वर्ष - 29
अंक - 50
12-12-2020


--- दीपंकर भट्टाचार्य    

कोरोना महामारी और उसके पूरकस्वरूप लागू किये गये बर्बर लॉकडाउन एवं उसके विनाशकारी परिणामों की छत्रछाया में आयोजित किये गये पहले प्रमुख चुनाव ने चौंकानेवाले नतीजे दिये हैं. अक्टूबर की शुरूआत तक, जब चुनाव के लिये नामांकन भी शुरू हो गये, तब तक होने वाले जनमत सर्वेक्षणों द्वारा बिहार में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की धमाकेदार जीत की भविष्यवाणी की जा रही थी. इस चुनाव को जीतना नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार के लिये बेहद आसान माना जा रहा था, किसी सर्वेक्षण ने विपक्ष के दूर-दूर तक जीतने के मौके की बात नहीं कही थी. मगर एक महीने बाद, अधिकांश एक्जिट पोल (मतदान के बाद सर्वेक्षण) राजद-वाम-कांग्रेस के विपक्षी गठजोड़ को सुस्पष्ट बढ़त मिलती दिखा रहे थे. अंतिम परिणाम में एनडीए लगभग निश्चित पराजय के जबड़ों से बच निकला और उसे संयोगवश बेहद कम अंतर से जीत हासिल हो गई. आखिरकार एनडीए और महागठबंधन को मिलने वाले मतों का अंतर केवल 12,000 के आसपास है और एक दर्जन सीटों पर एनडीए बेहद कम अंतर से जीता है. इस पर चारों ओर संदेह फैला है और मतगणना की प्रक्रिया को लेकर, खासकर पोस्टल मतपत्रों की गिनती में अनियमितता की शिकायतें दर्ज कराई गई हैं और चुनाव आयोग को इन संदेहों को दूर करना होगा.

इस चुनाव को वस्तुतः जनता के आंदोलन में बदल देने का श्रेय मुख्यतः बिहार के युवाओं को जाता है, जिन्होंने जातिगत सीमाओं को लांघकर बड़े पैमाने पर एनडीए के खिलाफ वोट डाला. राजद-वाम-कांग्रेस के महागठबंधन के गठन, जिसमें भाकपा(माले) ने 19 सीटों पर चुनाव लड़ा, तथा सम्पूर्ण वामपंथ ने 29 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किये, और सुरक्षित एवं सम्मानजनक रोजगार तथा जन-स्वास्थ्य, शिक्षा, आजीविका, कृषि, मजदूरी एवं सामाजिक सुरक्षा जैसे फौरी और बुनियादी किस्म के अन्य मुद्दों को चुनाव का केन्द्रीय एजेंडा बनाने के चलते समूचे चुनाव का माहौल ही बदल गया. हालांकि महागठबंधन को बहुमत से थोड़ी कम सीटों पर जीत मिली, मगर एक शक्तिशाली विपक्ष के उदय को ही भाजपा के विपक्ष-मुक्त लोकतंत्र एवं एकल पार्टी के शासन की साजिश को मिले करारे जवाब के बतौर देखा जाना चाहिये. और इस नतीजे का असर इससे महसूस किया जा सकता है जब नये मंत्रिमंडल के शपथ ग्रहण के तुरंत बाद नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार को एक कलंकित विधायक को, जिसे वे राज्य के शिक्षा मंत्रा के बतौर बिहार की जनता पर थोपना चाहते थे, पद से हटाना पड़ा.

भाजपा के प्रचारक बिहार में चुनाव के नतीजों को मोदी के पक्ष में जनादेश के बतौर व्याख्यायित करने की कोशिश कर रहे हैं. ठीक उसी तरह जैसे उन्होंने 2017 में हुए उत्तर प्रदेश के चुनाव के नतीजों को विनाशकारी नोटबंदी को मिली जनता की स्वीकृति बताया था, अब वे हमें यकीन दिलाना चाहते हैं कि बिहार का जनादेश मोदी सरकार द्वारा कोरोना महामारी से निपटने के कदमों को मतदाताओं द्वारा मिली स्वीकृति है तथा यह कृषि पर कारपोरेट कम्पनियों द्वारा सम्पूर्ण नियंत्रण कायम करने के लिये बनाये गये नये कानूनों को, उद्योग, बुनियादी ढांचे, शिक्षा, जन-स्वास्थ्य रक्षा एवं अन्य सार्वजनिक सेवाओं के हमलावर तरीके से किये जा रहे निजीकरण को भी मतदाताओं की स्वीकृति है. इससे बड़ा कोई सफेद झूठ नहीं हो सकता. बिहार का जनादेश न सिर्फ मतदाताओं द्वारा नीतीश कुमार को भारी पैमाने पर खारिज करता है, बल्कि वह मोदी सरकार की विनाशकारी नीतियों के खिलाफ जनता के बढ़ते आक्रोश को भी प्रतिबिम्बित करता है. हमें याद रखना होगा कि मोदी युग में प्रवेश के चार वर्ष पहले ही, सन् 2010 में भाजपा बिहार में 91 सीटें जीत चुकी थी; और उनको मिलने वाली सीटों की संख्या 2015 में, जब भाजपा को नीतीश कुमार का समर्थन नहीं मिला था, घटकर 53 पर पहुंच गई थी; और इस बार जद-यू एवं दो अन्य संश्रयकारियों का पुनः समर्थन मिलने पर भी भाजपा को मिली सीटों का आंकड़ा 74 तक ही पहुंच सका है, जो 2010 में उसको मिली सीटों की सर्वोच्च संख्या से 17 सीटें कम है. मगर जनता के गुस्से का सबसे ज्यादा सामना जद-यू को करना पड़ा है और पहले से बहुत ज्यादा कमजोर हो चुके नीतीश कुमार को अब भाजपा की दया पर ही मुख्यमंत्री पद मिल सका है, जबकि भाजपा का मनोबल और उसकी आक्रामकता बढ़ती जा रही है.

बिहार के चुनावी नतीजों का एक अत्यंत उत्साहवर्धक राजनीतिक संकेत यह है कि भाकपा(माले) का चुनावी परिक्षेत्र में विस्तार हुआ और पुनरुत्थान हुआ है, जबकि बिहार विधानसभा में 16 सदस्यीय वामपंथी विपक्षी शक्ति का उदय हुआ है. भाजपा के सर्वोच्च नेताओं ने भाकपा(माले) को राष्ट्रद्रोही शक्ति कहकर निशाना बनाते हुए विषैला निंदा प्रचार अभियान चलाया था और भाकपा(माले) के युवा उम्मीदवारों पर "टुकड़े-टुकड़े गैंग" का ठप्पा लगाया था, मगर विद्वेषपूर्ण मिथ्या प्रचार की झड़ी के बावजूद चुनाव के प्रथम चरण में हमारे आठ उम्मीदवारों में से सात को भारी बहुमत से जीत मिली है. इन्कलाबी नौजवान सभा के सम्मानित अध्यक्ष कामरेड अमरजीत कुशवाहा, जो एक झूठे मुकदमे में 2015 से जेल में कैद हैं और जेल से ही उनको चुनाव लड़ना पड़ा, विशाल मतों के अंतर से विजयी हुए. क्रांतिकारी छात्र एवं युवा आंदोलन के नेताओं – आइसा नेता एवं जेएनयू छात्रसंघ के भूतपूर्व महासचिव कामरेड संदीप सौरभ को पटना जिले के पालीगंज से, इंनौस के अखिल भारतीय अध्यक्ष कामरेड मनोज मंजिल को भोजपुर जिले के अगियांव (अनुसूचित क्षेत्र) से और इंनौस के बिहार राज्य अध्यक्ष कामरेड अजित कुशवाहा को बक्सर जिले के डुमरांव से जो बड़े बहुमत से जीत मिली है, वह सैकड़ों स्थानीय कार्यकर्ताओं द्वारा चलाये गये अत्यंत जोशीले, प्रेरणादायक प्रचार अभियान के जरिये हासिल हुई है, और वह मोदी सरकार के फासीवादी हमले के खिलाफ एक सशक्त युवा आंदोलन की विशाल संभावनाओं का संकेत देती है. भाकपा(माले) को बिहार में पार्टी के विधायकों की पहले से कहीं ज्यादा विस्तारित टीम की मदद से इस संभावना को साकार करने का हर संभव प्रयास करना होगा.

बिहार ने चुनाव के अखाड़े में भाजपा का प्रतिरोध करने और उसके वैचारिक एवं राजनीतिक हमले का मुंहतोड़ जवाब देने के कार्यभार की अत्यधिक आवश्यकता एवं महत्व को रेखांकित किया है. बिहार ने भारत और भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिये चलाई जा रही इस लड़ाई की धुरी के बतौर क्रांतिकारी वामपंथ की केन्द्रीय भूमिका को भी चिन्हित किया है. और कम्युनिस्टों का कार्यभार लोकतंत्र के लिये चल रही लड़ाई को केवल वैचारिक साहस, स्पष्टता और अविचलता प्रदान करना ही नहीं है, बल्कि उतना ही महत्वपूर्ण है इस लड़ाई में जमीनी स्तर पर भाजपा के क्षयकारी प्रभाव और विनाशकारी राजनीति को शिकस्त देने के लिये संगठनात्मक शक्ति और जमीनी कार्यकलाप मुहैया करना और उनको विकसित करना. आरएसएस ने नफरत, झूठ और अफवाह की अपनी वैचारिक खुराक से जनता को गुमराह करने के लिये कम्युनिस्टों की कामकाज और संगठन की शैली की नकल की है. कम्युनिस्टों को जमीन पर भाजपा एवं संघ ब्रिगेड के खिलाफ कारगर प्रतिरोध खड़ा करने के लिये अवश्य ही जमीनी स्तर पर अपने कामकाज को सुदृढ़ करना होगा और जन-राजनीतिक संचार के नेटवर्क को शक्तिशाली करना होगा. चुनावी लड़ाइयों का अगला दौर, खासकर पश्चिम बंगाल और असम में होने वाले चुनाव अत्यंत महत्वपूर्ण हैं और भाजपा को रोकने, वामपंथ को शक्तिशाली करने और लोकतंत्र की रक्षा करने के लिये हमें बिहार से प्राप्त इन शिक्षाओं का इस्तेमाल करना होगा.