही वह क्षेत्रा है जहां इस वैश्विक संकट के दौर में अभी भी मांग है और पूंजी निवेश की संभावनाएं बची हुई हैं. इसलिए हर तरफ से निराश मोदी सरकार किसी भी हाल में यहाँ कारपोरेट व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की राह आसान करना चाहती है. पर देश का किसान ऐसा हरगिज नहीं होने देगा. किसानों का यह संघर्ष मोदी सरकार की बिदाई की इबारत लिखेगा.
केंद्र सरकार वर्तमान किसान आन्दोलन को अकेले पंजाब के किसानों का आंदोलन कह प्रचारित करती है. जबकि इस आंदोलन में शामिल 500 से ज्यादा किसान संगठनों में पंजाब के मात्र 32 संगठन ही हैं. बाकी 470 से ज्यादा किसान संगठन देश के अन्य राज्यों में कार्यरत हैं. दिल्ली मार्च का आह्वान करने करने वाले किसानों के साझे मोर्चे में राजू सेट्ठी के नेतृत्व वाला शेतकारी संगठना (महाराष्ट्र), प्रतिभा शिंदे के नेतृत्व वाला लोक संघर्ष मोर्चा (गुजरात, महाराष्ट्र), मेधा पाटकर के नेतृत्व वाला नर्मदा बचाओ आन्दोलन (मध्य प्रदेश व महाराष्ट्र), शिव कुमार कक्का के नेतृत्व वाला भारतीय किसान महासंघ (मध्य प्रदेश), डा. सुनीलम के नेतृत्व वाला किसान संघर्ष समिति (मध्य प्रदेश), गुरुनाम चढूनी के नेतृत्व वाला भाकियू (चढूनी, हरियाणा), राकेश टिकैत के नेतृत्व वाला भाकियू टिकैत (उत्तर प्रदेश), कविता कुरुगंती के नेतृत्व वाला आसा (कर्नाटक), चंद्रशेखर के नेतृत्व वाला कर्नाटक रैयत संगम (कर्नाटक), अन्नाकन्नु के नेतृत्व वाला किसान संगठन (तमिलनाडू), अखिल भारतीय किसान मजदूर संगठन, जय किसान जैसे देश के प्रमुख किसान संगठन जुड़े हैं. इसमें अखिल भारतीय किसान महासभा, अखिल भारतीय किसान सभा (केनन लेन), अखिल भारतीय किसान सभा (अजय भवन), अखिल भारतीय किसान खेत मजदूर संगठन जैसे बड़े राष्ट्रीय स्तर के संगठन इस मोर्चे को बड़ा राष्ट्रीय आधार हैं, जिनका संगठन और प्रभाव देश के लगभग 25 से भी ज्यादा प्रदेशों में फैला है.
किसान संगठनों के साझे मोर्चे के सभी प्रमुख नेता दिल्ली में किसानों के पड़ाव स्थल से ही आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे हैं. मोर्चे द्वारा किये जा रहे आह्वानों पर कश्मीर से लेकर तमिलनाडु और असम, मणिपुर से लेकर गुजरात तक देश के लाखों किसानों का एक साथ सड़क पर उतरना – इस आन्दोलन के राष्ट्रीय चरित्र को सामने ला रहा है.