वर्ष - 29
अंक - 34
21-08-2020

आलोचना और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अदालत की अवमानना थोप कर खामोश नहीं किया जा सकता

दो ट्वीटों के लिए अधिवक्ता प्रशांत भूषण को अवमानना का दोषी करार देने के उच्चतम न्यायालय के फैसले से हम अत्यधिक क्षुब्ध हैं. स्वतंत्र अभिव्यक्ति और उचित आलोचना का गला घोंटने वाला यह फैसला अदालत की कार्यप्रणाली और न्याय के शासन के संदर्भ में वास्तविक चिंताओं को गहराने वाला है.

हाल के समयों में उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों, वकीलों, एक्टिविस्टों, बुद्धिजीवियों समेत विभिन्न हिस्सों के लोग ऐसी आलोचना करते रहे हैं, और हमारी राय में ऐसी आलोचना का मूल्य समझते हुए उन्हें गंभीरता से लिया जाना चाहिए.

हम समझते हैं कि न्यायपालिका का लोगों का सम्मान पाने का यदि कोई निश्चित रास्ता है तो वह अपनी अवमानना की शक्तियों का प्रयोग करना नहीं है बल्कि स्वतंत्र, निर्भीक और वस्तुपरक हो कर जनता के मानवाधिकार और नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा करना है. यह फैसला ऐसे समय में आया है, जबकि देश में असहिष्णुता और विरोधी मत को अपराध सिद्ध करने की प्रवृत्ति निरंतर बढ़ रही है. संविधान पर हमला है, लोकतांत्रिक संस्थाएं बहुसंख्यावाद के सामने घुटने टेक रही हैं और मोदी सरकार द्वारा कानून के राज को निरंतर अनदेखा किया जा रहा है. लोकतंत्र के लिए आवश्यक मत भिन्नता को यूएपीए और राजद्रोह जैसे निर्मम कानूनों के जरिये कुचला जा रहा है और बहुसंख्यावाद विरोधी मत पर राष्ट्र-विरोधी होने का ठप्पा लगाया जा रहा है.

बहुत सारे महत्वपूर्ण संस्थान भारत के संविधान के बजाय शासक सत्ता के प्रति वफादारी प्रदर्शित करने की चिंताजनक प्रवृत्ति दर्शा रहे हैं. अपने स्वतंत्र मत का उपयोग करते हुए, संवैधानिक दायित्व का निर्वहन करने और भय और पक्षपात से ग्रसित हुए बिना निर्णय लेने के बजाय वे कार्यपालिका के हाथों की कठपुतली जैसे कार्य कर रहे हैं. इस तरह की प्रवृत्ति लोकतंत्र के लिए घातक है. चाहे वह विधायिका हो, कार्यपालिका हो, न्यायपालिका हो या राज्य के अन्य अंग हों, संस्थाओं की आलोचनाओं का गला घोंटने की कोई भी कोशिश लोकतंत्र के बजाय पुलिस राज्य का रास्ता खोलती है.

हम प्रशांत भूषण के प्रति एकजुटता जाहिर करते हैं.

– दीपंकर भट्टाचार्य  
महासचिव, भाकपा(माले)  

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